भुवनेश्वर के सामाजिक कार्यकर्ता तथा वॉटर इनीशिएटिव ओडिशा के संयोजक रंजन पंडा ने अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को पत्र लिखकर बधाई दी है कि भुवनेश्वर शहर स्मार्ट सिटी की स्पर्धा में सबसे पहले नंबर पर आया है। इसके साथ श्री पंडा ने कुछ अन्य बिन्दुओं पर ध्यान आकर्षित किया है जो इस प्रकार हैं-
1. भुवनेश्वर में सिर्फ नौ सौ पच्यासी एकड़ क्षेत्र में भुवनेश्वर टाउन सेंटर डिस्ट्रिक्ट (बीटीसीडी) स्मार्ट सिटी के पहले चरण के रूप में विकसित किया जाएगा।
2. इससे छियालीस हजार नागरिक लाभान्वित होंगे।
3. इसके लिए पैंतालीस सौ करोड़ रुपए की राशि खर्च की जाएगी।
4. इसमें से पैंतीस सौ करोड़ रुपया वल्र्ड बैंक से ऋण के रूप में आएगा।
5. इस तरह प्रति व्यक्ति लगभग दस लाख रुपए का निवेश होगा जिसमें से अठहत्तर प्रतिशत ऋण के रूप में होगा।
दूसरे शब्दों में हर नागरिक को सात लाख अस्सी हजार रुपए का कर्ज ब्याज समेत विश्व बैंक को पटाना पड़ेगा। रंजन पंडा सवाल उठाते हैं कि इस भारी-भरकम कर्ज को पटाने के लिए स्मार्ट सिटी से कितनी आमदनी होगी और क्या अंत में जाकर यह रकम प्रदेश की उस आम जनता के लिए बोझ नहीं बनेगी जिसको स्मार्ट सिटी से कोई लाभ होने वाला नहीं है?
पिछले सप्ताह मैंने भोपाल का जिक्र किया था। रंजन पंडा का पत्र तस्वीर का एक और पहलू हमारे सामने उद्घाटित करता है। कुल मिलाकर तीन-चार तथ्य प्रकट होते हैं। एक- स्मार्ट सिटी के रूप में किसी भी शहर का एक बहुत छोटा हिस्सा विकसित होगा। इसका लाभ पाने वाले नगरवासियों की संख्या भी बहुत कम होगी। इसके लिए जो निवेश किया जा रहा है वह गैर अनुपातिक और अविचारित है। दो- वल्र्ड बैंक से जो ऋण लिया जाएगा उसकी भरपाई कैसे होगी। इसकी कोई साफ तस्वीर सामने नहीं है। तीन- मैंने कहीं पढ़ा है कि सौ शहरों के लिए लगभग छह लाख करोड़ रुपयों की आवश्यकता होगी। केन्द्र सरकार मौन है कि यह रकम कैसे जुटाई जाएगी। चार- उल्लेखनीय है कि प्रथम चरण में मात्र बीस नगरों को लिया जाएगा (अभी यह संख्या दस पर रुकी है) जिसमें से प्रत्येक को पहले साल दो सौ करोड़ एवं अगले तीन सालों में सौ-सौ करोड़ की किस्तें दी जाएगीं। याने किसी नगर को मिलने वाली कुल रकम हुई पांच सौ करोड़। अब हमारी समझ में यह गणित नहीं आ रहा है कि भुवनेश्वर नगर निगम पैंतालीस सौ करोड़ की बात कर रही है तो मात्र पांच सौ करोड़ से उसका काम कैसे चलेगा?
स्मार्ट सिटी योजना के बारे में मैं जितना कुछ पढ़ सका हूं इससे अनुमान लगता है कि केन्द्र सरकार शहरी बसाहट के कुछ आदर्श प्रतिमान या मॉडल खड़े कर देना चाहती है जिससे अन्य नगरों को भी प्रेरणा मिल सके। भारत का जिस तेजी के साथ शहरीकरण हो रहा है उसमें इस योजना का औचित्य समझ में आता है। इसके अलावा केन्द्र द्वारा शहरी नवीकरण के लिए अमृत और हृदय जैसी योजनाएं भी प्रारंभ की जा रही हैं। किन्तु इन तमाम योजनाओं को अमल में लाने में सबसे बड़ी समस्या तो धनराशि की होनी है। अगर वल्र्ड बैंक इत्यादि से ऋण लेकर राशि जुटा भी ली जाए तो उससे देश की ऋणग्रस्तता बढ़ेगी तथा कर्ज वापिस करने की तलवार सिर पर सदैव लटकती रहेगी। यह प्रश्न भी उठता है कि क्या हमारे नगरीय निकायों में ऐसी योजनाओं को लागू करने की आवश्यक योग्यता और क्षमता है? इन संभावनाओं को नहीं नकारा जा सकता कि विदेशी परामर्शदाताओं को बुलाए बिना काम पूरा नहीं होगा। ऐसी स्थिति में ऋण से प्राप्त राशि का एक बड़ा हिस्सा उन्हें फीस के रूप में वापिस चला जाएगा और ऋण अपनी जगह पर कायम रहा आएगा।
इस बिन्दुओं के अलावा एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या हमारा नागर समाज मानसिक रूप से इन योजनाओं के लिए तैयार है? मैं यहां शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू को उद्धृत करना चाहूंगा। उनका कहना है- स्मार्ट सिटी वह है जैसा कि उसके नागरिक चाहते हैं तथा नगर स्तर की योजना उनके साथ व्यापक विचार विमर्श के आधार पर तैयार की जाएगी। कुछ माह पूर्व देश के महापौरों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि ''आपको अगले चुनाव की चिंता छोड़कर जनता की आशा-आकांक्षा के अनुरूप अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने तथा अपने विचारों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। आप अगर अपने नगर को स्मार्ट सिटी बनाना चाहते हैं तो आपके भीतर यह शक्ति है।" श्री नायडू ने बात तो बहुत अच्छी की, लेकिन आप ही बतलाइए कि ऐसा कौन सा मेयर है जिसे अगले चुनाव की चिंता न हो? एक समय था जब जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और सुभाषचन्द्र बोस जैसे नेता नगरपालिकाओं के प्रमुख थे। वर्तमान के नेताओं में अगर ऐसी संभावना की किरण कहीं दिखे तो इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और क्या होगी!
स्मार्ट सिटी की परिभाषा में अगर हम ज्यादा न उलझें और सीधे-साधे शब्दों में समझने की कोशिश करें तो एक ऐसी बस्ती की कल्पना मानसपटल पर उभरती है जिसमें काफी कुछ बातें व्यवस्थित हैं जहां जनता अपनी नागरिक जिम्मेदारियों के प्रति सजग है और जहां रहना सुकूनभरा तथा निरापद है। हम फिल्मों में विदेश के नगरों की जो छबियां देखते हैं कुछ-कुछ वैसा दृश्य। भारत में हमने ऐसे नगर बसाने की कोशिश अतीत में की है तथा वर्तमान में जारी है। चंडीगढ़ आज भी शायद हमारा सबसे सुन्दर एवं व्यवस्थित नगर है। वह शायद अपने समय की पहली स्मार्ट सिटी है। भुवनेश्वर व गांधी नगर भी नए शहर हैं। अनेक औद्योगिक नगर भी काफी कुछ व्यवस्थित हैं।
रायपुर से मात्र चौबीस किलोमीटर दूर बसी भिलाई टाउनशिप में पचास साल पहले यह विचार कर लिया गया था कि साइकिल से आने वाले कर्मी कारखाने के निकट रहें और कार से आने वाले अफसरों का सेक्टर दूर बसाया जाए। उस समय जो चौड़ी सड़कें बनाई गईं वे आज भी काम आ रही हंै। उस समय जो मौलश्री के वृक्ष सड़कों के किनारे लगाए गए वे आज भी छाया और सुगंध दे रहे हैं। प्रारंभ में कर्मचारियों को लाने ले जाने के लिए बसों की फ्लीट भी नियमित संचालित होती थी जो निजी वाहनों के बढ़ते प्रयोग के कारण बंद हो गईं। लेकिन अब टाउनशिप के भीतर भी एक तरह से बदइंतजामी बढऩे लगी हैं। दूसरी ओर पटरी पार याने टाउनशिप के बाहर का जो इलाका है इसका व्यवस्थापन तो कई बार हुआ, लेकिन वह इलाका कभी भी व्यवस्थित नहीं हो सका। एक तरह से भिलाई में जी.ई. रोड या रेल लाइन के उत्तर व दक्षिण में दो अलग-अलग तरह की समाज रचना विकसित होने की विसंगति फलित हो गई। सच पूछिए तो क्या यह स्थिति पूरे भारत वर्ष की नहीं है?
मैं फिर अपने देखे के उदाहरण देता हूं। भोपाल में तात्या टोपे नगर बसाया गया। 1956 से लेकर कुछ साल बाद तक राजधानी क्षेत्र का जो विकास हुआ वह एक सुंदर नगर का चित्र प्रस्तुत करता है। लेकिन आज जो भोपाल विकसित हो रहा है उसने नगर नियोजन की सारी शर्तों को ध्वस्त कर दिया है। यही बात दिल्ली पर लागू होती है और रायपुर पर भी। रायपुर इत्यादि स्थानों पर मध्यप्रदेश हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनियां बनाईं उनमें नगर नियोजन से जुड़े सभी आवश्यक बिन्दुओं पर ध्यान दिया गया, लेकिन आगे चलकर अधिकतर सहकारी समितियों ने तथा निजी बिल्डरों ने जो कालोनियां बसाईं उनके हाल बेहाल हैं। रायपुर में आप चाहे सुन्दर नगर चले जाएं, चाहे श्रीराम नगर, कौन कहेगा कि ये आधुनिक समय में विकसित आवासीय क्षेत्र हैं? यहां मेरे कहने का आशय है कि हमने संभवत: अपने चरित्र में एक अवज्ञा का भाव विकसित कर लिया है कि हमें नियम-कायदों से नहीं चलना है। अगर हमारा यही रुख जारी रहा तो स्मार्ट सिटी की पूरी अवधारणा पर पानी फिरते देर न लगेगी।
इन सबसे अहम् एक अन्य प्रश्न है जो बेहद चिंताजनक है। भारतीय समाज ने हाल के बरसों में अपने आपको बहुत संकुचित कर लिया है। आज से कुछ साल पहले तक हिन्दु, मुसलमान, सिख, ईसाई सब एक मुहल्ले में एक साथ रह सकते थे। अधिकतर इलाकों में अमीर और गरीब भी साथ-साथ बसते थे। एक-दूसरे के साथ संपर्क घना था। अब ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेंट भवनों में यह स्थिति है कि जहां हिन्दु रह रहे हैं वहां कोई मुसलमान या ईसाई शायद ही रहता हो। फिर अभी कुछ दिन पहले बंगलुरू में तंजानिया की एक छात्रा के साथ जनता ने जो सलूक किया उससे भी हमारी संकुचित, असहिष्णु, संवेदनहीन, रंगभेदी और नस्लवादी मानसिकता के कम होने के बजाय बढऩे का परिचय मिलता है। अगर भारत की साइबर राजधानी जिसमें देश के सबसे स्मार्ट लोग रहते हैं उसमें ऐसे हालात हैं तो बाकी की बात क्या करें?
देशबन्धु में 11 फरवरी 2016 को प्रकाशित
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