Wednesday 23 December 2015

नेशनल हेराल्ड का मामला


 नेशनल हेराल्ड मामले पर फिलहाल जितना हंगामा संभव था हुआ और थम गया। अब दो महीने बाद निचली अदालत में जब दुबारा पेशी होगी तब नए सिरे से हंगामा होगा, ऐसी संभावना ज्ञानी लोग जतला रहे हैं। इसे शायद संयोग ही मानना होगा कि जब संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था तभी भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दायर मुकदमे पर सोनिया गांधी व अन्य द्वारा की गई अपील को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। विद्वान न्यायाधीश ने अपील खारिज करने के निर्णय के साथ कुछ ऐसी टिप्पणियां भी दर्ज कर दीं जिनसे कांग्रेस विरोधियों को गांधी परिवार पर आक्रमण जारी रखने का सुनहरा अवसर मिल गया। उच्च न्यायालय की ये टिप्पणियां निचली अदालत को किस रूप में प्रभावित करेंगी या कर सकती हैं, यह सोचने का एक मुद्दा है। सुना है कि सोनिया गांधी अब शायद सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करेंगी। यह बात अभी सिर्फ चर्चाओं में है। अगर सर्वोच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार नहीं की तो इन्हें वापिस 20 फरवरी 2016 को निचली अदालत के समक्ष पेश होना पड़ेगा। तब दुबारा यह संयोग होगा कि उस समय संसद का बजट सत्र शुरु हो चुका होगा। अर्थात् जाने-अनजाने हंगामे के दूसरे दौर की गुंजाइश अभी से बन गई है।

मुझसे कुछ मित्रों ने इस प्रकरण में मेरी राय जानना चाही है। यह क्योंकि कानूनी दांव-पेंच का मामला है इसलिए उस पहलू से कोई भी राय देना मुझ जैसे व्यक्ति के लिए न तो संभव है और न उचित है, जिसकी कानून के बारे में जानकारी पुख्ता न हो। लेकिन सारे मामले पर एक नज़र दौड़ाने से इतना समझ में अवश्य आता है कि इसे उठाने का प्राथमिक और अंतिम उद्देश्य राजनीतिक ही था। देश में लाखों कंपनियां चल रही हैं। उनके कारोबार में ऊंच-नीच होती होंगी। व्यापार चलाने के लिए बहुत तरह की कशमकश करना पड़ती है, बहुत से समझौते करना होते हैं, बहुत से समीकरण गढऩा होते हैं। देश में ऐसे व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की कमी नहीं है जिनकी रातोंरात हुई तरक्की और दिन दूनी रात चौगुनी हो रही प्रगति पर आए दिन उंगलियां उठती हैं। ऐसी टिप्पणियां हर कहीं सुनी जा सकती हैं- अरे कल तक तो ये तस्करी करता था, सिक्के गलाता था या लोहा चोर, कोयला चोर, नाका चोर था, आज इतना बड़ा आदमी बन बैठा है। ऐसे कुछ नामी घरानों के बारे में अखबारों में लिखा जा चुका है, किताबें छप चुकी हैं, संसद में सवाल उठ चुके हैं; इनकी तरक्की में सहायक हुए सरकारी अफसरों में कई को जेल जाना पड़ा है, तो कईयों ने अपनी जीवन लीला स्वयं समाप्त कर ली हैं। इन सब पर डॉ. स्वामी का ख्याल कभी नहीं गया। वे बहुत बड़े विद्वान हैं। अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके हैं; उनका देशप्रेम उन्हें कभी कांग्रेस का सहायक बना देता है, तो कभी जयललिता का, तो कभी वे इन दोनों के विरोधी हो जाते हैं। वे भाजपा से बाहर जाकर फिर भाजपा में लौट आते हैं। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न, विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी को नेशनल हेराल्ड का केस ही उठाने मिला। एक ऐसे अखबार का जो बरसों से ले-देकर चल रहा था और अंतत: छह साल पहले जिसने सांसें तोड़ दीं।

मैंने इस प्रकरण का जितना अध्ययन किया है उससे एक ही बात समझ में आती है। नेशनल हेराल्ड की संचालक कंपनी द एसोसिएटेड जर्नल्स प्राइवेट लिमिटेड अखबार को चला पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। जब अखबार बंद हो गया तब पिछले वर्षों में चढ़ी देनदारियां चुकाने का प्रश्न उपस्थित हुआ। इनमें कर्मचारियों के वेतन, भत्ते व भविष्यनिधि, गे्रज्युटी आदि मिलाकर काफी बड़ा बोझ था। कंपनी के पास कोई भी जमा पूंजी नहीं थी। लखनऊ में उसके पास बेशकीमती जमीन थी, इसके अलावा भी दिल्ली, मुंबई, भोपाल जैसे अनेक स्थानों पर उसके पास भूखंड थे। इनमें से कोई भी एक संपत्ति की बिक्री कर ऋण मुक्त हुआ जा सकता था। यह व्यवहारिक और वैधानिक कारणों से संभव नहीं था। क्योंकि ये तमाम भूखंड समाचार पत्र संचालन के लिए स्थायी लीज पर दिए गए थे याने सरकार या सरकारी संस्थाएं इसकी मालिक थीं न कि कंपनी। एक रास्ता यह था कि इन भूखंडों का आंशिक तौर पर व्यवसायिक उपयोग कर राशि जुटाई जाती और उससे देनदारियां पटाते। ऐसा क्यों नहीं किया गया या इसमें क्या बाधाएं थीं, इसे कंपनी का दैनंदिन काम देखने वाले ही बता सकते थे। यहां सोनिया गांधी या राहुल गांधी की कोई भूमिका नहीं थी। कुल मिलाकर जब और कोई रास्ता नहीं दिखा तो फौरी तौर पर कांग्रेस पार्टी से राशि उधार लेकर ऋणशोधन करने की बात सोची गई होगी। यह निर्णय लेना सहज रहा होगा, क्योंकि नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस पार्टी का ही अखबार माना जाता था। उससे अलग उसकी कोई पहचान नहीं थी और न इस बारे में कोई सोचता था।

ऐसा अनुमान होता है कि कांग्रेस पार्टी द्वारा एसोसियेटेड जर्नल्स को ऋण दे देने के पश्चात किसी के ध्यान में इसके कानूनी पक्ष को समझ लेने की बात आई होगी। तब विधिवेत्ताओं की सलाह से एक नई कंपनी का गठन किया गया जिससे नई कंपनी सभी दृष्टियों से
पुरानी कंपनी की उत्तरदायी बन गई। इस नई कंपनी के संचालक मंडल में शामिल सारे सदस्य भी कांग्रेस के ही नेता थे। याने सभी दृष्टियों से यह कांग्रेस का अपना आंतरिक मामला था। जो भी राशि ली-दी गई वह जैसे घर के सदस्यों के बीच आपसी लेन-देन था। यह संभव है कि ऐसा  करने में कानूनी प्रावधानों की ओर समुचित ध्यान न दिया गया हो। किन्तु इसमें कोई आर्थिक अनियमितता हुई हो, गबन हुआ हो, या नब्बे करोड़ रुपया किसी निजी खाते में चला गया हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ। जहां तक कंपनी की अचल संपत्ति याने भूखंडों का मामला है वे अपनी जगह कायम है। वे किसी को बेचे नहीं गए हैं और न उनसे कोई आर्थिक लाभ उठाया गया है। मेरी समझ में अंतत: यह पूरा मामला पार्टी द्वारा अखबार को दिए गए नब्बे करोड़ के ऋण में कानूनी प्रावधानों का लापरवाही के कारण समुचित पालन न किए जाने से अधिक कुछ नहीं है।

डॉ. स्वामी भारतीय जनता पार्टी तथा नेहरू-गांधी परिवार के विरोधी चाहे जितना हल्ला मचाते रहें, मेरी चिंता नेशनल हेराल्ड को लेकर दूसरी तरह की है। मुझे इस बात का बार-बार दुख होता है कि जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित अखबार की ऐसी दुर्दशा क्यों कर हुई और यह अपराध किसके माथे है। पंडित नेहरू ने न सिर्फ इस अखबार को प्रारंभ किया था, वे इसमें लगातार लिखते भी थे। संपादक चलपति राव ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक सुबह वे किसी गांव में किसानों की सभा में पंडित जी की भाषण की रिपोर्ट पढ़कर चकित रह गए क्योंकि रात को दफ्तर से उनके निकलने तक यह समाचार नहीं आया था। पूछताछ में पता चला कि देर रात गांव की यात्रा से थके-मांदे पंडित नेहरू दफ्तर आए और उन्होंने स्वयं अपने भाषण की रिपोर्टिंग की। जो अखबार ऐसे ऐतिहासिक और मार्मिक प्रसंग का साक्षी रहा हो, उसका बंद हो जाना सचमुच तकलीफदेह है।

2008 में जब नेशनल हेराल्ड बंद हुआ था तब मैंने उस पर इसी कॉलम में लिखा था। मैंने उसमें देशबन्धु से जुड़े एक प्रसंग का जिक्र किया था, जिसे यहां दोहराना शायद अनुचित न होगा। हमने नेशनल हेराल्ड से एक छपाई मशीन खरीदी थी तब मैं दस दिन लखनऊ में रहा था। संस्थान की अवनति मैं अपने सामने देख रहा था। उस समय पत्र के प्रबंध संचालक स्वर्गीय उमाशंकर दीक्षित ने बाबूजी (स्व. मायाराम सुरजन)को संचालक मंडल में शामिल कर उन्हें कार्यभार देने की इच्छा व्यक्त की थी। किन्तु इंदिराजी के विश्वस्त सचिव यशपाल कपूर की राय कुछ अलग होने से दीक्षितजी का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया। जाहिर है कि इंदिराजी ही नहीं, राजीव गांधी और सोनिया गांधी को भी नेशनल हेराल्ड चलाने के बारे में कोई नि:स्वार्थ परामर्श नहीं मिला। शायद उनकी अपनी रुचि भी इस दिशा में न रही हो। अन्यथा ऐसे शानदार अखबार को जो हमारी स्वाधीनता संग्राम की विरासत का हिस्सा है ऐसी दुश्वारियों का शिकार न होना पड़ता।
देशबन्धु में 24 दिसंबर 2015 को प्रकाशित

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