Friday 21 August 2015

मंगलौर, कारकल, मुड़बिदरी




31 जुलाई की दोपहर मंगलौर विमानतल पर उतरते साथ जिस अव्यवस्था के दर्शन हुए उससे मन सशंकित हुआ कि क्या आगे की यात्रा में भी यही सब झेलना होगा। हवाई अड्डे पर बेहद भीड़ और गहमागहमी थी। अपना सामान उठाने के लिए यात्री एक-दूसरे पर टूटे पड़ रहे थे। मैंने जो टैक्सी तय कर रखी थी उसका कहीं कोई अता-पता नहीं था। टेलीफोन किया तो आश्वासन मिला कि गाड़ी जल्दी ही पहुंच रही है। बाहर जो प्रीपेड टैक्सी वाले थे उनका कोई प्रतिनिधि फोन पर वार्तालाप सुनकर पास आया-आपको दूसरी टैक्सी करवा देते हैं, ओला कंपनी की टैक्सी हम यहां नहीं आने देते। मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी। कुछ देर बाद ओला टैक्सी ड्राइवर का फोन आया कि आप पार्किंग में आ जाइए, गाड़ी तैयार है। हम गाड़ी में बैठने को हुए तो उसे बाकी टैक्सी वालों ने घेर लिया, मैं कुछ नाराज हुआ तो उन्होंने टैक्सी वाले को यह कहकर छोड़ दिया कि बाद में देख लेंगे। इस बीच रिमझिम बारिश में हम थोड़ा भीग भी चुके थे। ओला पर गुस्सा आया कि एयरपोर्ट के टैक्सी वालों से तुम्हारा झगड़ा है तो फिर हमारे लिए ऑनलाइन बुकिंग क्यों स्वीकार की, पहले ही मना कर देते।

बहरहाल, इसके बाद दक्षिण कन्नड़ और कुर्ग की आठ दिन की यात्रा सुखद और निरापद रही। मंगलौर हम लोग चालीस साल बाद आए थे। उस समय शहर की सबसे ऊंची पहाड़ी से नीचे देखो तो सिवाय हरियाली के और कुछ दिखाई नहीं देता था। सुपारी और नारियल के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की छाया में दोमंजिले या ज्यादा हुआ तो तिमंजिले भवन छुप जाते थे। आज उसी मंगलौर में कांक्रीट की ऊंची-ऊंची इमारतें हरियाली को बौना कर दे रही हैं। विमानतल से शहर के रास्ते पर एक इमारत तो शायद बीस मंजिल की बन गई है, जबकि सात-आठ मंजिल के भवन बनना अब सामान्य बात है। गत चार दशक में एक तो मंगलौर के बंदरगाह का विकास हुआ और दूसरे एक बड़ा रासायनिक उद्योग यहां स्थापित हुआ जिसके पीछे-पीछे सहायक उद्योग भी आए। एक अन्य कारण यह भी बताया गया कि खाड़ी के देशों में काम कर रहे स्थानीय निवासियों को रिएल एस्टेट में निवेश करना अधिक सुरक्षित प्रतीत होता है।

यद्यपि मंगलौर ने आधुनिक शैली के एक नगर का रूप ले लिया है, फिर भी यह तथ्य तसल्लीदायक है कि शहर में आज भी हरियाली खूब है तथा प्रदूषण का स्तर बहुत कम व शहर ने अपनी प्राचीनता को बचा रखा है। मोटे तौर पर रेलवे स्टेशन से दक्षिण-पश्चिम की ओर याने समुद्र तट से लगकर पुराना शहर बसा हुआ है, जबकि नई बसाहट उत्तर की तरफ हो रही है। आते-जाते मंगलौर में हम तीन दिन रुके जिसमें दो सुखद अनुभवों का उल्लेख मैं करना चाहूंगा। एक तो ऑटो रिक्शा मीटर से चलते हैं, ड्रायवर सभ्यतापूर्वक पेश आते हैं और अजनबियों को बेवकूफ नहीं बनाते। दूसरा अनुभव रोचक है। हम लोग सड़क पर आटो की तलाश में धीरे-धीरे चल रहे थे, बारिश होने लगी थी, मैं शायद कुछ तेज चल रहा था। एक मिनट बाद मुड़कर देखा तो पाया कि एक अनजान तरुणी ने अपने छाते में श्रीमती जी को साथ ले लिया था। आज के दौर में ऐसा सौजन्य कल्पनातीत ही था।

अरब सागर के तट पर बसा मंगलौर एक प्राचीन नगर है। यहां स्थित कादरी मंदिर सन् नौ सौ अठ्ठावन ईस्वी में बना था। यहां शिव के मंजुनाथ स्वरूप की पूजा होती है। यद्यपि यह एक पुरातात्विक धरोहर है, लेकिन मंदिर के विशाल चौकोर प्रांगण में इतना कुछ नवनिर्माण हो चुका है कि उसका पुरातात्विक महत्व लगभग समाप्त हो गया है। इस मंदिर से पांच-छह किलोमीटर दूरी पर मंगलादेवी मंदिर है, जो मंगलौर की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है। इसका निर्माण कब हुआ इस बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी मैं हासिल नहीं कर पाया। एक विशेष बात दोनों मंदिरों के अलावा अन्य स्थानों पर भी देखने मिली कि मुख्य देवी-देवता के साथ में अन्य देवताओं के मंदिर भी उसी प्रांगण में अवस्थित हैं। एक तरह से शैव, वैष्णव, शाक्त इन तीनों संप्रदायों का साहचर्य यहां देखने मिल सकता है। एक और विशेषता पर ध्यान गया कि हर मंदिर में एक या अधिक यज्ञ संचालित हो रहे हैं।

मंगलौर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर बेलूर का चन्नकेशव मंदिर और उसी के निकट हॉलीबिडु में शिव मंदिर अवस्थित हैं। आज से एक हजार वर्ष पूर्व होयसल राजाओं ने इन्हें स्थापित किया था। मेेेेरी दृष्टि में माउंट आबू के देलवाड़ा जैन मंदिर के बाद ये दोनों मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से बेजोड़ हैं। अगर समय होता तो इस बार भी हमें फिर इन मंदिरों को देखने की इच्छा थी। भारत अपने मंदिर शिल्प के लिए विख्यात रहा है और ये दोनों मंदिर उसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। फिर भी हमारे पास जो समय था उसमें हमने दो अन्य पुरातात्विक धरोहरों को देखने में व्यतीत किया। मंगलौर से चालीस किलोमीटर पर कारकल नामक छोटा सा कस्बा है। यहां लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व (सन् 1432) एक पहाड़ी पर बाहुबली की प्रतिमा स्थापित की गई थी। यह एक जैन मंदिर है। बाहुबली की बयालीस फीट ऊंची प्रतिमा एक पत्थर से बनी है और उसकी भव्यता आकर्षित करती है। कई बरसों तक यह मूर्ति जमीन में दबी हुई थी। पहाड़ी पर सिर्फ मंदिर की प्राचीर दिखाई देती थी। अभी कोई पन्द्रह-बीस साल पहले यह प्रतिमा धरती के गर्भ में मिली और प्रतिष्ठित की गई। इसके ठीक सामने नब्बे डिग्री पर एक और जैन मंदिर है-चतुर्मुख मंदिर (सन् 1586)। यहां गर्भगृह में चारों दिशाओं में तीन-तीन कर बारह तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इन्हें स्थापित करने में इतनी बारीकी बरती गई है कि हर दिशा में बीच की प्रतिमा के पैरों की खुली जगह से विपरीत दिशा में बीच में स्थापित प्रतिमा के पैरों की खुली जगह देख सकते हैं। ऐसी अद्भुत कलाकारी दुर्लभ है।

मंगलौर और कारकल के बीच जैन धर्म का एक और प्रमुख तीर्थ है- मुड़बिदरी। यहां अठारह जैन मंदिर हैं। जो सर्वप्रमुख मंदिर है वहां गैर जैनों का प्रवेश निषिद्ध है। छत्तीसगढ़ के पाठकों को स्मरण होगा कि दो साल पहले इसी मंदिर से बेशकीमती मूर्तियां चोरी हुई थीं जिसमें रायपुर के किसी जौहरी का नाम भी आया था। खैर! इस नगर में हम जैसे पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र था थाउजेंड पिलर टेम्पल याने एक सहस्र स्तंभों वाला मंदिर। यह जैन मंदिर भी लगभग चार सौ साल पुराना है लेकिन इसमें जो खंभे बने हैं वे सीधी सरल रेखाओं में हैं। राजस्थान के रनकपुर में भी एक हजार खंभों वाला जैन मंदिर है, किन्तु उसमें ऐसी जटिल कलाकारी है कि खंभे कभी भी पूरे नहीं गिने जा सकते।

दक्षिण कन्नड़ प्रदेश पश्चिमी घाट में अवस्थित है और यहां मैदानी इलाका नहीं के बराबर है। यह अंचल अपनी जैव विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है। नारियल और सुपारी तो बहुतायत से होती ही है और न जाने कितनी प्रकार की वनस्पतियों की फसल यहां होती है। इसका कुछ अनुमान हमें मुड़बिदरी के पास सोन्स फार्म पर पहुंच कर हुआ। एल.सी. सोन्स और उनके भाईयों ने इस बागवानी प्रक्षेत्र को विकसित किया है। यहां वे करीब एक हजार किस्म की वनस्पतियां उगाते हैं। यहां की वर्षा वन की जलवायु में बहुत सारे विदेशी पौधे भी अपने लिए अनुकूल वातावरण पा लेते हैं। सोन्स बंधुओं ने अपनी व्यवसायिक बुद्धि का परिचय देते हुए इस फार्म को एक आकर्षक पर्यटक स्थल का भी रूप दे दिया है। जब मौसम अनुकूल हो तो वे बांस के झुरमुटों के बीच देशी-विदेशी अतिथियों के लिए सशुल्क पार्टियों का आयोजन भी करते हैं। हमारे ड्रायवर के अनुरोध पर हमने यहां अनानास का ताजा रस पिया और वह सचमुच बेहद मीठा व स्वादिष्ट था।
देशबन्धु में 20 अगस्त 2015 को प्रकाशित

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