Wednesday 9 December 2015

भगवान ने सवाल पूछा!


 एक रोचक खबर ट्विटर पर पढऩे मिली कि सचिन तेंदुलकर ने राज्यसभा में तीन साल बीतने के बाद पहली बार कोई प्रश्न पूछा। इस पर मैंने टीका की- ''हे भगवान, जब स्वयं भगवान सवाल पूछने लगे तो हम सामान्य मनुष्यों के सवालों का उत्तर कौन देगा।" यह तो हुई मजाक की बात। किन्तु इस बहाने अपने समय की एक चिंताजनक सच्चाई पर विचार करने का मौका हाथ लग गया है। हमने न जाने कब क्यूं अमिताभ बच्चन व सचिन तेंदुलकर इत्यादि को महानायक और शताब्दी पुरुष जैसे विशेषणों से नवाज दिया। जहां कुछेक आध्यात्मिक गुरु यथा ओशो रजनीश, श्रीराम शर्मा, सत्य साईं बाबा आदि स्वयं को भगवान कहलाने लगे थे मानो उन्हीं का बराबरी करते हुए ग्लैमर की दुनिया के इन सितारों को भी हमने भगवान बना डाला। मुझे संदेह होता है कि योग गुरु बाबा रामदेव भी इनके पीछे-पीछे ही चल रहे हैं। उन्होंने स्वयं को नोबेल पुरस्कार का अधिकारी तो घोषित कर ही दिया है। वे भी किसी दिन भारत रत्न से अलंकृत हो जाएं तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।

यदि सचिन तेंदुलकर द्वारा अपने कार्यकाल का आधा समय बीत जाने के बाद राज्यसभा में एक सवाल उठाना समाचार बन सकता है, तो हमें इस पर गौर करने की आवश्यकता है कि आखिरकार क्या सोचकर क्रिकेट के इस महान खिलाड़ी को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत किया गया। उन्हीं राष्ट्रपति द्वारा सचिन को भारत रत्न देने का भी क्या औचित्य था। जैसा कि हम जानते हैं राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से किए गए ये निर्णय वस्तुत: तत्कालीन सरकार के होते हैं, इसलिए पिछली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी दोनों को आज शायद आत्मचिंतन करना चाहिए कि सचिन तेंदुलकर को इतना महत्व देकर देश, सरकार और पार्टी का क्या भला हुआ। यह सवाल फिल्म अभिनेत्री रेखा के बारे में भी है, जिन्हें राज्यसभा में लाया गया। कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से हम उत्तर की अपेक्षा नहीं रखते, लेकिन शायद भूतपूर्व पत्रकार और वर्तमान राजनेता राजीव शुक्ला हमारी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं, क्योंकि संभवत: इन निर्णयों के पीछे उनकी अहम् भूमिका थी।

राष्ट्रपति द्वारा सरकार की सिफारिश पर राज्यसभा में बारह सदस्य मनोनीत किए जाते हैं। इसका प्रमुख आधार उस व्यक्ति का देश के सार्वजनिक जीवन के किसी क्षेत्र में विशिष्ट  योगदान होता है। लेकिन इसके साथ-साथ यह ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि वह व्यक्ति उच्च सदन याने राज्यसभा के कामकाज में कितनी गंभीरता व क्षमता के साथ अपनी सेवाएं दे सकता है। वैसे तो यह शर्त किसी भी सदन की सदस्यता के लिए रखी जाना चाहिए। जो व्यक्ति सदन की कार्रवाई के लिए समय देने तैयार न हो, बहस में हिस्सा न ले, सवाल न पूछे, जिसका ध्यान हर समय पैसे कमाने पर या अन्य दिशाओं में लगा रहे उसका मनोनयन करने से किसका भला होना है। इस अवांछनीय स्थिति को लोकसभा में भी देखा गया है, लेकिन वहां व्यक्ति कम से कम जनता द्वारा चुना जाकर आता है, जबकि राज्यसभा में ऐसा होने पर तो मनोनयन करने वाले के विवेक और निर्णयक्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।

राज्यसभा में 1952 में राष्ट्रपति द्वारा कला, साहित्य, विज्ञान एवं समाजसेवा के लिए जो व्यक्ति मनोनीत किए गए उनके नाम देखें तो मन उल्लास से भर उठता है। इसमें सत्येन्द्रनाथ बोस, पृथ्वीराज कपूर, रुक्मणी देवी अरुन्देल, डॉ. जाकिर हुसैन, मैथिलीशरण गुप्त, काका कालेलकर और राधा कुमुद मुखर्जी जैसे व्यक्ति शामिल थे। बाद के वर्षों में महामहोपाध्याय पी.वी. काणे, मामा वरेरकर, इतिहासविद् डॉ. ताराचंद  और ताराशंकर बंद्योपाध्याय जैसे मनीषियों ने राज्यसभा का गौरव बढ़ाया। यह संभव है कि ये सब एक समान रूप से सदन में सक्रिय न रहे हों, लेकिन इनकी उपस्थिति मात्र से सदन में जो गरिमामय वातारवरण का निर्माण होता होगा उसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। ऐसा तो नहीं है कि देश में विद्वानों की और मनीषियों की कमी हो गई हो, लेकिन दु:ख की बात यही है कि उनकी ओर अब सत्ताधीशों का ध्यान नहीं जाता। पुरानी कहावत है-गुण न हिरानो गुण गाहक हिरानो है।

यहां हम मणिशंकर अय्यर का भी उल्लेख करना चाहेंगे। वे मनोनयन के लिए उपयुक्त पात्र थे, किन्तु क्या राष्ट्रपति द्वारा नामांकित व्यक्ति को दलगत राजनीति में भाग लेना चाहिए और ऐसा करने से क्या राष्ट्रपति और सदन दोनों की गरिमा पर आघात नहीं होगा। हमें ध्यान आता है कि जब फिल्म अभिनेत्री नरगिस को नामजद किया गया था तब सांसद के रूप में उसकी निष्क्रियता को लेकर सवाल उठाए गए थे। यह आलोचना सही थी, लेकिन एक सीमा तक। क्योंकि नरगिस ने एक समाज-सजग नागरिक और अभिनेता के रूप में बड़ा काम किया था। सुनील दत्त और नरगिस ने युद्ध के समय मोर्चे पर जाकर सैनिकों का मनोबल बढ़ाया था और वे अन्य उपायों से भी निस्वार्थ समाजसेवा में संलग्न थे। ऐसे सदस्य के ज्ञान और अनुभव का लाभ सदन की कार्रवाई से परे भी उठाया जाना संभव था। यह बात रेखा के बारे में नहीं कही जा सकती। कभी-कभी शक होता है कि क्या उन्हें लाने का मकसद सदन में मौजूद एक अन्य सदस्य को चिढ़ाना था। हमें लता मंगेशकर से बहुत उम्मीद थी कि वे कला जगत की प्रतिनिधि के रूप में राज्यसभा में सक्रियता दिखाएंगी, लेकिन उन्होंने निराश किया।

दरअसल राज्यसभा की महत्ता को हाल के बरसों में जिस तरह से क्षीण किया गया है वह एक और चिंता उपजाती है। यह हमें पता है कि हमारा उच्च सदन ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तर्ज पर नहीं बल्कि अमेरिकी सीनेट की तर्ज पर बनाया गया है। यह कल्पना की गई थी कि इसके सदस्य ज्ञान, अनुभव और विवेक के धनी होंगे जो लोकसभा के निर्णयों की सम्यक समीक्षा करने में सक्षम होंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि संसद में जब कोई भी निर्णय हो तो वह विचार, तर्क और व्यवहारिकता की कसौटी पर खरा उतरे और उसमें किसी तरह का असंंतुलन न हो। किन्तु इस बुनियादी सिद्धांत को खंडित करने में किसी भी दल, कोई कसर बाकी नहीं रखी। यहां तक कि सामान्यत: विचार-प्रवण कम्युनिस्ट भी इस बिन्दु पर चूक गए।

इस सिलसिले में पहली गलती तो तब हुई एक राज्य के निवासी को किसी अन्य राज्य से मनोनीत करने की परंपरा डाली गई। इसके लिए खासा प्रपंच रचा गया। अन्य राज्य की मतदाता सूची में उस व्यक्ति का नाम जुड़वाना, उसे फर्जी तरीके से वहां का नागरिक बताना और उस राज्य की पार्टी कार्यकर्ताओं की अवहेलना कर विधायकों पर दबाव डालकर अपने पसंदीदा व्यक्ति को राज्यसभा के लिए चुनवाना, इस तरह एक लंबी प्रक्रिया अपनाई गई। जब इस पर सवाल उठने लगे तब संविधान संशोधन कर इस प्रवंचना को वैधानिक मान्यता दे दी गई।  इसका फायदा राजनेताओं को तो मिला, लेकिन बड़ा दुरुपयोग किया थैलीशाहों ने। पार्टी को करोड़ों का चंदा दो और जहां गुंजाइश दिखे उस राज्य से सदस्य बन जाओ। हमारा राजनेताओं से सवाल है कि अगर आप में चुनाव लडऩे की कूवत नहीं है और अपने ही गृह राज्य में आप चुनाव नहीं जीत सकते तो राजनीति कर क्यों रहे हैं और क्या राज्यसभा में गए बिना आपका जीवन अकारथ हो जाएगा। यह दृश्य सचमुच दु:खद है कि दिल्ली के अरुण जेटली गुजरात से राज्यसभा में जाते हैं और तमिलनाडु में डी. राजा को एक बार डीएमके और दूसरी बार एआईडीएमके की शरण में जाना पड़ता है।

बहरहाल इस विपर्यय की चरम सीमा कुछ दिन पहले देखने मिली जब अरुण जेटली ने रोष व्यक्त किया कि मनोनीत सदस्य निर्वाचित सदन के निर्णयों को लागू करने में बाधा बन रहे हैं और इस तरह देश की जनता का अपमान कर रहे हैं। उनकी देखादेखी और भी बहुत से विद्वान संविधान में संशोधन करने तथा राज्यसभा की शक्तियों को सीमित करने की मांग करने लग गए हैं। इनमें से किसी ने भी इस तथ्य पर गौर करना आवश्यक नहीं समझा कि स्वयं अरुण जेटली लोकसभा नहीं वरन राज्यसभा के मनोनीत सदस्य हैं, वह भी दिल्ली से नहीं बल्कि गुजरात से। ऐसे व्यक्ति की राय को क्या देश की आम जनता की राय माना जा सकता है। इन तमाम स्थितियों पर विचार करते हुए हमारा मत है कि राज्यसभा की गरिमा को पुर्नस्थापित करने के लिए आवाज उठाना चाहिए। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य सचमुच इस योग्य हों, राज्य के निवासी ही राज्यसभा में भेजे जाएं तथा उच्च सदन में वह नैैतिक व बौद्धिक शक्ति हो कि वह निम्न सदन की संभावित निरंकुशता को रोक सके।

देशबन्धु में 10 दिसंबर 2015 को प्रकाशित 

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