प्र धानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने
अपने पांच साला कार्यकाल का पहला पड़ाव पार कर लिया है। चूंकि भाजपा के पास
अपने तईं स्पष्ट बहुमत है इसलिए यह सहज उम्मीद है कि अगले चार साल भी बिना
किसी विघ्न-बाधा के बीत जाएंगे। यूं कहने को तो सरकार एनडीए की है, लेकिन
इसमें घटक दलों की भूमिका बच्चों को बहलाने के अंदाज में दूध-भात की ही है।
सरकार के कामकाज को लेकर बीच-बीच में शिवसेना और अकालीदल सीमित मुद्दों पर
अपना असंतोष व्यक्त करते हैं और फिर वापिस पटरी पर लौट आते हैं। लोजपा के
रामविलास पासवान ने तो कुछ इस तरह से आत्मसमर्पण कर रखा है मानो उनकी
पार्टी का विलय भाजपा में हो चुका है। आज इसलिए मोदी सरकार के एक वर्ष की
समीक्षा करना है तो वह मुख्यत: भारतीय जनता पार्टी शासन की समीक्षा होगी।
एनडीए बस नाममात्र के लिए है।
यह पहला मौका है जब प्रधानमंत्री लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं। एक दिन नहीं जाता जब स्वयं प्रधानमंत्री की ओर से उनका प्रचार न होता हो। इसका स्वाभाविक परिणाम है कि विभिन्न मंचों पर नरेन्द्र मोदी के पक्ष व विपक्ष दोनों में टीका-टिप्पणियां चलती रहती हैं। कुल मिलाकर हुआ यह है कि प्रधानमंत्री सरकार से ऊपर उठ गए हैं। जो कुछ बात होती है वह उनको केन्द्र में रखकर होती है। जब प्रधानमंत्री स्वयं पूरे समय मंच पर छाए रहते हैं तो उसका नतीजा यह भी होता है कि चर्चाओं का स्वर, अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिमुखी हो जाता है। एक चुनी हुई सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों और लागू किए गए कार्यक्रमों के बारे में जनता के प्रति जो जवाबदेही होना चाहिए वह इस वातावरण में एक सिरे से गायब हो चुकी है। विचारणीय है कि यह स्थिति जनतंत्र के लिए कितनी शुभ है।
जो लोग नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थक हैं वे तो यह मानकर चलते हैं कि वे किसी अवतारी पुरुष की तरह चमत्कार कर भारत को दुनिया का सिरमौर बना देंगे। उनकी श्रद्धा पर हम टिप्पणी नहीं करेंगे। किन्तु जो एक बड़ा वर्ग संघ के सिद्धांतों में आस्था रखता है और जिसने बड़ी उम्मीदों के साथ इसी बिना पर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तन-मन (धन देने वाले दूसरे थे) से काम किया था अब उसमें निराशा गहराने लगी है। वे मोदी सरकार से जिस सुशासन की अपेक्षा रखते थे वह पूरी होते दिखाई नहीं देती। इस निराशा को रोकने के लिए ही शायद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने अनुयायियों को सलाह दी है कि शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करें। उन्होंने नरेन्द्र मोदी की तुलना अभिमन्यु से करते हुए विश्वास प्रकट किया है कि वे एक न एक दिन चक्रव्यूह भेदने में अवश्य सफल होंगे। जाहिर है कि श्री भागवत मोदीजी को द्वापर नहीं बल्कि कलयुग के अभिमन्यु के रूप में देख रहे हैं।
हमें इस बात से ऐतराज नहीं कि सरसंघचालक अपने परम प्रिय एवं विश्वस्त स्वयंसेवक की तुलना एक पौराणिक चरित्र से करें, लेकिन क्या श्री भागवत सचमुच यह मानते हैं कि इक्कीसवीं सदी की दुनिया में कोई एक व्यक्ति जटिल राजनीतिक समीकरणों का समाधान सिर्फ अपने बलबूते कर सकता है? दूसरे, अभिमन्यु की भूमिका तो चलते युद्ध के बीच थी; यहां तो नरेन्द्र मोदी चुनावी समर में विजयी हो चुके हैं, फिर उन्हें अभिमन्यु बनकर अब किससे लडऩा है? श्री मोदी के सामने चुनौती देश को एक सक्षम, पारदर्शी और उत्तरदायी प्रशासन देने की है। इसके लिए उन्हें केसरिया बाना धारण करने की आवश्यकता नहीं बल्कि मनोयोग से जटिल समीकरणों को समझने की है।
मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक साल के कार्यकाल के बारे में विचार करता हूं तो अनायास ही पुरानी फिल्मों के गीत-संगीत का ध्यान हो आता है। वह दौर था जब फिल्मी गीतों को सुनते हुए श्रोता उनमें पूरी तरह डूब जाया करते थे। गीतकार जो लिखते थे उसकी एक-एक पंक्ति और एक-एक शब्द में अर्थ भरा होता था और गायक जब उन्हें स्वर देते थे तो गीत के भाव श्रोता के सामने ज्यादा मुखर और ज्यादा स्पष्ट होने लगते थे। पाश्र्व संगीत एहसास को तरल बनाते चलता था। इसकी तुलना उन शोर-शराबे वाली पार्टियों से कीजिए जिनमें एक तरफ पैमाने छलकते रहते हैं और दूसरी तरफ कोई गज़ल गायक अपनी गायकी से हाकारीन को चमत्कृत करने की भरसक कोशिश करते रहता है। गायक के हावभाव और अंदाज पर तालियां पिटतीं है, वाह वाह के स्वर उठते हैं, लेकिन शायद ही कोई श्रोता गज़ल के भाव समझ पाता है। वह तो सिर्फ अदाओं पर मुग्ध हुए जाता है। क्या ऐसी ही कुछ स्थिति आज नहीं है?
विगत एक वर्ष में केन्द्र सरकार के क्रियाकलापों पर नकार दौड़ाएं तो यह समझ नहीं पड़ता कि तालियां क्यों बज रही हैं। ऊपर हमने मोहन भागवत को उद्धृत किया है। यह भी याद कर लें कि उद्योगपतियों के सिरमौर रतन टाटा ने भी वाणिज्य जगत को धीरज धरने की सलाह कुछ दिन पहले दी है। कुछ पूंजीपति हैं जो सरकार की वाहवाही में लगे हैं, लेकिन उन्हीं के बीच में दीपक पारेख जैसे श्रेष्ठि भी हैं जो इस बात से चिंतित हैं कि पिछले सालों के मुकाबले बीते वर्ष अधोसंरचना में निवेश में गिरावट आई है। नरेन्द्र मोदी पर सबसे अधिक भरोसा तो कार्पोरेट जगत को ही था किन्तु कराधान ढांचे में मैट, पिछली तारीख से टैक्स आदि की बातें कर वित्तमंत्री ने उद्योग जगत को ऊहापोह में डाल दिया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करने के जो प्रयत्न हुए उसका भी कोई अच्छा परिणाम सामने नहीं आया।
प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं से प्राप्त सफलता का काफी यशगान किया जा रहा है। श्री मोदी यदि इस मोर्चे पर अपनी ओर से आगे बढक़र रुचि ले रहे हैं तो यह प्रसन्नता की बात है। वे विदेशों में भी अपने व्यक्तिगत छवि निर्माण के लिए साधन और अवसर जुटा लेते हैं, हमें इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन यह तो पूछना ही होगा कि प्रधानमंत्री की शिखर वार्ताओं से क्या ठोस परिणाम सामने आए। अभी जैसे दक्षिण कोरिया से दस बिलियन डालर निवेश की घोषणा हुई, लेकिन वहीं के अखबार कह रहे हैं कि इसमें नया कुछ नहीं है। इसी तरह चीन से बीस अरब डॉलर निवेश के समझौते हुए हैं, परन्तु इसकी तुलना में चीन ने पाकिस्तान में पैंसठ बिलियन डॉलर निवेश के पक्के समझौते किए हैं। दूसरे शब्दों में, भारत को सावधानी बरतना चाहिए कि जो वस्तुस्थिति है उसी का प्रचार हो अन्यथा जग-हंसाई हो सकती है।
यह तो सभी देख रहे हैं कि मोदीजी एक व्यक्तिकेन्द्रित सरकार चला रहे हैं। प्रधानमंत्री के रूप में उनकी सर्वोच्चता स्पष्ट है, लेकिन अपने मंत्रिमंडल में उन्हें दो मोर्चों पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है। एक तो उनके पास अनुभवी मंत्रियों की कमी है, इसलिए जो अनुभवी हैं खासकर उन्हें अपने कार्य संपादन में स्वतंत्रता मिलना चाहिए। अभी शायद यह स्वतंत्रता अरुण जेटली के अलावा अन्य किसी को हासिल नहीं है। ऐसे में अन्य मंत्री बुझे मन से कितना काम कर पाएंगे। दूसरे, प्रधानमंत्री को अपने अनुभवहीन किन्तु वाचाल मंत्रियों पर लगाम कसने की आवश्यकता है। मसलन मनोहर पार्रिकर भले ही एक सफल मुख्यमंत्री रहे हों रक्षामंत्री के रूप में उनकी असावधान टिप्पणियों से सरकार की छवि को नुकसान पहुंचता है। इस तरह जैसे असंयत बयान गिरिराज सिंह देते रहे हैं, वैसी अपेक्षा मुख्तार अब्बास नकवी से नहीं की जाती थी।
इन दो बातों के अलावा प्रधानमंत्री को यह भी समझना होगा कि शिक्षा और संस्कृति इन दोनों विषयों पर उनकी सरकार जो निर्णय ले रही हैं उनसे सरकार की छवि को व्यापक नुकसान पहुंचता है। ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय संग्रहालय, एनबीटी,आई आई टी आदि प्रतिष्ठित संस्थानों में जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है।
कहने को बहुत कुछ है, बहुत सी टिप्पणियां अध्येताओं ने की भी हैं, किन्तु प्रधानमंत्री यदि अपने पहले वर्ष की समीक्षा तटस्थ भाव से करें तो स्वयं ही जान जाएंगे कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए।
यह पहला मौका है जब प्रधानमंत्री लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं। एक दिन नहीं जाता जब स्वयं प्रधानमंत्री की ओर से उनका प्रचार न होता हो। इसका स्वाभाविक परिणाम है कि विभिन्न मंचों पर नरेन्द्र मोदी के पक्ष व विपक्ष दोनों में टीका-टिप्पणियां चलती रहती हैं। कुल मिलाकर हुआ यह है कि प्रधानमंत्री सरकार से ऊपर उठ गए हैं। जो कुछ बात होती है वह उनको केन्द्र में रखकर होती है। जब प्रधानमंत्री स्वयं पूरे समय मंच पर छाए रहते हैं तो उसका नतीजा यह भी होता है कि चर्चाओं का स्वर, अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिमुखी हो जाता है। एक चुनी हुई सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों और लागू किए गए कार्यक्रमों के बारे में जनता के प्रति जो जवाबदेही होना चाहिए वह इस वातावरण में एक सिरे से गायब हो चुकी है। विचारणीय है कि यह स्थिति जनतंत्र के लिए कितनी शुभ है।
जो लोग नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थक हैं वे तो यह मानकर चलते हैं कि वे किसी अवतारी पुरुष की तरह चमत्कार कर भारत को दुनिया का सिरमौर बना देंगे। उनकी श्रद्धा पर हम टिप्पणी नहीं करेंगे। किन्तु जो एक बड़ा वर्ग संघ के सिद्धांतों में आस्था रखता है और जिसने बड़ी उम्मीदों के साथ इसी बिना पर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तन-मन (धन देने वाले दूसरे थे) से काम किया था अब उसमें निराशा गहराने लगी है। वे मोदी सरकार से जिस सुशासन की अपेक्षा रखते थे वह पूरी होते दिखाई नहीं देती। इस निराशा को रोकने के लिए ही शायद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने अनुयायियों को सलाह दी है कि शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करें। उन्होंने नरेन्द्र मोदी की तुलना अभिमन्यु से करते हुए विश्वास प्रकट किया है कि वे एक न एक दिन चक्रव्यूह भेदने में अवश्य सफल होंगे। जाहिर है कि श्री भागवत मोदीजी को द्वापर नहीं बल्कि कलयुग के अभिमन्यु के रूप में देख रहे हैं।
हमें इस बात से ऐतराज नहीं कि सरसंघचालक अपने परम प्रिय एवं विश्वस्त स्वयंसेवक की तुलना एक पौराणिक चरित्र से करें, लेकिन क्या श्री भागवत सचमुच यह मानते हैं कि इक्कीसवीं सदी की दुनिया में कोई एक व्यक्ति जटिल राजनीतिक समीकरणों का समाधान सिर्फ अपने बलबूते कर सकता है? दूसरे, अभिमन्यु की भूमिका तो चलते युद्ध के बीच थी; यहां तो नरेन्द्र मोदी चुनावी समर में विजयी हो चुके हैं, फिर उन्हें अभिमन्यु बनकर अब किससे लडऩा है? श्री मोदी के सामने चुनौती देश को एक सक्षम, पारदर्शी और उत्तरदायी प्रशासन देने की है। इसके लिए उन्हें केसरिया बाना धारण करने की आवश्यकता नहीं बल्कि मनोयोग से जटिल समीकरणों को समझने की है।
मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक साल के कार्यकाल के बारे में विचार करता हूं तो अनायास ही पुरानी फिल्मों के गीत-संगीत का ध्यान हो आता है। वह दौर था जब फिल्मी गीतों को सुनते हुए श्रोता उनमें पूरी तरह डूब जाया करते थे। गीतकार जो लिखते थे उसकी एक-एक पंक्ति और एक-एक शब्द में अर्थ भरा होता था और गायक जब उन्हें स्वर देते थे तो गीत के भाव श्रोता के सामने ज्यादा मुखर और ज्यादा स्पष्ट होने लगते थे। पाश्र्व संगीत एहसास को तरल बनाते चलता था। इसकी तुलना उन शोर-शराबे वाली पार्टियों से कीजिए जिनमें एक तरफ पैमाने छलकते रहते हैं और दूसरी तरफ कोई गज़ल गायक अपनी गायकी से हाकारीन को चमत्कृत करने की भरसक कोशिश करते रहता है। गायक के हावभाव और अंदाज पर तालियां पिटतीं है, वाह वाह के स्वर उठते हैं, लेकिन शायद ही कोई श्रोता गज़ल के भाव समझ पाता है। वह तो सिर्फ अदाओं पर मुग्ध हुए जाता है। क्या ऐसी ही कुछ स्थिति आज नहीं है?
विगत एक वर्ष में केन्द्र सरकार के क्रियाकलापों पर नकार दौड़ाएं तो यह समझ नहीं पड़ता कि तालियां क्यों बज रही हैं। ऊपर हमने मोहन भागवत को उद्धृत किया है। यह भी याद कर लें कि उद्योगपतियों के सिरमौर रतन टाटा ने भी वाणिज्य जगत को धीरज धरने की सलाह कुछ दिन पहले दी है। कुछ पूंजीपति हैं जो सरकार की वाहवाही में लगे हैं, लेकिन उन्हीं के बीच में दीपक पारेख जैसे श्रेष्ठि भी हैं जो इस बात से चिंतित हैं कि पिछले सालों के मुकाबले बीते वर्ष अधोसंरचना में निवेश में गिरावट आई है। नरेन्द्र मोदी पर सबसे अधिक भरोसा तो कार्पोरेट जगत को ही था किन्तु कराधान ढांचे में मैट, पिछली तारीख से टैक्स आदि की बातें कर वित्तमंत्री ने उद्योग जगत को ऊहापोह में डाल दिया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करने के जो प्रयत्न हुए उसका भी कोई अच्छा परिणाम सामने नहीं आया।
प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं से प्राप्त सफलता का काफी यशगान किया जा रहा है। श्री मोदी यदि इस मोर्चे पर अपनी ओर से आगे बढक़र रुचि ले रहे हैं तो यह प्रसन्नता की बात है। वे विदेशों में भी अपने व्यक्तिगत छवि निर्माण के लिए साधन और अवसर जुटा लेते हैं, हमें इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन यह तो पूछना ही होगा कि प्रधानमंत्री की शिखर वार्ताओं से क्या ठोस परिणाम सामने आए। अभी जैसे दक्षिण कोरिया से दस बिलियन डालर निवेश की घोषणा हुई, लेकिन वहीं के अखबार कह रहे हैं कि इसमें नया कुछ नहीं है। इसी तरह चीन से बीस अरब डॉलर निवेश के समझौते हुए हैं, परन्तु इसकी तुलना में चीन ने पाकिस्तान में पैंसठ बिलियन डॉलर निवेश के पक्के समझौते किए हैं। दूसरे शब्दों में, भारत को सावधानी बरतना चाहिए कि जो वस्तुस्थिति है उसी का प्रचार हो अन्यथा जग-हंसाई हो सकती है।
यह तो सभी देख रहे हैं कि मोदीजी एक व्यक्तिकेन्द्रित सरकार चला रहे हैं। प्रधानमंत्री के रूप में उनकी सर्वोच्चता स्पष्ट है, लेकिन अपने मंत्रिमंडल में उन्हें दो मोर्चों पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है। एक तो उनके पास अनुभवी मंत्रियों की कमी है, इसलिए जो अनुभवी हैं खासकर उन्हें अपने कार्य संपादन में स्वतंत्रता मिलना चाहिए। अभी शायद यह स्वतंत्रता अरुण जेटली के अलावा अन्य किसी को हासिल नहीं है। ऐसे में अन्य मंत्री बुझे मन से कितना काम कर पाएंगे। दूसरे, प्रधानमंत्री को अपने अनुभवहीन किन्तु वाचाल मंत्रियों पर लगाम कसने की आवश्यकता है। मसलन मनोहर पार्रिकर भले ही एक सफल मुख्यमंत्री रहे हों रक्षामंत्री के रूप में उनकी असावधान टिप्पणियों से सरकार की छवि को नुकसान पहुंचता है। इस तरह जैसे असंयत बयान गिरिराज सिंह देते रहे हैं, वैसी अपेक्षा मुख्तार अब्बास नकवी से नहीं की जाती थी।
इन दो बातों के अलावा प्रधानमंत्री को यह भी समझना होगा कि शिक्षा और संस्कृति इन दोनों विषयों पर उनकी सरकार जो निर्णय ले रही हैं उनसे सरकार की छवि को व्यापक नुकसान पहुंचता है। ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय संग्रहालय, एनबीटी,आई आई टी आदि प्रतिष्ठित संस्थानों में जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है।
कहने को बहुत कुछ है, बहुत सी टिप्पणियां अध्येताओं ने की भी हैं, किन्तु प्रधानमंत्री यदि अपने पहले वर्ष की समीक्षा तटस्थ भाव से करें तो स्वयं ही जान जाएंगे कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए।
देशबन्धु में 28 मई 2015 को प्रकाशित
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