Wednesday, 26 August 2015

कावेरी, कोडग़ू, कॉफी, कोको

 



"अच्छा
तो आप दक्षिण का काश्मीर घूम आए।" यह टिप्पणी एक प्रिय मित्र ने की जब मैंने उन्हें अपनी मडि़केरी यात्रा के बारे में बताया। उनका कहना सही था। काश्मीर घाटी में यदि चिनार और पॉप्लर हैं तो कोडग़ू घाटी में नारियल और सुपारी के आकाश से होड़ लेते दरख्त हैं। वहां केशर है, तो यहां इलायची, जायफल, जावत्री और लौंग। वहां झेलम है, तो यहां कावेरी। वहां हिमालय की पर्वतमाला है, तो यहां सघन हरियाली में डूबी नीलगिरी की शृंखला। कोडग़ू याने कुर्ग जिले का मुख्यालय मडि़केरी में है जिसे पहले मरकरा के नाम से जाना जाता था। यह वह जिला है जिसने भारत को फील्ड मार्शल करियप्पा तथा जनरल थिमैय्या जैसे सेनानायक दिए। बहुत तारीफ सुन रखी थी कर्नाटक के दक्षिण-पश्चिम में बसे इस पर्वत प्रदेश की। यह भी सुना था कि यहां के स्त्री-पुरुष अतीव सुंदर होते हैं, वहां पहुंचकर अनुमान हुआ कि यह एक अतिशयोक्ति थी।

मडि़केरी एक छोटा सा नगर है। आबादी कोई तीस हजार होगी। अपनी भौगोलिक संरचना में इसकी तुलना पचमढ़ी से की जा सकती है। चारों तरफ पहाडिय़ों पर बसे मुहल्ले और घेरदार-घुमावदार सड़कें। पूरा जिला ही समुद्र सतह से तीन हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर बसा है इसलिए वातावरण में साल भर ठंडक बनी रहती है। हम वर्षा ऋतु में छुट्टियां मना रहे थे तो बारिश के कारण मौसम में ठंडक कुछ अधिक ही थी। कोडग़ू जिले में मुख्यत: कोडग़ू भाषा ही बोली जाती है। उसमें और छत्तीसगढ़ के जशपुर अंचल की कुडख भाषा में काफी समानताएं हैं। ऐेसी धारणा भी है कि सिंधु घाटी से निकलकर कोई मनुष्य दल सुदूर दक्षिण में कोडग़ू में आकर  बसा था और उन्हीं की एक शाखा ने आगे चलकर जशपुर और रांची की तरफ आकर डेरा डाल दिया। इस पर्वत प्रदेश में सामान्य तौर पर खेती के योग्य भूमि नहीं है, लेकिन यहां की आबोहवा में मसालों के साथ-साथ कॉफी और कोको की पैदावार खूब होती है।

यहां के अधिसंख्य कामकाजी लोग नगद फसलों के बगीचों में ही काम करते हैं। एक समय सेना में जाने के प्रति काफी उत्साह था, लेकिन अब वह कम हो गया है। फिर भी एक बड़ी संख्या में स्थानीय युवा देश की सेना में काम कर रहे हैं। इस बीच पर्यटन उद्योग के प्रति यहां खासी दिलचस्पी पैदा हुई है। बेशुमार तो होटल और रिसोर्ट खुल गए हैं। कॉफी के बगीचे वालों ने भी अपने यहां पर्यटकों के लिए विश्राम कुटीरें बना रखी हैं। टैक्सी और भोजनालयों की तो गिनती ही नहीं है। मडि़केरी से तीस किलोमीटर के वृत्त में जहां चले जाइए, होमस्टे के बोर्ड आपको दिखाई दे जाएंगे। मालूम पड़ा कि ऐसे करीब सात सौ घर हैं जहां घर मालिकों ने पर्यटकों को ठहराने के लिए दो-चार कमरे अलग से बना रखे हैं। गृहस्वामी कोई रिटायर्ड व्यक्ति हो सकता है, कोई अवकाश प्राप्त फौजी या कोई टैक्सी ड्रायवर भी। इनके किराए भी अपेक्षाकृत कम हैं और आप चाहें तो कोडग़ू शैली में बने घर के भोजन का आनंद भी उठा सकते हैं।

आप जहां भी ठहरे हों बाहर निकलें तो चारों तरफ हरियाली ही हरियाली नज़र आती है। पहाड़ की ऊंची चोटियाँ लगभग हर समय कोहरे से ढंकी रहती हैं। अभी कॉफी के पौधों में फल नहीं आए हैं। दो-तीन महीने बाद जब पौधे फलेंगे तो हरी पत्तियों और लाल बेरियों की अलग ही छटा नज़र आएगी। सुपारी और अन्य ऊंचे वृक्षों पर कालीमिर्च की बेलें इस तरह लिपटी हैं कि जैसे जनम-जनम का साथ हो। जब कालीमिर्च तोडऩे का समय आता है तो ऊंची-ऊंची सीढिय़ां लगाकर उन्हें इकट्ठा करने में खासी मशक्कत करना पड़ती है। इलायची के पौधे की पत्तियां काफी लंबी और कुछ-कुछ तलवारनुमा होती हैं। इलायची लगती है नीचे जड़ के एकदम पास। उन्हें बीनना भी कोई आसान काम नहीं है। इन बगीचों में काम करने वाले किसान औसतन दस-बारह हजार रुपया प्रतिमाह कमा पाते हैं।

भारत की प्रमुख नदियों में से एक कावेरी नदी का उद्गम मडि़केरी से लगभग पैंतालीस किलोमीटर दूर तालकावेरी नामक स्थान पर है। यह जगह लगभग अड़तीस सौ फीट ऊंचाई पर है और उसके पीछे कोडग़ू की शायद सबसे ऊंची पांच हजार फीट वाली चोटी भी है। यहीं से एक पहाड़ी झरने के रूप में कावेरी प्रकट होती है और तालकावेरी में एक छोटा-सा कुंड है जहां से वह आगे बहती है। यहां कर्नाटक सरकार ने एक सुंदर सा परिसर निर्मित कर दिया है। कावेरी कुंड में ठीक वैसे ही पूजा-अर्चना चलते रहती है जैसी अमरकंटक के नर्मदा कुंड में अथवा मुलताई के ताप्ती कुंड में। लेकिन यहां कुंड का आकार बहुत बड़ा नहीं है। कावेरी कुंड का परिसर तीन-चार तलों का है। नीचे के तल पर दर्शनार्थियों के लिए प्रसाधन की व्यवस्था भी है। इसके ठेकेदार महोदय पटना बिहार के एक सज्जन निकले। वे अपने घर से इतनी दूर यहां अकेले बैठे हुए यात्रियों की सुविधा का ख्याल करते हुए अपनी रोजी-रोटी के प्रबंध में लगे हुए थे। उन्होंने बताया कि साल में डेढ़-दो लाख की आमदनी हो जाती है।

तालकावेरी से आठ किलोमीटर पहले भगमंडल नामक एक छोटा सा गांव है। यहां भगंडेश्वर महादेव का मंदिर है। इसी परिसर में गणेशजी भी विराज रहे हैं और एक तरफ विष्णु भगवान भी विराजित हैं। यह मंदिर तो बहुत पुराना नहीं है, लेकिन इसमें जो मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं वे पुरातात्विक महत्व की प्रतीत होती हैं। एक बात मैंने नोट की कि इलाके के अधिकतर मंदिरों में मूर्तियों पर चांदी के कवच चढ़ा दिए गए हैं। इसके पीछे क्या कारण होगा मालूम नहीं। पुजारी लोग टूटी-फूटी हिन्दी तो बोल लेते हैं, लेकिन उनसे पूरी तरह संवाद स्थापित नहीं हो पाता। खैर! इस गांव की एक और विशेषता है कि यहां त्रिवेणी संगम है। अड़तीस सौ फीट की ऊंचाई से लगभग आठ सौ फीट नीचे उतरकर कावेरी यहां अन्य दो छोटी-बड़ी नदियों के साथ मिलन करती हैं।

मडि़केरी में नगर के बीच एक और मंदिर है। ओंकारेश्वर मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा सन् 1820 में हुई थी अर्थात् पांच साल बाद इसे दो सौ साल पूरे हो जाएंगे। कोडग़ू के राजा लिंगराज ने इसकी स्थापना की थी। मंदिर परिसर में एक सुंदर सा जलाशय निर्मित है। इस अंचल की काश्मीर से तुलना करते हुए बात ध्यान आती है कि काश्मीर घाटी की तरह यहां जलाशय नहीं हंै। ओंकारेश्वर मंदिर का जलाशय इस कमी को अत्यन्त अल्पांश में पूरा करता है। इस मंदिर की सबसे बड़ी खूबी इसका स्थापत्य है। मंदिर के मुख्य भवन के चार कोनों पर चार मीनारें हैं जिनसे मस्जिद का भ्रम होता है। जानकारों के अनुसार, यह इंडो-सरसानिक याने भारत-ईरानी स्थापत्य का उदाहरण है। ऐसा क्या सोच-समझकर किया गया था क्योंकि लिंगराज संभवत: मैसूर के राजा स्वतंत्रता सेनानी टीपू सुल्तान के करद थे!

कोडग़ू जिले में ही एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर है जिसकी ख्याति देश-विदेश तक है। इस मंदिर को सामान्यत: गोल्डन टेंपल के नाम से जाना जाता है किन्तु यह बौद्ध धर्म का मंदिर है। इसका निर्माण ही सन् 1963 में किया गया तथा धर्मशाला (हिमाचल) के बाद भारत में यह सबसे बड़ा बौद्ध मंदिर है। यह स्थान मडि़केरी से लगभग चालीस किलोमीटर की दूरी पर है। एक विशाल प्रांगण में तीन प्रमुख मंदिर, उनके अलावा यह धर्मदीक्षा का केन्द्र भी है। हमें बहुत से तिब्बती बच्चे अपनी पारंपरिक वेशभूषा में दिखाई दिए, लेकिन वे अपरिचितों से बात नहीं करते।  इन मंदिरों में भगवान बुद्ध तथा तिब्बती परंपरा में बौद्धधर्म के अन्य इष्ट देवों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इस परिसर की भव्यता कुल मिलाकर अपनी ओर आकर्षित करती है।

कोडग़ू जिले में चूंकि कोको और कॉफी दोनों प्रचुरता में उपलब्ध हैं इसलिए यहां कुटीर उद्योग के रूप में चाकलेट बनती है और सच मानिए कि यहां घर-घर में बनी चाकलेट स्विस चाकलेट को स्वाद में मात देती है।
देशबन्धु में 27 अगस्त 2015 को प्रकाशित

Friday, 21 August 2015

मंगलौर, कारकल, मुड़बिदरी




31 जुलाई की दोपहर मंगलौर विमानतल पर उतरते साथ जिस अव्यवस्था के दर्शन हुए उससे मन सशंकित हुआ कि क्या आगे की यात्रा में भी यही सब झेलना होगा। हवाई अड्डे पर बेहद भीड़ और गहमागहमी थी। अपना सामान उठाने के लिए यात्री एक-दूसरे पर टूटे पड़ रहे थे। मैंने जो टैक्सी तय कर रखी थी उसका कहीं कोई अता-पता नहीं था। टेलीफोन किया तो आश्वासन मिला कि गाड़ी जल्दी ही पहुंच रही है। बाहर जो प्रीपेड टैक्सी वाले थे उनका कोई प्रतिनिधि फोन पर वार्तालाप सुनकर पास आया-आपको दूसरी टैक्सी करवा देते हैं, ओला कंपनी की टैक्सी हम यहां नहीं आने देते। मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी। कुछ देर बाद ओला टैक्सी ड्राइवर का फोन आया कि आप पार्किंग में आ जाइए, गाड़ी तैयार है। हम गाड़ी में बैठने को हुए तो उसे बाकी टैक्सी वालों ने घेर लिया, मैं कुछ नाराज हुआ तो उन्होंने टैक्सी वाले को यह कहकर छोड़ दिया कि बाद में देख लेंगे। इस बीच रिमझिम बारिश में हम थोड़ा भीग भी चुके थे। ओला पर गुस्सा आया कि एयरपोर्ट के टैक्सी वालों से तुम्हारा झगड़ा है तो फिर हमारे लिए ऑनलाइन बुकिंग क्यों स्वीकार की, पहले ही मना कर देते।

बहरहाल, इसके बाद दक्षिण कन्नड़ और कुर्ग की आठ दिन की यात्रा सुखद और निरापद रही। मंगलौर हम लोग चालीस साल बाद आए थे। उस समय शहर की सबसे ऊंची पहाड़ी से नीचे देखो तो सिवाय हरियाली के और कुछ दिखाई नहीं देता था। सुपारी और नारियल के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की छाया में दोमंजिले या ज्यादा हुआ तो तिमंजिले भवन छुप जाते थे। आज उसी मंगलौर में कांक्रीट की ऊंची-ऊंची इमारतें हरियाली को बौना कर दे रही हैं। विमानतल से शहर के रास्ते पर एक इमारत तो शायद बीस मंजिल की बन गई है, जबकि सात-आठ मंजिल के भवन बनना अब सामान्य बात है। गत चार दशक में एक तो मंगलौर के बंदरगाह का विकास हुआ और दूसरे एक बड़ा रासायनिक उद्योग यहां स्थापित हुआ जिसके पीछे-पीछे सहायक उद्योग भी आए। एक अन्य कारण यह भी बताया गया कि खाड़ी के देशों में काम कर रहे स्थानीय निवासियों को रिएल एस्टेट में निवेश करना अधिक सुरक्षित प्रतीत होता है।

यद्यपि मंगलौर ने आधुनिक शैली के एक नगर का रूप ले लिया है, फिर भी यह तथ्य तसल्लीदायक है कि शहर में आज भी हरियाली खूब है तथा प्रदूषण का स्तर बहुत कम व शहर ने अपनी प्राचीनता को बचा रखा है। मोटे तौर पर रेलवे स्टेशन से दक्षिण-पश्चिम की ओर याने समुद्र तट से लगकर पुराना शहर बसा हुआ है, जबकि नई बसाहट उत्तर की तरफ हो रही है। आते-जाते मंगलौर में हम तीन दिन रुके जिसमें दो सुखद अनुभवों का उल्लेख मैं करना चाहूंगा। एक तो ऑटो रिक्शा मीटर से चलते हैं, ड्रायवर सभ्यतापूर्वक पेश आते हैं और अजनबियों को बेवकूफ नहीं बनाते। दूसरा अनुभव रोचक है। हम लोग सड़क पर आटो की तलाश में धीरे-धीरे चल रहे थे, बारिश होने लगी थी, मैं शायद कुछ तेज चल रहा था। एक मिनट बाद मुड़कर देखा तो पाया कि एक अनजान तरुणी ने अपने छाते में श्रीमती जी को साथ ले लिया था। आज के दौर में ऐसा सौजन्य कल्पनातीत ही था।

अरब सागर के तट पर बसा मंगलौर एक प्राचीन नगर है। यहां स्थित कादरी मंदिर सन् नौ सौ अठ्ठावन ईस्वी में बना था। यहां शिव के मंजुनाथ स्वरूप की पूजा होती है। यद्यपि यह एक पुरातात्विक धरोहर है, लेकिन मंदिर के विशाल चौकोर प्रांगण में इतना कुछ नवनिर्माण हो चुका है कि उसका पुरातात्विक महत्व लगभग समाप्त हो गया है। इस मंदिर से पांच-छह किलोमीटर दूरी पर मंगलादेवी मंदिर है, जो मंगलौर की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है। इसका निर्माण कब हुआ इस बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी मैं हासिल नहीं कर पाया। एक विशेष बात दोनों मंदिरों के अलावा अन्य स्थानों पर भी देखने मिली कि मुख्य देवी-देवता के साथ में अन्य देवताओं के मंदिर भी उसी प्रांगण में अवस्थित हैं। एक तरह से शैव, वैष्णव, शाक्त इन तीनों संप्रदायों का साहचर्य यहां देखने मिल सकता है। एक और विशेषता पर ध्यान गया कि हर मंदिर में एक या अधिक यज्ञ संचालित हो रहे हैं।

मंगलौर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर बेलूर का चन्नकेशव मंदिर और उसी के निकट हॉलीबिडु में शिव मंदिर अवस्थित हैं। आज से एक हजार वर्ष पूर्व होयसल राजाओं ने इन्हें स्थापित किया था। मेेेेरी दृष्टि में माउंट आबू के देलवाड़ा जैन मंदिर के बाद ये दोनों मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से बेजोड़ हैं। अगर समय होता तो इस बार भी हमें फिर इन मंदिरों को देखने की इच्छा थी। भारत अपने मंदिर शिल्प के लिए विख्यात रहा है और ये दोनों मंदिर उसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। फिर भी हमारे पास जो समय था उसमें हमने दो अन्य पुरातात्विक धरोहरों को देखने में व्यतीत किया। मंगलौर से चालीस किलोमीटर पर कारकल नामक छोटा सा कस्बा है। यहां लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व (सन् 1432) एक पहाड़ी पर बाहुबली की प्रतिमा स्थापित की गई थी। यह एक जैन मंदिर है। बाहुबली की बयालीस फीट ऊंची प्रतिमा एक पत्थर से बनी है और उसकी भव्यता आकर्षित करती है। कई बरसों तक यह मूर्ति जमीन में दबी हुई थी। पहाड़ी पर सिर्फ मंदिर की प्राचीर दिखाई देती थी। अभी कोई पन्द्रह-बीस साल पहले यह प्रतिमा धरती के गर्भ में मिली और प्रतिष्ठित की गई। इसके ठीक सामने नब्बे डिग्री पर एक और जैन मंदिर है-चतुर्मुख मंदिर (सन् 1586)। यहां गर्भगृह में चारों दिशाओं में तीन-तीन कर बारह तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इन्हें स्थापित करने में इतनी बारीकी बरती गई है कि हर दिशा में बीच की प्रतिमा के पैरों की खुली जगह से विपरीत दिशा में बीच में स्थापित प्रतिमा के पैरों की खुली जगह देख सकते हैं। ऐसी अद्भुत कलाकारी दुर्लभ है।

मंगलौर और कारकल के बीच जैन धर्म का एक और प्रमुख तीर्थ है- मुड़बिदरी। यहां अठारह जैन मंदिर हैं। जो सर्वप्रमुख मंदिर है वहां गैर जैनों का प्रवेश निषिद्ध है। छत्तीसगढ़ के पाठकों को स्मरण होगा कि दो साल पहले इसी मंदिर से बेशकीमती मूर्तियां चोरी हुई थीं जिसमें रायपुर के किसी जौहरी का नाम भी आया था। खैर! इस नगर में हम जैसे पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र था थाउजेंड पिलर टेम्पल याने एक सहस्र स्तंभों वाला मंदिर। यह जैन मंदिर भी लगभग चार सौ साल पुराना है लेकिन इसमें जो खंभे बने हैं वे सीधी सरल रेखाओं में हैं। राजस्थान के रनकपुर में भी एक हजार खंभों वाला जैन मंदिर है, किन्तु उसमें ऐसी जटिल कलाकारी है कि खंभे कभी भी पूरे नहीं गिने जा सकते।

दक्षिण कन्नड़ प्रदेश पश्चिमी घाट में अवस्थित है और यहां मैदानी इलाका नहीं के बराबर है। यह अंचल अपनी जैव विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है। नारियल और सुपारी तो बहुतायत से होती ही है और न जाने कितनी प्रकार की वनस्पतियों की फसल यहां होती है। इसका कुछ अनुमान हमें मुड़बिदरी के पास सोन्स फार्म पर पहुंच कर हुआ। एल.सी. सोन्स और उनके भाईयों ने इस बागवानी प्रक्षेत्र को विकसित किया है। यहां वे करीब एक हजार किस्म की वनस्पतियां उगाते हैं। यहां की वर्षा वन की जलवायु में बहुत सारे विदेशी पौधे भी अपने लिए अनुकूल वातावरण पा लेते हैं। सोन्स बंधुओं ने अपनी व्यवसायिक बुद्धि का परिचय देते हुए इस फार्म को एक आकर्षक पर्यटक स्थल का भी रूप दे दिया है। जब मौसम अनुकूल हो तो वे बांस के झुरमुटों के बीच देशी-विदेशी अतिथियों के लिए सशुल्क पार्टियों का आयोजन भी करते हैं। हमारे ड्रायवर के अनुरोध पर हमने यहां अनानास का ताजा रस पिया और वह सचमुच बेहद मीठा व स्वादिष्ट था।
देशबन्धु में 20 अगस्त 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 12 August 2015

सरकार बनाम संस्थाएं


 

प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी 15 अगस्त 2014 के लालकिले की प्राचीर से पहिले उद्बोधन में अन्य घोषणाओं के बीच दूरगामी परिणामों वाली एक बड़ी घोषणा योजना आयोग को समाप्त करने की थी। इस 15 अगस्त को भी क्या वे ऐसी कोई चौंकाने वाली घोषणा करेंगे? या शायद उसकी आवश्यकता नहीं है? मोदी सरकार ने विगत एक वर्ष के दौरान नेहरू युग अथवा नेहरू परंपरा की अनेक संस्थाओं को जिस तरीके से विसर्जित, खंडित या परिवर्तित किया है, वह देश के सामने है। बीते स्वाधीनता दिवस पर संभवत: प्र्रधानमंत्री के मन में यह विचार रहा हो कि अपने पहिले संबोधन में उन्हें ऐसी कोई बात कहना चाहिए जिसकी व्यापक स्तर पर चर्चा हो सके। इस दरमियान उनकी मुखरता का स्थान मौन ने ले लिया है। दिल्ली के अनुभव से वे शायद यह जान गए हैं कि हर काम घोषणा करके करना जरूरी नहीं है। जो काम चुपचाप किया जा सकता है, उसमें व्यर्थ प्रचार क्यों किया जाए? इसीलिए योजना आयोग को विघटित करने के अलावा ऐसे कई अन्य निर्णय इस बीच लागू कर दिए गए, जिन पर आम जनता को गौर करने का अवसर ही नहीं मिला।

मैं यह स्वीकार करता हूं कि लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार को अपनी नीतियों व सिद्धांतों के अनुरूप निर्णय लेने का अधिकार होता है। इसमें यह भी शामिल है कि सरकार अपने अधीनस्थ संस्थाओं का संचालन भी अपनी इच्छा से करे व शीर्ष पदों पर ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति करे जो उसके अनुकूल हों। लेकिन लोकतंत्र का अर्थ बहुमतवाद नहीं होता, इस सत्य को ध्यान में रखकर सरकार का यह उत्तरदायित्व भी बनता है कि इन संस्थाओं के जो मूल लक्ष्य हैं, उनकी अनदेखी न की जाए तथा संचालन उन व्यक्तियों के हाथों में हो, जो अपनी वैचारिक/सांगठनिक प्रतिबद्धता के बावजूद उस विषय विशेष में निपुण हों। यह सोचकर मुझे हैरानी होती है कि क्या भाजपा/संघ में प्रतिभाशाली व्यक्तियों का टोटा पड़ गया है! मोदी सरकार के गठन के बाद से ही विभिन्न संस्थाओं के कामकाज में जिस तरीके से  हस्तक्षेप किया गया है, वह हमें निराश करता है। इसके अलावा यह संदेह होता है कि लोकसभा में स्पष्ट बहुमत का अहंकार सरकार को जनतांत्रिक परंपराओं का सम्मान करने से रोक रहा है।

राष्ट्रीय फिल्म एवं टेलीविज़न प्रशिक्षण संस्थान, पुणे याने एफटीटीआई के शासी निकाय के अध्यक्ष पद पर गजेंद्र चौहान की नियुक्ति सत्ता के अहंकार का एक उदाहरण है। यह हमें पता है कि एफटीटीआई जैसे संस्थान में दैनंदिन कामकाज पूर्णकालिक वेतनभोगी निदेशक के जिम्मे होता है जबकि अध्यक्ष का काम मुख्यत: शासी निकाय की बैठक की अध्यक्षता करना एवं समय-समय पर नीतिगत मार्गदर्शन करना होता है। आज तक इस संस्थान में जो अध्यक्ष हुए, वे सिने जगत के कद्दावर व्यक्ति थे। उन्हें अपने ज्ञान एवं अनुभव के बल पर प्रतिष्ठा हासिल की थी। देश-विदेश में जहां भी मौका हो, उनके नाम से संस्थान की भी प्रतिष्ठा वृद्धि होती थी। आज गजेंद्र चौहान के अध्यक्ष बनने एवं साथ-साथ संघ से जुड़े कुछ गैर-फिल्मी लोगों के सदस्य बनने से आशंका उपजती है कि एक सरकारी सेवक याने निदेशक जो मर्जी आएगी, वैसा काम करेगा व शासी निकाय सम्यक समझ व अनुभव के अभाव में उसके प्रस्तावों की पुष्टि मात्र करने तक सीमित रह जाएगा। जो छात्र इस नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं, उन्हें यह कहकर डराया जा रहा है कि सरकार संस्थान को ही विघटित कर देगी। यह भूलकर कि संस्था तोडऩा आसान है, संस्था खड़ी करना उतना ही दुष्कर।

एक अन्य प्रसंग जिसमें पुस्तकों में अपनी रुचि के चलते मुझे पीड़ा हुई है, वह है राष्ट्रीय पुस्तक न्यास-याने एनबीटी के अध्यक्ष पद पर हुई नियुक्ति। एनबीटी ने विगत पांच दशकों में पुस्तकों के प्रति आम जनता की रुचि बढ़ाने के लिए यथेष्ट काम किया है। तमाम भारतीय भाषाओं में न्यास पुस्तकें छापता है एवं सस्ते दामों पर बिक्री हेतु उपलब्ध कराता है। उसकी मोबाइल वैन पूरे देश का सफर करती हैं तथा स्थान-स्थान पर बिक्री के लिए स्टॉल लगाती है। अगर आप किसी को पुस्तकें भेंट देना चाहते हैं तो बेहिचक एनबीटी के सुंदर प्रकाशनों का सैट भेंट कर सकते हैं। इसके अध्यक्ष पद पर भी किसी ऐसी शख्सियत की नियुक्ति होना चाहिए थी, जो लेखन-प्रकाशन के बारे में भरपूर जानकारी रखता हो। मोदी सरकार चाहती तो नरेन्द्र कोहली, महीप सिंह, प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे किसी ख्यातिनाम लेखक को यह दायित्व दे सकती थी। ऐसा कोई व्यक्ति अध्यक्ष होता तो पुस्तक-प्रेमी समाज में सही संदेश जाता, एक आश्वस्ति होती कि एनबीटी अपनी गुणवत्ता कायम रखेगा। अब देखना होगा कि नए अध्यक्ष बलदेवभाई शर्मा कसौटी पर कितना खरा उतरते हैं, क्योंकि पुस्तक जगत से उनका पहिले कोई खास नाता नहीं रहा।

ललित कला अकादमी में जिस तरह से अध्यक्ष को हटाया गया, वह तो और भी हैरानी एवं चिंता उपजाता है। देश की इस शीर्ष संस्था के अध्यक्ष की नियुक्ति स्वयं राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को ही बनाया जाता है जिसने कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण योगदान किया हो। यह संयोग की बात है कि कुछ वर्ष पूर्व म.प्र. के अशोक वाजपेयी अकादमी के अध्यक्ष थे। उनका ललित कलाओं व अन्य रचनात्मक विधाओं के उन्नयन में जो दीर्घकालीन योगदान रहा है, उससे सभी परिचित हैं। दो वर्ष पूर्व राष्ट्रपति ने म.प्र./छ.ग. के कल्याण कुमार चक्रवर्ती को इस पद पर मनोनीत किया। श्री चक्रवर्ती का पुरातत्व, कला-इतिहास व संबंधित विषयों पर जो काम है, वह भी सुविदित है। वे दिल्ली में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के भी सदस्य सचिव रह चुके हैं। ऐसे व्यक्ति को अचानक अध्यक्ष पद से हटा दिया गया, जबकि वे दलगत राजनीति से तटस्थ रहकर अपना दायित्व निर्वाह कर रहे थे। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत एक उच्च पदस्थ व्यक्ति को क्या एकाएक इस तरह पदमुक्त किया जा सकता है, एक सवाल तो यही है। दूसरे, उन्हें हटाकर संस्कृति मंत्रालय ने क्या हासिल कर लिया? अध्यक्ष पद पर अभी तक कोई दूसरी नियुक्ति भी नहीं की गई है। 

कहा जा सकता है कि कांग्रेस राज में भी इसी तरह कामकाज चलता था। बात किसी हद तक सही है, लेकिन एक बड़ा फर्क है। ऐसा नहीं कि कांग्रेस ने सिर्फ और सदैव कांग्रेसियों को ही उपकृत किया हो। उनके शासन के दौरान साम्यवादी, समाजवादी यहां तक कि अघोषित भाजपाईयों को भी लगातार अवसर मिलते रहे हैं। जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय याने जेएनयू पर कम्युनिस्टों का गढ़ होने का आरोप लगता रहा है, क्या वहां सारे शिक्षक साम्यवादी ही थे? आप सूची उठाकर देख सकते हैं कि ऐसा नहीं था। कांग्रेस चूंकि कैडर-आधारित पार्टी नहीं है, इसलिए उसके राज में व्यवहारिक कारणों से ऐसा होना संभव भी नहीं था। केंद्र के अलावा राज्यों में भी अनेकानेक उदाहरण हैं कि जिसे कांग्रेसी अपना समझते थे, वह सत्ता पलटते साथ भाजपाई निकला। दूसरे शब्दों में,यदि कांग्रेस शासन के दौरान पद पाने के लिए चाटुकारिता प्रमुख गुण था तो भाजपा राज में संघ निष्ठा अनिवार्य शर्त है। लेकिन फिर भाजपा को अपने निष्ठावान एवं सुयोग्य जनों की एक सूची बना लेना चाहिए जिन्हें किसी पद पर निर्विवाद बैठाया जा सके।

मेरी इस बिनमांगी सलाह का एक अन्य पक्ष भी है। भाजपा आज सत्ता में है और यह सबको पता है कि सत्ता के साथ अपने आप कुछ बुराईयां जुड़ जाती हैं। सत्ताधारी को कबीर के वचन कड़वे लगने लगते हैं, लेकिन उसकी अपनी भलाई इसी में है कि वह चाटुकारिता से बचकर रहे। जनतंत्र में तो उसे विपरीत विचारों का भी समादर करना आना चाहिए। यदि सत्ता का मकसद सिर्फ सत्ता का आनंद उठाना है तब तो कोई बात नहीं, लेकिन यदि सत्ताधारी अपने पांच, दस या पंद्रह साल के कार्यकाल को लोक-स्मरणीय बनाना चाहता है तो उसे अपनी व्यवस्था में ऐसे अधिकारी नियुक्त करना चाहिए जो विचारों के अनुकूल होने के अलावा अपने पद व कार्य की पवित्रता की रक्षा करने में सक्षम हों। भाजपा को अटलबिहारी वाजपेयी से काफी कुछ सीखने की आवश्यकता है। स्वाधीनता दिवस पर हम यही कामना कर सकते हैं कि ऐसा हो।
देशबन्धु में 13 अगस्त 2015 को प्रकाशित

Sunday, 9 August 2015

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता : दशा और दिशा

 स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता : दशा और दिशा। जैसा कि शीर्षक से जाहिर है, यह विशद विवेचन का विषय है, जिसे एक व्याख्यान या आलेख में साधना लगभग असंभव है। यदि विषय के साथ न्याय करना है तो इस हेतु एक सुचिंतित, सुदीर्घ ग्रंथ लिखने की आवश्यकता होगी। फिलहाल इसके कुछेक पहलुओं पर सरसरी तौर पर चर्चा हो सकती है। अपने आपमें विषय महत्वपूर्ण है, प्रासंगिक भी तथा आज की चर्चा को एक प्रस्थान बिंदु मानकर आगे बढ़ा जा सकता है। जब हम हिंदी साहित्य के इतिहास, कालखंड निर्धारण, परंपराओं एवं प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं तो तीन चार नाम प्रमुख रूप से सामने आते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 1920 के दशक में हिंदी शब्द सागर की भूमिका लिखी, वही कुछ वर्ष बाद ''हिंदी साहित्य का इतिहास" के रूप में सामने आई, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का चर्चित ग्रंथ ''हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी" 1941 में प्रकाशित हुआ तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी रचित ''हिन्दी साहित्य-उद्भव व विकास" 1950 के आसपास आया। इसके अलावा समय-समय पर अन्य पुस्तकें आई होंगी, जिनके बारे में मुझे विशेष जानकारी नहीं है। उपरोक्त तीनों पुस्तकों को लिखे लगभग सत्तर वर्ष से नब्बे वर्ष तक का समय बीत चुका है। आचार्य शुक्ल ने जिसे आधुनिक काल माना है, वह एक तरह से वर्तमान साहित्य का शैशवकाल था तथा वाजपेयी जी व द्विवेदी जी ने भी उस दौर की विवेचना तक ही अपने को सीमित रखा। 

स्मरणीय है कि अज्ञेय द्वारा संपादित ''तार सप्तक" का प्रकाशन 1943 में हुआ था। उसकी चर्चा द्विवेदी जी के ग्रंथ में अभीष्ट थी, किन्तु वह नहीं हुई। इसी तरह वाजपेयी जी ने अपनी पुस्तक, जो कि मूलत: स्वतंत्र प्रकाशित लेखों का संकलन था, का शीर्षक तो महत्वाकांक्षी रखा, लेकिन वह इसलिए असमय था, क्योंकि उसका प्रकाशन तब हुआ जब बीसवीं सदी का प्रथमार्द्ध पूरा होने में भी दस साल बाकी थे। इन तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य का नया इतिहास लिखने का समय आ चुका है। इसीलिए मैंने आज की चर्चा को प्रस्थान बिंदु मानने का प्रस्ताव ऊपर किया है। किसी उद्यमी शोधार्थी को अब यह बीड़ा उठा लेना चाहिए। यूं तो जब भी समग्र इतिहास लिखा जाएगा उसमें सभी विधाओं का समावेश स्वाभाविक रूप से होगा; किन्तु आज की संगोष्ठी कविता पर केन्द्रित है, इस नाते मैं समझता हूं कि वर्तमान कविता की विवेचना तार सप्तक के प्रकाशन को आधार मानकर की जानी चाहिए। 1943 और 1947 में मात्र चार वर्ष का अंतर है, तदपि कविता की मीमांसा एक ऐतिहासिक किन्तु मूलत: राजनैतिक घटना की पृष्ठभूमि में करने के बजाय कविता के अपने विकास क्रम में आए एक ऐतिहासिक अवसर से करना अधिक श्रेयस्कर होगा। 

मेरी समझ में देश को आजादी मिलने और हिंदी कविता में एक नए युग का सूत्रपात होने के पीछे जो परिस्थितियां व कारण रहे हैं, उनमें भी कई स्थानों पर समानता देखी जा सकती है। सारे विश्व में और देश में विचारों की जो नई बयार बह रही थी, उससे तार सप्तक के कवि भली-भांति परिचित थे और तेजी से बदलते हुए घटनाचक्र पर सतर्क दृष्टि रखे हुए थे। कहा जा सकता है कि कवि समय के साथ चल रहा था। दूसरे, यह तो स्वीकार्य है कि रचनाकार अपने दौर की राजनैतिक हलचलों से स्वयं को काटकर नहीं रख सकता, उसका प्रभाव तो किसी न किसी रूप में पड़ता ही है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि एक घटना विशेष का फौरी प्रभाव उसकी रचनाशीलता पर पड़े। आशुकवि ही इसका अपवाद हो सकते हैं। अतएव किसी राजनैतिक कालखंड अथवा कैलेंडर को आधार मानकर यदि साहित्य लेखन का विभाजन किया जाए तो उस पर एक प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा। मसलन क्या बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों को सिर्फ इस कारण से पृथक किया जा सकता है कि एक नई सहस्राब्दि का उदय हो गया है? 

बहरहाल, तार सप्तक के प्रकाशन एवं स्वाधीनता प्राप्ति के उपरांत रची गई हिंदी कविता की दशा-दिशा पर विचार करते हुए पहले तो यह नोट करना होगा कि सात-आठ दशक की इस लंबी यात्रा में कविता अनेक मोड़ों से गुजरी है, अनेक पड़ावों पर ठहरी है और इस बीच उसने नए-नए रूप ग्रहण किए हैं। विचार, कथ्य, भाषा, शिल्प, सभी दृष्टियों से कविता किसी एक बिंदु पर टिकी नहीं रही, बल्कि उसने निरंतर अपना विकास किया। इस अवधि में वैश्विक एवं राष्ट्रीय क्षितिज पर जो परिवर्तन हुए, कविता उनसे भी अछूती नहीं रही। आचार्य शुक्ल ने जिस आधार पर कविता को कालखंडों में बांटा, उसे प्रमाण मानकर कहा जा सकता है कि सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में आए युगांतकारी परिवर्तनों से कविता प्रभावित होती है। हमारे विवेच्य कालखंड में ऐसा सबसे पहला परिवर्तन था कि भारत दो सौ साल की गुलामी से मुक्ति पाकर स्वाधीन देश के रूप में उदित हुआ। यह अध्ययन का विषय है कि इस एक बड़ी घटना ने कविता को किस सीमा तक प्रभावित किया। हम पाते हैं कि परवर्ती समय में ऐसी घटनाओं, प्रसंगों व परिस्थितियों की लंबी श्रृंखला है जिसने विश्वजन के साथ-साथ कवि मन को भी आंदोलित किया होगा। इनकी एक सूची बनाने से बात स्पष्ट हो सकेगी:- 

(1) 1939-1945 द्वितीय विश्व युद्ध
(2) 1942 : 'भारत छोड़ो'आंदोलन
(3) 1945 : अणुबम का आविष्कार व हिरोशिमा व नागासाकी पर एटमी हमला
(4) 1947 : भारत में एशियाई संबंध सम्मेलन
(5) 1948 : चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना व इजराइल में धर्म आधारित देश की स्थापना
(6) 1950-60 : कोरिया का युद्ध व विभाजन, स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण व उस पर पश्चिमी हमला, बांडुंग सम्मेलन, क्यूबा का स्वतंत्र होना
(7) 1960 : एक दशक में अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका के अनेक गुलाम देशों की स्वतंत्रता
(8) 1964 : पं. नेहरू व मुक्तिबोध जी का निधन
(9) 1965-75 : अमेरिका का वियतनाम युद्ध
(10) 1967 : भारत में नक्सलवाद का उदय
(11) 1952 से अब तक : भारत में आम चुनाव, जनतांत्रिक आकांक्षाओं का बीजारोपण, राजनैतिक चेतना का विस्तार
(12) 1950 के दशक से देश के योजनाबद्ध विकास की कल्पना, बांधों व कारखानों का निर्माण, औद्योगीकरण की शुरूआत
(13) 1962 : भारत-चीन युद्ध
(14) 1965- भारत-पाक के बीच दूसरा युद्ध
(15) 1965-67 : देश में बड़े पैमाने पर अकाल, हरित क्रांति की शुरूआत
(16) 1971 : बांग्लादेश का उदय
(17) 1975-77 : आपातकाल
(18) 1992 : बाबरी मस्जिद विध्वंस
(19) 1998 : भारत का एटमी परीक्षण
(20) 1999 : कारगिल युद्ध

यह फेहरिस्त अभी पूरी नहीं हुई है। भारत में क्षेत्रीय तथा जातिगत अस्मिता का उभार, औद्योगीकरण के साथ शहरीकरण, विस्थापन व पलायन, जल-जंगल-जमीन के मुद्दों पर संघर्ष, समाज में स्त्री, दलित व आदिवासी विमर्शों का प्रारंभ; दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी तथा संचार साधनों का विकास, कम्प्यूटर से स्मार्टफोन तक का सफर, बहुराष्ट्रीय निगमों का बढ़ता वर्चस्व, पूंजीबाजार के जटिल खेल, रत्नगर्भा अफ्रीका की धरती का बेरहम शोषण, इजराइल की संकीर्ण साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा से उदित इस्लामी आतंकवाद, अफगानिस्तान और इराक पर अमेरिकी हमले, सोवियत संघ का विघटन जैसी तमाम अन्य घटनाएं हैं जिन सबका प्रभाव साहित्य रचना पर पडऩा ही था। यहां हम ध्यान दें कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद के वर्षों में भारतीय लेखक जिस तरह वैश्विक घटनाचक्र में दिलचस्पी लेता था, वह 1975 के बाद लगभग समाप्त हो गई। दरअसल, स्वातंत्र्योत्तर कविता की बात करें तो इस समय को प्रमुख रूप से तीन खंडों में बांटा जा सकता है- (1) 1943/1947-1964, (2) 1964-1984 एवं (3)1984 से अब तक। मैंने यह विभाजन खंड विशेष की प्रमुख राजनैतिक, आर्थिक, हलचलों को ध्यान में रखकर किया है; इसमें विज्ञान व तकनीकी के क्षेत्र में समयानुसार हुई प्रगति को भी आधार माना है; और कविता के अपने स्वरूप में जो परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं उनका संज्ञान लिया है। इसके पश्चात यह कहना भी आवश्यक होगा कि यह निर्धारण पत्थर की लकीर नहीं है। विचारों व भावनाओं के तरल प्रवाह में ऐसा होना संभव नहीं है। 

इस मोटे वर्गीकरण में पहिले खंड याने तार सप्तक के प्रकाशन से लेकर गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन तक की अवधि की विवेचना करने से एक बात समझ आती है कि छायावाद के उत्तराधिकारी रूप में जो नई कविता सामने आई थी, वह प्रयोगवाद तथा प्रगतिवाद इन दो धाराओं में विभक्त हो गई थी; किन्तु छायावाद के कतिपय मूल्यों का प्रभाव इस दौर की कविता पर स्पष्ट था। इसमें देशप्रेम व प्रकृति प्रेम था, आजादी की छटपटाहट थी, विश्व नागरिकता की गूंज थी, व्यक्तिगत स्वाधीनता का मूल्य था, युद्ध, हिंसा एवं वैभव का तिरस्कार था। कविता एक अनिवार्य कर्म की तरह थी एवं उसमें सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध था। देश एवं दुनिया के नव-निर्माण की, एक यूटोपिया फलित होने की आशा थी। इस अवधि में दो बड़े कवि सामने आए- अज्ञेय एवं मुक्तिबोध। कहने की आवश्यकता नहीं कि दोनों एक मंच पर साथ-साथ प्रकट हुए। यह बाद की बात है कि दोनों की दिशाएं बदल गईं। अज्ञेय ने आगे चलकर दूसरे, तीसरे व चौथे सप्तक का भी संकलन-संपादन किया। दूसरे व तीसरे में कुछ महत्वपूर्ण कवि सामने आए किन्तु चौथा सप्तक तो एक तरह से निष्फल प्रयोजन ही सिद्ध हुआ। प्रयोगवाद की धारा एक मुकाम पर पहुंचकर न सिर्फ रुक गई, बल्कि विलुप्त हो गई, जबकि प्रगतिवादी धारा अपना रास्ता तलाश करते हुए आगे बढ़ती चली गई। मुक्तिबोध की असमय, मात्र 47 वर्ष की आयु में मृत्यु एक हृदय विदारक ट्रैजेडी थी, किन्तु उनके विचार भावी-पीढिय़ों के लिए प्रकाश स्तंभ बन गए। सन् 1964 तक के प्रथम कालखंड की एक और विशेषता गौरतलब है यह समय था जब कवियों की तीन, बल्कि चार पीढिय़ां एक साथ रचनाकर्म में संलग्न थीं। इस दौर में मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, निराला, महादेवी और बच्चन सक्रिय थे तो अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, मुक्तिबोध, फिर अपेक्षाकृत युवा धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह इत्यादि तथा चौथी पीढ़ी के प्रतिनिधि बनकर विनोदकुमार शुक्ल, शलभ श्रीराम सिंह इत्यादि दस्तक दे रहे थे।

एक अन्य रोचक तथ्य यह भी है कि छंदमुक्त कविता का युग भले ही प्रारंभ हो गया हो, अभी गीत के लिए कविता के संसार में सम्मान हासिल था। गोपालसिंह नेपाली, नीरज, वीरेंद्र मिश्र, मुकुटबिहारी सरोज, शंभुनाथ सिंह, उमाकांत मालवीय, रामानंद दोषी आदि की कविताएं सुनी और सराही जाती थीं। धर्मयुग व साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं में उन्हें उचित स्थान मिलता था। क्या इसकी वजह यह थी कि वह अपेक्षाकृत सरल समय था और अपनी बात गीत में कह पाना संभव था? या फिर क्या ऐसा हुआ कि बाद के कवि लय-ताल को पकड़ पाने में असफल हुए और उन्होंने चिढ़कर गेय कविता को खारिज कर दिया? एक तीसरा कारण यह भी तो हो सकता है कि गीतकार आत्ममुग्धता के शिकार हो गए तथा वर्तमान समय की जटिलताओं को समझ गीतों में उन्हें बांध नहीं पाए।

 वर्तमान समय की कविता के दूसरे चरण में याने 1964 के बाद से लेकर लगभग 1984 तक हम पाते हैं कि देश अनेक प्रकार के झंझावातों से जूझ रहा था। इस अवधि में एक गहरी निराशा का वातावरण भी बन रहा था। यद्यपि शुरूआत सन् 1960 के आसपास हो चुकी थी। इस दौर में जहां अमेरिका की सीआईए द्वारा प्रायोजित फोरम फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसी संस्थाएं अपने एजेंडे के अनुसार सक्रिय थीं तो इन्हीं दिनों कविता में भांति-भांति के आंदोलन प्रारंभ हुए। मसलन अकविता, दिगंबर कविता, नवगीत, भुभुक्षु कविता, सनातन सूर्योदयी कविता इत्यादि। कुछ बीटल कवि भी थोड़े समय पूर्व ही भारत आए थे, एलेन गिंसबर्ग का नाम मुझे ध्यान आ रहा है, और वे कविता नहीं, बल्कि अपने क्रियाकलापों के चलते भारत में चर्चित हुए थे। यही समय था जब भोगा हुआ यथार्थ व अनुभूति की प्रामाणिकता जैसे नारे प्रचलन में आए। इस कालावधि में अनास्था, अविश्वास व संशय का जो स्वर मुखर हुआ उसके प्रमुख कवियों में शायद रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, राजकमल चौधरी व धूमिल आदि नाम लिए जा सकते हैं। धर्मवीर भारती की अंधा युग भी इसी दौरान प्रकाशित-चर्चित हुई। दूसरी ओर त्रिलोचन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह आदि की प्रगतिशील कवियों के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा मुकम्मल तौर पर हुई। इसी समय में प्रतिभाशाली कवियों की उस पीढ़ी ने अपनी पहिचान बनाना प्रारंभ किया, जो वर्तमान दौर में शीर्ष पर माने जाते हैं। इनमें विनोदकुमार शुक्ल, मलय, चंद्रकांत देवताले, अरुण कमल, सोमदत्त, भगवत रावत, राजेश जोशी, विजेंद्र, प्रयाग शुक्ल, अशोक वाजपेयी आदि के नाम प्रमुखता से लिये जा सकते हैं। 


इस दूसरे चरण में नई कविता या छंदमुक्त कविता का तीव्रगति से विकास तो हुआ लेकिन पाठकों या कहें कि समाज के बीच कविता पहुंचने के अवसर सिमटने लगे। जो दो लोकप्रिय साप्ताहिक और दो-तीन पत्रिकाएं हर पढ़े-लिखे हिंदीभाषी परिवार में खरीदी जाती थीं, वे या तो बंद कर दी गईं या उन्हें बंद होने के लिए छोड़ दिया गया। इस दौर के कवियों को चूंकि कवि सम्मेलन शब्द से ही अरुचि थी और चूंकि वे कविता को एक श्रेष्ठ कर्म मानते थे, इसलिए कविता धीरे-धीरे कर कमरों में होने वाली आत्मीय गोष्ठियों तक सीमित हो गई। कवि का वृहत्तर समाज के साथ संपर्क कट गया। उसने यहां तक कहना शुरू कर दिया कि पाठक को कवि के पास आना चाहिए। इसका परिणाम यह निकला कि मंच पूरी तरह उन गीतकारों के हवाले हो गया जो आधुनिक भावबोध को साध पाने में अक्षम थे। पर इस दरम्यान एक नई बात हुई। कमलेश्वर ने  'सारिका' में अपने मित्र दुष्यंत कुमार की गलों को प्रमुखता से छापना शुरू किया तो हिंदी गल नामक एक नई विधा का ही जन्म हो गया। चंद्रसेन विराट व ओम प्रभाकर जैसे गुणी गीतकार गलगो हो गए। आज हिंदी कविता के नाम पर गज़ल का ही बोलबाला है। अब तो गुजराती, मराठी, बुंदेली व छत्तीसगढ़ी में भी गलें कही जा रही हैं। नवगीत को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका।

तीसरा चरण यूं तो 1984 से माना जा सकता है, लेकिन इसका ठीक-ठाक स्वरूप बनना 1991 के आसपास प्रारंभ हुआ, जब नवसाम्राज्यवाद की पगचापें भारत की धरती पर सुनाई देने लगीं। आज बाजारवाद की बात खूब होती है, लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि आज का बाजार वैश्विक पूंजीवाद का एक अस्त्र मात्र है। जब सिर्फ बाजारवाद की आलोचना होती है तो उसकी नियामक शक्ति की तरफ दुर्लक्ष्य हो जाता है। इस दौर में जो स्थापित कवि हैं उनसे सुधी पाठक भलीभांति परिचित हैं। कवियों की एक और नई पीढ़ी स्वाभाविक क्रम में सामने आ रही है। उसकी रचनाओं में वर्तमान की आर्थिक-राजनैतिक-वैज्ञानिक जटिलताओं को पकड़ पाने की, उनका विश्लेषण करने की इच्छा प्रतिबिंबित होती है। अच्छी बात यह है कि मुक्तिबोध की कृतियां इस तीसरी पीढ़ी का पथ आलोकित कर रही हैं। इस लंबी अवधि में, हमारा ध्यान जाता है कि, महिलाओं ने जहां कहानी व उपन्यास लेखन में अपनी प्रतिभा का भरपूर परिचय दिया, वहीं कविता लेखन में कुछ गिने-चुने नाम ही सामने आ पाए। यह भी दृष्टव्य है कि मुक्तिबोध के बाद उन जैसी महाकाव्यात्मक विस्तार की कविता और कोई नहीं लिख पाया, लंबी कविताएं भले ही कितनी भी लिखी गई हों। यह भी नोट करना उचित होगा कि पहिले की भांति आज भी कविता में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। निराला ने गक़ालें, त्रिलोचन ने सॉनेट, कईयों ने नवगीत लिखे तो आज ''हिंदी गज़ल" के साथ हाईकू आदि भी लिखे जा रहे हैं। ये प्रयोग कितने सार्थक हैं, उस पर फिलहाल क्या कहें?

टिप्पणी : राष्ट्रभाषा सेवी समाज, अकोला (महा.) द्वारा 28 जून 2015 को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिए उद्घाटन व्याख्यान का संशोधित स्वरूप। 

अक्षर पर्व अगस्त 2015 अंक की प्रस्तावना

Friday, 7 August 2015

अकोला में हिंदी


 आज के इस लेख में कुछ अतीत राग है, कुछ यात्रा विवरण एवं कुछ साहित्य चर्चा। मैं आपको एक ऐसे स्थान ले चलना चाहता हूं जिसके साथ मेरे बचपन की एक रोचक स्मृति जुड़ी हुई है। यह वाकया है मई 1956 का। छठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद गर्मी की छुट्टियों में बाबूजी-बाई (माँ) के साथ मैं अकोला आया था। ननिहाल पक्ष में एक विवाह का अवसर था। बाबूजी बारात के साथ नागपुर चले गए थे। विवाह वाले घर में मेरी बराबरी का कोई बच्चा नहीं था। जो भैया दूल्हा बनकर गए थे, उनके कमरे में एक पुस्तक मुझे मिल गई। जासूस जे.बी. और उसके सहायक जैकब के कारनामों की। जबलपुर में घर के पुस्तकालय (बाबूजी ने उसे बड़े प्यार से ग्रंथ चयन नाम दिया था) से मैं प्रेमचंद, सुदर्शन तथा शरतचंद्र को समझे-बिना समझे पढ़ चुका था। किंतु जासूसी उपन्यास पढऩे का यह पहिला मौका मुझे लगा था। तीसरे दिन बारात लौटकर आने तक मैंने उपन्यास को शुरु से आखिरी तक पूरा पढ़ लिया था। जासूस अपने सहायक के साथ किस तरह अपराधियों को कानून के शिकंजे में जकड़ता था, यह पढऩे में वाकई बहुत मज़ा आ रहा था। इसके बाद मैंने खोज-खोज कर जासूसी उपन्यास पढ़े। विनोद-हमीद, राजेश-जयंत, सुरेश-कमल, वर्मा-रमेश आदि जासूसी जोडिय़ों की ढेर सारी किताबें पढ़ डालीं। नोट करने लायक है कि इनमें से हरेक जासूस अपने सहायक के साथ ही चलता है। इन्हें पढ़ते हुए फिर यह पता चला कि अंग्रेजी के चर्चित सैक्सटन ब्लैक-टिंकर की जोड़ी के किस्सों की ही जे.बी.-जैकब में नकल की गई थी। आज भी रहस्य-रोमांच के ऐसे लोकप्रिय लेखक हमारे बीच हैं जिनके उपन्यासों में कहीं अर्ल स्टनले गार्डनर की पैरी मैसन सीरीज़ की खूबसूरत ढंग से चोरी की गई है तो कहीं जेम्स हेडले चेज़ के रोमांच भरे उपन्यासों से, जिसमें अपराधी के हाथ अन्तत: शून्य ही आता है।

इस तरह अकोला ने भले ही मेरी साहित्यिक रुचि को ''बिगाडऩे" का काम किया हो, लेकिन सच पूछिए तो अकोला एक लंबे समय से हिंदी रचनाशीलता का एक प्रमुख केंद्र रहा है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। रायगढ़ के मूल निवासी प्रो. सुभाष पटनायक अकोला के किसी महाविद्यालय में प्राध्यापक बनकर आए थे और यहीं के होकर रह गए थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि मैं एक बार हिंदी साहित्य पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में अकोला अवश्य आऊं। उनके स्नेहिल निमंत्रण को स्वीकार करना किसी न किसी कारण से टलता रहा और दुर्भाग्य से लगभग एक वर्ष पूर्व वे दिवंगत हो गए। किंतु अकोला के कुछेक अन्य लेखक मित्रों से इस बीच संपर्क बना रहा, बल्कि प्रगाढ़ भी हुआ। इसलिए जब सुकवि-प्राध्यापक रामप्रकाश वर्मा ने हिंदी कविता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करने का आग्रह किया तो उसे स्वीकारने में फिर मैंने विलंब नहीं किया। मेरे मन में अकोला प्रवास का लोभ तो था ही, उसके साथ यह भावना भी थी कि पास के उस गांव के भी एक बार दर्शन कर लूं जहां अपनी ननिहाल में मेरा जन्म हुआ था। संयोगवश यह दूसरी इच्छा अधूरी रह गई, किंतु अकोला में बिताया लगभग तीस घंटे का समय नए, शिक्षाप्रद एवं आनंददायी अनुभवों से भरा सिद्ध हुआ।

अकोला एक लंबे समय तक सी.पी. एंड बरार (मध्यप्रांत एवं बरार) प्रदेश का हिस्सा था। प्रदेश की राजधानी नागपुर में थी और नागपुर, जबलपुर, रायपुर व अकोला इसके चार प्रमुख नगर थे। 1 नवंबर 1956 को नए मध्यप्रदेश का गठन होने के साथ विदर्भ के मराठीभाषी आठ जिले नए महाराष्ट्र में समाहित कर दिए गए। उन दिनों अकोला की एक यह ख्याति सुनने मिलती थी कि वह भारत का सबसे गर्म स्थान है। स्वतंत्रता पूर्व यह ओहदा जकोबाबाद को हासिल था जो पाकिस्तान में चला गया। पता नहीं यह बात कितनी सही थी। क्योंकि तब ऐसी भी चर्चाएं होती थीं कि नागपुर भारत का केंद्रीय स्थल है। (प्रो. एस.डी. मिश्र ने अपने संस्मरणों में नागपुर के ग्राउंड ज़ीरो का वर्णन किया है)। इन चर्चाओं से परे यह ठोस जानकारी भी थी कि अकोला प्रदेश की कृषि उपज की एक महत्वपूर्ण मंडी थी। मध्यप्रदेश के पहिले मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने अपने विशाल प्रदेश के संतुलित विकास के लिए जो कार्ययोजना बनाई उसके तहत नागपुर में मेडिकल कॉलेज, जबलपुर में इंजीनियरिंग कॉलेज, रायपुर में साइंस कॉलेज व अकोला में एग्रीकल्चर कॉलेज याने कृषि म.वि. की स्थापना की गई। कालांतर में इसका दर्जा बढ़ा और पंजाबराव देशमुख कृषि विद्यापीठ के रूप में इसे विकसित किया गया। यही कारण है कि महाराष्ट्र राज्य बीज विकास निगम का मुख्यालय इसी नगर में ही रखा गया है।

इसी अकोला में विदर्भ के एक प्रमुख हिंदी समाचारपत्र की नींव रखी गई। स्वाधीनता सेनानी बृजलाल बियाणी ने सन् तीस के दशक में यहां से 'नव राजस्थान' नामक एक साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारंभ किया। बियाणीजी स्वयं शब्द-शिल्पी थे, किंतु पत्र का नियमित संपादन करने के लिए उन्होंने तब की हिंदी राजधानी इलाहाबाद से प्रतिष्ठित लेखक रामनाथ सुमन को आमंत्रित किया। सुमनजी इस पत्र से काफी समय तक जुड़े रहे। उनके सुपुत्र ज्ञानरंजन से भला कौन साहित्यप्रेमी परिचित नहीं है? उनकी गणना हिंदी के प्रमुख कथाकारों में होती है तथा उससे बढ़कर वे 'पहल' पत्रिका के यशस्वी संपादक के रूप में चर्चित-प्रतिष्ठित हैं। बृजलाल बियाणी ने स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, कई बार जेल यात्राएं कीं। उन्हें जनता ने 'विदर्भ केसरी' की उपाधि दी। बियाणीजी की आत्मकथा ''जेल में" शीर्षक से प्रकाशित हुई। स्वतंत्र देश में वे सीपी एंड बरार सरकार में मंत्री भी बने, किंतु उनका साहित्य से अनुराग बना रहा। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के गोंदिया अधिवेशन (1955) के समय वे संभवत: अध्यक्ष थे। उस समय काफी विवाद भी हुआ था। मुक्तिबोधजी ने बियाणीजी को लक्ष्य करके ही 'नया खून' में 'साहित्य के काठमांडो का राजा' शीर्षक से एक चुभता हुआ व्यंग्य लिखा था।

इस पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है कि अकोला में जो कि मूलत: एक मराठीभाषी क्षेत्र है, हिंदी साहित्य की अजस्रधारा पिछले सौ वर्ष से चली आ रही है। जिस साप्ताहिक की चर्चा ऊपर हुई, उसी ने आगे चलकर आज के प्रमुख हिंदी पत्र नवभारत का स्वरूप ले लिया। मुक्तिबोध मंडली के एक प्रमुख सदस्य रामकृष्ण श्रीवास्तव 1950 के आसपास अकोला के सीताबाई आर्ट्स कॉलेज में प्राध्यापक बन कर चले गए। थे। वे अपने दौर के एक सम्मानित कवि एवं गीतकार थे। 'चट्टान की आँखें' शीर्षक से उनका संकलन प्रकाशित हुआ। रामकृष्णजी की छवि एक विद्रोही तेवर वाले कवि की थी तथा उनकी कविता ''जिस पत्थर से देव बने तुम, मैं उस पत्थर का टुकड़ा हूं" खासी चर्चित हुई थी। उनका निधन भी असमय ही हो गया किंतु उनकी परंपरा को अकोला के रचनाकारों ने जीवित रखा है। रामप्रकाश वर्मा व मणि खेड़ेकर से मेरा पूर्व परिचय था; प्रवास के दौरान पता चला कि अंबिकापुर में जन्मे दामोदर खड़से ने भी एक लंबा समय यहां बिताया व यहां की साहित्यिक गतिविधियों को जीवंतता प्रदान की। यहीं मेरा परिचय घनश्याम अग्रवाल से हुआ, जो सटीक तरीके से मंच संचालन तो करते ही हैं, अपनी लघुकथाओं में भी उन्होंने सामाजिक विसंगतियों का बखूबी चित्रण किया है। यहीं प्रो. सुरेश केशवानी भी मिले, जिनकी स्कूली शिक्षा रायपुर में हुई थी। मुझे उनसे जानकर अच्छा लगा कि देशबन्धु के 'पूछिए परसाई से' और 'दरअसल' जैसे स्तंभों से उन्हें प्रेरणा मिली।

अकोला में राष्ट्रभाषा सेवी समाज नामक संस्था विगत तीस वर्षों से काम कर रही है। इसने नगर व क्षेत्र में पहिले से व्याप्त हिंदी प्रेम को पुष्ट करने के लिए अनेक काम किए हैं। मैं जिस राष्ट्रीय संगोष्ठी में आमंत्रित था, उसका आयोजन संस्था ने ही किया था। दिनभर चले कार्यक्रम में लगभग दो सौ लेखक, अध्यापक व हिंदीप्रेमी उपस्थित थे। मुझे दो बातों ने विशेषकर प्रभावित किया। एक तो संस्था के संचालन में यहां सभी वर्गों के नागरिक अत्यन्त रुचि लेकर सहयोग करते हैं। दूसरे-विदर्भ के महाविद्यालयों तथा माध्यमिक शालाओं के शिक्षकों का हिंदी के प्रति अनुराग दुर्लभ व अनुकरणीय है। गोष्ठी के सत्रों के संचालन मेें, आलेख पठन में, आभार प्रदर्शन में याने हर मौके पर इसका प्रमाण मुझे मिला। संगोष्ठी में जो परचे पढ़े गए, उनका स्तर बहुत अच्छा था। लगता था कि आलेख लेखकों ने पर्याप्त परिश्रम किया है। एक तरफ मैं हिंदी में उनकी दक्षता व रुचि पर चकित था तो दूसरी ओर यह सोचकर पीड़ा हो रही थी कि हमारे छत्तीसगढ़ में ऐसा क्यों नहीं है।

लिखने के लिए बहुत कुछ है। किंतु मेरी बात अधूरी रहेगी जब तक मैं महाबीज के प्रबंध संचालक अरुण उन्हाले के प्रति आभार व्यक्त न करूं। वे स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। अपने निवास पर ही उन्होंने आत्मीयतापूर्वक मुझे ठहराया और संगोष्ठी की पूर्व संध्या पर 27 जून से आयोजित कवि सम्मेलन में अपनी नहीं, हरिवंश राय बच्चन की कविता भी सुनाई।
देशबन्धु में 6 अगस्त 2015 को प्रकाशित