मैं उस दिन संयोगवश दिल्ली
में ही था। अखबारों में पढ़ा कि गुडगांव शहर को सप्ताह में एक दिन
वाहनमुक्त रखने का प्रयोग किया जा रहा है। नागरिकों को सलाह दी गई कि वे
मोटर कार लेकर सड़क पर न आएं। जहां तक संभव हो मेट्रो रेल सेवा और
साइकिलों का उपयोग करें। इस प्रयोग का नागरिकों ने बहुत उत्साह के साथ
स्वागत किया तथा अगले दिन सड़कों पर बहुत कम मोटर कारें चलीं। इस दिन के जो
चित्र लिए गए उनका पुराने चित्रों से मिलान करने पर सिद्ध हुआ कि कम
वाहनों के कारण वायु प्रदूषण में भारी कमी आई। उस दिन गुडग़ांव का आकाश कुछ
अधिक चमकीला और निरभ्र था। यह अनुमान हम कर सकते हैं कि ध्वनि प्रदूषण में
भी कमी आई होगी, सड़कों पर पैदल और साइकिल पर चलने वालों को अधिक सुरक्षा
महसूस हुई होगी, दुर्घटनाएं कम हुई होंगी और नाहक के विवाद भी कम ही हुए
होंगे।
कुल मिलाकर यह सफल प्रयोग सिद्ध हुआ। इससे उत्साहित होकर गुड़गांव के प्रशासन ने प्रयोग को स्थायी बनाने पर विचार करने प्रारंभ कर दिया है। यह उल्लेखनीय है कि गुडगांव में ही कुछेक वर्ष पूर्व राहगीरी कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी, जिसमें रविवार को नगर की किसी प्रमुख सड़क पर ऑटो यातायात प्रतिबंधित कर उस इलाके को जनता की चहल-पहल हेतु कुछ घंटों के लिए खोल दिया जाता है। यह प्रयोग भोपाल में भी चल रहा है। यद्यपि अभी खबरें मिली हैं कि भोपाल प्रशासन इस ओर से उदासीन हो गया है तथा राहगीरी के कार्पोरेट प्रायोजकों ने अपना हाथ खींचना शुरु कर दिया है। खैर, गुडगांव को सप्ताह में एक दिन वाहनमुक्त रखने के प्रयोग का दिल्ली पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ा है तथा दिल्ली सरकार ने माह में एक दिन इस प्रयोग को अपनाने का वायदा किया है। देखते हैं कि गुडगांव की यह पहल कहां तक रंग लाती है।
बहरहाल 22-23 सितम्बर को जब दिल्ली में मैंने ये खबरें पढ़ीं तो मुझे स्वाभाविक ही आज से तेईस साल पहले रायपुर में किए गए ऐसे ही प्रयोग का ध्यान हो आया। मैं अगर दावा करूं कि यह देश में इस तरह का पहला प्रयोग था तो गलत नहीं होगा। रायपुर शहर में 5 जून 1992 को विश्व पर्यावरण दिवस पर शहर की सड़कों को वाहनमुक्त रखने का निर्णय लिया था और यह पूरी तरह से सफल हुआ था। रामकृष्ण मिशन के स्वामी सत्यरूपानंद, रविशंकर, वि.वि. के कुलपति डॉ. एम.एम. ललोरया, संभागायुक्त ए.डी. मोहिले, जिलाधीश आर.पी. श्रीवास्तव जैसे प्रमुखजन भी उस दिन अपने दफ्तर साइकिल से या पैदल ही गए। शाम को एक साइकिल रैैली आयोजित की गई जिसमें इनके अलावा विधायक तरुण चटर्जी, चन्द्रशेखर साहू, पूर्व विधायक स्वरूपचंद जैन, पूर्व सांसद केयूर भूषण आदि ने भी भाग लिया।
रायपुर के तमाम व्यापारी संगठनों ने अपने सदस्यों से अपील की थी कि वे उस दिन कार या स्कूटर के बजाय साइकिल या रिक्शे का प्रयोग करें। तमाम श्रमिक संगठनों ने भी इसी आशय की अपील की। रोटरी, लायंस, जेसीस सहित अनेक सामाजिक संस्थाओं ने भी इस कार्यक्रम का अनुमोदन किया। यह एक रोचक प्रसंग था कि आयुक्त मोहिलेजी के पास साइकिल नहीं थी तो उन्होंने अपने दफ्तर से किसी की साइकिल उधार ली। जिलाधीश श्रीवास्तवजी साइकिल के कैरियर पर अपना बस्ता लेकर जिलाधीश कार्यालय आए। पर्यावरण रक्षा के लिए इस कार्यक्रम की परिकल्पना भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के रायपुर अध्याय द्वारा की गई थी, किन्तु अगर कार्यक्रम सफल हो सका तो इसलिए कि प्रशासन और जनता दोनों का खुले मन से इसमें सहयोग और समर्थन मिला।
आज लगभग ढाई दशक बाद जब गुडगांव की सड़कों पर यह प्रयोग दोहराया गया तो इसे एक-दिनी प्रयोग तक सीमित न रख इन बुनियादी मुद्दों पर सोचने की आवश्यकता है कि पर्यावरण रक्षा, सड़क सुरक्षा व स्वस्थ वातावरण के लिए हम सब मिलजुल कर क्या कर सकते हैं। मुझे याद आता है कि कुछ वर्ष पूर्व ग्रीस की राजधानी एथेंस में यूरोप के बत्तीस बड़े शहरों के महापौर इकट्ठे हुए थे और उन्होंने एथेंस की सड़कों पर साइकिल रैली निकाल कर पूरे यूरोप को एक संदेश देने की कोशिश की थी। ध्यान रखें कि यूरोप इस मामले में पहले ही बहुत आगे और बहुत सजग है। वहां रेलों में साइकिल यात्रियों के विशेष डिब्बे होते हैं जिनमें वे अपनी साइकिल के साथ एक नगर से दूसरे नगर जा सकते हैं। समय और पेट्रोल दोनों की बचत।
यूरोप, अमेरिका और जापान में बड़ी तादाद में लोग साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। जापान में रेलवे स्टेशनों के बाहर आप हजारों साइकिलें खड़ी देख सकते हैं। यूरोप में साइकिल चालकों के लिए सड़क पर अलग से लेन बनी होती है। फ्रांस में तो दुनिया की सबसे प्रमुख साइकिल दौड़ प्रतिस्पर्धा आयोजित की जाती है। हम भारत में फार्मूला-1 याने कार दौड़ लेकर तो आ गए लेकिन फ्रांस के टूर डे आर्च याने साइकिल दौड़ का अनुकरण करने की हमें अभी तक नहीं सूझी। हमारी विडंबना देखिए कि एक तरफ हम बच्चों को खासकर लड़कियों को स्कूल में आने के लिए प्रेरित करने हेतु नि:शुल्क साइकिलें बांटते हैं, लेकिन उसके आगे साइकिल सवारी को प्रोत्साहित करने के बारे में नहीं सोचते।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के संस्थापक व मेरे मित्र अनिल अग्रवाल साइकिल सवारी के बहुत बड़े हिमायती थे। उनकी उत्तराधिकारी व सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद सुनीता नारायण साइकिल पर ही चलती हैं। दो वर्ष पूर्व किसी तेज रफ्तार वाहन से ठोकर खाकर वे गंभीर रूप से घायल भी हो गई थीं। फिर भी वे लगातार स्वच्छ पर्यावरण की चिंता में साइकिल सवारी व सार्वजनिक यातायात याने बस सवारी के बारे में जनता को जागरूक करने के काम में लगी हुई हैं। हमें इन तमाम उदाहरणों से सीखने की आवश्यकता है। इस बारे में कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनको एक बार फिर देख लेना चाहिए। सबसे पहले यह समझना होगा कि भारत आज भी अपनी आवश्यकता का सत्तर प्रतिशत तेल आयात करता है। इसके लिए अरबों-खरबों का भुगतान विदेशी मुद्रा में करना होता है। यह हम जानते हैं कि जट्रोफा से तेल निकालने का प्रयोग निष्फल हो चुका है।
यहां सवाल सिर्फ विदेशी मुद्रा का नहीं है। तेल जितना जलेगा उतना ही वायु प्रदूषण बढ़ेगा। डीजल के इस्तेमाल से कैंसर का खतरा बढ़ता है। इसके आगे यह भी सोचना होगा कि गाडिय़ों की दिन पर दिन बढ़ती संख्या को सम्हालने के लिए सड़कें कहां से आएंगी और पार्किंग कैसे होंगी? जनता देख रही है कि आज टू लेन बनाओ तो कल फोर लेन, परसों सिक्स लेन और उसके अगले दिन एट लेन की जरूरत पडऩे लगती है। इतनी सड़कें कहां बनेंगी और कैसे बनेंगी? इनके निर्माण के लिए जिस सामग्री की दरकार होगी क्या वह असीमित मात्रा में उपलब्ध है? जनता यह भी जान रही है कि आवासी इलाकों में पार्किंग की चाहे जितनी व्यवस्था की जाए वह कम पड़ जाती है। फिर ध्वनि प्रदूषण, सड़कों पर भीड़-भाड़, समय की बर्बादी, गुस्से में आकर हो रहे झगड़े, दुर्घटनाएं- इन सबकी समाज को जो कीमत चुकानी पड़ती है, क्या उसका कोई हिसाब है?
हम गुडगांव की पहल का स्वागत करते हैं। चूंकि यह प्रयोग राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में हुआ है इसलिए उम्मीद बंधती है कि पूरे देश में इसका सही संदेश जाएगा। वक्त आ गया है कि हम सार्वजनिक परिवहन तथा साइकिलों के बारे में सोचें।
कुल मिलाकर यह सफल प्रयोग सिद्ध हुआ। इससे उत्साहित होकर गुड़गांव के प्रशासन ने प्रयोग को स्थायी बनाने पर विचार करने प्रारंभ कर दिया है। यह उल्लेखनीय है कि गुडगांव में ही कुछेक वर्ष पूर्व राहगीरी कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी, जिसमें रविवार को नगर की किसी प्रमुख सड़क पर ऑटो यातायात प्रतिबंधित कर उस इलाके को जनता की चहल-पहल हेतु कुछ घंटों के लिए खोल दिया जाता है। यह प्रयोग भोपाल में भी चल रहा है। यद्यपि अभी खबरें मिली हैं कि भोपाल प्रशासन इस ओर से उदासीन हो गया है तथा राहगीरी के कार्पोरेट प्रायोजकों ने अपना हाथ खींचना शुरु कर दिया है। खैर, गुडगांव को सप्ताह में एक दिन वाहनमुक्त रखने के प्रयोग का दिल्ली पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ा है तथा दिल्ली सरकार ने माह में एक दिन इस प्रयोग को अपनाने का वायदा किया है। देखते हैं कि गुडगांव की यह पहल कहां तक रंग लाती है।
बहरहाल 22-23 सितम्बर को जब दिल्ली में मैंने ये खबरें पढ़ीं तो मुझे स्वाभाविक ही आज से तेईस साल पहले रायपुर में किए गए ऐसे ही प्रयोग का ध्यान हो आया। मैं अगर दावा करूं कि यह देश में इस तरह का पहला प्रयोग था तो गलत नहीं होगा। रायपुर शहर में 5 जून 1992 को विश्व पर्यावरण दिवस पर शहर की सड़कों को वाहनमुक्त रखने का निर्णय लिया था और यह पूरी तरह से सफल हुआ था। रामकृष्ण मिशन के स्वामी सत्यरूपानंद, रविशंकर, वि.वि. के कुलपति डॉ. एम.एम. ललोरया, संभागायुक्त ए.डी. मोहिले, जिलाधीश आर.पी. श्रीवास्तव जैसे प्रमुखजन भी उस दिन अपने दफ्तर साइकिल से या पैदल ही गए। शाम को एक साइकिल रैैली आयोजित की गई जिसमें इनके अलावा विधायक तरुण चटर्जी, चन्द्रशेखर साहू, पूर्व विधायक स्वरूपचंद जैन, पूर्व सांसद केयूर भूषण आदि ने भी भाग लिया।
रायपुर के तमाम व्यापारी संगठनों ने अपने सदस्यों से अपील की थी कि वे उस दिन कार या स्कूटर के बजाय साइकिल या रिक्शे का प्रयोग करें। तमाम श्रमिक संगठनों ने भी इसी आशय की अपील की। रोटरी, लायंस, जेसीस सहित अनेक सामाजिक संस्थाओं ने भी इस कार्यक्रम का अनुमोदन किया। यह एक रोचक प्रसंग था कि आयुक्त मोहिलेजी के पास साइकिल नहीं थी तो उन्होंने अपने दफ्तर से किसी की साइकिल उधार ली। जिलाधीश श्रीवास्तवजी साइकिल के कैरियर पर अपना बस्ता लेकर जिलाधीश कार्यालय आए। पर्यावरण रक्षा के लिए इस कार्यक्रम की परिकल्पना भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के रायपुर अध्याय द्वारा की गई थी, किन्तु अगर कार्यक्रम सफल हो सका तो इसलिए कि प्रशासन और जनता दोनों का खुले मन से इसमें सहयोग और समर्थन मिला।
आज लगभग ढाई दशक बाद जब गुडगांव की सड़कों पर यह प्रयोग दोहराया गया तो इसे एक-दिनी प्रयोग तक सीमित न रख इन बुनियादी मुद्दों पर सोचने की आवश्यकता है कि पर्यावरण रक्षा, सड़क सुरक्षा व स्वस्थ वातावरण के लिए हम सब मिलजुल कर क्या कर सकते हैं। मुझे याद आता है कि कुछ वर्ष पूर्व ग्रीस की राजधानी एथेंस में यूरोप के बत्तीस बड़े शहरों के महापौर इकट्ठे हुए थे और उन्होंने एथेंस की सड़कों पर साइकिल रैली निकाल कर पूरे यूरोप को एक संदेश देने की कोशिश की थी। ध्यान रखें कि यूरोप इस मामले में पहले ही बहुत आगे और बहुत सजग है। वहां रेलों में साइकिल यात्रियों के विशेष डिब्बे होते हैं जिनमें वे अपनी साइकिल के साथ एक नगर से दूसरे नगर जा सकते हैं। समय और पेट्रोल दोनों की बचत।
यूरोप, अमेरिका और जापान में बड़ी तादाद में लोग साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। जापान में रेलवे स्टेशनों के बाहर आप हजारों साइकिलें खड़ी देख सकते हैं। यूरोप में साइकिल चालकों के लिए सड़क पर अलग से लेन बनी होती है। फ्रांस में तो दुनिया की सबसे प्रमुख साइकिल दौड़ प्रतिस्पर्धा आयोजित की जाती है। हम भारत में फार्मूला-1 याने कार दौड़ लेकर तो आ गए लेकिन फ्रांस के टूर डे आर्च याने साइकिल दौड़ का अनुकरण करने की हमें अभी तक नहीं सूझी। हमारी विडंबना देखिए कि एक तरफ हम बच्चों को खासकर लड़कियों को स्कूल में आने के लिए प्रेरित करने हेतु नि:शुल्क साइकिलें बांटते हैं, लेकिन उसके आगे साइकिल सवारी को प्रोत्साहित करने के बारे में नहीं सोचते।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के संस्थापक व मेरे मित्र अनिल अग्रवाल साइकिल सवारी के बहुत बड़े हिमायती थे। उनकी उत्तराधिकारी व सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद सुनीता नारायण साइकिल पर ही चलती हैं। दो वर्ष पूर्व किसी तेज रफ्तार वाहन से ठोकर खाकर वे गंभीर रूप से घायल भी हो गई थीं। फिर भी वे लगातार स्वच्छ पर्यावरण की चिंता में साइकिल सवारी व सार्वजनिक यातायात याने बस सवारी के बारे में जनता को जागरूक करने के काम में लगी हुई हैं। हमें इन तमाम उदाहरणों से सीखने की आवश्यकता है। इस बारे में कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनको एक बार फिर देख लेना चाहिए। सबसे पहले यह समझना होगा कि भारत आज भी अपनी आवश्यकता का सत्तर प्रतिशत तेल आयात करता है। इसके लिए अरबों-खरबों का भुगतान विदेशी मुद्रा में करना होता है। यह हम जानते हैं कि जट्रोफा से तेल निकालने का प्रयोग निष्फल हो चुका है।
यहां सवाल सिर्फ विदेशी मुद्रा का नहीं है। तेल जितना जलेगा उतना ही वायु प्रदूषण बढ़ेगा। डीजल के इस्तेमाल से कैंसर का खतरा बढ़ता है। इसके आगे यह भी सोचना होगा कि गाडिय़ों की दिन पर दिन बढ़ती संख्या को सम्हालने के लिए सड़कें कहां से आएंगी और पार्किंग कैसे होंगी? जनता देख रही है कि आज टू लेन बनाओ तो कल फोर लेन, परसों सिक्स लेन और उसके अगले दिन एट लेन की जरूरत पडऩे लगती है। इतनी सड़कें कहां बनेंगी और कैसे बनेंगी? इनके निर्माण के लिए जिस सामग्री की दरकार होगी क्या वह असीमित मात्रा में उपलब्ध है? जनता यह भी जान रही है कि आवासी इलाकों में पार्किंग की चाहे जितनी व्यवस्था की जाए वह कम पड़ जाती है। फिर ध्वनि प्रदूषण, सड़कों पर भीड़-भाड़, समय की बर्बादी, गुस्से में आकर हो रहे झगड़े, दुर्घटनाएं- इन सबकी समाज को जो कीमत चुकानी पड़ती है, क्या उसका कोई हिसाब है?
हम गुडगांव की पहल का स्वागत करते हैं। चूंकि यह प्रयोग राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में हुआ है इसलिए उम्मीद बंधती है कि पूरे देश में इसका सही संदेश जाएगा। वक्त आ गया है कि हम सार्वजनिक परिवहन तथा साइकिलों के बारे में सोचें।
देशबन्धु में 1 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित
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