Monday 4 May 2015

कुछ साहित्यिक यात्रा संस्मरण

 
 
उज्जैन, अवंतिका या उज्जयिनी। महाकाल, कालिदास, भर्तृहरि और चार कुंभों में से एक सिंहस्थ कुंभ की नगरी। जनमान्यता है कि यह विक्रमादित्य की राजधानी भी थी। इसलिए वेताल की नगरी भी! जाहिर है कि देश के प्राचीनतम नगरों में से एक उज्जैन में आकर्षण बहुत है। महाकालेश्वर की गणना बारह ज्योतिर्लिंगों में की जाती है। श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए आते ही हैं, लेकिन बहुत पहले मैंने किसी कहानी में पढ़ा था (बिलासपुर की स्वर्गीय शशि तिवारी रचित)  कि महाकाल जब बुलाएं तभी उनके दर्शनों का योग बनता है। अगर ऐसा है तो मेरे जीवन में ऐसा एकमात्र योग सन् 1957 में आया था जब मैंने स्कूल के विद्यार्थी के रूप में महाकालेश्वर तथा उज्जैन के अन्य आकर्षण केन्द्रों के दर्शन किए थे। उसके बाद दो-तीन बार अन्य कारणों से उज्जैन जाना तो हुआ, लेकिन बुलावा नहीं था इसलिए दर्शन लाभ नहीं हुआ। इस पृष्ठभूमि में ही कुछ सप्ताह पहले उज्जैन की एक और यात्रा हो गई।

इंदौर में स्वर्गीय सोहनलाल सांघी स्मृति संगीत समारोह विगत पैंतालीस वर्ष से हो रहा है। भारतीय सांस्कृतिक निधि अर्थात् इंटैक के इंदौर अध्याय ने इस आयोजन का जिम्मा ले लिया है। इस नाते इस साल 25-26 मार्च को संपन्न समारोह में इंटैक का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मुझे मिला। आयोजकों ने फोन पर चर्चा करते हुए प्रलोभन दिया कि आप चाहेंगे तो उज्जैन प्रवास की व्यवस्था भी हो जाएगी। मैंने ज्यों ही यह बात सुनी कार्यक्रम में आने के लिए तुरंत हामी भर दी। संस्था के मित्रों ने शायद यह सोचा होगा कि मैं महाकालेश्वर के दर्शन करने जाऊंगा। उनका बुलावा तो था नहीं, किंतु उज्जैन में अपने एक बहुत प्रिय बंधु से मिलने का आकर्षण था और मैं इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था।

हिन्दी कविता को वर्तमान में मध्यप्रदेश के जिन लोगों ने समृद्ध किया है उनमें एक प्रमुख नाम चंद्रकांत देवताले का है और साहित्य रसिक जानते हैं कि वे उज्जैन में वास करते हैं। रायपुर से इंदौर के लिए रवाना होने से पहले ही मैंने देवतालेजी को धमकी दे दी थी कि मैं आपसे मिलने आ रहा हूं और वे भी व्यग्रता से इस धमकी के पूरा होने की राह देख रहे थे। आयु के 79वें वर्ष में स्वाभाविक कारणों से अब उनकी यात्राएं लगभग बंद हो गई हैं, लेकिन मन तो करता ही है कि मित्रों से मुलाकातें होती रहें। देवतालेजी के घर में मेरा सबसे पहले स्वागत तीन-चार श्वानों ने किया। मालूम पड़ा कि राजनीतिशास्त्र की प्रोफेसर उनकी बेटी कनुप्रिया सड़क पर दुर्दशा को प्राप्त श्वान शावकों को उठा लाती हैं  और फिर वे इस छोटे से परिवार के स्थायी सदस्य बन जाते हैं।

मुझे ध्यान आया कि देवतालेजी पिछले दो-तीन सालों से बकु पंडित पर अक्षर पर्व के लिए संस्मरण भेजने का वायदा कर रहे हैं। ये बकु पंडित भी उनके एक प्रिय श्वान थे, जो दिवंगत हो चुके हैं। खैर! इस स्वागत के बाद कवि का हुक्म हुआ कि हम लोग कुछ देर आंगन के छतनार पेड़ की छाया में बैठें। आदेश का पालन करना ही था। हम लोग भरी दोपहरी उस पेड़ की छाया में बैठकर उनके छोटे से बगीचे की शोभा का आनंद लेते रहे। यह देखकर मजा आया कि उस पेड़ पर पान की दो-तीन बेलें चढ़ी हुई हैं। एक बेल बंगला पान की थी, जो स्वाद में काफी तीखा होता है और एक हल्के पीले रंग वाले नाजुक से कपूरी पान की। एक अच्छी दोपहरी चंद्रकांतजी और बेटी के साथ बीती। बरसों बाद हमने दुनिया जहान की बातें कीं, साथ में खाना खाया, उनकी कुछ नई, कुछ अधूरी कविताएं सुनीं। उनकी नई पुस्तक भी भेंटस्वरूप प्राप्त की और हम दोनों के अजीज़  सुदीप बनर्जी को भावुक मन से याद किया। जब वापिस चलने का समय आया तो मैं पान की दोनों बेलों में से पान तोड़कर स्वाद लेने के मोह से नहीं बच सका।

मुझे अपने अग्रज से जल्दी विदा इसलिए भी लेनी पड़ी कि जिस कार्यक्रम के निमित्त इंदौर आया हूं वहां समय पर पहुंच जाऊं। मैं संगीत का ज्ञाता तो नहीं हूं, लेकिन पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की दो शिष्याओं मुखर्जी बहनों ने बांसुरी पर जिस कलाकारी का परिचय दिया वह अत्यन्त सराहनीय थी। इंदौर के इस कार्यक्रम के बहाने कई संस्कृतिकर्मियों से परिचय हुआ। गीता सांघी जो कि आयोजन समिति की प्रमुख हैं; हिमांशु दुधवलकर जो आर्किटेक्ट हैं और जिन्होंने इंदौर के प्रसिद्ध राजवाड़े के जल जाने के बाद पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है; संजय पटेल जो एक गुणी कला समीक्षक हैं और जिन्होंने इंदौर का एक नक्शा बनाया है और जो मालवी के जाने-माने गीतकार व लेखक नरहरि पटेल के बेटे हैं। इस तरह जब समान रुचि के मित्रों से मिलना होता है तब आनंद होता ही है।

इंदौर-उज्जैन जाने के कुछ दिन पहले एक संक्षिप्त यात्रा धमतरी की हुई। यूं कार्यक्रम तो मुजगहन नामक गांव में था, लेकिन वह शहर से लगकर इतना विकसित हो चुका है कि धमतरी का नया सर्किट हाउस इस गांव में बनाया गया है। यहां हम लोग याने प्रभाकर चौबे, विनोदशंकर शुक्ल और मैं, अपने एक प्रिय मित्र त्रिभुवन पांडेय पर केन्द्रित एक ग्रंथ के लोकार्पण और लेखक के सम्मान समारोह में अपनी उपस्थिति देने आए थे। हमारे अलावा दुर्ग, भिलाई तथा आसपास के साहित्यकार भी पहुंचे थे। त्रिभुवन अब 77 के हो गए हैं। दो साल पहले उनकी 75वीं वर्षगांठ पर दोस्तों ने तय किया था कि त्रिभुवन पांडेय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन किया जाएगा। ऐसे काम में समय लगता भी है, अड़चनें भी पेश आती हैं। किन्तु मुजगहन के निवासी युवा साथी डुमनलाल ध्रुव इस योजना को मूर्तरूप देने में जुटे रहे और अंतत: उनकी मेहनत रंग लाई। 375 पृष्ठ के ग्रंथ में त्रिभुवन पांडेय पर मुझ सहित कुछ मित्रों के संस्मरण हैं, उनके अपने लेखहैं, कविताएं हैं, साक्षात्कार हैं, पत्र हैं। उनके कृतित्व पर सुधी मित्रों द्वारा लिखी गई समीक्षाएं हैं। इस तमाम सामग्री में त्रिभुवन द्वारा व्यंग्य पर लिखे गए जो छह लेख लिए गए हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं।

त्रिभुवन पाण्डेय अक्षर पर्व के सुपरिचित लेखक हैं। वे एक अच्छे व्यंग्यकार, नवगीतकार और समीक्षक हैं। पिछले पचास साल में उन्होंने बहुत लिखा है और सार्थक लिखा है। व्यंग्य पर लिखे उपरोक्त लेखों से साहित्य के प्रति उनकी सोच का परिचय हमें मिलता है। हम यह भी जान पाते हैं कि धमतरी जैसे एक छोटे कस्बे में, जो अब शहर बन रहा है, रहते हुए भी त्रिभुवन पांडेय का अध्ययन कितना विशाल है। प्रभाकर चौबे की तरह त्रिभुवन भी परसाई की धारा के लेखक हैं। वे कहते हैं कि व्यंग्य बेहद विवेकशील, न्यायबुद्धि तथा निरपेक्ष हृदय की अभिव्यक्ति है। जो लेखक मानवीय संबंधों की तह में नहीं जाता, जो राजनीति का विश्लेषण नहीं कर सकता वह कभी व्यंग्य नहीं लिख सकता, यह उनका मानना है।

पाठकगण आज्ञा दें तो मैं आपका परिचय धमतरी के एक अन्य निवासी से करवाना चाहता हूं। मुजगहन से लौटते हुए हम थोड़ी देर के लिए रमाकांत शर्मा के घर गए। शर्माजी एक शासकीय विद्यालय से प्राचार्य के रूप में कोई पन्द्रह बरस पहले सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वे अपनी तरह के एक अनोखे व्यक्ति हैं। शर्माजी को पढऩे का व्यसन है। उन्होंने अपने घर में एक पुस्तकालय बना रखा है। जो पुस्तक उन्हें अच्छी लगती है उसे अपने संग्रह के लिए ले लेते हैं। आज जब पुस्तक पढऩे वालों की ही संख्या घट रही है तब अपने आपमें एक खुशी की बात है कि एक रिटायर्ड व्यक्ति अपनी पेंशन का एक हिस्सा पुस्तकें खरीदने में खर्च करता है। इतना ही नहीं, वे नियमित रूप से कई अखबार भी पढ़ते हैं। उन्हें जो लेख पसंद आते हैं उनकी कतरनें या फोटोकॉपी सहेजकर रख लेते हैं। इस तरह उनके पास हजारों लेखों का संग्रह है। उनका दृढ़ विश्वास है कि जो लोग ऐसे सुंदर लेख लिखते हैं, वे ही समाज को बदल सकते हैं। एक तरह से वे चाहते हैं कि समाज अपने लेखकों का सम्मान करना सीखे और उनसे प्रेरणा ले। उनका यह आदर्शवाद किसी भी लेखक के कानों के लिए मधुर झंकार हो सकता है। मुझे अच्छा लगता है कि हमारे बीच ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं जिन्हें आज के विचारशून्य समय में भी शब्द की शक्ति पर ऐसा अटूट विश्वास है।

इस बीच एक शाम भिलाई जाना भी हो गया। भिलाई में लेखकों के अनेक संगठन हैं, पर यह सुखद है कि कार्यक्रम कोई भी करे, सब तरफ से साथी जुट जाते हैं। 25 मार्च को प्रोफेसर कमला प्रसाद की पुण्यतिथि थी। इस अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ की भिलाई इकाई ने अन्य संस्थाओं को साथ लेकर एक आयोजन किया जिसका विषय था- ''प्रगतिशील लेखन की दशा और दिशा"। यह विषय इसलिए प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है क्योंकि लेखक संगठनों से जुड़े रचनाकर्मियों के सामने प्रश्न है कि वे क्या करें। इस समय देश में तीन लेखक संगठन समानांतर चल रहे हैं- प्रलेस, जलेस और जसम। एक चौथा संगठन कसम याने क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच भी हाल-हाल में कुछ सक्रिय हुआ है। सवाल है कि वर्तमान परिस्थितियों में लेखक संगठनों की भूमिका क्या हो और किस सीमा तक हो? लेखक की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और संगठन की अपेक्षा क्या किसी बिन्दु पर जाकर मिलती है? यह भी सवाल है कि रचनाकार तो अपने काम में जुटा हुआ है उसे संगठन की क्या आवश्यकता है? बहुत से रचनाकर्मियों के मन में यह आशंका भी है कि वर्तमान परिस्थितियों में किसी मंच पर उपस्थित होना उनके लिए हानिकारक तो नहीं होगा? ऐसी स्थिति भारत में पहली बार उत्पन्न नहीं हुई है तथा अन्य देशों में भी संस्कृतिकर्मियों को इन प्रश्नों का सामना करना पड़ा है।

इस वर्ष भीष्म साहनी की जन्मशताब्दी है। वे प्रगतिशील लेखक संघ से प्रारंभ से जुड़े रहे तथा अपने समय के एक अत्यंत प्रमुख लेखक के रूप में उन्होंने प्रतिष्ठा अर्जित की। अक्षर पर्व उन पर केन्द्रित विशेषांक दो महीने बाद प्रकाशित करने जा रहा है। इधर छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 5 अप्रैल को भीष्म साहनी जन्मशती पर एक दिन भर का कार्यक्रम आयोजन किया। इस कार्यक्रम में जैसी उपस्थिति थी वैसी रायपुर के साहित्यिक  कार्यक्रमों में अमूमन दिखाई नहीं देती। इससे भीष्म जी की लोकप्रियता का पता चलता है। प्रसंगवश कह देना चाहिए कि संभवत: पूरे देश में भीष्म साहनी जन्मशताब्दी पर आयोजित यह पहला कार्यक्रम था। इसके पूर्व सम्मेलन ने ख्वाजा अहमद अब्बास एवं कृश्न चंदर की जन्मशताब्दी पर भी इसी तरह कार्यक्रम किए थे। कुल मिलाकर बीते दो-तीन सप्ताह पूरी तरह से साहित्य को समर्पित रहे, जिसकी यह झलक आपने शायद पसंद की हो।
अक्षर पर्व मई 2015 अंक की प्रस्तावना

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