Wednesday, 16 December 2015

नक्सलवाद : पत्रकार बनाम पुलिस

 



इन
दिनों जबकि छत्तीसगढ़ विधानसभा का शीतकालीन सत्र चल रहा है, तब प्रदेश के पत्रकारों का एक वर्ग बस्तर में जेल भरो आंदोलन की तैयारियों में जुटा हुआ है। उल्लेखनीय है कि बस्तर के दो पत्रकार सुमारू नाग गत 16 जुलाई से और संतोष यादव 29 सितंबर से नक्सली होने के आरोप में जेल में बंद हैं। बस्तर पुलिस ने उन पर संगीन अपराधों की धाराएं लगाई हैं। इनकी रिहाई के लिए आंदोलनरत पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति का कहना है कि पत्रकारों को झूठे एवं निराधार आरोप लगाकर कैद किया गया है। वे इनकी रिहाई की मांग के साथ पत्रकारों पर झूठे केस दर्ज करने वाले अधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई करने की मांग कर रहे हैं। इस समूचे प्रकरण पर प्रदेश के समाचार पत्र और टीवी चैनल लगभग खामोश एवं तटस्थ हैं। किन्तु सोशल मीडिया पर लगातार इस आंदोलन को सफल बनाने का आह्वान किया जा रहा है। आंदोलनकारियों का रोष मुख्य तौर से बस्तर के पुलिस अधिकारियों विशेषकर पुलिस महानिरीक्षक एस.आर.पी. कल्लूरी पर है और वे उम्मीद बांधे बैठे हैं कि मुख्यमंत्री इस स्थिति का संज्ञान लेकर समाधान करेंगे।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की छवि प्रदेश के जनता के बीच एक लोकहितैषी तथा सदाशयी राजनेता की है और इसीलिए बस्तर के पत्रकार आशा कर रहे हैं कि उन्हें न्याय मिलेगा। दूसरा पहलू यह है कि आंदोलनकारियों को सरकार की कार्यप्रणाली पर विश्वास नहीं है। इस प्रकरण में सत्य का अंश कितना है यह हम फिलहाल नहीं जानते, लेकिन दो युवा पत्रकार, वे भले ही अंशकालिक क्यों न हों, यदि कई महीनों से जेल में हैं तो यह बात हमारे मन में भी उठती है कि इस मामले की त्वरित एवं निष्पक्ष विवेचना हो तथा नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर पत्रकारों को अन्याय व प्रताडऩा का शिकार न होना पड़े। आज जब हम मुख्यमंत्री से अपील कर रहे हैं कि वे स्वयं रुचि लेकर इस केस को देखें तब दूसरी ओर हमें इस तथ्य पर आश्चर्य भी है कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारों के किसी संगठन ने इस विषय पर अभी तक कोई पहल क्यों नहीं की। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की खामोशी भी अचरज उपजाती है।

डॉ. रमन सिंह ने अपने सफल कार्यकाल के बारह साल पिछले सप्ताह ही पूरे किए हैं। 12 दिसम्बर को जशपुर जिले के आदिवासी ग्राम पंडरापाट में उन्होंने अपने सम्मान में आयोजित सभा में यह विश्वास व्यक्त किया कि प्रदेश से नक्सलवाद समाप्ति की ओर है और यह बहुत जल्द खत्म हो जाएगा। इस बिन्दु पर हमारी शुभकामनाएं डॉक्टर साहब के साथ हैं। लेकिन हम उनके ध्यान में लाना चाहते हैं कि नक्सलवाद का खात्मा सिर्फ सशस्त्र बलों के भरोसे नहीं किया जा सकता। आज से दस साल पहले राज्य सरकार के प्रच्छन्न सहयोग से जिस सलवा जुड़ूम की शुरुआत की गई थी, उसमें भी यह भाव निहित था कि नक्सली हिंसा से प्रभावित गांवों के लोग खुद उनका विरोध करने के लिए खड़े होंगे। हमने देखा कि ऐसा नहीं हुआ और बहुत जल्दी लड़ाई सशस्त्र बल बनाम नक्सल बल में तब्दील हो गई, जिसमें बस्तर के आदिवासी दो पाटों के बीच पिसने के लिए छोड़ दिए गए। आज भी कम या अधिक कुछ वैसी ही स्थिति दिखाई देती है।

छत्तीसगढ़ पुलिस के तीन आला अफसरों के नाम हमें ध्यान आते हैं जिन्होंने नक्सल समस्या पर सैद्धांतिक पहलू से विवेचना करने की कोशिश की। इनमें पूर्व महानिदेशक विश्वरंजन, एक वर्तमान महानिदेशक गिरधारी नायक और एक अतिरिक्त महानिदेशक आर.के. विज शामिल हैं। दूसरी ओर इसी सेवा में ऐसे अधिकारी भी रहे हैं जो बहस में पड़े बिना आर-पार की लड़ाई में विश्वास रखते हैं। इनमें एस.आर.पी. कल्लूरी का नाम प्रमुख है। श्री कल्लूरी जब सरगुजा  में पदस्थ थे तब उन्होंने नक्सली हिंसा पर काबू पाने में महत्वपूर्ण सफलता अर्जित की थी जिसके लिए उनकी काफी सराहना भी हुई थी। ऐसा अनुमान लगता है कि श्री कल्लूरी बस्तर में भी इसी फार्मूले पर काम कर रहे हैं। ऐसी खबरें सुनने में आई हैं कि उन्हें अपने मिशन में काफी सफलता भी मिली है। संभव है कि इसी वजह से उन्हें खुलकर अपने तरीके से समस्या सुलझाने की स्वतंत्रता दी गई हो और शायद यही कारण हो कि प्रदेश पुलिस में नक्सल-विरोधी अभियान के प्रमुख अतिरिक्त महानिदेशक आर.के. विज ने यह प्रभार छोडऩे की इच्छा जताई है।

यह संभव है कि श्री कल्लूरी ने जो कार्यप्रणाली अपनाई है उसमें वे पूरी तरह से सफलता हासिल कर लें, लेकिन हमारे मन में प्रश्न उठता है कि क्या इससे नक्सल समस्या का सिरे से खात्मा हो पाएगा? एक दूसरा प्रश्न यह भी उठता है कि इसकी क्या कीमत समाज एवं व्यक्तियों को चुकाना पड़ेगी? हमारे सामने एक उदाहरण श्रीलंका का है। जब महेन्द्र राजपक्ष राष्ट्रपति थे तब उनके निर्देश पर सेना ने जाफना प्रायद्वीप में अंधाधुंध बल प्रयोग किया और ऐसा माना गया कि तमिल आतंकवाद की समाप्ति होकर श्रीलंका में स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। किन्तु आगे चल कर इस कार्रवाई के तीन नए परिणाम सामने आए। एक- सेना प्रमुख जनरल फोन्सेका जिनके नेतृत्व में जाफना में कार्रवाई हुई कालांतर में स्वयं उन्हें जेल जाना पड़ा। दो- जाफना में मानवाधिकारों का जो हनन हुआ उसकी गूंज पूरी दुनिया में उठी व राष्ट्रपति को तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा। तीन- श्रीलंका की तमिल आबादी आज भी किसी सीमा तक दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में जीने को अभिशप्त है।

अपने ही देश में पंजाब से अभी हाल में जो खबर आई है वह कम पीड़ादायक नहीं है। के.पी.एस. गिल की अगुवाई में पंजाब पुलिस ने प्रदेश को खालिस्तानी आतंकवाद से मुक्त करने में सफलता पाई और वहां अमन-चैन कायम हुआ। आज हमें यह जानने मिल रहा है कि आतंकवादियों से मुठभेड़ के नाम पर कितने ही निर्दोष नागरिकों को मार डाला गया। जिन पुलिस वालों ने बड़े अफसरों के आदेश पर बिना आगा-पीछा सोचे गोलियां चलाईं, आज वे कटघरे में हैं और पछता रहे हैं कि उन्होंने बड़े अफसरों की आज्ञा मानकर अपना जीवन तबाह कर लिया। ऐसी ही स्थिति हमने पश्चिम बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के मुख्यमंत्री रहते हुए देखी, जब नक्सली होने के आरोप में कितने ही नौजवान पुलिस दमन का शिकार बना दिए गए थे।

इसमें संदेह नहीं कि छत्तीसगढ़ प्रदेश के लिए नक्सलवाद एक बड़ी समस्या है। हम नक्सलियों द्वारा अपनाए गए रास्ते का शुरु से विरोध करते आए हैं, क्योंकि हिंसा से हिंसा ही उपजती है। कनु सान्याल जैसे प्रमुख नक्सली नेता ने इस सच्चाई को जान लिया था और वे गांधी के रास्ते पर चलने की बात करने लगे थेे, इसका उल्लेख हमने पूर्व में किया है। आज बस्तर में जो वातावरण बना है वह हमें विचलित करता है। एक समय रायपुर से बस्तर जाते हुए रास्ते में साल और आम के पेड़ों की छाया मिलती थी। आज उसी रास्ते पर जगह-जगह सुरक्षा बलों की नाकेबंदी और मृत सिपाहियों के स्मारक दिखाई देते हैं। बस्तर में कहीं भी जाते हुए मन हमेशा दहशत से भरा रहता है। यह आरोप सही है कि एक के बाद एक सरकारों ने अपना दायित्व सही ढंग से नहीं निभाया, लेकिन अंतत: इसकी सजा आम आदमी को मिल रही है। नक्सलियों ने पुलिस के साथ चाहे कितनी मुठभेड़ें की हों, बाकी सरकारी अमले के साथ तो उनके समझौते हो जाते हैं। वैसे तो यहां तक सुनने मिलता है कि  नक्सली सत्तारूढ़ दल को चुनाव के समय मदद करते हैं। जो भी हो, अहम् प्रश्न यह है कि सुरक्षा बल और नक्सली इन दोनों के बीच में आम जनता को तरह-तरह की परीक्षाओं से गुजरना पड़ रहा है। जो दो पत्रकार इस वक्त जेल में हैं वे भी तो कहीं इस क्रूर विडंबना का शिकार तो नहीं हो गए हैं, इस बात को परखना आवश्यक है। पाठकों को स्मरण होगा कि बस्तर में ही एक पत्रकार साईं रेड्डी पहिले नक्सली होने के आरोप में पुलिस दमन के शिकार हुए और बाद में नक्सलियों ने ही उनके प्राण ले लिए।

नए छत्तीसगढ़ राज्य को नक्सल समस्या पुराने मध्यप्रदेश से सौगात में मिली थी। डॉ. रमन सिंह ने इस समस्या को जड़मूल से समाप्त करने का संकल्प बार-बार दोहराया है। उनके नेतृत्व में यदि प्रदेश को हिंसामुक्त कर स्थायी शांति का वातावरण बनना है तो इसके लिए पुलिस के पारंपरिक तौर-तरीकों से हटकर अन्य उपायों पर भी विचार करना होगा।
देशबन्धु में 17 दिसंबर 2015 को प्रकाशित

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