वर्तमान समय पर चर्चा
करना हो तो पहला प्रश्न यही उठता है कि इसका आरंभ कहां से माना जाए और उसका
आधार क्या हो। इसके लिए उन परिवर्तनों को चिन्हित करने की आवश्यकता होगी
जो वर्तमान और पूर्ववर्ती समय के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींचते हैं।
भारत के संदर्भ में बात हो तो संभवत: 1991 को एक परिवर्तनकारी मोड़ के रूप
में स्वीकार किया जा सकता है। इस वर्ष प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव व
वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की जोड़ी ने उन आर्थिक परिवर्तनों की नींव
रखी थी जिनका दूरगामी प्रभाव देश की आंतरिक नीति, विदेश नीति, सामाजिक
परिस्थितियों, सांस्कृतिक परिवेश व धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों पर पड़ा
था। यहां स्पष्ट कर देना उचित होगा कि ऐसे बड़े बदलाव रातोंरात तो होते
नहीं हैं, एक अंदरूनी प्रक्रिया गुपचुप चलती रहती है इसलिए यह मानना अधिक
सही होगा कि 1991 के कुछ पहले ही इसकी शुरूआत हो गई होगी और जिसके पकने में
आगे कुछ और साल बीत गए।
यूं वर्तमान समय का निर्धारण करते समय हम चाहें तो सीढ़ी दर सीढ़ी और पहले तक जा सकते हैं। सोवियत संघ का विघटन, बर्लिन दीवार का टूटना, जर्मनी का एकीकरण, मार्ग्रेट थैचर व रोनाल्ड रीगन की आर्थिक नीतियां- ये कुछ ऐसे कारक तत्व थे जिनका प्रभाव भारत सहित विश्व के अनेक देशों पर धीरे-धीरे कर पडऩा शुरू हुआ तथा जिसकी निष्पत्ति हम आज देख रहे हैं। अतीत में एक सीढ़ी और नीचे उतरें तो नेहरू युग की समाप्ति को भी एक युगांतरकारी मोड़ के रूप में देखा जा सकता है। मैं आपको कुछ और पीछे ले चलना चाहता हूं। 1947 में देश का आज़ाद होना एक बहुत बड़ी घटना थी जिसने तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों को प्रेरणा दी व उनकी अपनी आज़ादी की लड़ाई को धार देने का काम किया; लेकिन इसके समानांतर भारत का विभाजन होना भी उतनी ही महत्वपूर्ण दूसरी घटना थी। आज यह विचार करने की आवश्यकता है कि जब दक्षिण एशिया में धर्म पर आधारित एक नए देश याने पाकिस्तान की स्थापना हुई ठीक उसी समय पश्चिम एशिया में धर्म पर आधारित एक दूसरे देश याने इजराइल की स्थापना भी हुई।
भारत में ऐसे विद्वतजनों की कमी नहीं है जो पाकिस्तान निर्माण के लिए गांधी-नेहरू को दोषी ठहराते हैं। उन्हें यह सवाल स्वयं से पूछना चाहिए कि फिलिस्तीन को खत्म कर इजरायल की स्थापना का दोषी कौन था। मैंने वर्तमान समय का प्रारंभ निर्धारण करते हुए आज से सत्तर साल पहले जाने की आवश्यकता इसलिए महसूस की क्योंकि उपनिवेशवादी व साम्राज्यवादी ताकतों ने उस दशक में एशिया की धरती पर जो खेल खेला आज उसका विकराल स्वरूप लगभग पूरे एशिया में और उत्तर अफ्रीका में तो देखने मिल ही रहा है, यूरोप भी उसकी आंच में झुलसने से बच नहीं पाया है। यह गौरतलब है कि जिन ताकतों ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान और इजरायल का निर्माण करवाया वह नीति आज भी कहीं न कहीं कायम है। इंडोनेशिया से अलग होकर तिमोर ले-ईस्ते, सूडान से पृथक कर दक्षिण सूडान व उसके पूर्व इथोपिया को विभाजित कर इरीट्रिया की स्थापना आदि इसके उदाहरण हैं। यूगोस्लाविया को भी एक बार फिर धर्म आधारित देशों में विभाजित किया गया। करीब-करीब वही स्थिति बाल्टिक गणराज्यों में हुई तथा मध्य एशिया के सोवियत गणराज्यों में भी यही प्रयोग दोहराने के प्रयास किए गए।
हम सामान्यत: इस वृहत्तर परिदृश्य की ओर ध्यान नहीं देते। जब वर्तमान समय की चर्चा होती है तो स्वाभाविक ही उसके केन्द्र में वे परिस्थितियां होती हैं जो जीवन को तात्कालिक रूप से प्रभावित करती हैं। इसलिए इन दिनों हमारा विमर्श मुख्यत: एक संज्ञा के इर्द-गिर्द घूम रहा है वह है बाजारवाद। सरसरी निगाहें डालने पर यह समझ आता है कि बाजार ने हमारे जीवन को आक्रांत कर दिया है किन्तु बात इतनी सरल नहीं है। देश के वरिष्ठ अर्थशास्त्र विशेषज्ञ प्रोफेसर गिरीश मिश्र ने विस्तार में यह समझाया है कि पूंजीवाद के अनेक अवयव हैं और बाजार उनमें से सिर्फ एक है। वे बतलाते हैं कि बाजार तो सहस्रों वर्षों से चला आ रहा है, लेकिन आज उसका रूप बदल गया है। वे मानते हैं कि नवसाम्राज्यवाद तथा नवपूंजीवाद इसके दोषी हैं। मैं अपने आपको उनके विचारों से पूरी तरह सहमत पाता हूं।
एक समय बाजार नागरिकों के बीच सामान्य विनिमय का स्थान था और उसमें किसी हद तक मानवीय संबंधों की ऊष्मा थी। यह स्थिति आज पूरी तरह बदल चुकी है। अब क्रेता और विक्रेता के बीच सिर्फ लेन-देन का संबंध है। संबंधों का स्थान एक कठोर और जड़ निर्वैयक्तिकता ने ले लिया है। आज जब आप बाजार जाते हैं तो अपनी आवश्यकता का सौदा-सुलफ लेने के लिए नहीं बल्कि पूंजीवाद ने जो गैरजरूरी आकांक्षाएं जगा दी हैं उन्हें पूरा करने के लिए जाते हैं। और जब आप दुख या क्रोध में बाजार की आलोचना करते हैं तो उसकी नियामक शक्ति याने नवपूंजीवाद को भूल जाते हैं। बल्कि नवपूंजीवाद ने फर्जी आदर्श खड़े कर दिए हैं जाने-अनजाने में उनका ही अनुसरण करने लगते हैं।
बात यहां समाप्त नहीं होती। हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि नवपूंजीवाद ने एक तरफ उपभोक्ता बाजार खड़ा किया है तो दूसरी तरफ उसने युद्ध का बाजार भी सजा दिया है। उस बाजार में जो साजो-सामान बिकता है वह देशों के बीच लड़ाई में काम आता है। धर्म, नस्ल और कबीलों के नाम पर लड़ाइयों को भी वही जन्म देता है। जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां बिजली का सामान, कार, कैमरे और यात्री विमान बनाती हैं, वे ही विस्फोटक पदार्थ, टैंक, बंदूक, युद्धक विमान, खुफिया कैमरे आदि का भी उत्पादन करती हैं। इस तरह जो अरबों की कमाई होती है उसका हिसाब कहीं नहीं होता। पता करके देखिए कि पिछले वर्षों में भारत के शहरों में सार्वजनिक स्थानों पर जो सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं उन्हें किसने बनाया और उसकी कितनी कीमत हमें अदा करनी पड़ी। और यह उस व्यापार का छोटा सा अंश है। मैं यहां कहना चाहूंगा कि साम्राज्यवादी ताकतों ने इजरायल और पाकिस्तान का निर्माण ही इसलिए कराया था कि उससे आने वाले लंबे समय तक अकूत मुनाफे की संभावनाएं जुड़ी थीं। एशिया पर नियंत्रण रखने तथा रूस व चीन के प्रभाव को सीमित करने का मकसद तो इसके साथ था ही।
यह देखने की भी आवश्यकता है कि विगत कुछ दशकों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी का जिस गति से विकास हुआ है उससे नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का हित साधन किस तरह से हो रहा है। एक सामान्य व्यक्ति जब इंटरनेट आधारित सेवाओं का उपयोग करता है तो वह नहीं जानता कि सुदूर अमेरिका में कहीं किसी तलघर में उसके निजी जीवन से संबंधित सारी सूचनाएं एकत्र हो रही हैं। यह तथ्य अब भी कम लोगों को पता है कि सूचना प्रौद्योगिकी में हुए आविष्कार और विकास का प्रणेता अमेरिकी सैन्य तंत्र ही है। निश्चित रूप से नई प्रौद्योगिकी के अपने लाभ हैं, लेकिन बुनियादी मुद्दा यह है कि उसका नियंत्रण किनके हाथों में है। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि अपनी सुविधा व मनोरंजन के लिए अनजाने में ही हम उन शक्तियों के सीधे निशाने पर आ गए हैं जो विश्व को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं।
हमारे देश में नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल साम्प्रदायिकता व धार्मिक उन्माद बढ़ाने के लिए किस तरह किया गया इसे जानने के लिए बीस वर्ष पहले मुंबई में गणेश प्रतिमा के दूध पीने के असंभव प्रसंग को याद कीजिए। जो काम उस समय एसटीडी फोन से हो रहा था, नवीनतम साधनों के इस्तेमाल से उसमें और गति आ गई है। तकनीकी प्रगति ने जीवन के अनेक क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है जिसमें अधिक पूंजी और कम रोजगार वाला औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, कृषि का उद्योग में बदलना, युवा पीढ़ी की सोच में परिवर्तन, शिक्षा और स्वास्थ्य में पूंजी प्रवेश आदि ऐसे विविध क्षेत्रों में जो परिवर्तन आए उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसमें सब कुछ गलत हो रहा है यह कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन मुख्य रूप से हमारी चिंता इस बात को लेकर होना चाहिए कि समाज में असमानता तेजी से बढ़ रही है और उसी के साथ-साथ वैचारिक संकीर्णता भी हर स्तर पर पनप रही है। इसका प्रतिकूल प्रभाव जनतांत्रिक राजनीति पर इस रूप में देखा जा सकता है कि एक विचारशून्यता घर कर गई है।
इस व्यापक परिदृश्य में प्रगतिशील आंदोलन की क्या भूमिका हो यह एक बड़ा सवाल है। इस मोड़ पर कुछेक उपाय ध्यान में आते हैं। सबसे पहली आवश्यकता एक संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा बनाने की है। इसमें मध्यमार्गी, उदारवादी और वामपंथी सबको शामिल होना चाहिए। आखिरकार प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच आदि संगठनों में बुनियादी फर्क क्या है? इस विचारहीन समय में अगर लोक शिक्षण का काम करना है तो यह काम अलग-थलग रहकर नहीं हो सकता। आज जो राजनीतिक परिदृश्य है वह इन संगठनों को एकजुट होने के लिए आगाह कर रहा है। दूसरी बात संस्कृति कर्मियों को पद, पुरस्कार और यश के मोहजाल को तोडऩा होगा। इप्टा जैसी संस्था प्रेक्षागृह में जाकर नाटक करे यह एक बड़ी विडंबना है। तीसरे- ऊपर जिन संचार उपकरणों की बात हम कर आए हैं उनका उपयोग हमारे संस्कृतिकर्मी बड़े उत्साह से कर रहे हैं, लेकिन उसमें निजी आकांक्षाओं का ही प्रतिबिंब अधिक दिखता है। संस्कृति कर्मियों को इनका इस्तेमाल लोक शिक्षण के लिए करना होगा। चौथे, प्रगतिशील जनों को इंटरनेट योद्धा बनकर रुक नहीं जाना चाहिए। हम जनता से कितना सीधा और जीवंत संवाद स्थापित कर सकते हैं, इसकी हर संभावना तलाश करनी होगी। पांचवीं बात- वर्तमान परिदृश्य को समूचेपन में देखना होगा। अधिकार-सम्पन्नता व सशक्तिकरण के नाम पर जो भांति-भांति के विमर्श चल रहे हैं उनसे राजनैतिक चेतना भोथरी हो रही है व संघर्ष के लिए एकजुट होना कठिन हो गया है। अगली आवश्यकता इस बात की है कि पढऩे-लिखने का एक नया माहौल बने, जो कुछ हमारे आसपास घटित हो रहा है उस पर गंभीर चर्चा हो, समाज के अन्य वर्गों के साथ हम जीवंत संवाद स्थापित करें। इन सब बातों के लिए हरिशंकर परसाई से बेहतर हमारा मार्गदर्शन और कोई नहीं कर सकता।
(नोट- प्रगतिशील लेखक संघ, जबलपुर इकाई द्वारा आयोजित परसाई व्याख्यानमाला में 20 अगस्त 2015 को ''वर्तमान समय और प्रगतिशील आंदोलन" विषय पर दिए व्याख्यान का संवर्द्धित रूप)।
यूं वर्तमान समय का निर्धारण करते समय हम चाहें तो सीढ़ी दर सीढ़ी और पहले तक जा सकते हैं। सोवियत संघ का विघटन, बर्लिन दीवार का टूटना, जर्मनी का एकीकरण, मार्ग्रेट थैचर व रोनाल्ड रीगन की आर्थिक नीतियां- ये कुछ ऐसे कारक तत्व थे जिनका प्रभाव भारत सहित विश्व के अनेक देशों पर धीरे-धीरे कर पडऩा शुरू हुआ तथा जिसकी निष्पत्ति हम आज देख रहे हैं। अतीत में एक सीढ़ी और नीचे उतरें तो नेहरू युग की समाप्ति को भी एक युगांतरकारी मोड़ के रूप में देखा जा सकता है। मैं आपको कुछ और पीछे ले चलना चाहता हूं। 1947 में देश का आज़ाद होना एक बहुत बड़ी घटना थी जिसने तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों को प्रेरणा दी व उनकी अपनी आज़ादी की लड़ाई को धार देने का काम किया; लेकिन इसके समानांतर भारत का विभाजन होना भी उतनी ही महत्वपूर्ण दूसरी घटना थी। आज यह विचार करने की आवश्यकता है कि जब दक्षिण एशिया में धर्म पर आधारित एक नए देश याने पाकिस्तान की स्थापना हुई ठीक उसी समय पश्चिम एशिया में धर्म पर आधारित एक दूसरे देश याने इजराइल की स्थापना भी हुई।
भारत में ऐसे विद्वतजनों की कमी नहीं है जो पाकिस्तान निर्माण के लिए गांधी-नेहरू को दोषी ठहराते हैं। उन्हें यह सवाल स्वयं से पूछना चाहिए कि फिलिस्तीन को खत्म कर इजरायल की स्थापना का दोषी कौन था। मैंने वर्तमान समय का प्रारंभ निर्धारण करते हुए आज से सत्तर साल पहले जाने की आवश्यकता इसलिए महसूस की क्योंकि उपनिवेशवादी व साम्राज्यवादी ताकतों ने उस दशक में एशिया की धरती पर जो खेल खेला आज उसका विकराल स्वरूप लगभग पूरे एशिया में और उत्तर अफ्रीका में तो देखने मिल ही रहा है, यूरोप भी उसकी आंच में झुलसने से बच नहीं पाया है। यह गौरतलब है कि जिन ताकतों ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान और इजरायल का निर्माण करवाया वह नीति आज भी कहीं न कहीं कायम है। इंडोनेशिया से अलग होकर तिमोर ले-ईस्ते, सूडान से पृथक कर दक्षिण सूडान व उसके पूर्व इथोपिया को विभाजित कर इरीट्रिया की स्थापना आदि इसके उदाहरण हैं। यूगोस्लाविया को भी एक बार फिर धर्म आधारित देशों में विभाजित किया गया। करीब-करीब वही स्थिति बाल्टिक गणराज्यों में हुई तथा मध्य एशिया के सोवियत गणराज्यों में भी यही प्रयोग दोहराने के प्रयास किए गए।
हम सामान्यत: इस वृहत्तर परिदृश्य की ओर ध्यान नहीं देते। जब वर्तमान समय की चर्चा होती है तो स्वाभाविक ही उसके केन्द्र में वे परिस्थितियां होती हैं जो जीवन को तात्कालिक रूप से प्रभावित करती हैं। इसलिए इन दिनों हमारा विमर्श मुख्यत: एक संज्ञा के इर्द-गिर्द घूम रहा है वह है बाजारवाद। सरसरी निगाहें डालने पर यह समझ आता है कि बाजार ने हमारे जीवन को आक्रांत कर दिया है किन्तु बात इतनी सरल नहीं है। देश के वरिष्ठ अर्थशास्त्र विशेषज्ञ प्रोफेसर गिरीश मिश्र ने विस्तार में यह समझाया है कि पूंजीवाद के अनेक अवयव हैं और बाजार उनमें से सिर्फ एक है। वे बतलाते हैं कि बाजार तो सहस्रों वर्षों से चला आ रहा है, लेकिन आज उसका रूप बदल गया है। वे मानते हैं कि नवसाम्राज्यवाद तथा नवपूंजीवाद इसके दोषी हैं। मैं अपने आपको उनके विचारों से पूरी तरह सहमत पाता हूं।
एक समय बाजार नागरिकों के बीच सामान्य विनिमय का स्थान था और उसमें किसी हद तक मानवीय संबंधों की ऊष्मा थी। यह स्थिति आज पूरी तरह बदल चुकी है। अब क्रेता और विक्रेता के बीच सिर्फ लेन-देन का संबंध है। संबंधों का स्थान एक कठोर और जड़ निर्वैयक्तिकता ने ले लिया है। आज जब आप बाजार जाते हैं तो अपनी आवश्यकता का सौदा-सुलफ लेने के लिए नहीं बल्कि पूंजीवाद ने जो गैरजरूरी आकांक्षाएं जगा दी हैं उन्हें पूरा करने के लिए जाते हैं। और जब आप दुख या क्रोध में बाजार की आलोचना करते हैं तो उसकी नियामक शक्ति याने नवपूंजीवाद को भूल जाते हैं। बल्कि नवपूंजीवाद ने फर्जी आदर्श खड़े कर दिए हैं जाने-अनजाने में उनका ही अनुसरण करने लगते हैं।
बात यहां समाप्त नहीं होती। हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि नवपूंजीवाद ने एक तरफ उपभोक्ता बाजार खड़ा किया है तो दूसरी तरफ उसने युद्ध का बाजार भी सजा दिया है। उस बाजार में जो साजो-सामान बिकता है वह देशों के बीच लड़ाई में काम आता है। धर्म, नस्ल और कबीलों के नाम पर लड़ाइयों को भी वही जन्म देता है। जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां बिजली का सामान, कार, कैमरे और यात्री विमान बनाती हैं, वे ही विस्फोटक पदार्थ, टैंक, बंदूक, युद्धक विमान, खुफिया कैमरे आदि का भी उत्पादन करती हैं। इस तरह जो अरबों की कमाई होती है उसका हिसाब कहीं नहीं होता। पता करके देखिए कि पिछले वर्षों में भारत के शहरों में सार्वजनिक स्थानों पर जो सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं उन्हें किसने बनाया और उसकी कितनी कीमत हमें अदा करनी पड़ी। और यह उस व्यापार का छोटा सा अंश है। मैं यहां कहना चाहूंगा कि साम्राज्यवादी ताकतों ने इजरायल और पाकिस्तान का निर्माण ही इसलिए कराया था कि उससे आने वाले लंबे समय तक अकूत मुनाफे की संभावनाएं जुड़ी थीं। एशिया पर नियंत्रण रखने तथा रूस व चीन के प्रभाव को सीमित करने का मकसद तो इसके साथ था ही।
यह देखने की भी आवश्यकता है कि विगत कुछ दशकों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी का जिस गति से विकास हुआ है उससे नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का हित साधन किस तरह से हो रहा है। एक सामान्य व्यक्ति जब इंटरनेट आधारित सेवाओं का उपयोग करता है तो वह नहीं जानता कि सुदूर अमेरिका में कहीं किसी तलघर में उसके निजी जीवन से संबंधित सारी सूचनाएं एकत्र हो रही हैं। यह तथ्य अब भी कम लोगों को पता है कि सूचना प्रौद्योगिकी में हुए आविष्कार और विकास का प्रणेता अमेरिकी सैन्य तंत्र ही है। निश्चित रूप से नई प्रौद्योगिकी के अपने लाभ हैं, लेकिन बुनियादी मुद्दा यह है कि उसका नियंत्रण किनके हाथों में है। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि अपनी सुविधा व मनोरंजन के लिए अनजाने में ही हम उन शक्तियों के सीधे निशाने पर आ गए हैं जो विश्व को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं।
हमारे देश में नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल साम्प्रदायिकता व धार्मिक उन्माद बढ़ाने के लिए किस तरह किया गया इसे जानने के लिए बीस वर्ष पहले मुंबई में गणेश प्रतिमा के दूध पीने के असंभव प्रसंग को याद कीजिए। जो काम उस समय एसटीडी फोन से हो रहा था, नवीनतम साधनों के इस्तेमाल से उसमें और गति आ गई है। तकनीकी प्रगति ने जीवन के अनेक क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है जिसमें अधिक पूंजी और कम रोजगार वाला औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, कृषि का उद्योग में बदलना, युवा पीढ़ी की सोच में परिवर्तन, शिक्षा और स्वास्थ्य में पूंजी प्रवेश आदि ऐसे विविध क्षेत्रों में जो परिवर्तन आए उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसमें सब कुछ गलत हो रहा है यह कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन मुख्य रूप से हमारी चिंता इस बात को लेकर होना चाहिए कि समाज में असमानता तेजी से बढ़ रही है और उसी के साथ-साथ वैचारिक संकीर्णता भी हर स्तर पर पनप रही है। इसका प्रतिकूल प्रभाव जनतांत्रिक राजनीति पर इस रूप में देखा जा सकता है कि एक विचारशून्यता घर कर गई है।
इस व्यापक परिदृश्य में प्रगतिशील आंदोलन की क्या भूमिका हो यह एक बड़ा सवाल है। इस मोड़ पर कुछेक उपाय ध्यान में आते हैं। सबसे पहली आवश्यकता एक संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा बनाने की है। इसमें मध्यमार्गी, उदारवादी और वामपंथी सबको शामिल होना चाहिए। आखिरकार प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच आदि संगठनों में बुनियादी फर्क क्या है? इस विचारहीन समय में अगर लोक शिक्षण का काम करना है तो यह काम अलग-थलग रहकर नहीं हो सकता। आज जो राजनीतिक परिदृश्य है वह इन संगठनों को एकजुट होने के लिए आगाह कर रहा है। दूसरी बात संस्कृति कर्मियों को पद, पुरस्कार और यश के मोहजाल को तोडऩा होगा। इप्टा जैसी संस्था प्रेक्षागृह में जाकर नाटक करे यह एक बड़ी विडंबना है। तीसरे- ऊपर जिन संचार उपकरणों की बात हम कर आए हैं उनका उपयोग हमारे संस्कृतिकर्मी बड़े उत्साह से कर रहे हैं, लेकिन उसमें निजी आकांक्षाओं का ही प्रतिबिंब अधिक दिखता है। संस्कृति कर्मियों को इनका इस्तेमाल लोक शिक्षण के लिए करना होगा। चौथे, प्रगतिशील जनों को इंटरनेट योद्धा बनकर रुक नहीं जाना चाहिए। हम जनता से कितना सीधा और जीवंत संवाद स्थापित कर सकते हैं, इसकी हर संभावना तलाश करनी होगी। पांचवीं बात- वर्तमान परिदृश्य को समूचेपन में देखना होगा। अधिकार-सम्पन्नता व सशक्तिकरण के नाम पर जो भांति-भांति के विमर्श चल रहे हैं उनसे राजनैतिक चेतना भोथरी हो रही है व संघर्ष के लिए एकजुट होना कठिन हो गया है। अगली आवश्यकता इस बात की है कि पढऩे-लिखने का एक नया माहौल बने, जो कुछ हमारे आसपास घटित हो रहा है उस पर गंभीर चर्चा हो, समाज के अन्य वर्गों के साथ हम जीवंत संवाद स्थापित करें। इन सब बातों के लिए हरिशंकर परसाई से बेहतर हमारा मार्गदर्शन और कोई नहीं कर सकता।
(नोट- प्रगतिशील लेखक संघ, जबलपुर इकाई द्वारा आयोजित परसाई व्याख्यानमाला में 20 अगस्त 2015 को ''वर्तमान समय और प्रगतिशील आंदोलन" विषय पर दिए व्याख्यान का संवर्द्धित रूप)।
अक्षर पर्व अक्टूबर 2015 अंक की प्रस्तावना
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