अगर थोड़ा सा इतिहास में लौटें तो 1947 में आज़ादी के समय कश्मीर को लेकर तीन विकल्प थे। पहला- जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय, दूसरा- पाकिस्तान में विलय, तीसरा-स्वतंत्र देश के रूप में उदय। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि बहुत से अन्य राजाओं की तरह राजा हरीसिंह भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखना चाहते थे। इन राजाओं की भारत में विलय की इच्छा तो बिल्कुल भी नहीं थी। इन्हें लगता था कि गांधी-नेहरू के भारत में उनका राजपाट और उससे जुड़े विशेषाधिकार छिन जाएंगे। इनके लिए अंग्रेज सरकार ने प्रिंसिस्तान के नाम से एक तीसरे विभाजन की योजना भी बना रखी थी। इन देशी रियासतों में प्रगतिशील, जनतांत्रिक सोच वाले प्रजामंडल के उग्र आंदोलन और बाद में सरदार पटेल की कूटनीतिक सूझ-बूझ के चलते यह योजना कारगर नहीं हो पाई तथा लगभग सभी रियासतों का भारत में विलय हो गया। इनमें से कुछेक राजा ऐेसे थे जो पाकिस्तान के साथ जाने को तैयार थे। इन्हें लगता था कि पाकिस्तान में इनके विशेषाधिकार सुरक्षित रहे आएंगे। उनका सोचना काफी हद तक सही था क्योंकि पाकिस्तान के निर्माण में बड़े जमींदारों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
पाक में विलय की संभावना टटोलने वाले इन राजाओं में हिन्दू और मुसलमान का फर्क नहीं था। स्वयं महाराजा हरीसिंह इस बारे में मोहम्मद अली जिन्ना के साथ निरंतर संवाद कर रहे थे। अगर इनकी रियासतों का पाकिस्तान के बजाय भारत में विलय हो सका तो उसके पीछे रियासत की जनता की इच्छा और उसके लिए संघर्ष ही मुख्य कारण था। जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला भारत के साथ विलय के पक्ष में थे और महाराजा ने तो विलय पत्र पर उस समय हस्ताक्षर किए जब पाकिस्तानी फौज के उकसावे पर कबाइली दस्ते कश्मीर घाटी को रौंदते हुए श्रीनगर के दरवाजे तक लगभग पहुंच चुके थे। अगर भारतीय फौज समय पर न पहुंचती तो कश्मीर पाकिस्तान में चला गया होता।
अगर महाराजा हरीसिंह भी पाकिस्तान में विलय और स्वतंत्र देश की स्थापना की ऊहापोह में न फंसे होते तब भी शायद यह सुंदर प्रदेश शायद पाकिस्तान में ही होता। यह सवाल कई बार उठता है कि भारत की फौजें घाटी के आगे याने वर्तमान तथाकथित आज़ाद कश्मीर में क्यों नहीं बढ़ीं। दूसरा सवाल यह भी उठता है कि भारत इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में क्यों ले गया। पहले प्रश्न का उत्तर आश्चर्यजनक रूप से सरल है। कश्मीर के महाराजा ने वर्तमान में पाक अधिकृत कश्मीर के भूभाग को सन् 30 के दशक में याने लगभग दस साल पहले ही वहां के जागीरदारों से खरीदा था। वहां के लोगों का कश्मीर घाटी से कोई भावनात्मक लगाव नहीं था तथा सांस्कृतिक रूप से वे अपने को पाकिस्तान के पंजाब के निकट पाते थे। आज भी लंदन, न्यूयार्क आदि में जो कश्मीरी भारत के खिलाफ आवाज उठाते हैं, वे अधिकतर उसी इलाके के हैं। दूसरे सवाल का उत्तर यह है कि अगर महाराजा द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर नैतिक और विधि-सम्मत था तो फिर हैदराबादके निजाम और जूनागढ़ के नवाब को आप पाकिस्तान में मिलने से कैसे रोक सकते थे।
मतलब यह कि भारत एक जनतांत्रिक देश के रूप में राजा की इच्छा के बजाय जनता की इच्छा को महत्व एवं प्राथमिकता दे रहा था। यह हमें पता था कि हैदराबाद की जनता निजाम के साथ नहीं जाएगी। हमें यह भी भरोसा था कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर की जनता भी जनमत संग्रह होने पर भारत के पक्ष में वोट देगी। चूंकि पाकिस्तान ने जनमत संग्रह के पूर्व अपने अधिकार वाले हिस्से से फौजें नहीं हटाईं (जो कि एक अनिवार्य शर्त थी) इसलिए भारत ने भी जनमत संग्रह की बात पर कदम आगे नहीं बढ़ाए। इस बीच स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। कश्मीर का हिस्सा जो भारत के साथ है वह पिछले अड़सठ साल से एक लोकतांत्रिक माहौल में जी रहा है गो कि उसमें कमियां निकाली जा सकती हैं। दूसरी तरफ पाक अधिकृत कश्मीर के लोग भी वहां के सामाजिक-राजनीतिक अनिश्चित माहौल के अभ्यस्त हो चुके हैं तथा अगर सीमा के इस पार उनका थोड़ा-बहुत लगाव था तो वह लगभग समाप्त हो चुका है।
यह तो हुई इतिहास की बात। वर्तमान में क्या स्थिति है? कश्मीर को एक समस्या मानकर उसका हल खोजने के लिए अथकमेहनत हो रही है। यह तय है कि अपने-अपने हिस्से के कश्मीर को न तो भारत छोड़ेगा और न पाकिस्तान। दोनों के लिए यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय बन गया है। पाकिस्तान में फौज का दबदबा है इसलिए पाक अधिकृत कश्मीर की जनता क्या सोचती है इसकी कोई सही तस्वीर दुनिया के सामने नहीं आ पाती। इतना हम जानते हैं कि आज़ाद कश्मीर के नाम पर जो सरकार चलती है वह इस्लामाबाद की कठपुतली होती है। वहीं गिलगिट, बाल्टिस्तान आदि उत्तरी क्षेत्र भी हैं जो शिया धर्मानुयायी हैं तथा जिनकी पटरी पाकिस्तान के कठमुल्लों के साथ नहीं बैठती, लेकिन वे मुखर विरोध नहीं कर पाते।
इसके बरक्स भारत के जम्मू-कश्मीर प्रांत में एक ओर निर्धारित अवधि में चुनाव होते हैं, लोकतांत्रिक सरकार चुनी जाती है, दूसरी ओर स्वतंत्र कश्मीर अथवा पाकिस्तान समर्थक शक्तियों को काफी खुले रूप में अपनी बात कहने का मौका मिल जाता है और तीसरी ओर केन्द्र सरकार के स्तर पर समस्या के समाधान के लिए कभी प्रदेश को तीन राज्यों में, तो कभी पांच राज्यों में विभाजित करने जैसे प्रस्ताव भी सामने आ जाते हैं। फिलहाल एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि प्रदेश में पीडीपी और भाजपा की मिली-जुली सरकार चल रही है। इसमें नरेन्द्र मोदी मुफ्ती साहब को देशभक्त होने का खिताब देते हैं, तो दूसरी ओर मुफ्ती मुहम्मद सईद मोदीजी की धर्मनिरपेक्षता पर शंका न करने का परामर्श देते हैं। जिन फारूख अब्दुल्ला के बेटे उमर वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे आज उनको कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, वह भी इस दृश्य का एक विद्रूप ही है।
बेशक कश्मीर एक मसला है और इसका हल ढूंढा जाना चाहिए। हम नहीं सोचते कि कश्मीर घाटी की जनता कभी भी पाकिस्तान के साथ जाना पसंद करेगी। घाटी के लोग लोकतंत्र का महत्व जानते हैं। वहां फौज तैनात है, उसकी ज्यादतियों के किस्से आए दिन पढऩे मिलते हैं। इस अवांछनीय स्थिति को समाप्त करना होगा, यह एक जुड़ा हुआ प्रश्न है। यह शंकास्पद है कि प्रदेश का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन करने से कोई हल निकलेगा, क्योंकि जम्मू और लद्दाख दोनों में मिली-जुली आबादी है। जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने की मांग करने वाले लोग भी हैं लेकिन वे खामख्याली में हैं। डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने जो बयान दिया है वह जमीनी सच्चाई को प्रतिबिंबित करता है। इसका परीक्षण करना वांछित है।
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