पुणे, हैदराबाद, शांतिनिकेतन और अब दिल्ली। पुणे के राष्ट्रीय फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान में एक तीसरे दर्जे के अभिनेता को शासी निकाय का अध्यक्ष बना दिया गया। यह नियुक्ति इसलिए हुई कि गजेन्द्रसिंह चौहान संघ के प्रिय हैं। इस पर छात्रों ने लंबे समय तक ठोस कारणों से विरोध किया, लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गई। हैदराबाद के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में केन्द्र सरकार के सीधे हस्तक्षेप के कारण वि.वि. ने पांच दलित छात्रों को हॉस्टल से बेदखल कर दिया। उनमें से एक रोहित वेमुला ने व्यथित और हताश होकर आत्महत्या कर ली, लेकिन इस त्रासदी का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे यह सिद्ध करने की कोशिश की गई कि रोहित दलित नहीं था। इस प्रश्न का उत्तर किसी ने नहीं दिया कि उसकी शोधवृत्ति की राशि पिछले सात महीने से क्यों लंबित थी? शांतिनिकेतन में कुलपति पर अनियमितताओं के आरोप थे, उनकी रवानगी तय थी; यह सुझाव राष्ट्रपति भवन से गया था कि कुलपति से इस्तीफा मांग उसे स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन वैसा न कर कुलपति को बर्खास्त कर एक नया इतिहास रचा गया। देश के तमाम विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को एक तरह से चेतावनी दी गई है।
जेएनयू में 9 फरवरी को जो हुआ उसको जानकर आगे बढऩा उचित होगा। डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन (डीएसयू) नामक छात्र संगठन ने एक कार्यक्रम करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुमति मांगी। यह संगठन चरम वामपंथी रुझान का है। संगठन ने अनुमति मिलने के बाद विश्वविद्यालय परिसर में जगह-जगह पोस्टर लगाए जिनसे पता चला कि यह कोई सामान्य कार्यक्रम न होकर कश्मीर की आज़ादी और अफजल गुरु की फांसी पर केन्द्रित होगा। विद्यार्थी परिषद ने इसका विरोध किया। प्रशासन ने सभास्थल बदल दिया और माइक इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी। जहां कार्यक्रम हुआ वहां भारत-विरोधी नारे लगे, कश्मीर की आज़ादी की मांग की गई और अफजल गुरु की फांसी के खिलाफ नारे लगाए गए। इन सभी नारों का स्वर व भाषा असंयमित और अमर्यादित थी। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का कहना है कि इस नारेबाजी के कारण जब झड़प होने की नौबत आ गई तो वे बीच-बचाव करने वहां पहुंचे थे।
कन्हैया कुमार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के छात्र संगठन एआईएसएफ से संबंध रखते हैं। यह जान लेना उचित होगा कि अलग-अलग वामदलों के अलग-अलग छात्र संगठन हैं। सीपीआईएम का छात्र संगठन एसएफआई है तथा सीपीआईएमएल का संगठन आईसा है। इन सभी संगठनों के बीच भारी प्रतिस्पर्धा रहती है। ये कोई साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ते। जेएनयू में कन्हैया कुमार की जीत के साथ एआईएसएफ ने लंबे समय बाद अपना प्रभाव स्थापित किया है। आम जनता तो क्या राजनेता भी कई बार वामदलों के इस विभेद को नहीं समझ पाते। जो भाजपाई नहीं है उसे कम्युनिस्ट कह देने से आसानी होती है, लेकिन इसमें वैचारिक आलस्य का परिचय भी मिलता है। जो लोग कन्हैया पर गंभीर आरोप मढ़ रहे हैं वे एआईएसएफ और डीएसयू के अंतर को शायद जानबूझ कर जानने से इंकार कर रहे हैं।
नौ तारीख की रात के इस हंगामेदार कार्यक्रम के तुरंत बाद अगले दिन याने 10 तारीख को कन्हैया कुमार ने एक सभा ली। अपने लगभग आधा घंटे के भाषण में इस छात्र नेता ने पहले तो संघ और सरकार के विरुद्ध बहुत सी बातें कीं, लेकिन बाद में उसने भारतीय संविधान की सर्वोच्चता, उसका पालन तथा अन्य बातें कहीं। उसने डीएसयू की सभा में लगाए गए नारों का भी विरोध किया व स्वयं की स्पष्ट असहमति दर्ज की। इसके बावजूद पुलिस परिसर में आई और उसे गिरफ्तार कर ले गई। यदि कुलपति ने पुलिस को नहीं बुलाया था तो जेएनयू परिसर में पुलिस कैसे पहुंची? क्या ऐसा गृहमंत्री राजनाथ सिंह के आदेश से ऐसा हुआ? क्या इसके पीछे मानव संसाधन मंत्री की दखलंदाजी थी? गृहराज्य मंत्री किरण रिजिजू ने एक टीवी चैनल में कहा कि सरकार ने पुलिस को कड़ी कार्रवाई करने के लिए कहा था, किसी को गिरफ्तार करने के लिए नहीं। इससे यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि इस मामले में केन्द्र सरकार ने सीधा हस्तक्षेप किया है और परंपराओं को तोड़ते हुए ऐसा किया है।
डीएसयू के छात्रों ने जो नारे लगाए उनसे हम सहमत नहीं हैं। कश्मीर का भविष्य क्या हो अथवा अफजल गुरु को फांसी देना न्यायोचित था या नहीं? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर बौद्धिक बहसें हो सकती हैं और होना चाहिए। छात्रों का भी यह हक बनता है कि वे ऐसी बहसों में भाग लें। लेकिन नारेबाजी बौद्धिक बहस का पर्याय नहीं है; फिर शैक्षणिक परिसर और सड़क में कोई फर्क नहीं रह जाता। इस सीमा तक मैं डीएसयू के कृत्य की आलोचना करता हूं, लेकिन उच्छृंखल नारेबाजी करने को देशद्रोह मान लेना एक दूसरी तरह का अतिरेक है। सरकार समर्थक चैनल हेडलाइन टुडे के राहुल कंवल से चर्चा करते हुए विधिवेत्ता सोली सोराबजी ने जो कहा वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि भारत-विरोधी नारे लगाना देशद्रोह नहीं है। उस सभा में कन्हैया कुमार का उपस्थित होना (किसी भी कारण से) भी देशद्रोह नहीं है। स्मरण रहे कि सोली सोराबजी अटल बिहारी वाजपेयी के समय देश के महाधिवक्ता याने कि अटार्नी जनरल थे।
यह भाजपा और संघ के लोगों पर निर्भर करता है कि वे अपने शुभचिंतक सोली सोराबजी की परिपक्व राय को भाव दें या न दें। लेकिन सोमवार 15 तारीख को पटियाला हाउस अदालत में संघ समर्थक वकीलों व भाजपा के एक विधायक ने जो आचरण किया उससे ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू राष्ट्र का सपना संजोए बैठे एक वर्ग ने स्वतंत्र बुद्धि से निर्णय लेना बंद कर दिया है। सोशल मीडिया पर जिस तरह की टिप्पणियां आ रही हैं वे भी इस मनोदशा को ही प्रकट करती हैं। मैंने विगत एक सप्ताह के दौरान जेएनयू प्रकरण पर अपनी ओर से तो कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन अनेक लेख व टिप्पणियां साझा किए। इन पर संघ समर्थक मेरे अनेक मित्रों ने अपनी असहमति दर्ज की है। मैं उनका सम्मान करता हूं। आप जब तक अपनी बात शिष्ट और शालीन भाषा में कह रहे हैं, तब तक उसे सुनना चाहिए। किन्तु मैं अपने ही मित्रों से जानना चाहता हूं कि पटियाला हाउस कोर्ट में जो हुआ उसका समर्थन वे किस आधार पर करते हैं? क्या नारे लगाना मारने-पीटने से ज्यादा खतरनाक है? इन्हीं मित्रों से दूसरी बात कि संघ के अनेक समर्थक सोशल मीडिया पर अपने विरोधियों को जिस तरह अश्लील से अश्लील गालियां दे रहे हैं क्या वे उनका भी समर्थन करते हैं? मैं नहीं मानता कि संघ की शाखाओं में मां-बहन की गालियां देने की ट्रेनिंग दी जाती होगी। तो क्या संघ के जिम्मेदार लोग ऐसे लम्पट लोगों पर कोई कार्रवाई करेंगे?
हम जानते हैं कि संघ का एजेंडा भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाने का है। इस उपक्रम में उनकी कोशिश देश के शैक्षणिक संस्थानों पर कब्जा जमाने की है। लेकिन यह भारत देश धर्म की संकीर्ण परिभाषा से बहुत बड़ा है। आज भले ही शास्त्रार्थ की परंपरा शिथिल पड़ गई हो, विश्वविद्यालयों में अध्यापक वर्ग की काहिली के चलते स्वतंत्र चिंतन का वातावरण न बन पा रहा हो, लेकिन अपने अनजाने में संघ व सरकार ने विश्वविद्यालयों की सुप्त चेतना में सिहरन पैदा कर दी है। इसके परिणाम आगे चलकर अच्छे ही आएंगे। आज भले ही तात्कालिक विजय पर जिसे खुश होना है हो लें।
देशबन्धु में 18 फरवरी 2016 को प्रकाशित
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