Friday, 30 October 2015

ओसियां और जोधपुर


 दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान। जैसे रेत का समुद्र। आज से कई लाख साल पहले यहां समुद्र ही तो था। इस जनहीन विस्तार के बीच में कहीं-कहीं बालुई चट्टानों से बनी पहाडिय़ां। मरुस्थल की जड़ता को तोड़ती हुई। मैं कल्पना कर रहा हूं आज से बारह-तेरह सौ साल पहले के समय की। इस निर्जन में किसे और क्यों सूझा होगा कि यहां मंदिर बनाया जाए तो क्या शायद यहां कोई छोटी-मोटी बस्ती रही होगी? वहीं कहीं आसपास मीठे पानी का कोई स्रोत रहा होगा। अगर पानी न होता तो मनुष्य की बसाहट भी कैसे होती? मैं कल्पना के घोड़े दौड़ाता हूं तो एक बात समझ आती है। यह जगह पश्चिमी भारत से उत्तर भारत को जोडऩे वाले किसी यात्रापथ पर रही होगी। शायद प्राचीन सिल्क रूट की कोई शाखा! आते-जाते काफिले मीठे पानी के सरोवर के पास डेरा डालते होंगे। धीरे-धीरे यहां स्थायी बस्ती बसी होगी। तब पहले कोई मुखिया, फिर कोई राजा यहां का शासक बन गया होगा और यह स्थान उस प्राचीन समय के मानचित्र पर अंकित हो गया होगा।

मैं बात कर रहा हूं ओसियां की। जोधपुर के पास बसा एक प्राचीन नगर जहां आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच निर्मित मंदिरों का एक पूरा समूह है। मंदिरों की कुल संख्या दो दर्जन के आसपास होगी। जंग खाए, धुंधलाए सूचना पटल से जानकारी मिलती है कि प्रतिहार राजाओं ने इन मंदिरों का निर्माण कराया था। इनमें बड़ी संख्या जैन मंदिरों की है। शैव, वैष्णव और शाक्त मत के देवालय भी यहां पर हैं। श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी ओसवाल समाज में मान्यता है कि ओसियां से ही उनके समाज का प्रादुर्भाव हुआ। यह इतिहासकारों का विषय है, लेकिन ओसवाल समाज की राजस्थान में जो प्रबल उपस्थिति है उसे देखते हुए यह मान्यता सत्य हो सकती है। जैसा कि ऐतिहासिक संदर्भों में अक्सर होता है तथ्य के साथ मिथक जुड़ जाते हैं, तो इस प्राचीन मंदिरों के नगर में मिथक भी सुनने मिल जाते हैं।

ओसियां में सबसे प्रमुख मंदिर है सच्चाय माता का। यह मंदिर एक टेकरी पर अवस्थित है। पहले ऊपर जाने के लिए पगडंडी रही होगी, लेकिन अब यात्रियों की सुविधा के लिए सीढिय़ां बन गई हैं। सीढिय़ों के दोनों ओर कार्यालय, रसोईघर व अन्य व्यवस्थाओं के लिए बहुत सारा निर्माण हो चुका है। सीढिय़ां संगमरमर की हैं। जगह-जगह पर दानदाताओं  के नामों का उल्लेख है। सीढिय़ों के ऊपर खंभों के सहारे छत भी डाल दी गई है। इनमें प्राचीनता का पुट देने की कोशिश की गई है, लेकिन नया निर्माण देखने से ही समझ आ जाता है। सीढिय़ां चढ़ते वक्त लगता है मानो आप किसी सुरंग में ऊपर चढ़ रहे हैं। श्रद्धालुओं को इस व्यवस्था से अवश्य ही सुविधा हुई होगी, लेकिन निर्माण करवाने वालों ने ध्यान नहीं दिया कि मंदिर में प्राचीनता का जो वैभव है वह इसके चलते धूमिल हो रहा है। बहरहाल सच्चाय माता का यह देवालय राजस्थान के करोड़ों लोगों की श्रद्धा और विश्वास का केन्द्र है। यहां जैन, वैष्णव, शैव, शाक्त सब आते हैं।

इस मंदिर परिसर में दो प्रमुख विशेषताएं मुझे समझ में आईं। एक तो टेकरी पर यह एक अकेला मंदिर नहीं है। उसके साथ सात-आठ मंदिरों का एक समुच्चय जैसा है। एक तरफ लक्ष्मी-नारायण का मंदिर है, तो दूसरी तरफ गणेश का। यहां एक मंदिर में भगवान शंकर विराज रहे हैं तो दुर्गा के नौ स्वरूपों की भी प्रतिमाएं यहां प्रतिष्ठित हैं। मुख्य मंदिर से कुछ फीट नीचे के स्तर पर दशावतार की मूर्तियां भी विद्यमान हैं। ये सारे मंदिर आकार में बहुत बड़े नहीं हैं। फिर भी टेकरी के एक छोटे से क्षेत्रफल में इतने सारे स्वतंत्र मंदिरों का संकुल कम से कम मेरे देखनेे में और कहीं नहीं आया। दूसरी विशेषता इन मंदिरों का स्थापत्य है। हरेक मंदिर में बालुई पत्थरों पर जो नक्काशी की गई है वह अद्भुत है। आप चाहे खंभों को देखें या बाहरी दीवारों को, मूर्तियों को देखें या फिर छत को, सब तरफ पाषाण शिल्पियों की बेजोड़ कलात्मक प्रतिभा का परिचय मिलता है।

सच्चाय माता का मंदिर जागृत मंदिर है याने यहां पूजा-पाठ चलते रहता है। इस कारण मंदिर का रख-रखाव हो जाता है। गो कि प्राचीन विन्यास में जो परिवर्तन किए गए हैं वे बहुत सुखद नहीं हैं। हैरत की बड़ी बात यह है कि ओसियां में जो अन्य मंदिर हैं उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। पहाड़ी के नीचे जहां पार्किंग की व्यवस्था है, जहां सुरक्षा कर्मी, पार्किंग ठेकेदार आदि पांच-सात लोग बैठे रहते हैं, जहां चाय-पानी की कई सारी दुकानें हैं, वहीं, बिल्कुल वहीं पांच-छह मंदिर अपनी दुरावस्था पर आंसू बहाते खड़े हैं। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। राजस्थान के पुरातत्व विभाग ने न जाने कब एक सूचना पटल लगाया था जिसकी लिखावट लगभग मिट चुकी है। उससे जो जानकारी मिल सकती है, ले लीजिए, बाकी तो मंदिर के जगत पर बैठी बकरियां और नीचे घूम रही गायों को देखकर आप जितना समझ लें उतना बहुत। जो राजस्थान पर्यटन के लिए इतना प्रसिद्ध है वहां इस प्रमुख विरासत स्थल की ऐसी उपेक्षा को आपराधिक माना जाए तो गलत नहीं होगा।

मैं जितना जानता हूं उसके अनुसार चित्तौडग़ढ़ भारत का सबसे पुराना किला है, उसके बाद जैसलमेर का नंबर आता है जो साढ़े आठ सौ साल पहले बना था। दूसरे शब्दों में, ओसियां राजस्थान के प्राचीनतम नगरों में से एक है। यहीं से उठकर कुछ लोग जैसलमेर गए होंगे। जो प्रस्तर शिल्प ओसियां के मंदिरों में दिखाई देता है उसी की बानगी जैसलमेर के किले में अवस्थित चार-पांच सौ साल बाद बने जैन मंदिरों में देखी जा सकती है। संभव है कि यहां जलस्रोत सूखने से या अन्य किन्हीं कारणों से ओसियां की बजाय जैसलमेर होकर नया यात्रापथ बन गया हो! जो भी हो, इस स्थान के संरक्षण पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।

मेरा ओसियां जाने का कार्यक्रम अचानक ही बन गया। मैं गया तो जोधपुर तक था। वहां के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में आयोजित पुर्नश्चर्या पाठ्य में व्याख्यान देने के लिए। बीच में थोड़ा समय था। पूछा कि आसपास कहां-क्या देख सकते हैं? मालूम पड़ा कि ओसियां मात्र यहां से साठ किलोमीटर दूर है। वहां क्या है? उत्तर था- सच्चाय माता का मंदिर है। यह सुनकर मेरी बुद्धि एकदम जागृत हुई। अरे, यही तो हमारी कुलदेवी हैं, जिनकी पूजा दादी किया करती थीं। बस आनन-फानन में कार्यक्रम बन गया। जोधपुर से ओसियां तक का रास्ता बहुत बढिय़ा है और जैसा कि आजकल चलन है इस सड़क पर टोल टैक्स पटाना पड़ता है। जोधपुर से बाहर निकलते-निकलते एक शैक्षणिक परिसर के बीच से हम गुजरते हैं। अशोक गहलोत जब मुख्यमंत्री थे तब वे यहां पर अनेक उच्च शिक्षण संस्थान लेकर आए थे, जिनमें सरदार पटेल (कृपया नोट करें) के नाम पर स्थापित राष्ट्रीय पुलिस वि.वि. भी है।

जोधपुर पुराना शहर तो है, लेकिन बहुत पुराना नहीं। उसकी स्थापना लगभग चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी। जोधपुर रियासत की पुरानी राजधानी मंडोर में थी। वह रास्ते पर ही थी। लौटते वक्त यहां के भग्नावशेष देखना चाहते थे, किन्तु समयाभाव के कारण यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई। आज का जोधपुर, जयपुर के बाद राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। इसकी आबादी फिलहाल कोई तीस-पैंतीस लाख होगी। प्रदेश में शिक्षा का बड़ा केन्द्र तो है ही, थलसेना तथा वायुसेना की भी बड़ी छावनियां हैं। शहर में चार या पांच रेलवे स्टेशन हैं। इनमें भगत की कोठी भी है जहां से छत्तीसगढ़ के लिए सीधी ट्रेन चलती है। राजा ने कभी किसी साधु को महलनुमा कोठी दक्षिणा में दे दी थी इसलिए यह नाम पड़ गया। एक स्टेशन का नाम राई का बाग है। यहां कभी सरसों की खेती हुआ करती थी।

जोधपुर में मुझे सबसे अधिक आनंद वि.वि. परिसर को देखकर हुआ। पुराने शहर में पुराना परिसर है वह अपनी जगह है। यह नया परिसर नौ सौ एकड़ में फैला है। साठ के दशक में विख्यात शिक्षाशास्त्री वी.वी.जॉन जब यहां कुलपति थे, तब उन्होंने यह भूमि हासिल कर ली थी। आज वि.वि. का हर व्यक्ति प्रोफेसर जॉन की दूरदर्शिता की चर्चा करता है। उनके कार्यकाल में ही अज्ञेय और नामवर सिंह जैसे विद्वान यहां अध्यापक बनकर आए। किन्तु मुझे ध्यान आता है कि प्रोफेसर जॉन को बहुत दुखी मन से प्रतिकूल स्थितियों में जोधपुर छोडऩा पड़ा था। उस समय जो जोधपुर ने देखा, वह आज शायद पूरा देश देख रहा है।

देशबन्धु में 29 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित 

Wednesday, 21 October 2015

लेखक का विद्रोह बनाम सत्ता का अहंकार

 



अगर
कुछ लेखकों ने पद, सम्मान या पुरस्कार लौटा दिए हैं तो इसमें केंद्र सरकार को इतना आग-बबूला क्यों होना चाहिए था? प्रधानमंत्री के विश्वस्त और देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि ये सब लोग कांग्रेसी, वामपंथी या नेहरूवादी हैं और उनका यह विरोध कागजी है। मान लेते हैं कि आप ही सही कह रहे हैं, लेकिन उससे क्या सिद्ध होता है? जो लोग आपकी विचारधारा, आपके कामकाज और आपके तौर-तरीकों में इत्तिफाक नहीं रखते क्या उन्हें अपनी असहमति दर्ज कराने का अधिकार नहीं है? अगर आप ऐसा मानते हैं तब तो यह जनतंत्र वाली बात नहीं हुई। और यदि उनका विरोध कागजी है तब तो आपको रंचमात्र भी चिंता नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे आपको कोई नुकसान होने से रहा। लेकिन श्री जेटली, अन्य मंत्रियों एवं समर्थक पत्रकारों-लेखकों ने जो टीका-टिप्पणियां की हैं, उससे अनुमान होता है कि लेखकों के  विरोध से सरकार की छवि को जो धक्का पहुंचा है, उससे सरकार व उसके सहयोगी समूह किसी हद तक चिंतित हो उठे हैं। भाजपा को शायद पहिली बार पता चला है कि लेखक इस किस्म के भी होते हैं।

भारतीय जनता पार्टी के साथ सदा से दिक्कत रही है कि वह भावनाओं की राजनीति से आगे नहीं बढ़ पाई। उसके लिए देशभक्ति व राष्ट्रप्रेम वही है कि जो मनोज कुमार की फिल्मों में दिखाया जाता है। यह अकारण नहीं है कि भाजपा में बड़े-छोटे परदों के अभिनेताओं का बड़ा सम्मान होता है। यही देशभक्ति उन्हें सेना व पुलिस के अफसरों की ओर भी आकर्षित करती है और जब साहित्य की बात उठती है तो वे उन मंचीय कवियों पर बिछे जाते हैं जो वीररस या हास्यरस की कथित कविताएं सुनाकर मनोरंजन करते हैं। ये समझते हैं कि चीनी तुमको पानी में घोलकर पी जाएंगे या पाक तू नापाक है जैसी कविताओं से मोर्चा फतह किया जा सकता है। ऐसा कहना बहुत गलत नहीं होगा कि इन्हें एक असुरक्षा की भावना हरदम घेरे रहती है। यूं तो संघ परिवार प्राचीन भारतीय संस्कृति का निरंतर जयघोष करता है, लेकिन वास्तविकता यही है कि अधिकतर नेता नाम-जाप और कर्मकांड से आगे संस्कृति से वास्ता नहीं रखते।

भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी अपवाद के रूप में उपस्थित हैं। उनका अपने समकालीन लेखकों में से अनेक से संपर्क रहा है और विचारधारा के परे जाकर भी उनके साथ संवाद स्थापित करने में लेखकों ने संकोच नहीं किया। शिवमंगल सिंह सुमन उनके अध्यापक थे तथा वाजपेयीजी उनका बराबर सम्मान करते रहे। हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. शांताकुमार व छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की भी समकालीन साहित्य में थोड़ी-बहुत रुचि रही है। ऐसे कतिपय अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं। अब जब उदयप्रकाश से प्रारंभ कर मृत्युंजय प्रभाकर तक अनेक जाने-माने लेखकों ने विरोध प्रकट किया, तब शायद भाजपा को पहिली बार पता चला कि देश में बुद्धिजीवियों की कोई ऐसी भी जमात है जो चरण स्पर्श, साष्टांग दंडवत और पेट के बल रेंगने के बजाय आंखों से आंखें मिलाकर बात करना जानती है तथा जो हर बात में, हर मौके पर जय-जयकार करने के बजाय अपनी बात कहने से नहीं हिचकती। काश! सरकार ने इस सच्चाई को जानने का प्रयत्न किया होता!

हम याद दिलाएं कि उदयप्रकाश ने 4 सितंबर को अपना पुरस्कार लौटाने की घोषणा तब की, जब अकादमी पुरस्कार विजेता व अकादमी की सामान्य सभा के सदस्य प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी ने न तो शोकसभा की और न ही शोक प्रस्ताव पारित किया। अगर देश के लेखकों की सर्वोच्च संस्था अपने एक वर्तमान सदस्य की हत्या से भी बेखबर है तो इससे बढ़कर विडंबना क्या हो सकती है? उदयप्रकाश ने एक सटीक सैद्धांतिक बिंदु उठाया था, जिसका संज्ञान लिया जाना चाहिए था। इसके बाद नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी और अन्यों के विरोध प्रदर्शन की खबरें एक के बाद एक आईं। उन्होंने वर्तमान राजनैतिक-सामाजिक वातावरण के बारे में प्रश्न उठाए। देश में बढ़ती असहिष्णुता पर चिंता व्यक्त की। अगर केंद्र सरकार में कोई सही सलाह देने वाला होता तो सार्वजनिक रूप से इन लेखकों की भावनाओं से अवगत होने का संज्ञान लिया गया होता तथा देश में सद्भाव बनाए रखने के लिए हर संभव उपाय अपनाने का आश्वासन दिया जाता। ऐसा नहीं किया गया तो उसके पीछे यही मानसिकता काम कर रही थी कि 25-50 लेखक हमारा क्या बिगाड़ लेंगे।

सच तो यह है कि जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, उस दिन तक सत्तापक्ष की ओर से जो ढेरों प्रतिक्रियाएं आई हैं उनका केंद्रीय स्वर यही है कि लेखकों के विरोध से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम जानते हैं कि लोकसभा में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है और अगले साढ़े तीन साल तक प्रत्यक्षत: सरकार के सामने कोई चुनौती दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन सत्ताधीशों का यह अहंकार किसी भी दिन उन पर भारी पड़ सकता है। राम और रावण की तुलना करते समय जो कहा जाता है, वह तो भाजपा के शीर्ष नेताओं को अवश्य ही स्मरण होगा। और न हो तो कम से कम आज दशहरे के दिन याद कर लें कि रावण की पराजय अपने किस दुर्गुण के चलते हुई थी। जो हम कह रहे हैं उसके छोटे-मोटे लक्षण दिखना भी प्रारंभ हो गए हैं। जिन ओवैसी को भाजपा ने परोक्ष रूप से बिहार के चुनावी मैदान में उतारा था, वे सिमट कर एक कोने में बैठ गए हैं; उसी प्रदेश में शरद पवार की राकांपा ने मुलायम सिंह की सपा से गठजोड़ तोड़ लिया है, क्योंकि सपा नेता भाजपा के मुरीद हो चले हैं और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ नाभि-नाल संबंध होने के बावजूद सब कुछ ठीक नहीं है।

आगे बढऩे के पहिले यह तथ्य रेखांकित करना उचित होगा कि जिन लेखकों ने पुरस्कार-सम्मान लौटाए हैं, वे लगभग पूरे भारत का और लगभग सभी भाषाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें कश्मीर से केरल व पूर्वोत्तर से लेकर महाराष्ट्र तक के लेखक हैं। इनमें वृद्ध, प्रौढ़, युवा, स्त्री, पुरुष सभी हैं। अनेक ने पुरस्कार वापिस नहीं किए हैं, लेकिन केन्द्र सरकार की वर्तमान रीति-नीति की उन्होंने खुलकर आलोचना की है तथा विरोध जारी रखने का संकल्प व्यक्त किया है। फिर जेटली जी इन्हें चाहे जो घोषित करें, ये स्वतंत्रचेता बुद्धिजीवी हैं तथा इनमें से कई को हमने सत्ता चाहे जिसकी रही हो, बुनियादी मानवीय मूल्यों की रक्षा के प्रश्न पर सत्ता के विरोध में खड़ा होते देखा है। ये लेखक किसी सैन्य प्लाटून का हिस्सा नहीं है कि जैसा हुकुम मिला, वैसी तामील कर दी; इनमें से हरेक में अपने विवेक- बुद्धि से निर्णय लेने की क्षमता है।

लेखकों ने सम्मान-पुरस्कार क्यों लौटाए, इस पर तरह-तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं, जिनमें से अधिकांश प्रसंगच्युत, संदर्भहीन व असंगत हैं। मसलन अर्णब गोस्वामी ने अपने चैनल पर वक्तव्य दिया कि आपातकाल में हिटलर की जर्मनी से छह गुना अधिक नसबंदियां की गईं, तब संजय गांधी का विरोध क्यों नहीं किया। पहिले तो श्री गोस्वामी को यह सवाल करना ही था तो केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी से करते। दूसरे, टीवी के इस सुपरस्टार को याद नहीं आया कि नयनतारा सहगल ने आपातकाल का विरोध करने के साथ पीयूसीएल को स्थापित करने में भी अग्रणी भूमिका निभाई थी। इसी तरह के और न जाने कितने सवाल दागे गए हैं। इसका उत्तर यही है कि लेखक को जब सही लगा, उसने विरोध दर्ज किया। पहिले नहीं किया का अर्थ यह नहीं कि आज भी न करें। फिर यह महत्वपूर्ण बिन्दु नोट किया जाना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी नीतिगत रूप से दो राष्ट्र अवधारणा का विरोध करते आई है जबकि संघ की प्रेरणा से भाजपा भारत में हिन्दू राष्ट्र बनाने की पक्षधर है तथा वर्तमान में जो वातावरण बना है, उसके पीछे यही भावना काम कर रही है। कांग्रेस ने संगठन व सरकार दोनों स्तर पर ऐसा नहीं होने दिया, बावजूद इसके कि पार्टी में एक तबका प्रारंभ से ही रूढि़वादी सांप्रदायिक सोच का हामी रहा।

अब तक हम देख चुके हैं कि इस पूरे प्रसंग में लेखक चार वर्गो में बंट गए हंै। एक- जिन्होंने पुरस्कार आदि लौटाए। दो- जो विरोध तो करते हैं, लेकिन पुरस्कार नहीं लौटाना चाहते। तीन- जो अपने घर में चुपचाप बैठे हैं। कोऊ हो नृप, हमें का हानि। चार- जो पुरस्कार न लौटाने का औचित्य सिद्ध कर रहे हैं। विनोद कुमार शुक्ल ने दो बातें
पते की कहीं। एक तो उन्होंने कहा कि पुरस्कार कोई उधार नहीं था, जिसे लौटाया जाता। मैं कहना चाहता हूं कि पुरस्कार वाकई आप पर समाज का उधार है। उसके साथ कुछ अपेक्षाएं जुड़ी होती हैं उन्हें पूरा करने पर ही आप उऋण होते हैं। एक लेखक को गाढ़े वक्त में समाज को राह दिखाना चाहिए। यह उससे सबसे बड़ी अपेक्षा है। शायद शुक्लजी की दृष्टि में वह गाढ़ा वक्त नहीं आया। उन्होंने दूसरी बात कही कि जीवन भर पुरस्कार को सलीब की तरह ढोते रहेंगे। आमीन। लेकिन क्या यह तुलना तर्कसंगत है। कोई भी अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि दंडाधिकारी के आदेश से सलीब ढोता है। तुलसीदास के मुताबिक यह देह धरने का दंड भी हो सकता है। जो बात विनोद भाई कह रहे हैं उसका यह मतलब निकाला जा सकता है कि पुरस्कार वापिस न करने पर उनसे प्रश्न किया जाएगा कि आप क्यों पीछे रह गए। हां, सवाल शायद पूछा जा सकता है, लेकिन उसकी परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपने मनोनुकूल निर्णय ले। मैं पुरस्कार वापिस न करने वाले सभी मित्रों से कहना चाहूंगा कि यह सलीब नहीं है। अगर आपके मन पर इसका बोझ नहीं है तो मत उतारिए।
देशबन्धु में 22 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 14 October 2015

विकलांग चेतना का दौर


 



विगत सप्ताह इसी स्थान पर मैंने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु से जुड़े कुछ पहलुओं की चर्चा की थी, लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ और संतप्त नेता लालकृष्ण अडवानी ने तो मानो नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने के लिए मांग उठा दी है कि नेताजी की मृत्यु से संबंधित सारे दस्तावेज सार्वजनिक कर दिए जाएं तभी इस विवाद पर अंतिम रूप से विराम लगेगा। इस बीच नेताजी के कुछ कुटुम्बीजनों ने ममता बनर्जी सरकार पर जो शक प्रकट किया है उस पर कोई अधिकृत प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। शायद प. बंगाल सरकार ने ठीक ही किया है। यदि राज्य सरकार के पास सचमुच कोई बचे कागजात हैं वे भी सार्वजनिक कर दिए जाएं तो क्या बोस परिवार के संशयग्रस्त सदस्य उससे संतुष्ट हो पाएंगे या फिर कोई नया शिगूफा छोडऩे की तैयारी में जुट जाएंगे?

जो भी हो, इस दरम्यान भाजपा के शुभचिंतक पत्रकार स्वप्न दासगुप्ता का एक लेख कोलकाता के द टेलीग्राफ अखबार में प्रकाशित हुआ है। इसमें उन्होंने स्पष्ट मत व्यक्त किया है कि दस्तावेजों का खुलासा होने से कुछ आना-जाना नहीं है। वे पंडित नेहरू को भी संदेहमुक्त करते हैं, जो कि श्री दासगुप्ता की दक्षिणपंथी रुझान के चलते आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। उनका कहना है कि नेहरूजी जानते थे कि विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु की सच्चाई को शोकग्रस्त बोस परिवार स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है और इसलिए उन्होंने आधिकारिक तौर पर इसके खंडन-मंडन में कोई रुचि नहीं ली। बहरहाल, इसका यह परिणाम जरूर हुआ कि नेताजी के अंधभक्तों को उन्हें लेकर रहस्य का आवरण बुनने का मौका मिल गया। मुझे याद है कि जबलपुर में हमारे दफ्तर में 1961-62 में मोहन लहरी नाम के एक सज्जन ने कुछ समय काम किया था। वे नेताजी के जीवित होने का दावा हर किसी से करते थे।  लगभग चालीस साल बाद ये सज्जन बस्तर में कहीं आकर बस गए थे। नेताजी का साथी होने के आधार पर उनको जो सम्मान मिला उसके चलते उनका अंतिम समय ठीक-ठाक कट गया।

बहरहाल नेताजी तक चर्चा सीमित रहती तब भी गनीमत थी। लेकिन हो यह रहा है कि इस प्रकरण को जो हवा मिली उससे कुछ और लोगों की भी हौसला अफजाई हो गई है। लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र व कांग्रेस नेता अनिल शास्त्री ने मांग  की है कि शास्त्रीजी की मृत्यु से संबंधित सारे दस्तावेज जनता के सामने रखे जाएं। वे अपनी स्वर्गीया मां के हवाले से कहते हैं कि उन्हें शास्त्रीजी की हृदयाघात से मौत होने पर विश्वास नहीं था। मुझे ध्यान आता है कि रायपुर में 1965 में शरद पूर्णिमा के कवि सम्मेलन में पधारे एक मंचीय कवि ने जो कविता सुनाई थी उसमें वर्णन था कि उनके सपने में ललितादेवी शास्त्री यह कहने के लिए आईं कि तुम्हारे बाबूजी (शास्त्रीजी) को जहर देकर मारा गया है। इस तथाकथित कविता में इंदिरा गांधी पर सीधे-सीधे आरोप मढ़ा गया था। उनके इस विषवमन के बाद श्रोताओं ने उन्हें बुरी तरह हूट कर दिया था। हाल के समय में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने भी अपनी आत्मकथा में शास्त्रीजी की हत्या किए जाने का आरोप लगाया है। अब प्रश्न उठता है कि अनिल शास्त्री को आज यह मुद्दा उठाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? वैसे वे इस बात से दुखी होंगे कि जांच कराने की बात तो दूर रही, प्रधानमंत्री मोदी 2 अक्टूबर को विजयघाट तक नहीं गए!

नेताजी और शास्त्रीजी के बाद शहीदे-आज़म भगतसिंह की तीसरी-चौथी पीढ़ी के सदस्य भी सामने आ गए हैं। वे आरोप लगा रहे हैं कि स्वतंत्र भारत में भी उनके घर की जासूसी होते रही है। अब जिसे मानना है वह इसे सच मान ले, किन्तु लाल बहादुर शास्त्री और भगतसिंह इन दोनों के प्रसंग में भी सहजबुद्धि कुछ और ही कहती है। जैसा कि सब जानते हैं शास्त्रीजी की मृत्यु ताशकंद में हुई थी। यह भी कोई छुपी बात नहीं है कि शास्त्रीजी को दिल की बीमारी थी। ताशकंद की जनवरी की हाड़ जमा देने वाली ठंड का उनकी सेहत पर क्या असर हुआ होगा यह सिर्फ अनुमान का विषय है, लेकिन जिस सोवियत संघ ने ताशकंद में सुलह वार्ता के लिए लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान दोनों को आमंत्रित किया था, उसकी कोई दिलचस्पी शास्त्रीजी की मृत्यु में होगी, यह कैसे और क्यों माना जाए? अपनी धरती पर किसी मेहमान की मृत्यु सोवियत सरकार के लिए अप्रत्याशित और दु:खद घटना ही रही होगी। दूसरी तरफ शास्त्रीजी की मृत्यु से भारत में किसको लाभ होता, यह भी एक नाहक प्रश्न है। याद रखना चाहिए कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मोरारजी देसाई वरिष्ठतम नेता थे तथा नेहरूजी व शास्त्रीजी दोनों की मृत्यु के बाद वे प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। इस तथ्य को ध्यान में रखेंगे तो अनर्गल आरोप का उत्तर अपने आप मिल जाएगा।

शहीदे-आज़म भगत सिंह के परिवार की खुफिया निगरानी होती थी यह आरोप भी हमें दूर की कौड़ी प्रतीत होता है। भगतसिंह को फांसी देने के बाद अंग्रेज सरकार ने भले ही उनके रिश्तेदारों पर नज़र रखी हो, लेकिन देश को स्वाधीनता मिलने के बाद इसकी कोई वजह दिखाई नहीं देती। इन तीनों प्रकरणों को लेकर मैं एक अन्य दृष्टि से विचार करता हूं। हमें ज्ञात है कि स्वाधीनता सेनानियों के वंशजों को सरकार द्वारा काफी सुविधाएं दी जाती हैं जैसे कि उनकी तीसरी पीढ़ी के लिए मेडिकल कॉलेज आदि में सीटें आरक्षित होती हैं। हम बहुत सारे फर्जी स्वाधीनता सेनानियों को जानते हैं। जब ऐसे लोग सरकारी सुविधाएं हासिल कर सकते हैं तो भगतसिंह, नेताजी व शास्त्रीजी के वंशज भी लाभ उठाने की क्यों न सोचें? मृत्यु की जांच के लिए नए सिरे से कमीशन बन जाए, उस बहाने कुछ पूछ-परख हो जाए, जांच के बहाने विदेश यात्रा का मौका मिल जाए, दिवंगत के नाम पर शोध संस्थान स्थापित करने के लिए अनुदान प्राप्त हो जाए और यह सब न भी हो तो कम से कम अखबारों में तस्वीर के साथ इंटरव्यू छपे, रोटरी क्लब वाले भाषण देने बुला लें और इस तरह पुरखों के नाम पर अपने को सम्मान मिलता रहे। यह भावना कहीं न कहीं काम करते दीखती है।

कुल मिलाकर मुझे लगता है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सारा देश ''थियेटर ऑफ द एब्सर्ड" में तब्दील हो गया है। मैं इसके लिए हिन्दी में पर्याय सोच रहा था। नौटंकी से बेहतर और कोई संज्ञा समझ नहीं आई, लेकिन जो दृश्य बना हुआ है उसे व्यक्त करने के लिए नौटंकी कहना पर्याप्त नहीं है। हरिशंकर परसाई ने काफी पहले विकलांग श्रद्धा का दौर शीर्षक से निबंध लिखा था। इसे थोड़ा बदलकर कह सकते हैं कि अब हम विकलांग चेतना के दौर से गुजर रहे हैं। हमें समझ नहीं आ रहा है कि आगे का रास्ता क्या है तथा किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में सब बैठे हुए हैं। जो सत्ता में हैं उनकी जीभ पर लगाम नहीं है। जिसकी जब जो मर्जी आती है कह देता है और जिन्हें प्रतिकार करना चाहिए वे घिसे-पिटे बयानों से आगे नहीं बढ़ते। अपने आप को उदारवादी, जनतंत्रवादी मानने वाले अनेकानेक बुद्धिजीवी तो तात्कालिक लाभ की प्रत्याशा में प्रतिगामी शक्तियों के सामने दंडवत तक करने लगे हैं। हमारे आसपास नित्यप्रति दिल दहलाने वाले अपराध घटित हो रहे हैं, लेकिन उनको रोकने में आज हम अपने आपको जितना असहाय पा रहे हैं ऐसा शायद पहले कभी नहीं हुआ। (नोट: इस कॉलम के लिखने व छपने के दरम्यान दस दिन का अंतराल रहा है। इस बीच अनेक जाने-माने लेखक प्रतिरोध करने सामने आए हैं। मुझे खुशी है कि उन्होंने मुझे एक सीमा तक गलत सिद्ध किया है)

एक गहरी हताशा सामाजिक जीवन में घर  करते जा रही है। महान लेखक आल्बेयर कामू ने एब्सर्ड को परिभाषित करते हुए ग्रीक मिथक से सिसीफस का उदाहरण दिया था- वह ऐसा इंसान है जो रोज एक चट्टान को ऊपर पहाड़ की चोटी तक ले जाने की कोशिश में लगा हुआ है। वह जितनी बार कोशिश करता है उतनी बार चट्टान खिसक कर नीचे आ जाती है याने एक निरर्थक उद्यम में वह अपना जीवन बिता रहा है। क्या यही स्थिति आज आम भारतीय की नहीं हो गई है? जब कोई अनहोनी हो जाए तो थोड़ी देर हाय-हाय कर लो, फिर चुप बैठ जाओ, फिर टीवी के समाचार चैनलों पर जो बहसें होती हैं, उसी में तत्व दर्शन की खोज कर अपने मन को समझा लो।
देशबन्धु में 15 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित

Friday, 9 October 2015

नेताजी की मृत्यु (!) : अपने-अपने हित





नेताजी
सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु को लेकर पिछले सत्तर साल से तरह-तरह की चर्चाएं देश में होती रही हैं। इस चर्चा को समाप्त न होने देने के पीछे कुछ व्यक्तियों और समूहों के अपने-अपने हित जुड़े रहे हैं। अभी एक बार फिर चर्चा गरम है और इसे हवा देने में तीन हित समूहों की भूमिका स्पष्ट दिखाई देती है। सबसे पहले भाजपा सरकार व संघ परिवार, फिर नेताजी के कुटुंब की तीसरी-चौथी पीढ़ी के कुछ सदस्य और सबसे अंत में इस मुुुद्दे पर हाल-हाल में सक्रिय हो गई पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। नेताजी अगर आज जीवित होते तो उनकी आयु एक सौ अठारह वर्ष होती। इसलिए तर्क दृष्टि यह कहती है कि नेताजी का निधन हो चुका है। उनकी मृत्यु कब, कैसे, किन परिस्थितियों में हुई यह हम शायद कभी नहीं जान पाएंगे। किंतु इस बहस को जीवित रखने से किसका क्या हित साधन हो रहा है, यही सोचने की बात है।

इसके पूर्व नेताजी व उनके द्वारा गठित आज़ाद हिन्द फौज से जुड़े कुछ तथ्यों को सामने रखने से वस्तुस्थिति समझने में हमें शायद मदद मिल सकेगी। सर्वप्रथम इस तथ्य को याद रखें कि 18 अगस्त 1945 (नेताजी की घोषित पुण्यतिथि) को भारत में ब्रिटेन का राज था। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था किन्तु भारत के स्वाधीन होने की उस समय कोई चर्चा नहीं थी। पंडित जवाहर लाल नेहरू के उस समय प्रधानमंत्री बनने या किसी अन्य रूप में शक्ति सम्पन्न होने का भी सवाल नहीं था। सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु विमान दुर्घटना में हुई या नहीं हुई इसके बारे में जानकारी ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों को ही हो सकती थी जिन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में हिटलर की सहयोगी जापानी सेना को पराजित किया था। यहां सवाल उठता है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक महानायक की मृत्यु के बारे में झूठी खबर फैलाकर ब्रिटेन का क्या भला हो सकता था।

यह तो सबको पता है कि नेताजी हिटलर के पास भारत की आज़ादी के लिए सैन्य सहायता मांगने गए थे और हिटलर ने ही उन्हें जापान भिजवा दिया था। धुरी राष्ट्रों की सहायता से ही नेताजी ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था, जिसमें पूर्वी देशों में तैनात ब्रिटिश भारतीय सेना के अनेक सिपाही विद्रोह करके शामिल हो गए थे। आज़ाद हिन्द फौज का सांगठनिक आधार बहुत मजबूत नहीं था। उद्दाम देशप्रेम की भावना ही उनकी मुख्य शक्ति थी। इसीलिए मित्र राष्ट्रों की सेना के सामने आज़ाद हिन्द फौज टिक नहीं पाई। बड़ी संख्या में सैनिक गिरफ्तार हुए और सेना के स्थापित नियमों के अनुसार उनका कोर्ट मार्शल हुआ। यहां ध्यान रहे कि द्वितीय विश्व युद्ध मई 45 में लगभग खत्म हो चुका था, जबकि जापान ने 15 अगस्त 1945 को अंतिम रूप से समर्पण कर दिया था।

यह हमारे इतिहास का एक रोचक और स्मरणीय प्रसंग है कि आज़ाद हिन्द फौज याने आईएनए के तीन प्रमुख सेनानियों के विरुद्ध जब लालकिले में ब्रिटिश सरकार ने कोर्ट मार्शल की कार्रवाई शुरु की तो इनकी वकालत करने के लिए बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू ने बरसों बाद एक बार फिर अपना काला गाउन पहना तथा सुविख्यात वकील भूलाभाई देसाई के साथ मिलकर उनकी पैरवी की। इन तीनों के नाम उस समय बच्चे-बच्चे की जुबान पर थे- सहगल, ढिल्लो, शाहनवाज़। इसके आगे की जानकारी और भी गौरतलब है। कर्नल शाहनवाज़ खान कांग्रेस की टिकट पर अमरोहा (उत्तरप्रदेश) से लोकसभा के उम्मीदवार बनाए गए। जीतने के बाद वे नेहरू सरकार में मंत्री भी बने। कर्नल गुरुदयाल सिंह ढिल्लो मध्यप्रदेश में ग्वालियर के पास शिवपुरी में आकर बसे। यहां उनको सरकार द्वारा खेती के लिए जमीन दी गई। वे भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन हिन्दू महासभा के उम्मीदवार के आगे जीत नहीं सके क्योंकि हिन्दू महासभा प्रत्याशी को ग्वालियर राजदरबार का समर्थन प्राप्त था।

कर्नल प्रेम सहगल कानपुर जाकर बस गए और एक कम्युनिस्ट नेता के रूप में राजनीति में सक्रिय हुए। उनकी पत्नी कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल आईएनए की झांसी रानी बिग्रेड की कमांडर थीं। दोनों पति-पत्नी वामपंथी राजनीति में ताउम्र सक्रिय रहे। कैप्टन लक्ष्मी ने अपनी मेडिकल प्रैक्टिस जारी रखी और एक ममतामयी डॉक्टर के रूप में उन्होंने ख्याति प्राप्त की। यह याद कर लेना मुनासिब होगा कि 2002 में  वामदलों ने कैप्टन लक्ष्मी को एपीजे अब्दुल कलाम के खिलाफ राष्ट्रपति चुनाव में खड़ा किया था। डॉ. कलाम सपा द्वारा प्रस्तावित भाजपा के उम्मीदवार थे और कांग्रेस ने भी उन्हें समर्थन देना बेहतर समझा था।  इस तरह आज़ाद हिन्द फौज की एक वीर नायिका को अपनी वृद्धावस्था में पराजय का सामना करना पड़ा।

नेताजी द्वारा स्थापित आईएनए के सैनिकों याने नेताजी के अनुयायियों के प्रति कांग्रेस के लंबे शासनकाल में एक सम्मान का एक भाव लगातार विद्यमान था। कैप्टन लक्ष्मी सहगल को तो पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया। इसके अलावा आईएनए के तमाम सैनिकों को यद्यपि सेना में तो दुबारा नहीं लिया गया, लेकिन उनके पुनर्वास की वैकल्पिक व्यवस्था अवश्य की गई। रायपुर में ही कैप्टन नत्थासिंह मिन्हास थे। उनके पुत्र अक्षर सिंह मेरे मित्र थे। नेताजी और उनके साथियों के प्रति सरकार व समाज में जो आदर था वह अन्य रूपों में भी व्यक्त हुआ। मसलन, स्कूलों में विद्यार्थियों के जो दल या हाउस बनते थे उनमें नेहरू हाउस होता था तो सुभाष हाउस भी अवश्य होता था। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण देखने मिल जाएंगे।

इस पृष्ठभूमि में हम इस प्रश्न की ओर वापिस लौटते हैं कि विवाद को जीवित रखने में किसका हित साधन हो रहा है। अभी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नेताजी से संबंधित अड़सठ फाइलें जो राज्य सरकार के पास थीं, वे सार्वजनिक कर दी हैं। उन्हें पुलिस म्यूजियम में जनता के अवलोकनार्थ रख दिया गया है। पिछले लगभग एक माह में कितने ही लोगों ने इन फाइलों को देखा होगा लेकिन उससे कुछ हासिल हुआ प्रतीत नहीं होता। ममता बनर्जी शायद सोचती हैं कि विधानसभा के निकट भविष्य में होने वाले चुनावों में उन्हें अपनी इस चतुराई से लाभ होगा, लेकिन अगर दस्तावेजों से नए तथ्य उभर कर सामने नहीं आ रहे हैं तो उनको फायदा मिलना संदिग्ध ही है।

नेताजी के कुछ कुटुंबीजन भी फाइलों को उजागर करने के लिए बड़ी दौड़धूप कर रहे हैं। उनकी उम्मीदें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर टिकी हुई हैं। यह मजे की बात है कि नेताजी की कानूनी वारिस व उनकी अपनी बेटी अनीता बोस खुद यह मानती हैं कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में हो चुकी है। सहज बुद्धि कहती है कि दूरदराज के रिश्तेदारों के बजाय सगी बेटी की बात पर विश्वास किया जाए। मज़ेदार बात यह है कि अब यही कुटुंबीजन ममता दी पर शक व्यक्त कर रहे हैं कि उन्होंने सारे दस्तावेज उजागर नहीं किए। याने विवाद चलते रहना चाहिए। इसके पीछे हमें निजी स्वार्थ साधन की भावना ही नज़र आती है। जहां तक भाजपा और संघ की बात है तो उनका मुख्य मकसद एक ही है कि येन-केन-प्रकारेण पंडित जवाहर लाल नेहरू की छवि को धूमिल किया जाए। उनकी इन कोशिशों को हम पिछले साठ साल से देख रहे हैं। इसके बावजूद केंद्र की मोदी सरकार चुनावी घोषणा के विपरीत अब नेताजी से संबंधित दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से इंकार कर रही है। उसने अपना रुख बदला है तो इसके पीछे कोई जबरदस्त कारण ही होगा। जनता को भावनाओं में बहने के बजाय सोचना चाहिए कि यह कारण क्या हो सकता है।
देशबन्धु में 8 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित
 

Monday, 5 October 2015

वर्तमान समय और प्रगतिशील आंदोलन



वर्तमान समय पर चर्चा करना हो तो पहला प्रश्न यही उठता है कि इसका आरंभ कहां से माना जाए और उसका आधार क्या हो। इसके लिए उन परिवर्तनों को चिन्हित करने की आवश्यकता होगी जो वर्तमान और पूर्ववर्ती समय के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींचते हैं। भारत के संदर्भ में बात हो तो संभवत: 1991 को एक परिवर्तनकारी मोड़ के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस वर्ष प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव व वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की जोड़ी ने उन आर्थिक परिवर्तनों की नींव रखी थी जिनका दूरगामी प्रभाव देश की आंतरिक नीति, विदेश नीति, सामाजिक परिस्थितियों, सांस्कृतिक परिवेश व धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों पर पड़ा था। यहां स्पष्ट कर देना उचित होगा कि ऐसे बड़े बदलाव रातोंरात तो होते नहीं हैं, एक अंदरूनी प्रक्रिया गुपचुप चलती रहती है इसलिए यह मानना अधिक सही होगा कि 1991 के कुछ पहले ही इसकी शुरूआत हो गई होगी और जिसके पकने में आगे कुछ और साल बीत गए।
यूं वर्तमान समय का निर्धारण करते समय हम चाहें तो सीढ़ी दर सीढ़ी और पहले तक जा सकते हैं। सोवियत संघ का विघटन, बर्लिन दीवार का टूटना, जर्मनी का एकीकरण, मार्ग्रेट थैचर व रोनाल्ड रीगन की आर्थिक नीतियां- ये कुछ ऐसे कारक तत्व थे जिनका प्रभाव भारत सहित विश्व के अनेक देशों पर धीरे-धीरे कर पडऩा शुरू हुआ तथा जिसकी निष्पत्ति हम आज देख रहे हैं। अतीत में एक सीढ़ी और नीचे उतरें तो नेहरू युग की समाप्ति को भी एक युगांतरकारी मोड़ के रूप में देखा जा सकता है। मैं आपको कुछ और पीछे ले चलना चाहता हूं। 1947 में देश का आज़ाद होना एक बहुत बड़ी घटना थी जिसने तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों को प्रेरणा दी व उनकी अपनी आज़ादी की लड़ाई को धार देने का काम किया; लेकिन इसके समानांतर भारत का विभाजन होना भी उतनी ही महत्वपूर्ण दूसरी घटना थी। आज यह विचार करने की आवश्यकता है कि जब दक्षिण एशिया में धर्म पर आधारित एक नए देश याने पाकिस्तान की स्थापना हुई ठीक उसी समय पश्चिम एशिया में धर्म पर आधारित एक दूसरे देश याने इजराइल की स्थापना भी हुई।
भारत में ऐसे विद्वतजनों की कमी नहीं है जो पाकिस्तान निर्माण के लिए गांधी-नेहरू को दोषी ठहराते हैं। उन्हें यह सवाल स्वयं से पूछना चाहिए कि फिलिस्तीन को खत्म कर इजरायल की स्थापना का दोषी कौन था। मैंने वर्तमान समय का प्रारंभ निर्धारण करते हुए आज से सत्तर साल पहले जाने की आवश्यकता इसलिए महसूस की क्योंकि उपनिवेशवादी व साम्राज्यवादी ताकतों ने उस दशक में एशिया की धरती पर जो खेल खेला आज उसका विकराल स्वरूप लगभग पूरे एशिया में और उत्तर अफ्रीका में तो देखने मिल ही रहा है, यूरोप भी उसकी आंच में झुलसने से बच नहीं पाया है। यह गौरतलब है कि जिन ताकतों ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान और इजरायल का निर्माण करवाया वह नीति आज भी कहीं न कहीं कायम है। इंडोनेशिया से अलग होकर तिमोर ले-ईस्ते, सूडान से पृथक कर दक्षिण सूडान व उसके पूर्व इथोपिया को विभाजित कर इरीट्रिया की स्थापना आदि इसके उदाहरण हैं। यूगोस्लाविया को भी एक बार फिर धर्म आधारित देशों में विभाजित किया गया। करीब-करीब वही स्थिति बाल्टिक गणराज्यों में हुई तथा मध्य एशिया के सोवियत गणराज्यों में भी यही प्रयोग दोहराने के प्रयास किए गए।
हम सामान्यत: इस वृहत्तर परिदृश्य की ओर ध्यान नहीं देते। जब वर्तमान समय की चर्चा होती है तो स्वाभाविक ही उसके केन्द्र में वे परिस्थितियां होती हैं जो जीवन को तात्कालिक रूप से प्रभावित करती हैं। इसलिए इन दिनों हमारा विमर्श मुख्यत: एक संज्ञा के इर्द-गिर्द घूम रहा है वह है बाजारवाद। सरसरी निगाहें डालने पर यह समझ आता है कि बाजार ने हमारे जीवन को आक्रांत कर दिया है किन्तु बात इतनी सरल नहीं है। देश के वरिष्ठ अर्थशास्त्र विशेषज्ञ प्रोफेसर गिरीश मिश्र ने विस्तार में यह समझाया है कि पूंजीवाद के अनेक अवयव हैं और बाजार उनमें से सिर्फ एक है। वे बतलाते हैं कि बाजार तो सहस्रों वर्षों से चला आ रहा है, लेकिन आज उसका रूप बदल गया है। वे मानते हैं कि नवसाम्राज्यवाद तथा नवपूंजीवाद इसके दोषी हैं। मैं अपने आपको उनके विचारों से पूरी तरह सहमत पाता हूं।
एक समय बाजार नागरिकों के बीच सामान्य विनिमय का स्थान था और उसमें किसी हद तक मानवीय संबंधों की ऊष्मा थी। यह स्थिति आज पूरी तरह बदल चुकी है। अब क्रेता और विक्रेता के बीच सिर्फ लेन-देन का संबंध है। संबंधों का स्थान एक कठोर और जड़ निर्वैयक्तिकता ने ले लिया है। आज जब आप बाजार जाते हैं तो अपनी आवश्यकता का सौदा-सुलफ लेने के लिए नहीं बल्कि पूंजीवाद ने जो गैरजरूरी आकांक्षाएं जगा दी हैं उन्हें पूरा करने के लिए जाते हैं। और जब आप दुख या क्रोध में बाजार की आलोचना करते हैं तो उसकी नियामक शक्ति याने नवपूंजीवाद को भूल जाते हैं। बल्कि नवपूंजीवाद ने फर्जी आदर्श खड़े कर दिए हैं जाने-अनजाने में उनका ही अनुसरण करने लगते हैं।
बात यहां समाप्त नहीं होती। हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि नवपूंजीवाद ने एक तरफ उपभोक्ता बाजार खड़ा किया है तो दूसरी तरफ उसने युद्ध का बाजार भी सजा दिया है। उस बाजार में जो साजो-सामान बिकता है वह देशों के बीच लड़ाई में काम आता है। धर्म, नस्ल और कबीलों के नाम पर लड़ाइयों को भी वही जन्म देता है। जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां बिजली का सामान, कार, कैमरे और यात्री विमान बनाती हैं, वे ही विस्फोटक पदार्थ, टैंक, बंदूक, युद्धक विमान, खुफिया कैमरे आदि का भी उत्पादन करती हैं। इस तरह जो अरबों की कमाई होती है उसका हिसाब कहीं नहीं होता। पता करके देखिए कि पिछले वर्षों में भारत के शहरों में सार्वजनिक स्थानों पर जो सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं उन्हें किसने बनाया और उसकी कितनी कीमत हमें अदा करनी पड़ी। और यह उस व्यापार का छोटा सा अंश है। मैं यहां कहना चाहूंगा कि साम्राज्यवादी ताकतों ने इजरायल और पाकिस्तान का निर्माण ही इसलिए कराया था कि उससे आने वाले लंबे समय तक अकूत मुनाफे की संभावनाएं जुड़ी थीं। एशिया पर नियंत्रण रखने तथा रूस व चीन के प्रभाव को सीमित करने का मकसद तो इसके साथ था ही।
यह देखने की भी आवश्यकता है कि विगत कुछ दशकों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी का जिस गति से विकास हुआ है उससे नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का हित साधन किस तरह से हो रहा है। एक सामान्य व्यक्ति जब इंटरनेट आधारित सेवाओं का उपयोग करता है तो वह नहीं जानता कि सुदूर अमेरिका में कहीं किसी तलघर में उसके निजी जीवन से संबंधित सारी सूचनाएं एकत्र हो रही हैं। यह तथ्य अब भी कम लोगों को पता है कि सूचना प्रौद्योगिकी में हुए आविष्कार और विकास का प्रणेता अमेरिकी सैन्य तंत्र ही है। निश्चित रूप से नई प्रौद्योगिकी के अपने लाभ हैं, लेकिन बुनियादी मुद्दा यह है कि उसका नियंत्रण किनके हाथों में है। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि अपनी सुविधा व मनोरंजन के लिए अनजाने में ही हम उन शक्तियों के सीधे निशाने पर आ गए हैं जो विश्व को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं।
हमारे देश में नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल साम्प्रदायिकता व धार्मिक उन्माद बढ़ाने के लिए किस तरह किया गया इसे जानने के लिए बीस वर्ष पहले मुंबई में गणेश प्रतिमा के दूध पीने के असंभव प्रसंग को याद कीजिए। जो काम उस समय एसटीडी फोन से हो रहा था, नवीनतम साधनों के इस्तेमाल से उसमें और गति आ गई है। तकनीकी प्रगति ने जीवन के अनेक क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है जिसमें अधिक पूंजी और कम रोजगार वाला औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, कृषि का उद्योग में बदलना, युवा पीढ़ी की सोच में परिवर्तन, शिक्षा और स्वास्थ्य में पूंजी प्रवेश आदि ऐसे विविध क्षेत्रों में जो परिवर्तन आए उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसमें सब कुछ गलत हो रहा है यह कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन मुख्य रूप से हमारी चिंता इस बात को लेकर होना चाहिए कि समाज में असमानता तेजी से बढ़ रही है और उसी के साथ-साथ वैचारिक संकीर्णता भी हर स्तर पर पनप रही है। इसका प्रतिकूल प्रभाव जनतांत्रिक राजनीति पर इस रूप में देखा जा सकता है कि एक विचारशून्यता घर कर गई है।
इस व्यापक परिदृश्य में प्रगतिशील आंदोलन की क्या भूमिका हो यह एक बड़ा सवाल है। इस मोड़ पर कुछेक उपाय ध्यान में आते हैं। सबसे पहली आवश्यकता एक संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा बनाने की है। इसमें मध्यमार्गी, उदारवादी और वामपंथी सबको शामिल होना चाहिए। आखिरकार प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच आदि संगठनों में बुनियादी फर्क क्या है? इस विचारहीन समय में अगर लोक शिक्षण का काम करना है तो यह काम अलग-थलग रहकर नहीं हो सकता। आज जो राजनीतिक परिदृश्य है वह इन संगठनों को एकजुट होने के लिए आगाह कर रहा है। दूसरी बात संस्कृति कर्मियों को पद, पुरस्कार और यश के मोहजाल को तोडऩा होगा। इप्टा जैसी संस्था प्रेक्षागृह में जाकर नाटक करे यह एक बड़ी विडंबना है। तीसरे- ऊपर जिन संचार उपकरणों की बात हम कर आए हैं उनका उपयोग हमारे संस्कृतिकर्मी बड़े उत्साह से कर रहे हैं, लेकिन उसमें निजी आकांक्षाओं का ही प्रतिबिंब अधिक दिखता है। संस्कृति कर्मियों को इनका इस्तेमाल लोक शिक्षण के लिए करना होगा। चौथे, प्रगतिशील जनों को इंटरनेट योद्धा बनकर रुक नहीं जाना चाहिए। हम जनता से कितना सीधा और जीवंत संवाद स्थापित कर सकते हैं, इसकी हर संभावना तलाश करनी होगी। पांचवीं बात- वर्तमान परिदृश्य को समूचेपन में देखना होगा। अधिकार-सम्पन्नता व सशक्तिकरण के नाम पर जो भांति-भांति के विमर्श चल रहे हैं उनसे राजनैतिक चेतना भोथरी हो रही है व संघर्ष के लिए एकजुट होना कठिन हो गया है। अगली आवश्यकता इस बात की है कि पढऩे-लिखने का एक नया माहौल बने, जो कुछ हमारे आसपास घटित हो रहा है उस पर गंभीर चर्चा हो, समाज के अन्य वर्गों के साथ हम जीवंत संवाद स्थापित करें। इन सब बातों के लिए हरिशंकर परसाई से बेहतर हमारा मार्गदर्शन और कोई नहीं कर सकता।
(नोट- प्रगतिशील लेखक संघ, जबलपुर इकाई द्वारा आयोजित परसाई व्याख्यानमाला में 20 अगस्त 2015 को ''वर्तमान समय और प्रगतिशील आंदोलन" विषय पर दिए व्याख्यान का संवर्द्धित रूप)।
अक्षर पर्व अक्टूबर 2015 अंक की प्रस्तावना

Thursday, 1 October 2015

गुडगांव में एक अच्छी पहल




मैं उस दिन संयोगवश दिल्ली में ही था। अखबारों में पढ़ा कि गुडगांव शहर को सप्ताह में एक दिन वाहनमुक्त रखने का प्रयोग किया जा रहा है। नागरिकों को सलाह दी गई कि वे मोटर कार लेकर सड़क पर न आएं। जहां तक संभव हो मेट्रो रेल सेवा और साइकिलों का उपयोग करें। इस प्रयोग का नागरिकों ने बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया तथा अगले दिन सड़कों पर बहुत कम मोटर कारें चलीं। इस दिन के जो चित्र लिए गए उनका पुराने चित्रों से मिलान करने पर सिद्ध हुआ कि कम वाहनों के कारण वायु प्रदूषण में भारी कमी आई। उस दिन गुडग़ांव का आकाश कुछ अधिक चमकीला और निरभ्र था। यह अनुमान हम कर सकते हैं कि ध्वनि प्रदूषण में भी कमी आई होगी, सड़कों पर पैदल और साइकिल पर चलने वालों को अधिक सुरक्षा महसूस हुई होगी, दुर्घटनाएं कम हुई होंगी और नाहक के विवाद भी कम ही हुए होंगे।

कुल मिलाकर यह सफल प्रयोग सिद्ध हुआ। इससे उत्साहित होकर गुड़गांव के प्रशासन ने प्रयोग को स्थायी बनाने पर विचार करने प्रारंभ कर दिया है। यह उल्लेखनीय है कि गुडगांव में ही कुछेक वर्ष पूर्व राहगीरी कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी, जिसमें रविवार को नगर की किसी प्रमुख सड़क पर ऑटो यातायात प्रतिबंधित कर उस इलाके को जनता की चहल-पहल हेतु कुछ घंटों के लिए खोल दिया जाता है। यह प्रयोग भोपाल में भी चल रहा है। यद्यपि अभी खबरें मिली हैं कि भोपाल प्रशासन इस ओर से उदासीन हो गया है तथा राहगीरी के कार्पोरेट प्रायोजकों ने अपना हाथ खींचना शुरु कर दिया है। खैर, गुडगांव को सप्ताह में एक दिन वाहनमुक्त रखने के प्रयोग का दिल्ली पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ा है तथा दिल्ली सरकार ने माह में एक दिन इस प्रयोग को अपनाने का वायदा किया है। देखते हैं कि गुडगांव की यह पहल कहां तक रंग लाती है।

बहरहाल 22-23 सितम्बर को जब दिल्ली में मैंने ये खबरें पढ़ीं तो मुझे स्वाभाविक ही आज से तेईस साल पहले रायपुर में किए गए ऐसे ही प्रयोग का ध्यान हो आया। मैं अगर दावा करूं कि यह देश में इस तरह का पहला प्रयोग था तो गलत नहीं होगा। रायपुर शहर में 5 जून 1992 को विश्व पर्यावरण  दिवस पर शहर की सड़कों को वाहनमुक्त रखने का निर्णय लिया था और यह पूरी तरह से सफल हुआ था। रामकृष्ण मिशन के स्वामी सत्यरूपानंद, रविशंकर, वि.वि. के कुलपति डॉ. एम.एम. ललोरया, संभागायुक्त ए.डी. मोहिले, जिलाधीश आर.पी. श्रीवास्तव जैसे प्रमुखजन भी उस दिन अपने दफ्तर साइकिल से या पैदल ही गए। शाम को एक साइकिल रैैली आयोजित की गई जिसमें इनके अलावा विधायक तरुण चटर्जी, चन्द्रशेखर साहू, पूर्व विधायक स्वरूपचंद जैन, पूर्व सांसद केयूर भूषण आदि ने भी भाग लिया।

रायपुर के तमाम व्यापारी संगठनों ने अपने सदस्यों से अपील की थी कि वे उस दिन कार या स्कूटर के बजाय साइकिल या रिक्शे का प्रयोग करें। तमाम श्रमिक संगठनों ने भी इसी आशय की अपील की। रोटरी, लायंस, जेसीस सहित अनेक सामाजिक संस्थाओं ने भी इस कार्यक्रम का अनुमोदन किया। यह एक रोचक प्रसंग था कि आयुक्त मोहिलेजी के पास साइकिल नहीं थी तो उन्होंने अपने दफ्तर से किसी की साइकिल उधार ली। जिलाधीश श्रीवास्तवजी साइकिल के कैरियर पर अपना बस्ता लेकर जिलाधीश कार्यालय आए। पर्यावरण रक्षा के लिए इस कार्यक्रम की परिकल्पना भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के रायपुर अध्याय द्वारा की गई थी, किन्तु अगर कार्यक्रम सफल हो सका तो इसलिए कि प्रशासन और जनता दोनों का खुले मन से इसमें सहयोग और समर्थन मिला।

आज लगभग ढाई दशक बाद जब गुडगांव की सड़कों पर यह प्रयोग दोहराया गया तो इसे एक-दिनी प्रयोग तक सीमित न रख इन बुनियादी मुद्दों पर सोचने की आवश्यकता है कि पर्यावरण रक्षा, सड़क सुरक्षा व स्वस्थ वातावरण के लिए हम सब मिलजुल कर क्या कर सकते हैं। मुझे याद आता है कि कुछ वर्ष पूर्व ग्रीस की राजधानी एथेंस में यूरोप के बत्तीस बड़े शहरों के महापौर इकट्ठे हुए थे और उन्होंने एथेंस की सड़कों पर साइकिल रैली निकाल कर पूरे यूरोप को एक संदेश देने की कोशिश की थी। ध्यान रखें कि यूरोप इस मामले में पहले ही बहुत आगे और बहुत सजग है। वहां रेलों में साइकिल यात्रियों के विशेष डिब्बे होते हैं जिनमें वे अपनी साइकिल के साथ एक नगर से दूसरे नगर जा सकते हैं। समय और पेट्रोल दोनों की बचत।

यूरोप, अमेरिका और जापान में बड़ी तादाद में लोग साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। जापान में रेलवे स्टेशनों के बाहर आप हजारों साइकिलें खड़ी देख सकते हैं। यूरोप में साइकिल चालकों के लिए सड़क पर अलग से लेन बनी होती है। फ्रांस में तो दुनिया की सबसे प्रमुख साइकिल दौड़ प्रतिस्पर्धा आयोजित की जाती है। हम भारत में फार्मूला-1 याने कार दौड़ लेकर तो आ गए लेकिन फ्रांस के टूर डे आर्च याने साइकिल दौड़ का अनुकरण करने की हमें अभी तक नहीं सूझी। हमारी विडंबना देखिए कि एक तरफ हम बच्चों को खासकर लड़कियों को स्कूल में आने के लिए प्रेरित करने हेतु नि:शुल्क साइकिलें बांटते हैं, लेकिन उसके आगे साइकिल सवारी को प्रोत्साहित करने के बारे में नहीं सोचते।

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के संस्थापक व मेरे मित्र अनिल अग्रवाल साइकिल सवारी के बहुत बड़े हिमायती थे। उनकी उत्तराधिकारी व सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद सुनीता नारायण साइकिल पर ही चलती हैं। दो वर्ष पूर्व किसी तेज रफ्तार वाहन से ठोकर खाकर वे गंभीर रूप से घायल भी हो गई थीं। फिर भी वे लगातार स्वच्छ पर्यावरण की चिंता में साइकिल सवारी व सार्वजनिक यातायात याने बस सवारी के बारे में जनता को जागरूक करने के काम में लगी हुई हैं। हमें इन तमाम उदाहरणों से सीखने की आवश्यकता है। इस बारे में कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनको एक बार फिर देख लेना चाहिए। सबसे पहले यह समझना होगा कि भारत आज भी अपनी आवश्यकता का  सत्तर प्रतिशत तेल आयात करता है। इसके लिए अरबों-खरबों का भुगतान विदेशी मुद्रा में करना होता है। यह हम जानते हैं कि जट्रोफा से तेल निकालने का प्रयोग निष्फल हो चुका है।

यहां सवाल सिर्फ विदेशी मुद्रा का नहीं है। तेल जितना जलेगा उतना ही वायु प्रदूषण बढ़ेगा। डीजल के इस्तेमाल से कैंसर का खतरा बढ़ता है। इसके आगे यह भी सोचना होगा कि गाडिय़ों की दिन पर दिन बढ़ती संख्या को सम्हालने के लिए सड़कें कहां से आएंगी और पार्किंग कैसे होंगी? जनता देख रही है कि आज टू लेन बनाओ तो कल फोर लेन, परसों सिक्स लेन और उसके अगले दिन एट लेन की जरूरत पडऩे लगती है। इतनी सड़कें कहां बनेंगी और कैसे बनेंगी? इनके निर्माण के लिए जिस सामग्री की दरकार होगी क्या वह असीमित मात्रा में उपलब्ध है? जनता यह भी जान रही है कि आवासी इलाकों में पार्किंग की चाहे जितनी व्यवस्था की जाए वह कम पड़ जाती है। फिर ध्वनि प्रदूषण, सड़कों पर भीड़-भाड़, समय की बर्बादी, गुस्से में आकर हो रहे झगड़े, दुर्घटनाएं- इन सबकी समाज को जो कीमत चुकानी पड़ती है, क्या उसका कोई हिसाब है?

हम गुडगांव की पहल का स्वागत करते हैं। चूंकि यह प्रयोग राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में हुआ है इसलिए उम्मीद बंधती है कि पूरे देश में इसका सही संदेश जाएगा। वक्त आ गया है कि हम सार्वजनिक परिवहन तथा साइकिलों के बारे में सोचें।


देशबन्धु में 1 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित