महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा अपने स्थापना काल से लगातार गलत कारणों से अखबारों में सुर्खियां बटोरता रहा है। यह आज के क्रूर समय की विडंबना है कि विश्वविद्यालय ने जो एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य कुछ समय पहले संपादित किया उसकी जैसी चर्चा और प्रशंसा होना चाहिए थी वह आज तक नहीं हुई। इस राष्ट्रीय तो क्या अंतरराष्ट्रीय महत्व के संस्थान को जो पहले तीन कुलपति मिले वे हिन्दी साहित्य और भाषा में प्रमुख स्थान रखते थे; उनकी संस्थान के विकास को लेकर अपनी-अपनी योजनाएं और महत्वाकांक्षाएं थीं। सबकी अपनी-अपनी कार्यपद्धति भी थी। यह हम देख सकते हैं कि संस्थान को जिस गति के साथ आगे बढऩा चाहिए था वह संभव नहीं हो सका। इसके विपरीत अनेक बार विश्वविद्यालय के कामकाज पर उंगलियां उठाई गई जिनमें बड़ी हद तक सच्चाई थी। मुझे स्वयं दो बार वर्धा जाने का अवसर मिला और दोनों अवसरों पर यही लगा कि वहां सब कुछ ठीक नहीं था। किन्तु यह भी क्या बात हुई कि विश्वविद्यालय ने कोई अच्छा काम किया है तो उसकी उपेक्षा की जाए या उसकी पर्याप्त चर्चा न हो!
वर्धा हिन्दी शब्दकोश की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें अंग्रेजी के वर्तमान में प्रचलित अनेकानेक शब्दों का समावेश किया गया है। यह एक व्यावहारिक और सटीक पहल है। भाषा निरंतर प्रवहमान होती है। दैनंदिन व्यवहार के चलते नए शब्द जुड़ते हैं। टेक्नालॉजी का विकास भी शब्द भंडार को समृद्ध करने में सहायक होता है। विश्व की कोई भी प्रमुख भाषा इसका अपवाद नहीं है। हम लोग इस तथ्य पर चकित और प्रसन्न होते रहे हैं कि विश्व की सबसे प्रामाणिक माने जाने वाली ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में साल-दर-साल भारतीय भाषाओं से कितने नए शब्द जुड़ते जाते हैं। जो बात उनके लिए सच है वही बात हमारे लिए भी उतनी ही सच है। भाषा विज्ञान के विद्यार्थी तो पढ़ते ही हैं कि हिन्दी में दुनिया की किन-किन भाषाओं से शब्द लिए गए।
सामान्य लोकव्यवहार में भी हमें पता है कि कैसे दूसरी भाषाओं से आकर चुपचाप कितने सारे शब्द हमारी भाषा से घुलमिल जाते हैं। आज भला कौन कहेगा कि मुश्किल, हवा, दुनिया, रेत, ट्रेन, लीची, चाय, सुनामी, सुडोकू, हाइकू, स्पूतनिक आदि शब्द मूलत: हिन्दी के नहीं है। इनके अलावा भी हजारों शब्द हैं जो हिन्दी के पुराने शब्दकोशों में देखने मिल सकते हैं। इस पृष्ठभूमि में मुझे अक्सर कोफ्त होती रही है कि टेक्नालॉजी के विकास के साथ ढेर सारे नए शब्द हमारे प्रचलन में आ चुके हैं, लेकिन हिन्दी शब्दकोश में उनको जगह नहीं मिल पाई है। वह भी क्या इसलिए कि डॉ. फादर कामिल बुल्के के बाद हिन्दी का नया शब्दकोश बनाने की बात पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। जब हमें यह जानकारी मिलती है कि फादर कामिल बुल्के का अंग्रेजी हिन्दी कोश 1965-66 में प्रथमत: प्रकाशित हुआ था तब इस लंबे अंतराल को देखकर मन में विचार उठता है कि क्या इसी बलबूते पर हिन्दी विश्वभाषा बन पाएगी। ऐसा नहीं कि इस बीच अन्य शब्दकोश न बने हों, लेकिन उनकी प्रामाणिकता सौ टंच नहीं है।
यह सर्वविदित है कि ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी का हर वर्ष नया संस्करण प्रकाशित होता है। अब यह कोश इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। ओईडी का ट्विटर एकाउंट या खाता भी है। उसमें लगभग प्रतिदिन वे नए-नए शब्दों से पाठकों का परिचय कराते हैं। आप स्वयं भी यदि कोई शब्दार्थ देखना चाहते हैं तो ट्विटर/ फेसबुक के ओईडी पेज पर उसे पा सकते हैं। अगर कोई चाहे तो अपने स्मार्ट फोन पर ओईडी का एप नि:शुल्क डाउनलोड भी कर सकता है। यद्यपि हिन्दी शब्दकोश के भी अनेक एप्स नि:शुल्क उपलब्ध हैं, लेकिन ये कितने अद्यतन और कितने प्रामाणिक हैं यह कहना कठिन है। सच तो यह है कि हम अभी तक कामिल बुल्के के अंग्रेजी-हिन्दी कोश से ही काम चला रहे हैं। यह ध्यान रखने की बात है कि इसमें अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ दिए गए हैं और यह हिन्दी शब्दकोश नहीं है। मैं हिन्दी की जिन संस्थाओं से समय-समय पर संबद्ध रहा हूं वहां मैंने अक्सर इस विषय को उठाया है किन्तु जिन्हें निर्णय लेना था उनकी प्राथमिकता में या तो यह बात न आ सकी या फिर साधनों का अभाव सामने आकर खड़ा हो गया।
देशबन्धु लाइब्रेरी में हिन्दी का जो प्राचीनतम कोश उपलब्ध है वह काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित एवं बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित हिन्दी शब्द सागर है जो पहले-पहल 1929 में प्रकाशित हुआ था। इस उपक्रम में बाबू श्यामसुंदर दास के साथ सहायक संपादक के रूप में निम्नलिखित मनीषियों ने अपनी सेवाएं दीं- बालकृष्ण भट्ट, रामचंद्र शुक्ल, अमीर सिंह, जगमोहन, भगवानदीन, रामचंद्र वर्मा। इस महत्तर कार्य को सम्पन्न करने में संपादक मंडल को क्या-क्या पापड़ बेलना पड़े इसका विस्तृत ब्यौरा प्रथम संस्करण की भूमिका से मिलता है। यह एक रोचक दस्तावेज है जिसे अक्षर पर्व के पाठकों के लिए हमने इसी अंक में पुनप्र्रकाशित किया है। इसमें कुछ बिन्दु विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:-
1. हिन्दी का सबसे पहला शब्दकोश लंदन से एक अंग्रेज सज्जन ने सन् 1775 में प्रकाशित किया था।
2. अंग्रेजों को चूंकि इस देश की भाषा का प्रयोग करने की जरूरत आन पड़ी थी इसलिए यह और इसके बाद अनेक शब्दकोश छपे।
3. नागरी प्रचारिणी सभा ने 1893 में कोश की योजना तैयार की।
4. संपादकों ने शब्द संग्रह करने के लिए जो प्रयत्न किए वे अद्भुत हैं।
5. 1893 में सबसे पहले विचार हुआ; 1909 में काम शुरू हुआ और ठीक बीस साल बाद 31 जनवरी 1929 को हिन्दी शब्दसागर प्रकाशित हुआ।
6. बाबू श्यामसुंदर दास ने अपनी प्रस्तावना के पहले पैराग्राफ में एक सटीक बात कही है:- ''शब्दकोश किसी भाषा के साहित्य की मूल्यवान संपत्ति और उस भाषा के भंडार का सबसे बड़ा नि:दर्शक होता है।"
जैसा कि ऊपर उल्लेख हुआ है अनेक उपसंपादकों में एक श्री रामचन्द्र वर्मा भी थे। वे इस पूरे उद्यम में प्रारंभ से अंत तक साथ रहे। आगे चलकर श्री वर्मा ने अच्छी हिन्दी नामक एक पुस्तिका लिखी जो आज भी हर हिन्दी जानने या सीखने वाले के लिए बहुत काम की है।
बहरहाल हम वर्धा हिन्दी शब्दकोश की ओर लौटते हैं। इसमें अंग्रेजी के बहुत सारे शब्द जैसे कम्प्यूटर, ब्लॉग, टैक्स, टैक्सी, टायलेट, शिफ्ट, आर्टिस्ट, आर्मी आदि का समावेश किया गया है जिनका सामान्य व्यवहार में प्रयोग होता है। इससे निश्चित ही कोश का उपयोग करने वालों को सहूलियत होगी, लेकिन मैं समझता हूं कि कोश पर अभी और परिश्रम किए जाने की आवश्यकता है। संपादक मंडल में निर्मला जैन व गंगाप्रसाद विमल प्रभृत्ति विद्वानों के नाम हैं। इनकी कोश के प्रकाशन में क्या भूमिका रही है यह पता नहीं चलता। प्रधान संपादक इस बारे में विस्तार से लिखते तो बेहतर होता। हिन्दी शब्दसागर की उपरलिखित भूमिका तो उन्होंने देखी ही होगी। इसका अनुसरण वे करते तो कोश की भावी दिशा तय होने में सहायता मिलती।
मुझे ऐसा संदेह होता है कि कुलपति विभूतिनारायण राय अपना कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व इस कोश को प्रकाशित कर देने के इच्छुक रहे होंगे। यह शायद ठीक भी था। कौन जानता है कि नए कुलपति के आने के बाद इस महत्वाकांक्षी योजना का क्या हश्र होता कि अब आपके पास एक आधार ग्रंथ तो है, जिसे सामने रखकर आगे बढ़ा जा सकता है। इसी बिना पर मैं जोडऩा चाहूंगा कि हम हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों को जबरदस्ती न ठूंसें, लेकिन जो सहजता से आ गए हैं उन्हें तो शामिल करना ही चाहिए, मसलन एम्बेसी, एम्बेसेडर, बाईक आदि। इसी तरह परिशिष्ट में पदबंधों के जो संक्षिप्त रूप हैं अथवा एक्रोनिम दिए गए हैं वहां यूनेस्को हो, लेकिन यूएनओ न हो, एडीबी हो, लेकिन आईएलओ न हो, तो अटपटा लगना स्वाभाविक है। यह सूची बढ़ाई जा सकती है लेकिन यहां सिर्फ संकेत देना पर्याप्त है।
जब कभी कोश का पुनर्मुद्रण हो तब साथ-साथ उसका परिवर्द्धन भी किया जा सके तो बहुत अच्छा होगा। इसके अलावा एक अत्यंत व्यावहारिक बिन्दु भी हम उठाना चाहेंगे। साढ़े बारह सौ पेज के कोश का मूल्य एक हजार रुपया रखा गया है। यह मूल्य आजकल किताबों की जैसी कीमतें चल रही हैं उसे देखते हुए उचित प्रतीत होता है, लेकिन क्या एक आम पाठक इस कीमत पर कोश खरीदने की इच्छा रखता है या कि साहस जुटा सकता है। यह एक अटपटी बात है कि कोश का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है और विश्वविद्यालय का उपयोग सहयोगी के रूप में हुआ है। यह बात पल्ले नहीं पड़ी। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा भारत शासन की एक स्वायत्त संस्था है। उसके द्वारा किए गए इस उद्यम का प्रकाशन स्वयं विश्वविद्यालय को ही करना था या फिर इसे भारत सरकार के प्रकाशन विभाग अथवा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को दिया जा सकता था। तब यह कोश उचित दामों पर जनता को मिल पाता। अगर विश्वविद्यालय का प्रकाशन के साथ अभेद्य अनुबंध न हुआ हो तो उसे भंग कर नए सिरे से प्रकाशन के बारे में सोचना उचित होगा। इस बारे में हम यह उल्लेख कर दें कि नागरी-प्रचारिणी सभा ने 1965 में हिन्दी शब्दसागर का जो दस खंडों का परिवर्द्धित संस्करण प्रकाशित किया उसका मूल्य मात्र डेढ़ सौ रुपए रखा गया था और भारत सरकार ने इस हेतु साठ प्रतिशत सब्सिडी दी थी। यही फार्मूला आज भी अपनाया जा सकता है।
अक्षर पर्व फरवरी 2016 अंक की प्रस्तावना
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