Wednesday, 25 May 2016

चुनाव परिणाम आने के बाद




असम में भाजपा के सर्वानंद सोनोवाल, केरल में माकपा के पिनराई विजयन, पुड्डुचेरी में कांग्रेस के (अभी तक तय नहीं, लेकिन क्यों?), पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जे. जयललिता। इस तरह शायद तीन नए, दो पुराने। आने वाले दिन और साल इनकी परीक्षा के। केरल में पिनराई विजयन का पार्टी द्वारा मनोनयन चौंकाने वाला तो नहीं, लेकिन किसी हद तक आश्चर्यजनक अवश्य है।  पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश करात केरल के बुजुर्ग नेता वी.एस. अच्युतानंदन को पसंद नहीं करते थे। 2006 से 2011 के बीच जब वी.एस. मुख्यमंत्री थे तब उन्हें परेशान करने में पार्टी महासचिव तथा केरल में उनके प्रिय विजयन ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। वी.एस. की छवि ईमानदार तथा बेदाग नेता के रूप में है, जबकि विजयन उस समय भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में आ गए थे। 2011 के चुनावों में श्री करात नहीं चाहते थे कि  दुबारा चुनाव जीतने की स्थिति में वी.एस. मुख्यमंत्री बनें। इसलिए पहले उन्हें चुनाव से दूर रखा गया, लेकिन उनकी उपयोगिता समझ उन्हें वापिस लाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

केरल में 2011 के चुनाव के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि वाममोर्चा कांग्रेस मोर्चे के खिलाफ बहुत कम अंतर से चुनाव हारा था। यदि पार्टी ने वी.एस. से प्रारंभ में बेरुखी न दिखाई होती तो शायद उसी समय वाममोर्चा केरल में लगातार दूसरी बार चुनाव जीतने का रिकार्ड बना लेता।  केरल, पश्चिम बंगाल तथा त्रिपुरा मिलाकर वाममोर्चे ने ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद से लेकर माणिक सरकार तक दस मुख्यमंत्री दिए हैं। इनमें से किसी पर भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा। ज्योति बसु के बेटे चंदन के बारे में जरूर कुछ खबरें आईं लेकिन वे आगे नहीं बढ़ीं। अच्युत मेनन ऐसे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों से स्वेच्छा से त्यागपत्र दे दिया। ऐसे में श्री विजयन को मुख्यमंत्री बनाकर सीपीआईएम ने एक नया प्रयोग किया है। वी.एस. को फिदेल कास्त्रो की उपमा देकर माहौल को हल्का करने की कोशिश की गई है, लेकिन सीपीआईएम से शब्दों की ऐसी खिलवाड़ की अपेक्षा नहीं थी। ऐसा लगता है कि इस चयन में वर्तमान पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी पर पूर्व महासचिव भारी पड़ गए। अब देखिए आगे क्या होता है।

असम में सर्वानंद सोनोवाल का चयन स्वागत योग्य है। उन्हें चुनने के लिए पार्टी ने तीन प्रयोग किए। दिल्ली में किरण बेदी की हार से सबक लेकर बिहार में किसी को दावेदार घोषित नहीं किया। वहां की हार से सबक लेकर असम में मुख्यमंत्री पहले से घोषित कर दिया। यह पहला प्रयोग हुआ। जीत मिल गई तो निर्णय अपने आप सही सिद्ध हुआ। नए मुख्यमंत्री असम के आदिवासी समाज से आते हैं, यह हुआ दूसरा प्रयोग।  झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल प्रदेश में भाजपा ने गैरआदिवासियों को मुख्यमंत्री बनाया और उस प्रयोग का प्रतिबिंब असम में उतार दिया। प्रयोग नंबर तीन यह कि सर्वानंद सोनोवाल संघ के स्वयंसेवक नहीं हैं। उन्होंने अपनी राजनीति भी भाजपा से नहीं, बल्कि प्रफुल्ल महंता की असम गण परिषद से शुरु की। इस तरह वे भाजपा के लिए एक बाहरी व्यक्ति थे। उनकी नेतृत्व क्षमता पर विश्वास जता कर भाजपा ने आत्मविश्वास का परिचय दिया।

असम में मुख्यमंत्री के सामने चुनौतियां बहुत हैं। प्रदेश में अपूर्व जातीय विविधता है। एक तरफ उच्चवर्गीय असमिया हैं, दूसरी तरफ चाय बागानों के आदिवासी व अन्य आदिवासी हैं। प्रदेश में अल्पसंख्यकों का प्रतिशत देश में सबसे अधिक बत्तीस प्रतिशत से कुछ ऊपर है। फिर बोडो आदि। इनके बीच जो सामाजिक समरसता होना चाहिए वह वांछित स्तर पर नहीं है। जातीय अस्मिता को लेकर लगातार प्रदर्शन और आंदोलन होते हैं जो हिंसक रूप भी धारण कर लेते हैं। बंगलादेश से आने वाले कथित घुसपैठियों का मामला भी नाजुक है। 1980 के दशक में इसी मसले पर युवा प्रफुल्ल महंता ने अपनी राजनीति की शुरुआत की थी। यह स्मरणीय है कि असम पूर्वोत्तर का पहला प्रदेश नहीं है जहां भाजपा सरकार बनी। अरुणाचल में दो दशक पहले रिशांग किशिंग से थोक में दलबदल कराकर भाजपा वहां सत्तासीन रह चुकी है, वही प्रयोग अभी दोहराया गया है। नगालैंड की वर्तमान सरकार भी भाजपा समर्थित है।

चुनाव परिणाम आने के बाद कतिपय विश्लेषकों की राय आई है कि भाजपा ने असम में पहले से चली आ रही हिन्दू-मुस्लिम खाई को और गहरा कर चुनावी लाभ उठाया है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। असम आंदोलन के प्रारंभिक दौर याने 1980 में भी ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) तथा असम गण परिषद (अगप) को संघ का प्रच्छन्न समर्थन प्राप्त था। सवाल यह है कि नए मुख्यमंत्री इस खाई को पाटने के प्रयत्न करेंगे या इसे और गहरा करने की दिशा में जाएंगे। अगर प्रदेश में शांति और स्थिरता चाहिए तो दूरियां कम करने के प्रयत्न ही करना होंगे। एक अच्छी बात यह हुई है कि मौलाना बदरूद्दीन अजमल खुद चुनाव हार गए। दूसरे- तरुण गोगोई के पन्द्रह साल के शासन के बारे में सामान्य धारणा है कि उन्होंने प्रशासन ठीक से चलाया तथा प्रदेश विकास की राह पर आगे बढ़ा। अगर युवा मुख्यमंत्री संकीर्ण मतवाद में न उलझ कर विकास को प्राथमिकता देते हैं तो इससे उनका राजनीतिक भविष्य उज्ज्वल होगा।

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी न सिर्फ दुबारा जीती हैं बल्कि दो तिहाई बहुमत लेकर आई हैं। इन परिणामों पर अनेक प्रेक्षकों को आश्चर्य हुआ। ममता खुद कह रही हैं कि वाममोर्चे ने कांग्रेस से गठजोड़ कर गलती की। सूर्यकांत मिश्रा का अपवाद छोडक़र स्वयं वाममोर्चे के लोग भी यही मान रहे हैं। ऐसा करके वे अपने आपको तसल्ली दे रहे हैं। सच बात यह है कि वाममोर्चा, मुख्यत: माकपा, के अधिकतर कार्यकर्ताओं ने पिछले चुनावों के पहले ही पार्टी छोडक़र ममता का आंचल पकड़ लिया था। इन कार्यकर्ताओं के भरोसे माकपा का बूथ मैनेजमेंट होता था। वह लाभ अब ममता बनर्जी को मिल रहा है। वाममोर्चे ने पिछले पांच सालों में अपने को पुनर्गठित व मजबूत करने के लिए कोई उल्लेखनीय प्रयत्न नहीं किए। माकपा ने अपने वोट कांग्रेस को दे दिए, लेकिन कांग्रेस के वोट वाममोर्चे को नहीं मिले यह भी एक मिथक है।

2011 में कांग्रेस ने टीएमसी  के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था तब उसे बयालीस सीटें मिली थीं। इस बार उसकी कुल दो सीटें बढ़ी हैं। यदि त्रिकोणीय मुकाबला होता तो शायद कांग्रेस और वाममोर्चा दोनों का नुकसान होता। बहरहाल देखना यह है कि ममता बनर्जी आने वाले पांच सालों में क्या करती हैं। उनके रहन-सहन में भले ही कितनी सादगी हो, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा किसी से छुपी नहीं है और पार्टी को वे अन्य दलों के सुप्रीमो की तरह ही चलाती हैं। इस कारण से पार्टी के भीतर असंतोष निरंतर बना रहता है जिसके प्रमाण जब-तब देखने मिलते हैं। तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेताओं पर भ्रष्टाचार के भारी आरोप इस बीच लगे हैं, लेकिन कुल मिलाकर ममता बनर्जी ने राज्य को बेहतर प्रशासन दिया है। फिर भी मुख्यमंत्री के सामने प्रदेश का औद्योगीकरण, वित्तीय संतुलन तथा रोजगार के अवसर उत्पन्न करना जैसी अनेक चुनौतियां मौजूद हैं। वे अगर दूसरे कार्यकाल में इस दिशा में सार्थक पहल कर पाती हैं तो वह स्वागत योग्य होगा।

तमिलनाडु में जयललिता की दुबारा विजय को चुनावी धुरंधरों ने एग्जिट पोल के माध्यम से पहले ही खारिज कर दिया था। इस नाते उनकी दुबारा जीत भी एक आश्चर्य के रूप में सामने आई है। विश्लेषणकर्ता इस तथ्य से संतोष कर सकते हैं कि डीएमके की सीटें बढ़ी हैं और एआर्ईडीएमके की सीटें कम हुईं हैं। तमिलनाडु में बेहतर प्रशासन की परिपाटी राजाजी के दिनों से ही चली आ रही है अत: इस मुद्दे पर टिप्पणी करने के लिए कुछ खास नहीं है। दो ऐसे विषय अवश्य हैं जिन पर मुख्यमंत्री को राज्य और देश के दीर्घकालीन हितों की दृष्टि से विचार करना आवश्यक है। पहला- अंतरराज्यीय जल विवाद, दूसरा- श्रीलंकाई तमिलों का मामला। उनकी विवेकशीलता का परिचय इन्हीं के समाधान से मिलेगा। तमिलनाडु में विजयकांत के तीसरे मोर्चे को लेकर बहुत हवाई किले बांधे गए थे, लेकिन वह ध्वस्त हो गया। वामदल इस तीसरे मोर्चे में क्यों शामिल हुए यह मैं समझना चाहता हूं।

देशबन्धु में 26 मई 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 18 May 2016

हिंदी में साहित्येतर लेखन और एक अच्छी पुस्तक




हमें अक्सर यह सुनने मिलता है कि हिन्दी में कविता, कहानी, उपन्यास के अलावा और कुछ लिखा ही नहीं जाता। इस शिकायत में दम तो है, लेकिन बात पूरी तरह सच नहीं है। दरअसल हुआ यह है कि जिस समय में साहित्यिक कृतियों से ही समाज अनभिज्ञ बना हुआ है, उसमें साहित्येतर लेखन लोगों तक पहुंचे भी तो कैसे? एक तो नई पीढ़ी में हिन्दी अथवा भारतीय भाषाओं के साहित्य के प्रति एक तरह से दुराव तथा अवज्ञा का भाव उत्पन्न हो गया है। इसमें दोष युवाओं का नहीं बल्कि उनके अभिभावकों का है, जिन्होंने अपने बच्चों को साहित्य तथा जीवन के अन्य बेहतरीन मूल्यों से विमुख कर उन्हें पैकेज के चक्रव्यूह में ढकेल दिया है। सामान्यजन की बात क्या करें, ऐसे हिन्दी साहित्यकार बिरले ही होंगे जिन्होंने कभी अपने परिवार के सदस्यों, विशेषकर बच्चों के साथ बैठकर साहित्य चर्चा की होगी, बच्चों में हिन्दी के प्रति अनुराग जगाने के प्रयत्न किए होंगे। हम सबको अंग्रेजी से बहुत कोफ्त है, लेकिन बच्चों का कॅरियर बनाने के लिए उन्हें तथाकथित कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाने को हम अनिवार्यता मानकर स्वीकार कर लेते हैं। 

इस वातावरण में स्वाभाविक है कि नागरिकों के बड़े वर्ग को हिन्दी के प्रति कोई लगाव महसूस न हो और हिन्दी में छपने वाली पुस्तकें ग्राहकों का रास्ता अगोरते शैल्फ पर पड़ी धूल खाते रहें। यह तो एक बात हुई। अन्य बड़ा कारण है कि अब हिन्दी में ऐसी कोई भी पत्रिका प्रकाशित नहीं होती जिसे घर के सारे सदस्य पढ़ सकें। धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान और उनके अलावा नवनीत और कादम्बिनी यूं तो साहित्यिक पत्रिकाएं ही कहलाती थीं, लेकिन वे घर-घर में इसलिए पढ़ी जाती थीं क्योंकि उनमें साहित्यिक कृतियों के अलावा और भी ऐसी सामग्री होती थीं जिसे गृहणियां और बच्चे भी चाव के साथ पढ़ते थे। यूं तो देश के जाने-माने वाणिज्यिक घरानों से इन पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था, लेकिन सामग्री के चयन में उनका सामान्यत: हस्तक्षेप न होकर संपादक का निर्णय ही सर्वोपरि होता था और पाठकों को बेहतरीन सामग्री पढऩे मिलती थी। 

मुझे स्मरण आता है कि धर्मयुग में यशपाल का उपन्यास मेरी तेरी उसकी बात धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। भवानी प्रसाद मिश्र की एक प्रसिद्ध कविता खुशबू के शिलालेख भी धर्मयुग में पूरे पृष्ठ में छपी थी। व्योमबाला (एयर होस्टेस) मेहर मूस की रोमांचक यात्राओं के वृत्तांत भी इसमें छपे थे। पत्रिका में फिल्मों पर भी चर्चा होती थी और बच्चों के लिए आबिद सुरती द्वारा रचित ढब्बूजी की कार्टून स्क्रिप्ट अपार लोकप्रिय हुई थी। इसी तरह साप्ताहिक हिन्दुस्तान में तीसरे आवरण पृष्ठ पर मुसीबत है शीर्षक से पूरे पन्ने की कार्टून कथा छपती थी जो बरसों चलती रही, तो इसी पत्रिका में आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास सोना और खून धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ.आत्माराम और विख्यात शल्य चिकित्सक डॉ. विक्रम मारवाह की मूलत: हिन्दी में लिखी आत्मकथाएं साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ही प्रकाशित हुई थीं। 

नवनीत हमारे समय की एक प्रतिष्ठित पत्रिका थी। हिन्द साइकिल्स के साहित्यप्रेमी मालिक श्रीगोपाल नेवटिया इसके संपादक थे। रीडर डाइजेस्ट की तर्ज पर निकाली गई इस पत्रिका में विविध विषयों पर लिखे गए लेख शामिल होते थे। किसी एक उपन्यास का संक्षिप्त रूप भी नवनीत में छपता था। सुप्रसिद्ध चित्रकार अलमेलकर ने मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल मंडला में काफी वक्त गुजारा था। उनके द्वारा आदिवासी जनजीवन पर बनाए गए चित्र आवरण पृष्ठ पर तथा भीतर भी छपते थे। बिड़ला घराने ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के बाद कादम्बिनी प्रकाशित की तो उसमें भी विविधतापूर्ण सामग्री दी जाती थी। प्रथम संपादक रामानंद दोषी संपादकीय के स्थान पर जो बिन्दु-बिन्दु विचार लिखते थे वह अनूठा आनंद देने वाला गद्यगीत ही होता था। इधर पत्रिका कैसी निकल रही है पता नहीं, लेकिन नवनीत में संपादक विश्वनाथ सचदेव आज भी पुरानी परिपाटी का सीमित रूप में पालन कर रहे हैं। नवनीत में डॉ. परशुराम शुक्ल पेड़-पौधों पर जो विस्तृत जानकारी देते हैं वह मुझे बहुत रोचक लगती है। इसी से ध्यान आया कि धर्मयुग में रमेशदत्त शर्मा वनस्पति शास्त्र पर सामान्य पाठक को समझ आ जाए ऐसी भाषा में लेख दिया करते थे। 

यह वह दौर था जब विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाएं भी इन कथित व्यावसायिक पत्रिकाओं के समानांतर प्रकाशित हो रही थीं। इनमें कल्पना का स्थान सर्वोपरि था। हैदराबाद के सम्पन्न व्यवसायी और डॉ. लोहिया की समाजवादी विचारधारा से प्रेरित बदरीविशाल पित्ती इसके संचालक-स्वामी थे। संपादक मंडल में हिन्दी के कुछेक जाने-माने नाम थे। इसमें साहित्य पर बहुत गंभीर और तार्किक चर्चाएं होती थीं। मुख्य पृष्ठ पर अमूमन मकबूल फिदा हुसैन का ही कोई चित्र छपता था। पित्ती जी हुसैन साहब के मित्र व संरक्षक थे। कलकत्ता से प्रकाशित ज्ञानोदय दूसरी प्रमुख साहित्यिक पत्रिका थी, जिसके संपादकण प्रयोगधर्मिता के लिए भी जाने-जाते थे। ग्यारह सपनों का देश ग्यारह (या बारह!) मासिक किश्तों में छपा उपन्यास था और हर किश्त का लेखक अलग था। ज्ञानोदय में ही प्रकाशित मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव द्वारा संयुक्त रूप से लिखित उपन्यास एक इंच मुस्कान का प्रकाशन एक अन्य प्रयोग था। अजमेर से प्रकाश जैन और मनमोहिनी द्वारा संपादित प्रकाशित लहर सही अर्थों में एक लघु पत्रिका थी। इसे कोई आर्थिक संरक्षण नहीं था।  तत्कालीन साहित्य समाज में लहर ने प्रतिष्ठा और प्रशंसा अर्जित की थी। 

यह तो बात हुई साहित्यिक पत्रिकाओं की। दैनिक समाचार पत्रों में भी साहित्यिक लेखन के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध उन दिनों होता था। यह मैंने अन्यत्र लिखा है कि उस समय संपादक के बाद साहित्य संपादक का ही नाम आता था। किसी-किसी पत्र में रविवार के अंक में साहित्य संपादक का नाम छापने की  भी परंपरा थी। अखबार के साहित्य परिशिष्ट में कविता, कहानी, यहां तक कि धारावाहिक उपन्यास भी छपते थे, किन्तु इसके अलावा अन्य विषयों पर भी सामग्री देने का प्रयत्न किया जाता था। राजनीति से संबंधित लेखों को प्रमुखता मिलती थी, किन्तु विज्ञान, चिकित्सा, पुरातत्व, इतिहास, भूगोल आदि पर भी लेख बराबर छपते थे। संपादक ऐसे लेखों में भाषा और तथ्यपरकता इन दोनों के बारे में काफी सजगता बरतते थे। 

जाहिर है कि जब समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में साहित्येतर विषयों पर छपी सामग्री घर-घर में पहुंचती थी तो उससे एक विशाल पाठक वर्ग भी लगातार बन रहा था तथा दूसरी तरफ लेखकों का भी उत्साहवद्र्धन हो रहा था। हर लेखक कवि या कहानीकार तो नहीं होता किन्तु यदि वह किसी विषय विशेष पर लिखता था और उस पर पाठकों की अनुकूल प्रतिक्रिया मिलती थी, तो लेखक के मन में अपनी लेखनी को गति देने का उत्साह भी जागता था। अब यह हो गया है कि इन पुराने पत्र-पत्रिकाओं का स्थान जिन प्रकाशनों ने ले लिया है उनमें रचनाशीलता के प्रति कोई अनुकूल वातावरण नहीं है। अखबारों के रविवारीय पृष्ठों में पुरानी किताबों से निकालकर छापी गई प्रतियां कभी-कभी पढऩे मिल जाती हैं लेकिन नए रचनाकारों की तलाश एवं उन्हें प्रोत्साहन देने का काम कोई नहीं करता। जो साहित्यिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं उनमें से अधिकांश स्वयं साहित्यकारों द्वारा संपादित एवं प्रकाशित हैं तथा उनकी कोई दिलचस्पी साहित्येतर लेखन के प्रति दिखाई नहीं देती। अखबारों में भी साहित्येतर लेखन क्रिकेट, टीवी और सिनेमा तक सिमट कर रह गया है। इसका परिणाम है कि कविता, कहानी, उपन्यास से इतर लेखन की ओर अब किसी का तवज्जो नहीं है। 

मेरी मान्यता है कि साहित्य की प्रचलित विधाओं से अलग इस साहित्य (यद्यपि मैं उसे साहित्येतर लेखन कहने की गलती कर चुका हूं) का अपना  महत्त्व है। यदि कविता, कहानी, उपन्यास अथवा नाटक पाठक को समय, समाज व मनुष्य मन की गहराइयों में झांकने का अवसर देते हैं तो ये लेख, प्रलेख व निबंध उसकी दृष्टि को क्षैतिजिक विस्तार में विचरण करने की सुविधा जुटाते हैं। ऐसा कौन सा विषय है जो इस लेखन की परिधि से बाहर हो? यदि हम मानते हैं कि सरस्वती हिन्दी की पहिली प्रामाणिक, सर्वांगीण साहित्यिक पत्रिका थी और उसके आद्य संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी संपादक प्रवर थे तो उस अवधि में सरस्वती में प्रकाशित सामग्री में मेरी मान्यता का अनुमोदन देखा जा सकता है। 

मुझे जब कभी इस साहित्येतर लेखन के अंतर्गत प्रकाशित कोई पुस्तक पसंद आई है तो मैंने अक्षर पर्व में इस स्तंभ के अंतर्गत उसकी चर्चा यथासमय पर की है। एक बार फिर एक और अच्छी पुस्तक मेरे हाथों में है। वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा शीर्षक से जो पुस्तक दस साल पहिले लिखी, उसके अब तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह तो तय है कि भारतीय डाक विभाग ने इस पुस्तक की बिक्री में खासा योगदान किया होगा; फिर भी उसके छह संस्करण प्रकाशित होना इस बात का सबूत है कि सामान्य पाठकों के बीच भी पुस्तक लोकप्रिय हुई है। चूंकि इसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है, इसलिए बिक्री के आंकड़े भी प्रामाणिक होंगे, इसमें संदेह नहीं। 

अरविंद ने भारतीय डाक लिखने हेतु सामग्री जुटाने में गहन शोध और अपार श्रम किया है। इसके लिए उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर डाकघर की प्रणाली का अध्ययन किया, कुछ पड़ोसी देशों की डाक व्यवस्था को भी समझा, डाक विभाग के अभिलेखों में डूबकर तथ्य और आंकड़े जुटाए, नीति निर्माताओं याने डाक विभाग के मंत्रियों व अफसरान के साथ बातचीत कर उनका दृष्टिकोण समझा, तब कहीं जाकर 400 पृष्ठ की यह किताब तैयार हो सकी है। 

आज भारतीय डाक का जो स्वरूप हम देखते हैं, वह मूलत: अंग्रेजी राज की देन है। किन्तु जब डाकघर नहीं थे, तब संवादों का प्रेषण किस तरह होता था? पहिले अध्याय में लेखक हमें परिचित कराता है कि प्राचीन समय में विश्व व भारत में संदेश भेजने की क्या व्यवस्था थी। वह बतलाता है कि तब याने एक लंबे समय तक जो प्रबंध था वह सिर्फ राजा-महाराजाओं और बादशाहों के लिए था। 31 मार्च 1774 (क्या संयोग है कि मैं यह लेख 31 मार्च को ही लिख रहा हूं!) को अंग्रेजी राज द्वारा कलकत्ता में जी.पी.ओ. की स्थापना के साथ ही भारत में आम जनता के लिए डाक सुविधा खोली गई। आगे के अध्यायों में डाक सेवाओं का क्रमिक विस्तार कैसे हुआ, डाक टिकिट कब प्रारंभ हुए, भारत में हरकारों की क्या भूमिका थी, डाकिया याने पोस्टमैन को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था, पिन कोड कब, क्यों लागू हुआ व उसकी क्या आवश्यकता थी, ऐसे तमाम मुद्दों पर लेखक ने प्रकाश डाला है। 

आज जब एक तरफ डाकघर के स्वरूप में परिवर्तन आ रहा है, नाम के अनुकूल बुनियादी डाक सुविधा से हटकर उसने नई-नई गतिविधियां प्रारंभ कर दी हैं;  जब चिट्ठी-पत्री का स्थान इंटरनेट और वाट्सएप ने देखते ही देखते ले लिया है, तब इस पुस्तक को पढऩे का अर्थ है सभ्यता के इतिहास के एक प्रमुख अध्याय के बारे में जानना, ऐसा अध्याय जिसने साहित्यकारों की कल्पना को भी पंख दिए और चित्रकारों के चित्रों में रंग भरे। ताराशंकर वंद्योपाध्याय का उपन्यास हरकारा शायद बहुत से पाठकों को याद होगा। फिर जरा उन डाक टिकटों के बारे में सोचिए जो हमें देश-विदेश की सैर करवाती थीं, विभिन्न देशों की प्रकृति व संस्कृति से परिचय करवाती थीं, घर बैठे दुनिया की सैर करवाती थीं, तब सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए डाक टिकट से बेहतर शिक्षक शायद कोई और नहीं था! संभव है कि अपनी ही दुनिया में खोये रचनाकारों को इस साहित्य में दिलचस्पी न हो, लेकिन मैं इस जैसी पुस्तकों का स्वागत करता हूं कि इनसे अंतत: हिन्दी भाषा समर्थ और समृद्ध होती है।

अक्षर पर्व मई 2016 अंक की प्रस्तावना 



 
 

दफा 499 और 500


 तीस-पैंतीस साल पहले दुर्ग जिले में बेमेतरा के पास किसी गांव में कोई मालगुजार थे। जाहिर है कि गांव में उनका रुतबा था। किसी बात से नाराज हो गए तो कुछ निरीह गांव वालों को पेड़ों से बांधकर अपने कारिंदों से पिटवाया। वे जब वहां से छूटे तो भागकर दुर्ग में कलेक्टर के पास शिकायत करने के लिए आए। जिलाधीश नहीं थे तो तीन दिन कलेक्टरेट के बरामदे में ही सोए। हमारे तब के जिला प्रतिनिधि धीरजलाल जैन को वाकया पता चला तो एक अच्छी खासी रिपोर्ट अखबार में छप गई। इस पर कुपित होकर मालगुजार ने प्रधान संपादक, प्रबंध संपादक और संपादक तीनों के खिलाफ दफा 500 में मानहानि का मुकदमा दर्ज कर दिया। व्यक्तिगत पेशी से तो छूट मिल गई लेकिन लगभग आठ साल मुकदमा चलता रहा। जिस पेशी में आरोप निर्धारित होना थे उसमें प्रधान संपादक याने बाबूजी, संपादक याने पंडित रामाश्रय उपाध्याय और प्रबंध संपादक याने मैं खुद तीनों पेशी में पहुंचे।

जज साहब ने वादी से पूछा कि आपका क्या आरोप है? उन्होंने अपनी मानहानि होने की बात की, फिर हम प्रतिवादियों से पूछा गया कि आपने इनका अपमान किया है; यह सुनना था कि दुर्वासा के रूप में विख्यात पंडितजी भडक़ उठे। बोले- जज साहब, इनकी क्या मानहानि होना है, मानहानि तो हमारी हो रही है जो जनता के हित में सही खबर छापने के बावजूद आपकी अदालत में कटघरे में खड़े हैं। जज साहब समझदार व्यक्ति थे, केस का अध्ययन कर चुके थे, पंडितजी की बात सुनी तो मुस्करा दिए और वहीं के वहीं केस खारिज कर दिया। मालगुजार साहब बाद में जबलपुर हाईकोर्ट अपील में गए किन्तु वहां भी उनका केस खारिज हो गया। हम पत्रकारों को सही खबरें छापने पर भी क्या नहीं भुगतना पड़ता यह प्रकरण इसका एक उदाहरण है।

एक और रोचक प्रकरण- रायगढ़ जिले में कहीं मेरे ऊपर मानहानि का मुकदमा चला। उपरोक्त प्रकरण से सबक लेते हुए मैंने बाबूजी और पंडितजी का नाम प्रिंट लाइन से हटवा दिया था ताकि उन्हें आगे ऐसे मुकदमों में उलझ कर पेशियों में आने-जाने का कष्ट न उठाना पड़े। बहरहाल इस केस में दहेज के मामले में भिलाई पुलिस ने रायगढ़ पहुंचकर कुछ गिरफ्तारियां कीं। पुलिस ने जो सूचना दी उसमें दहेज प्रताडि़त लडक़ी के पति के बजाय उसके जेठ का नाम गिरफ्तार होने वालों में बता दिया। इसमें हमारी कोई गलती नहीं थी। सूचना पुलिस से मिली थी उस पर संदेह करने का कोई कारण नहीं था। जब वादी का नोटिस आया तो हमने खंडन और भूल सुधार छापने की पेशकश की जो उन्हें मंजूर नहीं थी। उधर अदालत में जजों के बार-बार तबादलों के कारण पेशी पर हाजिर न होने की छूट समय पर नहीं मिल पाई। मैं छह साल में कई बार रायगढ़ की अदालत में पेश हुआ। आखिरकार मुकदमा खारिज हो गया, लेकिन रायपुर से रायगढ़ आने-जाने में समय भी बर्बाद हुआ और तकलीफ भी उठानी पड़ी।

एक अन्य प्रकरण ध्यान में आ रहा है- एक बहुत बड़े नेता थे। उनके बारे में दिल्ली की किसी पत्रिका में कोई खबर छपी। दिल्ली के हमारे एक स्तंभ लेखक ने वही खबर हमें भेज दी सो वह यहां भी छप गई। इस पर नेताजी काफी नाराज हुए। उन्हें अपने मित्रों को भी विरोधी बना लेने में महारत हासिल थी। छोटी-छोटी बातों को भी वे भूल नहीं पाते थे। उन्होंने दिल्ली की पत्रिका पर मुकदमा चलाने की बात नहीं सोची। देशबन्धु से भी सीधे विरोध मोल लेना भी उन्होंने नहीं चुना, लेकिन अपने किसी चारण के द्वारा उन्होंने सुदूर बस्तर की किसी अदालत में मुझ पर मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया। एक-दो पेशियां तो यूं ही निकल गईं, फिर मैं अपने अग्रज सदृश्य वकील (स्व.) भगवान सिंह ठाकुर तथा मित्र प्रभाकर चौबे के साथ पेशी पर गया। अदालत में वकील साहब ने सीधे-सीधे दलील रखी कि जो अपनी मानहानि होना मानता है स्वयं उसे वाद दायर करना चाहिए, उसका कोई समर्थक या परिचित ये काम नहीं कर सकता। दफा 499 और 500 में इसका स्पष्ट प्रावधान है। विद्वान न्यायाधीश ने इस बिना पर मानहानि की याचिका तुरंत खारिज कर दी। इस तरह एक और प्रकरण का पटाक्षेप हुआ।

एक समय था जब हम अखबारवालों को  ऐसे मुकदमों से जूझना पड़ता था, गो कि आजकल ऐसे प्रकरण कम ही होते हैं। समाज में सहनशीलता बढऩे के बजाय कम हुई है, फिर भी अगर मानहानि के मुकदमे नहीं चल रहे हैं तो इसका एक कारण शायद यह भी है कि अब अखबारों में छपी बात पाठक गंभीरता से लेते नहीं हैं। जो भी हो, सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में भारतीय दंड संहिता में मानहानि से संबंधित धारा 499 एवं धारा 500 पर जो फैसला सुनाया है उसे पढ़ते हुए ये सारे किस्से एकाएक याद आ गए हैं।

उल्लेखनीय है कि देश के तीन राजनेताओं राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल एवं सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर प्रार्थना की थी कि भारतीय दंड संहिता की उपरोक्त धाराओं को गैरसंवैधानिक घोषित किया जाए। उन्हें याचिका दायर करने की आवश्यकता इसलिए आन पड़ी थी कि उन पर विभिन्न अदालतों में इन्हीं धाराओं के अंतर्गत मुकदमे चल रहे थे। मुझे जहां तक पता है इन राजनेताओं के अलावा कुछ अन्य व्यक्तियों ने भी इसी आशय की याचिकाएं दायर की थीं, लेकिन उनमें कोई पत्रकार था या नहीं, मुझे ज्ञात नहीं है। यह अच्छा होता कि समाचारपत्रों का कोई संगठन याचिकाकर्ताओं में शामिल होता तो हम पत्रकारों का पक्ष भी सामने आ जाता जिन्हें अक्सर सही खबर छापने पर और कभी कभार अनजाने में गलत खबर छापने पर तथा खेद प्रकाशन कर देने के बावजूद मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ता है।

राजनेताओं पर मानहानि के मुकदमे चलने की जहां तक बात है उसमें यह देखना रोचक है कि तीनों याचिकाकर्ता तीन विभिन्न राजनीतिक दलों से संबंध रखते हैं तथा इनमें से दो याने श्री केजरीवाल और याने श्री स्वामी दोनों अपने विरोधियों की आलोचना करने में किसी भी तरह की सीमा स्वीकार नहीं करते। यह हमने देखा है कि हमारे अनेक निर्वाचित राजनेता सदन के भीतर भी मर्यादापूर्ण व्यवहार नहीं करते। कुछेक विधान सभाओं में सदस्यगण जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वह कई बार अश्लीलता की सीमा लांघ जाती है। मैंने एक भी प्रकरण नहीं देखा जहां सभापति ने ऐसा उच्छृंखल व्यवहार करने वाले सदस्य पर कोई कार्रवाई की हो। आम सभाओं में खासकर चुनावों के समय जैसी टिप्पणियां की जाती हैं वे हमारे नेताओं के सुसंस्कृत होने पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। मुझे इसमें दो-तीन कारण दिखाई देते हैं।

सबसे पहली बात तो यह है कि वर्तमान समय के अधिकतर नेताओं का पढऩे-लिखने से कोई वास्ता नहीं है। ऐसे में उनके पास अगर अपनी बात कहने के लिए सही शब्दों का अभाव है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। दूसरे- किसी नेता का उसे सुनने आई भीड़ को देखकर प्रफुल्लित हो जाना स्वाभाविक है, लेकिन उससे कहीं अधिक वे टेलीविजन के कैमरों को देखकर पहले नकली आवेश में और फिर उसी रौ में बहते हुए अपने असली रूप याने एक कुपढ़ और बददिमाग व्यक्ति के रूप में सामने आ जाते हैं। उन्हें लगता है कि अपने विरोधियों को जितना अधिक गरियाएंगे उनकी लोकप्रियता और वोटों में उतना ही इजाफा होगा। वे भूल जाते हैं कि आपका विरोधी ही आपके भाषणों का रिकार्डिंग करवा रहा है। तीसरे- नेताओं का अहंकार सिर पर चढक़र बोलता है। इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक जीवन में मर्यादा का पालन करने की नसीहत दी है तथा व्यक्ति की मानहानि को अपराध की श्रेणी में रखा है तो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए शायद उचित ही हुआ है।

मैं व्यक्तिगत तौर पर मानहानि को दंडनीय अपराध की श्रेणी में नहीं रखना चाहूंगा, लेकिन शायद उसके लिए हमें अपने राजनीतिक वातावरण के परिपक्व होने की प्रतीक्षा करना होगी। फिलहाल मैं सुप्रीम कोर्ट द्वारा निचली अदालतों को दी गई इस सलाह को रेखांकित करना चाहूंगा कि मानहानि के प्रकरण का संज्ञान लेते समय वे अधिकतम सावधानी बरतें, याने बिना भलीभांति परीक्षण किए केस न चलाएं। यह सावधानी स्वागत योग्य होगी।

देशबन्धु में 19 मई 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 11 May 2016

यात्रा वृत्तान्त : वृंदावन में फ्लाई ओवर



 भारत में जितने भी तीर्थस्थल हैं वे सब मुख्यत: किसी एक भगवान, देवी-देवता, संत या औलिया को समर्पित हैं। मदुरै में मीनाक्षी, तो सोमनाथ में शिव, शिरडी में साईंबाबा, गुवाहाटी में कामाक्षी, जम्मू में वैष्णो देवी इत्यादि। इसमें बृजभूमि की बात कुछ निराली है। वहां के छोटे-छोटे गांवों में, जो अब बड़े कस्बों में बदल चुके हैं, जैसे जतीपुरा में कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत को छोटी उंगली पर उठा लेने की पुराकथा प्रचलित है, तो गोकुल में उनकी अनेक बाल लीलाओं का वर्णन सुनने मिलता है। मथुरा जो इन सबके केन्द्र में है, के बारे में कहावत प्रचलित थी कि तीन लोक से मथुरा न्यारी। किन्तु इधर कुछ दशकों से न्यारेपन का यह गौरव वृंदावन को प्राप्त हो गया है जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि कृष्ण राधा और गोप-गोपियों के साथ यहीं रासलीला करते थे। मैं नहीं जानता कि असली वजह क्या है किन्तु पिछले कई सालों से देख  रहा हूं कि वृंदावन के प्रति लोगों का आकर्षण निरंतर बढ़ते जा रहा है।

मैंने अपने स्कूल कॉलेज के दिनों में ही नहीं, उसके बाद भी कई सालों तक गर्मी-सर्दी की छुट्टियों में कई-कई दिन वृंदावन में गुजारे हैं और इसलिए आज जो इस लीला नगरी के प्रति बढ़ता आकर्षण देखता हूं तो विस्मित हो जाता हूं। ऐसा नहीं कि वृंदावन में सिर्फ श्रद्धालुजन ही आते हैं। यहां विदेशों के कई गैरसरकारी संगठन अथवा एनजीओ ने अपनी गतिविधियां चला रखी हैं। वे यहां किस अनुसंधान में आए हैं, यहां उनके लिए आकर्षण का केन्द्र क्या है, यहां उनको कौन सा लौकिक या पारमार्थिक लाभ मिल रहा है यह मेरी समझ में नहीं आता। एक बात जो स्पष्ट दिखाई देती है वह यह कि वृंदावन में अब न तो यमुना में जल है और न उसके किनारों में वह रजत रेणु याने चांदी समान रेत। अगर वृंदावन में लोग शांति की तलाश में आते हैं तो वह मानो यहां से सदा के लिए रूठ कर जा चुकी है। हां, जो भीड़ के बीच भी अकेले रहने और उस अकेलेपन में अपनी आत्मा की आवाज सुनने का योग साध सकते हों, ऐसे कोई महापुरुष हों, तो बात अलग है।

मैं याद करने की कोशिश करता हूं तो साठ के दशक तक राधा-कृष्ण के प्रेम की इस भूमि पर सचमुच शांति का साम्राज्य था जिसमें मानसिक शांति पा लेना शायद बहुत कठिन नहीं था। कुछ गिने-चुने मंदिर थे जिनमें बांके बिहारी याने बिहारी जी के मंदिर की सर्वाधिक मान्यता थी। यहां श्रद्धालुओं की भीड़ जो उमड़ती थी वह किसी और में नहीं। दूसरा प्रसिद्ध मंदिर था राधावल्लभ जी का जो एक बड़े परकोटे के भीतर था, जिसमें पूजा का अधिकार प्राप्त गोस्वामी परिवार की अनेक शाखाओं के निवास भी थे। रंगजी का मंदिर अपने दक्षिण भारतीय स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध था। यह दरअसल रामानुज संप्रदाय अथवा श्री संप्रदाय का मंदिर था, जिसमें वही बालाजी स्थापित हैं जो तिरुपति में भी विराजते हैं। इस मंदिर का शिल्प तो आकर्षक था ही, परिसर के भीतर बना एक सरोवर इसके आकर्षण में वृद्धि करता था।

एक अन्य मंदिर जो आकर्षण के साथ कौतूहल का भी केन्द्र था वह था शाहजी का मंदिर। यह उस कृष्णप्रणामी संप्रदाय का था जिसका अनुयायी महात्मा गांधी का परिवार था। इस मंदिर में कांच का जड़ाऊ काम किया गया था, जिससे इसकी शोभा बढ़ जाती थी। हम लोग निधिवन भी जाते थे जिसके बारे में प्रचलित था कि राधा और कृष्ण रास यहीं रचाते थे। निधिवन के दरवाजे अंधेरा होने के पहले बंद हो जाते थे। वहां रात रुकने पर पाबंदी थी जो आज भी है। वह शायद इसलिए कि सांसारिक लोग ईश्वरीय लीला देखने के अधिकारी नहीं हो सकते। एक गोविंद जी का मंदिर भी था जो अधूरा बना था और कहा जाता था कि औरंगजेब ने इसको नहीं बनने दिया था। चैतन्य महाप्रभु को मानने वालों ने गौड़ीय मठ की स्थापना कर ली थी तथा रामकृष्ण मिशन ने एक परमार्थ अस्पताल भी स्थापित कर दिया था जिसके डॉक्टर मदन मोहन कपूर के साथ हम लोगों के पारिवारिक संबंध हो गए थे।

वृंदावन में घरों में पानी का मुख्य स्रोत कुंआ होते थे, जिनका पानी अधिकतर खारा हुआ करता था। गर्मी में लू चलती थी तो दिन में कहीं बाहर जाने का सवाल ही नहीं, लेकिन शाम को पैदल ही हम वृंदावन की संकरी गलियों में सैर करने निकल जाते थे। राधावल्लभ जी के मंदिर के आगे शायद गऊघाट था या शायद अन्य कोई घाट जहां सुबह-शाम हम यमुना स्नान के लिए चले जाते थे। खूब स्वच्छ, निर्मल पानी। बस कछुओं से डर लगता था। बड़े-बड़े कछुए कि कहीं पैर में आकर काट न जाए। कभी-कभी देखते ही देखते जल स्तर बढऩे लगता था कि शायद ग्लेशियर से पिघल कर आने वाले पानी की मात्रा बढ़ जाती थी तब हम भाग कर किनारे की तरफ आते थे। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि सूखी रेत पर रखे कपड़े, वहां तक पानी पहुंच जाने के कारण भीग जाते थे और तब भीगे वस्त्रों में ही घर पहुंचना होता था।

यह अतीत राग यूं तो शायद किसी काम का नहीं है, लेकिन जो आज वंृदावन यात्रा पर जा रहे हैं उन्हें तो एक पुराने वृंदावन की झलक मिल ही जाएगी। आज के वृंदावन में चारों तरफ भीड़ है। देश की जनसंख्या जिस अनुपात में बढ़ रही है उसी अनुपात में भक्तों की संख्या भी बढ़ रही हो तो क्या आश्चर्य है। फिर यह भी तो है कि अपने जीवन में जो निराशा बढ़ रही है, आकांक्षाएं बढ़ रही हैं, भौतिक परिलब्धियों की चाहत बढ़ रही है, ऐसे में भगवान के पास न जाएं तो कहां जाएं! पहले बड़ी संख्या में लोग वृंदावन वास करने जाते थे कि प्रभु चरणों में शेष जीवन बीत जाए लेकिन अब इसलिए भी जाते हैं कि भाई भगवान! हम तुम्हारी सेवा कर रहे हैं तुम इसके बदले हमें क्या दे रहे हो। नए समय की रीत के अनुसार इस लीला नगरी में चमक-दमक के नए साधन भी उपस्थित हो गए हैं जो मन की अतृप्ति को शायद और बढ़ा देते हैं।

सबसे पहले नए भक्ति युग के प्रतीक के रूप में यहां इस्कॉन मंदिर बना जिसने विदेशी भक्तों के साथ भारत के सम्पन्न वर्ग के भक्तों को भी खूब लुभाया। बिहारी जी या राधावल्लभ जी की प्रसादी पत्तल या फिर दोनों मंदिरों के आस-पास की कुंज गलियों में मिल रहे ठेठ देशी व्यंजनों से जिनको तृप्ति नहीं मिली उन्हें इस्कॉन के प्रसाद से ही परितृप्ति हुई। अब तो वृंदावन में सबसे बड़े आकर्षण का केन्द्र हो गया है प्रेम मंदिर और फिर ऐसे कुछेक अन्य मंदिर जहां रात को रोशनी की झालरें देखकर भ्रम होता है कि आप कहीं किसी कार्निवाल या मीना बाजार में तो नहीं आ गए हैं। वृंदावन चूंकि दिल्ली से बहुत दूर नहीं है इस नाते लगभग पूरे बृज में ही दिल्ली इत्यादि के चतुर सुजानों ने रीयल एस्टेट में काफी बड़ी मात्रा में निवेश कर रखा है।  अब यहां धर्मशालाएं नहीं, अतिथिगृह हैं और होटलों की भी कोई कमी नहीं हैं।

अगर यमुना एक्सप्रेसवे से यात्रा करें तो नोएडा से वृंदावन पहुंचने में मात्र दो घंटे लगते हैं। गोया वीकेंड मनाने के लिए एक अच्छी जगह मिल गई है। पुराने मंदिरों के गोस्वामियों की वंशवृद्धि हो रही है, तो वे भी धीरे-धीरे कर अपने नए आश्रम और मठ स्थापित करते जा रहे हैं। जिसके भक्त जितने सम्पन्न उसकी गद्दी उतनी ऊंची और उसका आश्रम उतना बड़ा। पहले मथुरा से टांगा करके वंृदावन आना पड़ता था, अब टैक्सियों की भरमार है। वृंदावन में ई-रिक्शा भी चलने लगे हैं और स्थानीय के साथ-साथ बाहर से आने वाली कारों की संख्या भी निरतंर बढ़ रही है इसलिए आवश्यक था कि नगर नियोजन पर ध्यान दिया जाए। अब वृंदावन में परिक्रमापथ अथवा रिंगरोड जैसी कोई चीज बन गई है और सबसे नया आकर्षण तो एक फ्लाई ओवर है।

एक तरफ यमुना तट पर स्थापित मदनमोहन जी के मंदिर के नीचे टीले पर खुदाई का काम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण कर रहा है। खुदाई में निकली पुरानी दीवारें वृंदावन की प्राचीनता की ओर हमें ले जाती हैं और तभी यह फ्लाई ओवर एक झटके से यात्री को वर्तमान में ले आता है।

देशबन्धु में 12 मई 2016 को प्रकाशित 

Friday, 6 May 2016

आरक्षण आयोग की आवश्यकता




 पिछले सप्ताह दो निर्णय लगभग एक साथ सामने आए। पहला- मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का फैसला जिसमें राज्य सरकार द्वारा किए गए पदोन्नति में आरक्षण के एक पुराने कानून को खारिज कर दिया गया, दूसरा- गुजरात सरकार का, जिसमें आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। एक फैसला न्यायालय का और दूसरा कार्यपालिका का, दोनों आरक्षण से संबंधित, किंतु यदि बारीकी से गौर किया जाए तो ये फैसले न सिर्फ आरक्षण की व्यवस्था में विद्यमान जटिलताओं को उजागर करते हैं, अपितु देश की सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही नई प्रवृत्तियों की ओर भी संकेत करते हैं। इनके साथ-साथ अगर गुजरात में पाटीदार समाज तथा हरियाणा में जाट समाज द्वारा आरक्षण की मांग के लिए चलाए गए उग्र आंदोलनों को भी देखा जाए, तो ऐसा लगता है कि देश इस वक्त एक चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है और सामाजिक न्याय की दिशा में उसे किस रास्ते पर चलना चाहिए, यह समझ नहींआ रहा है।

आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में बहुत सी बातें कही जाती हैं। किंतु इतना तय है कि कोई भी राजनैतिक दल किसी भी समाज द्वारा की गई आरक्षण की मांग को सीधे-सीधे खारिज करने की स्थिति में नहींहै। अपने मूल रूप में आरक्षण का प्रावधान समाज के दो सबसे ज्यादा वंचित, शोषित और अन्याय के शिकार वर्गों अर्थात् अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए किया गया था। जैसा कि हमें पता है, प्रारंभ में यह प्रावधान मात्र दस वर्ष के लिए था, लेकिन इसे बाद में लगातार बढ़ाया जाते रहा। कालांतर में मंडल आयोग की अनुशंसा के अनुरूप अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के लिए भी आरक्षण का प्रावधान किया गया। अब जो वर्ग आरक्षण की मांग कर रहे हैं, वे सामान्य तौर से साधन-संपन्न तबके माने जाते हैं तथा पारंपरिक सोच कहती है कि इन्हें आरक्षण देना उचित नहींहै। लेकिन बात इतनी सरल नहीं है, क्योंकि देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में इस बीच काफी बदलाव आया है।

आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण आरक्षण की मांग इस बिना पर करते हैं कि उनकी स्थिति त्रिशंकु की हो गई है। वे अन्य सवर्णों की भांति साधन-संपन्न नहीं हैं और दूसरे वे एससीएसटी श्रेणी में भी नहीं आते, इस कारण वे चाहे-अनचाहे अन्याय का शिकार हो रहे हैं। उनकी शिकायत अपनी जगह पर सही है। किंतु यह ध्यान देने योग्य है कि अपनी तकलीफों के लिए वे दलित-आदिवासी पर दोषारोपण करते हैं, किंतु अपने ही साधन-संपन्न भाई-बंधुओं से उन्हें कोई शिकायत नहीं होती। यही स्थिति आरक्षित वर्गों को पदोन्नति के मामले में देखने मिलती है। बहुत से लोग सरकारी नौकरी के पहले पायदान पर आरक्षण को मन मारकर स्वीकार कर लेते हैं। किंतु उन्हें जब पदोन्नति मिलती है तो उसे वे न्यायोचित नहीं मानते। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने के बाद भी आरक्षित वर्ग अपनी जाति और जन्म का अनुचित लाभ उठाते हैं, यह शिकायत भी बारहा सुनने मिलती है।

दरअसल विगत तीन-चार दशकों से जो आरक्षण नीति चली आ रही है, उसमेें समय की वास्तविकताओं के साथ जो संशोधन होने चाहिए थे, उन्हें लागू करने से हमारे सत्ताधीश कतराते रहे हैं। इसमें बहुत सारे मुद्दे हैं। सबसे पहले तो इस वास्तविकता का संज्ञान लेना आवश्यक है कि देश में विकास योजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर लगातार विस्थापन हो रहा है। एक समय था जब बड़े बांधों और कारखानों के लिए विस्थापन हुआ, जिससे प्रभावित होने वाली जनसंख्या मुख्यत: आदिवासियों की थी। चूंकि नेहरू युग में जनता के मन में एक विश्वास था इसलिए लोगों ने खुशी-खुशी अपनी जमीनें दे दीं, किंतु जिन नौकरशाहों पर मुआवजा और पुनर्वास की जिम्मेदारी थी, उसे उन्होंने ठीक से नहींनिभाया। आज भी ऐसे विस्थापित आदिवासी मिल जाएंगे जो 55-60 साल से खानाबदोश की जिंदगी जी रहे हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि एक चतुर, संपन्न तबके ने इन विकास योजनाओं का लाभ अपने लिए लेने में कोई कसर बाकी नहींरखी।

विकास के दूसरे दौर में जो औद्योगिकरण और शहरीकरण हुआ, उसने अच्छे खाते-पीते किसानों को उनकी धरती से बेदखल कर दिया। इस तबके में राजनीतिक चेतना थी और हिसाब-किताब की समझ भी इसलिए उन्होंने मुआवजा तो ले लिया, पर यह सवाल अपनी जगह पर है कि मुआवजे की यह रकम कब तक काम आएगी, तथा किसान की दूसरी-तीसरी पीढ़ी क्या करेगी। गुडग़ांव से लेकर नया रायपुर तक हमने देखा है कि किसानों ने मुआवजे की राशि झूठी शान-शौकत तथा गैर-अनुत्पादक कामों में खर्च कर दी। आज अगर ये लोग अपने बच्चों के लिए आरक्षण मांग रहे हैं तो उसे एकबारगी गलत नहीं माना जा सकता, भले ही यह सिर्फ एक भरम क्यों न हो।

यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि एक ओर तो सार्वजनिक क्षेत्र के पुराने कारखानों का विनिवेश हो रहा है और नए कारखाने नहीं लग रहे। अर्थव्यवस्था के सूत्र धीरे-धीरे कर निजी क्षेत्र को सौंंपे जा रहे हैं। सरकार ने तो स्कूल और अस्पताल तक से मुंह मोड़ लिया है। ऐसे में नौकरियां अगर कहीं मिल सकती हैं तो सिर्फ निजी क्षेत्र के उद्यमों में, जो तथाकथित योग्यता का सुर अलापे रहता है और अपने व्यवसाय में आरक्षण नीति लागू करने में जिसे रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं है। यह तथाकथित योग्यता कैसी है इसे हम प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में एक-एक करोड़ डोनेशन देकर डॉक्टर बनने वालों में देख रहे हैं। इसी तरह निजी बैंकों में अगर कोई धनिक अच्छी-खासी राशि जमा करे तो उसके बच्चे को बैंक में नौकरी मिल जाती है। मतलब यह है कि पैसा देकर करवाया गया आरक्षण योग्यता कहलाती है और जो सचमुच सदियों से और दशकों से मुश्किलें झेल रहे हैं वे अपने आप अयोग्य घोषित हो जाते हैं।

हमारी दृष्टि में सबसे पहली आवश्यकता यह है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण को कानूनन लागू किया जाए। दूसरे, आरक्षण में जाति और जन्म का जो बुनियादी आधार है उसे यथावत रखा जाए, क्योंकि आदिवासी और दलित को सदियों के शोषण और अन्याय से उबर कर आत्मविश्वास हासिल करने में अभी समय बाकी है। आज भी उनके साथ आए दिन अपमान व तिरस्कार का व्यवहार होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। तीसरे, विकास के नाम पर जिन किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं, उन्हें नगद मुआवजे के अलावा मुकम्मल नौकरी तथा स्थानीय उद्यमों में लाभ में हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाना चाहिए। इन सारे प्रश्नों पर समग्र विचार करने के लिए बेहतर होगा कि सरकार एक आरक्षण आयोग का गठन करे, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर आगे के लिए निर्णय लिए जा सकेें।

देशबन्धु में 05 मई 2016 को प्रकाशित 

Tuesday, 3 May 2016

दलबदल: गलत कब और क्यों?


 मेरा मानना है कि जनतांत्रिक राजनीति में दलबदल अपने आप में कोई बुराई नहीं है। एक  समाज में हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का अधिकार रखता है। अगर विचारों में परिवर्तन को प्रारंभ से ही बुराई मान लिया जाए तो यह उस व्यक्ति के अधिकार का हनन या उसमें हस्तक्षेप करना होगा। स्वतंत्र भारत की राजनीति में दलबदल के दर्जनों उदाहरण हमारे सामने हैं, जो इस अधिकार की पुष्टि करते हैं। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी याने राजाजी भारत के शीर्ष राजनेता थे। वे लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। कांग्रेस ने ही उन्हें देश का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बनाया तथा बाद में मद्रास प्रांत का मुख्यमंत्री भी। ऐसे उद्भट विद्वान व विचारशील नेता ने भी एक दिन अपनी मातृसंस्था छोड़कर स्वतंत्र पार्टी की स्थापना कर ली। एक अन्य विद्वान राजनेता तथा पुराने कांग्रेसी मीनू मसानी उनके सबसे विश्वस्त एवं प्रमुख सहयोगी के रूप में इस पार्टी में आए।

इसके पूर्व कांग्रेस के भीतर समाजवादी धड़े के नेताओं के पार्टी छोडऩे व नई पार्टी बनाकर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लडऩे के उदाहरण भी हमारे सम्मुख हैं। पं. नेहरू के प्रिय पात्र रफी अहमद किदवई ने पार्टी छोड़ी और फिर कुछ समय बाद कांग्रेस में यह कहते हुए लौट आए कि वहां जी नहीं लगता। यह स्पष्ट है कि किसी राजनैतिक कार्यकर्ता या नेता ने कभी वैचारिक मतभेदों के कारण पार्टी छोड़ी तो कभी व्यक्तिगत कारणों से। देखा जाए तो सन् 1967 के आम चुनावों तक दलबदल को राजनीतिक प्रक्रिया का एक सामान्य अंग ही माना जाता था। वह एक रोग या अनिवार्य बुराई है, यह धारणा उस वर्ष विधानसभा चुनावों के बाद जो कुछ हुआ, उसके कारण विकसित हुई, जो आज एक भयावह व चिंताजनक रूप में देश के  सामने दिखाई दे रही है।

हमने चूंकि ब्रिटेन संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को काफी हद तक अपनाया है, इसलिए अपने राजनैतिक क्रियाकलापों में हमारे अध्येता अक्सर ब्रिटिश संसद की नजीरें पेश करते हैं। इनमें से एक है कि कोई निर्वाचित सदस्य सदन में पार्टी के रुख से अपनी स्पष्ट असहमति व्यक्त कर सकता है, वह  पार्टी के खिलाफ जाकर वोट भी दे सकता है; लेकिन दो मौकों पर उसे पार्टी व्हिप का पालन करना अनिवार्य होता है, पहिला अविश्वास प्रस्ताव के समय और दूसरा- वित्तीय विधेयक (मनी बिल) के दौरान। इसमें अगर सदस्य ने पार्टी अनुशासन का पालन नहीं किया तो उसकी सदस्यता खारिज हो जाएगी। कारण यह है कि उपरोक्त दो मौके ही हैं जब शक्ति परीक्षण में हारने पर सरकार गिर जाती है अन्यथा नहीं। आज भी ब्रिटिश संसद में गाहे-बगाहे सदस्य अपनी पार्टी के खिलाफ वोट देते हैं, पार्टी बदल भी लेते हैं, लेकिन उनकी सदस्यता बरकरार रहती है।

भारत में इसी तर्ज पर स्वस्थ परंपराएं विकसित होने की उम्मीद की जाती थी। किंतु 1967 में जो राजनैतिक पाखंड घटित हुआ उसने निर्वाचित सदनों की पवित्रता नष्ट कर उन्हें सदस्यों के नीलामीघर में बदलने में कोई कसर बाकी न रखी। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कांग्रेस आलाकमान से अनुमति मांगी थी कि 37 विधायकों द्वारा थोक में दलबदल करने के कारण वे राज्यपाल से विधानसभा भंग कर नए चुनाव की सिफारिश कर सकें। अगर श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें यह अनुमति दे दी होती तो मध्यप्रदेश के बाद बाकी प्रदेशों में भी इसका अनुकरण होता तथा अपनी महत्वाकांक्षा के चलते दलबदल कर सत्तासुख चाहने वालों के मंसूबों पर एक सिरे से पानी फिर जाता। किंतु तब इंदिराजी को यशवंतराव चव्हाण ने यह भरोसा दिला दिया था कि इसी तरह दलबदल करवाकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन सकती है और इस धोखे में उन्होंने मिश्रजी की बात नहीं मानी। देश में तब से गयाराम-आयाराम का जो खेल चल रहा है, उसे सब देख रहे हैं।

राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया, तब संसदीय जनतंत्र में जड़ें जमा चुके दलबदल के रोग को समाप्त करने के लिए दलबदल विरोधी कानून संसद से पारित हुआ। इस कानून में सबसे बड़ी कमजोरी या विसंगति यह थी कि व्यक्तिगत दलबदल पर तो रोक लगाई गई किंतु थोक में ऐसा करने को कानूनी मान्यता दे दी गई। प्रारंभ में प्रावधान था कि यदि किसी पार्टी के एक तिहाई विधायक दल बदलते हैं तो यह कानून के दायरे में नहीं आएगा। आगे चलकर इसे पचास प्रतिशत और अब दो तिहाई कर दिया गया। लेकिन मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की वाला शेर यहां मौजूं सिद्ध हुआ। उस समय समाजवादी नेता मधु लिमये एकमात्र सांसद थे जिन्होंने राजीव सरकार के विधेयक का विरोध किया था कि इससे दलबदल नहीं रुकेगा। तब कम से कम हिंदी में देशबन्धु ही एकमात्र अखबार था जिसने मधुजी के तर्कों से सहमति रखते हुए बिल के विरोध में टिप्पणी की थी। हमारा आज भी मानना है कि अच्छे इरादे से पेश विधेयक में नाहक कानूनी दांव-पेंच फंसा दिए गए, जिसकी तोड़ भी वैसे ही दांव-पेंचों के द्वारा ढूंढ ली गई।

विगत तीस वर्षों में अनेक प्रदेशों में दल-बदल के अनेक कुत्सित प्रयास जनता ने देखे हैं। जो बड़े प्रदेश हैं, वहां स्थिति बेहतर है, लेकिन अपेक्षाकृत छोटे प्रदेशों में जहां विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम है, हालात चिंताजनक ही कहे जाएंगे। वर्तमान कानून का सबसे ज्यादा मखौल तो शायद गोवा प्रदेश में किया गया है, जहां मात्र चालीस सदस्यों की विधानसभा है। अभी हाल तक वहां कब कौन सदस्य दल बदल कर किस पार्टी में चला जाए कुछ समझ ही नहीं आता था। एक उदाहरण तो मेरे गृह प्रदेश छत्तीसगढ़ का है, जहां कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने सदन में स्पष्ट बहुमत होते हुए भी भाजपा के बारह विधायकों को तोड़कर कांग्रेस में शामिल कर लिया। इस राजनैतिक चातुरी का खामियाजा आज भी प्रदेश में कांग्रेस पार्टी भुगत रही है। अविभाजित मध्यप्रदेश में भी हमने दर्शक दीर्घा में बैठकर वह तमाशा देखा था जब गुजरात के बागी भाजपा नेता शंकर सिंह वाघेला अपने साथ कितने अन्य बागियों को लेकर खजुराहो में म.प्र. की दिग्विजय सरकार के मेहमान हुए थे।

इधर केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने भी मानो तय कर लिया है कि कल तक कांग्रेस ने जो किया, वह हम भी करेंगे। इसमें इतना संशोधन कर देना उचित होगा कि जो रास्ता पहले-पहल भाजपा ने दिखाया, मसलन म.प्र. में श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के संरक्षण में, वही रास्ता कांग्रेस ने अपनाया और आगे बढ़ते हुए भाजपा पुन: अपने पुराने मार्ग पर आ गई है। अरुणाचल, मणिपुर, उत्तराखंड में हाल के दिनों में जो राजनैतिक हलचलें देखने मिलीं, वे इसका सबूत हैं। भाजपा कांग्रेस को कहती है कि अगर तुम्हारे भीतर कलह है तो हमें दोष क्यों देते हो। लेकिन तटस्थ पर्यवेक्षक तो यही कहेगा कि भाजपा को कांग्रेस के भीतरी विग्रह में दखल क्यों देना चाहिए।  भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री व राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा उनके नियंत्रक सरसंघचालक सब किस कदर जल्दबाजी में नज़र आते हैं कि आसेतु हिमालय भाजपा का परचम व संघ का ध्वज अखंड फहराने लगे, पर इसके लिए नैतिकता व जनमत की परवाह न की जाय, इसे कैसे उचित माना जाए?  

मेरा दलबदल के संबंध में मानना है कि अंतत: ब्रिटिश संसदीय परंपरा का पालन करने से ही हम इस बुराई से छुटकारा पा सकेंगे। फिलहाल दलबदल कानून में एक अंतिम संशोधन की तजवीज मैं करना चाहूंगा कि जो भी विधायक/ सांसद दलबदल करे वह अपनी सीट से तुरंत इस्तीफा देकर नई पार्टी के चिन्ह पर चुनाव लड़ कर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करे। इसके सिवाय कानून में वर्तमान में जो भी प्रावधान हैं, वे सारे के सारे निरस्त कर दिए जाएं। जिस जनता ने आपको एक बार चुनकर भेजा है, उसी के सामने दुबारा जाइए और अपनी सफाई पेश कीजिए। वह मान जाए तो जीत, न माने तो हार।

देशबन्धु में 28 अप्रैल 2016 को प्रकाशित