Wednesday, 26 August 2015

कावेरी, कोडग़ू, कॉफी, कोको

 



"अच्छा
तो आप दक्षिण का काश्मीर घूम आए।" यह टिप्पणी एक प्रिय मित्र ने की जब मैंने उन्हें अपनी मडि़केरी यात्रा के बारे में बताया। उनका कहना सही था। काश्मीर घाटी में यदि चिनार और पॉप्लर हैं तो कोडग़ू घाटी में नारियल और सुपारी के आकाश से होड़ लेते दरख्त हैं। वहां केशर है, तो यहां इलायची, जायफल, जावत्री और लौंग। वहां झेलम है, तो यहां कावेरी। वहां हिमालय की पर्वतमाला है, तो यहां सघन हरियाली में डूबी नीलगिरी की शृंखला। कोडग़ू याने कुर्ग जिले का मुख्यालय मडि़केरी में है जिसे पहले मरकरा के नाम से जाना जाता था। यह वह जिला है जिसने भारत को फील्ड मार्शल करियप्पा तथा जनरल थिमैय्या जैसे सेनानायक दिए। बहुत तारीफ सुन रखी थी कर्नाटक के दक्षिण-पश्चिम में बसे इस पर्वत प्रदेश की। यह भी सुना था कि यहां के स्त्री-पुरुष अतीव सुंदर होते हैं, वहां पहुंचकर अनुमान हुआ कि यह एक अतिशयोक्ति थी।

मडि़केरी एक छोटा सा नगर है। आबादी कोई तीस हजार होगी। अपनी भौगोलिक संरचना में इसकी तुलना पचमढ़ी से की जा सकती है। चारों तरफ पहाडिय़ों पर बसे मुहल्ले और घेरदार-घुमावदार सड़कें। पूरा जिला ही समुद्र सतह से तीन हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर बसा है इसलिए वातावरण में साल भर ठंडक बनी रहती है। हम वर्षा ऋतु में छुट्टियां मना रहे थे तो बारिश के कारण मौसम में ठंडक कुछ अधिक ही थी। कोडग़ू जिले में मुख्यत: कोडग़ू भाषा ही बोली जाती है। उसमें और छत्तीसगढ़ के जशपुर अंचल की कुडख भाषा में काफी समानताएं हैं। ऐेसी धारणा भी है कि सिंधु घाटी से निकलकर कोई मनुष्य दल सुदूर दक्षिण में कोडग़ू में आकर  बसा था और उन्हीं की एक शाखा ने आगे चलकर जशपुर और रांची की तरफ आकर डेरा डाल दिया। इस पर्वत प्रदेश में सामान्य तौर पर खेती के योग्य भूमि नहीं है, लेकिन यहां की आबोहवा में मसालों के साथ-साथ कॉफी और कोको की पैदावार खूब होती है।

यहां के अधिसंख्य कामकाजी लोग नगद फसलों के बगीचों में ही काम करते हैं। एक समय सेना में जाने के प्रति काफी उत्साह था, लेकिन अब वह कम हो गया है। फिर भी एक बड़ी संख्या में स्थानीय युवा देश की सेना में काम कर रहे हैं। इस बीच पर्यटन उद्योग के प्रति यहां खासी दिलचस्पी पैदा हुई है। बेशुमार तो होटल और रिसोर्ट खुल गए हैं। कॉफी के बगीचे वालों ने भी अपने यहां पर्यटकों के लिए विश्राम कुटीरें बना रखी हैं। टैक्सी और भोजनालयों की तो गिनती ही नहीं है। मडि़केरी से तीस किलोमीटर के वृत्त में जहां चले जाइए, होमस्टे के बोर्ड आपको दिखाई दे जाएंगे। मालूम पड़ा कि ऐसे करीब सात सौ घर हैं जहां घर मालिकों ने पर्यटकों को ठहराने के लिए दो-चार कमरे अलग से बना रखे हैं। गृहस्वामी कोई रिटायर्ड व्यक्ति हो सकता है, कोई अवकाश प्राप्त फौजी या कोई टैक्सी ड्रायवर भी। इनके किराए भी अपेक्षाकृत कम हैं और आप चाहें तो कोडग़ू शैली में बने घर के भोजन का आनंद भी उठा सकते हैं।

आप जहां भी ठहरे हों बाहर निकलें तो चारों तरफ हरियाली ही हरियाली नज़र आती है। पहाड़ की ऊंची चोटियाँ लगभग हर समय कोहरे से ढंकी रहती हैं। अभी कॉफी के पौधों में फल नहीं आए हैं। दो-तीन महीने बाद जब पौधे फलेंगे तो हरी पत्तियों और लाल बेरियों की अलग ही छटा नज़र आएगी। सुपारी और अन्य ऊंचे वृक्षों पर कालीमिर्च की बेलें इस तरह लिपटी हैं कि जैसे जनम-जनम का साथ हो। जब कालीमिर्च तोडऩे का समय आता है तो ऊंची-ऊंची सीढिय़ां लगाकर उन्हें इकट्ठा करने में खासी मशक्कत करना पड़ती है। इलायची के पौधे की पत्तियां काफी लंबी और कुछ-कुछ तलवारनुमा होती हैं। इलायची लगती है नीचे जड़ के एकदम पास। उन्हें बीनना भी कोई आसान काम नहीं है। इन बगीचों में काम करने वाले किसान औसतन दस-बारह हजार रुपया प्रतिमाह कमा पाते हैं।

भारत की प्रमुख नदियों में से एक कावेरी नदी का उद्गम मडि़केरी से लगभग पैंतालीस किलोमीटर दूर तालकावेरी नामक स्थान पर है। यह जगह लगभग अड़तीस सौ फीट ऊंचाई पर है और उसके पीछे कोडग़ू की शायद सबसे ऊंची पांच हजार फीट वाली चोटी भी है। यहीं से एक पहाड़ी झरने के रूप में कावेरी प्रकट होती है और तालकावेरी में एक छोटा-सा कुंड है जहां से वह आगे बहती है। यहां कर्नाटक सरकार ने एक सुंदर सा परिसर निर्मित कर दिया है। कावेरी कुंड में ठीक वैसे ही पूजा-अर्चना चलते रहती है जैसी अमरकंटक के नर्मदा कुंड में अथवा मुलताई के ताप्ती कुंड में। लेकिन यहां कुंड का आकार बहुत बड़ा नहीं है। कावेरी कुंड का परिसर तीन-चार तलों का है। नीचे के तल पर दर्शनार्थियों के लिए प्रसाधन की व्यवस्था भी है। इसके ठेकेदार महोदय पटना बिहार के एक सज्जन निकले। वे अपने घर से इतनी दूर यहां अकेले बैठे हुए यात्रियों की सुविधा का ख्याल करते हुए अपनी रोजी-रोटी के प्रबंध में लगे हुए थे। उन्होंने बताया कि साल में डेढ़-दो लाख की आमदनी हो जाती है।

तालकावेरी से आठ किलोमीटर पहले भगमंडल नामक एक छोटा सा गांव है। यहां भगंडेश्वर महादेव का मंदिर है। इसी परिसर में गणेशजी भी विराज रहे हैं और एक तरफ विष्णु भगवान भी विराजित हैं। यह मंदिर तो बहुत पुराना नहीं है, लेकिन इसमें जो मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं वे पुरातात्विक महत्व की प्रतीत होती हैं। एक बात मैंने नोट की कि इलाके के अधिकतर मंदिरों में मूर्तियों पर चांदी के कवच चढ़ा दिए गए हैं। इसके पीछे क्या कारण होगा मालूम नहीं। पुजारी लोग टूटी-फूटी हिन्दी तो बोल लेते हैं, लेकिन उनसे पूरी तरह संवाद स्थापित नहीं हो पाता। खैर! इस गांव की एक और विशेषता है कि यहां त्रिवेणी संगम है। अड़तीस सौ फीट की ऊंचाई से लगभग आठ सौ फीट नीचे उतरकर कावेरी यहां अन्य दो छोटी-बड़ी नदियों के साथ मिलन करती हैं।

मडि़केरी में नगर के बीच एक और मंदिर है। ओंकारेश्वर मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा सन् 1820 में हुई थी अर्थात् पांच साल बाद इसे दो सौ साल पूरे हो जाएंगे। कोडग़ू के राजा लिंगराज ने इसकी स्थापना की थी। मंदिर परिसर में एक सुंदर सा जलाशय निर्मित है। इस अंचल की काश्मीर से तुलना करते हुए बात ध्यान आती है कि काश्मीर घाटी की तरह यहां जलाशय नहीं हंै। ओंकारेश्वर मंदिर का जलाशय इस कमी को अत्यन्त अल्पांश में पूरा करता है। इस मंदिर की सबसे बड़ी खूबी इसका स्थापत्य है। मंदिर के मुख्य भवन के चार कोनों पर चार मीनारें हैं जिनसे मस्जिद का भ्रम होता है। जानकारों के अनुसार, यह इंडो-सरसानिक याने भारत-ईरानी स्थापत्य का उदाहरण है। ऐसा क्या सोच-समझकर किया गया था क्योंकि लिंगराज संभवत: मैसूर के राजा स्वतंत्रता सेनानी टीपू सुल्तान के करद थे!

कोडग़ू जिले में ही एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर है जिसकी ख्याति देश-विदेश तक है। इस मंदिर को सामान्यत: गोल्डन टेंपल के नाम से जाना जाता है किन्तु यह बौद्ध धर्म का मंदिर है। इसका निर्माण ही सन् 1963 में किया गया तथा धर्मशाला (हिमाचल) के बाद भारत में यह सबसे बड़ा बौद्ध मंदिर है। यह स्थान मडि़केरी से लगभग चालीस किलोमीटर की दूरी पर है। एक विशाल प्रांगण में तीन प्रमुख मंदिर, उनके अलावा यह धर्मदीक्षा का केन्द्र भी है। हमें बहुत से तिब्बती बच्चे अपनी पारंपरिक वेशभूषा में दिखाई दिए, लेकिन वे अपरिचितों से बात नहीं करते।  इन मंदिरों में भगवान बुद्ध तथा तिब्बती परंपरा में बौद्धधर्म के अन्य इष्ट देवों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इस परिसर की भव्यता कुल मिलाकर अपनी ओर आकर्षित करती है।

कोडग़ू जिले में चूंकि कोको और कॉफी दोनों प्रचुरता में उपलब्ध हैं इसलिए यहां कुटीर उद्योग के रूप में चाकलेट बनती है और सच मानिए कि यहां घर-घर में बनी चाकलेट स्विस चाकलेट को स्वाद में मात देती है।
देशबन्धु में 27 अगस्त 2015 को प्रकाशित

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