Wednesday 6 May 2015

राजनीति बनाम व्यापार


 भारत के व्यापारी वर्ग में एक मान्यता लंबे समय से चली आ रही है- कोऊ हो नृप हमें का हानि। तुलसीकृत मानस में मंथरा के इस कथन का आगे चलकर यही अर्थ लगाया गया कि व्यापारी राजनीति के प्रपंचों में पड़े बिना अपना धंधा करता रहे। सच पूछें तो यह उक्ति पूरे विश्व के व्यापारी समाज पर लागू होती है। राजतंत्र हो या जनतंत्र, अधिनायकवाद हो या सैन्य शासन, व्यापारी अपनी भलाई इसी में देखता है कि जो सत्ता में बैठे हैं उन्हें समय-समय पर भेंट-पूजा चढ़ाकर वह अपना काम निकाल ले। यदि वह राजकाज में सक्रिय दिलचस्पी लेने लगे तो कभी भी राजा के कोप का शिकार बन उसे अपना सर्वस्व गंवाना पड़ सकता है। प्रभा खेतान ने अपने उपन्यास "पीली आंधी" में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है कि राजस्थान से वणिकों को समय-समय पर पलायन करने क्यों मजबूर होना पड़ा। वर्तमान समय में सोवियत संघ के विघटन के बाद शेष रूस का उदाहरण हमारे सामने है जहां पूंजीपतियों ने कम्युनिस्ट-विरोधी सत्ता के साथ मिलकर अरबों-खरबों की दौलत इकट्ठा कर ली, किन्तु बाद में उनमें से कई को देश छोड़कर भागना पड़ा, तो कई देश में ही सलाखों के पीछे कैद हैं।

इसके समानांतर एक दूसरी सोच भी काफी लंबे समय से चली आ रही है जो कहती है कि राजा को व्यापार नहीं करना चाहिए। इसके अनुसार राजा या कि सत्ता को, व्यवसायी वर्ग को अपना व्यापार निर्बाध रूप से कर पाने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहिए। जो लोग इस धारणा में विश्वास रखते हैं उनका मानना है कि व्यापार-व्यवसाय पर किसी भी तरह की बंदिश न हो। बाजार अपने नियम खुद ही तय कर लेगा; जिसकी सामथ्र्य होगी उसकी दुकान चलेगी, जो अक्षम होगा वह अपने आप बाहर हो जाएगा। इस सोच के लोग सरकार द्वारा लागू किए गए नियम कायदों की समय-समय पर आलोचना करते हैं। यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि आयकर, बिक्री कर, प्रवेश कर, लायसेंस, परमिट इत्यादि से व्यापार का ही नहीं, देश का कितना बड़ा नुकसान होता है। छत्तीसगढ़ की जनता को याद होगा कि जब राज्य नया-नया बना था तब यहां बिक्री कर और वाणिज्य कर खत्म करने की मांग इस आधार पर की गई थी कि देवभोग में हीरा उत्खनन से इतना पैसा आएगा कि प्रदेश के विकास के लिए किसी अन्य साधन से पैसा जुटाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आज पन्द्रह साल बाद छत्तीसगढ़ चेंबर ऑफ कॉमर्स जैसी संस्थाओं से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि देवभोग के हीरों का और उससे मिलने वाले राजस्व का क्या हुआ? खासकर तब जबकि प्रदेश में व्यापारियों का हितचिंतक माने जाने वाली पार्टी की सरकार चल रही है।

भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तब प्रकारांतर से उन्होंने भी व्यापार-व्यवसाय को निर्बाध रूप से चलने की वकालत की। उन्होंने ''अधिक सुशासन और कम शासन" जैसा कोई नारा दिया था। उनका मंतव्य यही था कि सरकार किसी भी क्षेत्र में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप न करे। वे अपनी पार्टी की प्रारंभ से चली आ रही सोच को ही प्रतिध्वनित कर रहे थे। जनता को याद होगा कि वाजपेयी सरकार के समय एक विनिवेश मंत्रालय भी बनाया गया था जिसने सार्वजनिक क्षेत्र की खरबों की संपदा निजी क्षेत्र को मानो कौडिय़ों के मोल बेच दी थी। यह एक राजनीतिक प्रहसन ही है कि वाजपेयी सरकार के अर्थविशेषज्ञ अरुण शौरी आज नरेन्द्र मोदी के कटु आलोचक बन गए हैं। कृपया यह न समझें कि मैं विषयांतर कर रहा हूं बल्कि मेरी कोशिश कुछ विलुप्त कडिय़ों को जोडऩे की है।

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर एक निगाह डालने से समझ आ जाता है कि बाबा तुलसीदास ने पांच सौ साल पहले जो बात कही थी उस पर अमल करने में ही व्यापारी समाज की भलाई निहित है। व्यापारी अपने आपको सक्रिय राजनीति से जितना दूर रखे उसके लिए उतना ही अच्छा है। एक व्यापारी के अपने राजनीतिक उसूल हो सकते हैं, लेकिन वह सामान्य तौर पर सभी राजनीतिक दलों को चंदा देता है, मना शायद किसी को भी नहीं करता। संभव है कि जिस पार्टी के विचार उसे अधिक अनुकूल लगते हैं वह उसके प्रति दूसरी पार्टी के मुकाबले ज्यादा उदारता दिखाता हो। हमने ऐसे उदाहरण भी देखे हंै कि एक व्यापारी किसी राजनीतिक दल का सक्रिय कार्यकर्ता है, किन्तु वह अन्य दलों से भी मधुर संबंध बनाकर चलता है। याने उसे पता है कि सबको मिलाकर चलने में ही फायदा है।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि राजनीति और व्यापार दोनों किसी हद तक एक-दूसरे पर आश्रित हैं, इसके बावजूद दोनों के बीच एक अदृश्य रेखा है जिसका उल्लंघन करना अभी हाल तक ठीक नहीं माना जाता था। कोई भी देशकाल हो, व्यापार उसमें एक अनिवार्य गतिविधि की तरह होगा तथा सत्ताधीशों को पूंजीपतियों से समय-असमय सहयोग लेने की भी आवश्यकता होगी। दूसरी तरफ उद्यमी वर्ग अपने कामकाज के लिए बेहतर परिस्थितियां मांगने के लिए सरकार पर जब-तब दबाव और प्रलोभन का भी सहारा लेगा, लेकिन पारंपरिक सोच कहती है कि बात इसके आगे नहीं बढऩा चाहिए। यही कारण है कि सामान्य तौर पर व्यापारी अपने आपको राजनीति से दूर रखते आया है। चुनावी राजनीति उसे अक्सर रास नहीं आती तथा राजनीति में किसी बड़े पद पर पहुंचने की वह इच्छा भी नहीं रखता। यही कारण है कि हमारे अधिकतर चुने हुए नेता या तो किसान हैं या वकील या अध्यापक या फिर शुद्ध राजनेता।

यह स्थिति अब बदलने लगी है। उद्योगपतियों और व्यापारियों के बीच एक नयी सोच विकसित होने लगी है कि वे जब दूसरों को चंदा देकर चुनाव लड़वाते हैं तो खुद क्यों चुनाव नहीं लड़ सकते। यह सोच उन बाहुबलियों की सोच से अलग नहीं है जो चुनाव के वक्त नेताओं की मदद करने के बदले खुद विधायक, सांसद, मंत्री बनने का सपना देखने लगते हैं। इस नयी बयार में हमने देखा कि कितने सारे उद्योगपति और व्यापारी राज्य सभा के रास्ते से राजनीति में आ गए। इनमें विजय माल्या जैसे लोग भी शामिल हैं जिन्हें राज्य सभा के सभापति के निधन के दिन भी अपनी भव्य दावत निरस्त करने का ध्यान नहीं आया। उन्हें देश आज दिवालिया उद्यमी के रूप में जान रहा है।  हमारे सामने उन चुने गए राजनेताओं के उदाहरण भी हैं जो संदिग्ध व्यापारों में संलिप्त होने के कारण जेल की हवा खा रहे हैं।

इस नयी सोच ने राजनेताओं के मन में भी व्यापारी बनने की लालसा जागृत कर दी है जिसका सबसे ताजा एवं ज्वलंत उदाहरण पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के रूप में जनता के सामने है। बादल परिवार के दर्जन भर सदस्य राजनीति में लाभ के पदों पर हैं, लेकिन इतने से उनका मन नहीं भरा। सुखबीर सिंह बादल को बस ऑपरेटर बन जाने की ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी थी? वह भी ऐसी जिसका संचालन प्राप्त जानकारी के अनुसार हर तरह के नियम कायदे तोड़कर हो रहा है। ऐसे और भी दृष्टांत काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एवं गुवाहाटी से लेकर गोवा तक जनता के समक्ष हैं। देश को याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि लाल बहादुर शास्त्री ने 1954 में रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद त्याग दिया था। इस तरह की आशा श्री बादल जैसे व्यक्तियों से रखना व्यर्थ ही होगी। विजय माल्या और सुखबीर सिंह बादल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक व्यक्ति ने व्यवसाय से राजनीति में पदार्पण किया और दूसरे ने राजनीति का उपयोग व्यापार करने के लिए किया। दोनों की सोच में हमें कोई अंतर नहीं दिखाई देता। यह एक नया युग है जिसमें लालच ही सबसे बड़ी प्रेरणा है और धनसंग्रह ही अंतिम लक्ष्य।


देशबन्धु में 07 मई 2015 को प्रकाशित

1 comment:

  1. सटीक-बेबाक टिप्पणी
    पद्मनाभ गौतम

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