Friday 30 October 2015

ओसियां और जोधपुर


 दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान। जैसे रेत का समुद्र। आज से कई लाख साल पहले यहां समुद्र ही तो था। इस जनहीन विस्तार के बीच में कहीं-कहीं बालुई चट्टानों से बनी पहाडिय़ां। मरुस्थल की जड़ता को तोड़ती हुई। मैं कल्पना कर रहा हूं आज से बारह-तेरह सौ साल पहले के समय की। इस निर्जन में किसे और क्यों सूझा होगा कि यहां मंदिर बनाया जाए तो क्या शायद यहां कोई छोटी-मोटी बस्ती रही होगी? वहीं कहीं आसपास मीठे पानी का कोई स्रोत रहा होगा। अगर पानी न होता तो मनुष्य की बसाहट भी कैसे होती? मैं कल्पना के घोड़े दौड़ाता हूं तो एक बात समझ आती है। यह जगह पश्चिमी भारत से उत्तर भारत को जोडऩे वाले किसी यात्रापथ पर रही होगी। शायद प्राचीन सिल्क रूट की कोई शाखा! आते-जाते काफिले मीठे पानी के सरोवर के पास डेरा डालते होंगे। धीरे-धीरे यहां स्थायी बस्ती बसी होगी। तब पहले कोई मुखिया, फिर कोई राजा यहां का शासक बन गया होगा और यह स्थान उस प्राचीन समय के मानचित्र पर अंकित हो गया होगा।

मैं बात कर रहा हूं ओसियां की। जोधपुर के पास बसा एक प्राचीन नगर जहां आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच निर्मित मंदिरों का एक पूरा समूह है। मंदिरों की कुल संख्या दो दर्जन के आसपास होगी। जंग खाए, धुंधलाए सूचना पटल से जानकारी मिलती है कि प्रतिहार राजाओं ने इन मंदिरों का निर्माण कराया था। इनमें बड़ी संख्या जैन मंदिरों की है। शैव, वैष्णव और शाक्त मत के देवालय भी यहां पर हैं। श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी ओसवाल समाज में मान्यता है कि ओसियां से ही उनके समाज का प्रादुर्भाव हुआ। यह इतिहासकारों का विषय है, लेकिन ओसवाल समाज की राजस्थान में जो प्रबल उपस्थिति है उसे देखते हुए यह मान्यता सत्य हो सकती है। जैसा कि ऐतिहासिक संदर्भों में अक्सर होता है तथ्य के साथ मिथक जुड़ जाते हैं, तो इस प्राचीन मंदिरों के नगर में मिथक भी सुनने मिल जाते हैं।

ओसियां में सबसे प्रमुख मंदिर है सच्चाय माता का। यह मंदिर एक टेकरी पर अवस्थित है। पहले ऊपर जाने के लिए पगडंडी रही होगी, लेकिन अब यात्रियों की सुविधा के लिए सीढिय़ां बन गई हैं। सीढिय़ों के दोनों ओर कार्यालय, रसोईघर व अन्य व्यवस्थाओं के लिए बहुत सारा निर्माण हो चुका है। सीढिय़ां संगमरमर की हैं। जगह-जगह पर दानदाताओं  के नामों का उल्लेख है। सीढिय़ों के ऊपर खंभों के सहारे छत भी डाल दी गई है। इनमें प्राचीनता का पुट देने की कोशिश की गई है, लेकिन नया निर्माण देखने से ही समझ आ जाता है। सीढिय़ां चढ़ते वक्त लगता है मानो आप किसी सुरंग में ऊपर चढ़ रहे हैं। श्रद्धालुओं को इस व्यवस्था से अवश्य ही सुविधा हुई होगी, लेकिन निर्माण करवाने वालों ने ध्यान नहीं दिया कि मंदिर में प्राचीनता का जो वैभव है वह इसके चलते धूमिल हो रहा है। बहरहाल सच्चाय माता का यह देवालय राजस्थान के करोड़ों लोगों की श्रद्धा और विश्वास का केन्द्र है। यहां जैन, वैष्णव, शैव, शाक्त सब आते हैं।

इस मंदिर परिसर में दो प्रमुख विशेषताएं मुझे समझ में आईं। एक तो टेकरी पर यह एक अकेला मंदिर नहीं है। उसके साथ सात-आठ मंदिरों का एक समुच्चय जैसा है। एक तरफ लक्ष्मी-नारायण का मंदिर है, तो दूसरी तरफ गणेश का। यहां एक मंदिर में भगवान शंकर विराज रहे हैं तो दुर्गा के नौ स्वरूपों की भी प्रतिमाएं यहां प्रतिष्ठित हैं। मुख्य मंदिर से कुछ फीट नीचे के स्तर पर दशावतार की मूर्तियां भी विद्यमान हैं। ये सारे मंदिर आकार में बहुत बड़े नहीं हैं। फिर भी टेकरी के एक छोटे से क्षेत्रफल में इतने सारे स्वतंत्र मंदिरों का संकुल कम से कम मेरे देखनेे में और कहीं नहीं आया। दूसरी विशेषता इन मंदिरों का स्थापत्य है। हरेक मंदिर में बालुई पत्थरों पर जो नक्काशी की गई है वह अद्भुत है। आप चाहे खंभों को देखें या बाहरी दीवारों को, मूर्तियों को देखें या फिर छत को, सब तरफ पाषाण शिल्पियों की बेजोड़ कलात्मक प्रतिभा का परिचय मिलता है।

सच्चाय माता का मंदिर जागृत मंदिर है याने यहां पूजा-पाठ चलते रहता है। इस कारण मंदिर का रख-रखाव हो जाता है। गो कि प्राचीन विन्यास में जो परिवर्तन किए गए हैं वे बहुत सुखद नहीं हैं। हैरत की बड़ी बात यह है कि ओसियां में जो अन्य मंदिर हैं उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। पहाड़ी के नीचे जहां पार्किंग की व्यवस्था है, जहां सुरक्षा कर्मी, पार्किंग ठेकेदार आदि पांच-सात लोग बैठे रहते हैं, जहां चाय-पानी की कई सारी दुकानें हैं, वहीं, बिल्कुल वहीं पांच-छह मंदिर अपनी दुरावस्था पर आंसू बहाते खड़े हैं। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। राजस्थान के पुरातत्व विभाग ने न जाने कब एक सूचना पटल लगाया था जिसकी लिखावट लगभग मिट चुकी है। उससे जो जानकारी मिल सकती है, ले लीजिए, बाकी तो मंदिर के जगत पर बैठी बकरियां और नीचे घूम रही गायों को देखकर आप जितना समझ लें उतना बहुत। जो राजस्थान पर्यटन के लिए इतना प्रसिद्ध है वहां इस प्रमुख विरासत स्थल की ऐसी उपेक्षा को आपराधिक माना जाए तो गलत नहीं होगा।

मैं जितना जानता हूं उसके अनुसार चित्तौडग़ढ़ भारत का सबसे पुराना किला है, उसके बाद जैसलमेर का नंबर आता है जो साढ़े आठ सौ साल पहले बना था। दूसरे शब्दों में, ओसियां राजस्थान के प्राचीनतम नगरों में से एक है। यहीं से उठकर कुछ लोग जैसलमेर गए होंगे। जो प्रस्तर शिल्प ओसियां के मंदिरों में दिखाई देता है उसी की बानगी जैसलमेर के किले में अवस्थित चार-पांच सौ साल बाद बने जैन मंदिरों में देखी जा सकती है। संभव है कि यहां जलस्रोत सूखने से या अन्य किन्हीं कारणों से ओसियां की बजाय जैसलमेर होकर नया यात्रापथ बन गया हो! जो भी हो, इस स्थान के संरक्षण पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।

मेरा ओसियां जाने का कार्यक्रम अचानक ही बन गया। मैं गया तो जोधपुर तक था। वहां के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में आयोजित पुर्नश्चर्या पाठ्य में व्याख्यान देने के लिए। बीच में थोड़ा समय था। पूछा कि आसपास कहां-क्या देख सकते हैं? मालूम पड़ा कि ओसियां मात्र यहां से साठ किलोमीटर दूर है। वहां क्या है? उत्तर था- सच्चाय माता का मंदिर है। यह सुनकर मेरी बुद्धि एकदम जागृत हुई। अरे, यही तो हमारी कुलदेवी हैं, जिनकी पूजा दादी किया करती थीं। बस आनन-फानन में कार्यक्रम बन गया। जोधपुर से ओसियां तक का रास्ता बहुत बढिय़ा है और जैसा कि आजकल चलन है इस सड़क पर टोल टैक्स पटाना पड़ता है। जोधपुर से बाहर निकलते-निकलते एक शैक्षणिक परिसर के बीच से हम गुजरते हैं। अशोक गहलोत जब मुख्यमंत्री थे तब वे यहां पर अनेक उच्च शिक्षण संस्थान लेकर आए थे, जिनमें सरदार पटेल (कृपया नोट करें) के नाम पर स्थापित राष्ट्रीय पुलिस वि.वि. भी है।

जोधपुर पुराना शहर तो है, लेकिन बहुत पुराना नहीं। उसकी स्थापना लगभग चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी। जोधपुर रियासत की पुरानी राजधानी मंडोर में थी। वह रास्ते पर ही थी। लौटते वक्त यहां के भग्नावशेष देखना चाहते थे, किन्तु समयाभाव के कारण यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई। आज का जोधपुर, जयपुर के बाद राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। इसकी आबादी फिलहाल कोई तीस-पैंतीस लाख होगी। प्रदेश में शिक्षा का बड़ा केन्द्र तो है ही, थलसेना तथा वायुसेना की भी बड़ी छावनियां हैं। शहर में चार या पांच रेलवे स्टेशन हैं। इनमें भगत की कोठी भी है जहां से छत्तीसगढ़ के लिए सीधी ट्रेन चलती है। राजा ने कभी किसी साधु को महलनुमा कोठी दक्षिणा में दे दी थी इसलिए यह नाम पड़ गया। एक स्टेशन का नाम राई का बाग है। यहां कभी सरसों की खेती हुआ करती थी।

जोधपुर में मुझे सबसे अधिक आनंद वि.वि. परिसर को देखकर हुआ। पुराने शहर में पुराना परिसर है वह अपनी जगह है। यह नया परिसर नौ सौ एकड़ में फैला है। साठ के दशक में विख्यात शिक्षाशास्त्री वी.वी.जॉन जब यहां कुलपति थे, तब उन्होंने यह भूमि हासिल कर ली थी। आज वि.वि. का हर व्यक्ति प्रोफेसर जॉन की दूरदर्शिता की चर्चा करता है। उनके कार्यकाल में ही अज्ञेय और नामवर सिंह जैसे विद्वान यहां अध्यापक बनकर आए। किन्तु मुझे ध्यान आता है कि प्रोफेसर जॉन को बहुत दुखी मन से प्रतिकूल स्थितियों में जोधपुर छोडऩा पड़ा था। उस समय जो जोधपुर ने देखा, वह आज शायद पूरा देश देख रहा है।

देशबन्धु में 29 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित 

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