असम में भाजपा के सर्वानंद सोनोवाल, केरल में माकपा के पिनराई विजयन, पुड्डुचेरी में कांग्रेस के (अभी तक तय नहीं, लेकिन क्यों?), पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जे. जयललिता। इस तरह शायद तीन नए, दो पुराने। आने वाले दिन और साल इनकी परीक्षा के। केरल में पिनराई विजयन का पार्टी द्वारा मनोनयन चौंकाने वाला तो नहीं, लेकिन किसी हद तक आश्चर्यजनक अवश्य है। पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश करात केरल के बुजुर्ग नेता वी.एस. अच्युतानंदन को पसंद नहीं करते थे। 2006 से 2011 के बीच जब वी.एस. मुख्यमंत्री थे तब उन्हें परेशान करने में पार्टी महासचिव तथा केरल में उनके प्रिय विजयन ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। वी.एस. की छवि ईमानदार तथा बेदाग नेता के रूप में है, जबकि विजयन उस समय भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में आ गए थे। 2011 के चुनावों में श्री करात नहीं चाहते थे कि दुबारा चुनाव जीतने की स्थिति में वी.एस. मुख्यमंत्री बनें। इसलिए पहले उन्हें चुनाव से दूर रखा गया, लेकिन उनकी उपयोगिता समझ उन्हें वापिस लाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
केरल में 2011 के चुनाव के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि वाममोर्चा कांग्रेस मोर्चे के खिलाफ बहुत कम अंतर से चुनाव हारा था। यदि पार्टी ने वी.एस. से प्रारंभ में बेरुखी न दिखाई होती तो शायद उसी समय वाममोर्चा केरल में लगातार दूसरी बार चुनाव जीतने का रिकार्ड बना लेता। केरल, पश्चिम बंगाल तथा त्रिपुरा मिलाकर वाममोर्चे ने ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद से लेकर माणिक सरकार तक दस मुख्यमंत्री दिए हैं। इनमें से किसी पर भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा। ज्योति बसु के बेटे चंदन के बारे में जरूर कुछ खबरें आईं लेकिन वे आगे नहीं बढ़ीं। अच्युत मेनन ऐसे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों से स्वेच्छा से त्यागपत्र दे दिया। ऐसे में श्री विजयन को मुख्यमंत्री बनाकर सीपीआईएम ने एक नया प्रयोग किया है। वी.एस. को फिदेल कास्त्रो की उपमा देकर माहौल को हल्का करने की कोशिश की गई है, लेकिन सीपीआईएम से शब्दों की ऐसी खिलवाड़ की अपेक्षा नहीं थी। ऐसा लगता है कि इस चयन में वर्तमान पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी पर पूर्व महासचिव भारी पड़ गए। अब देखिए आगे क्या होता है।
असम में सर्वानंद सोनोवाल का चयन स्वागत योग्य है। उन्हें चुनने के लिए पार्टी ने तीन प्रयोग किए। दिल्ली में किरण बेदी की हार से सबक लेकर बिहार में किसी को दावेदार घोषित नहीं किया। वहां की हार से सबक लेकर असम में मुख्यमंत्री पहले से घोषित कर दिया। यह पहला प्रयोग हुआ। जीत मिल गई तो निर्णय अपने आप सही सिद्ध हुआ। नए मुख्यमंत्री असम के आदिवासी समाज से आते हैं, यह हुआ दूसरा प्रयोग। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल प्रदेश में भाजपा ने गैरआदिवासियों को मुख्यमंत्री बनाया और उस प्रयोग का प्रतिबिंब असम में उतार दिया। प्रयोग नंबर तीन यह कि सर्वानंद सोनोवाल संघ के स्वयंसेवक नहीं हैं। उन्होंने अपनी राजनीति भी भाजपा से नहीं, बल्कि प्रफुल्ल महंता की असम गण परिषद से शुरु की। इस तरह वे भाजपा के लिए एक बाहरी व्यक्ति थे। उनकी नेतृत्व क्षमता पर विश्वास जता कर भाजपा ने आत्मविश्वास का परिचय दिया।
असम में मुख्यमंत्री के सामने चुनौतियां बहुत हैं। प्रदेश में अपूर्व जातीय विविधता है। एक तरफ उच्चवर्गीय असमिया हैं, दूसरी तरफ चाय बागानों के आदिवासी व अन्य आदिवासी हैं। प्रदेश में अल्पसंख्यकों का प्रतिशत देश में सबसे अधिक बत्तीस प्रतिशत से कुछ ऊपर है। फिर बोडो आदि। इनके बीच जो सामाजिक समरसता होना चाहिए वह वांछित स्तर पर नहीं है। जातीय अस्मिता को लेकर लगातार प्रदर्शन और आंदोलन होते हैं जो हिंसक रूप भी धारण कर लेते हैं। बंगलादेश से आने वाले कथित घुसपैठियों का मामला भी नाजुक है। 1980 के दशक में इसी मसले पर युवा प्रफुल्ल महंता ने अपनी राजनीति की शुरुआत की थी। यह स्मरणीय है कि असम पूर्वोत्तर का पहला प्रदेश नहीं है जहां भाजपा सरकार बनी। अरुणाचल में दो दशक पहले रिशांग किशिंग से थोक में दलबदल कराकर भाजपा वहां सत्तासीन रह चुकी है, वही प्रयोग अभी दोहराया गया है। नगालैंड की वर्तमान सरकार भी भाजपा समर्थित है।
चुनाव परिणाम आने के बाद कतिपय विश्लेषकों की राय आई है कि भाजपा ने असम में पहले से चली आ रही हिन्दू-मुस्लिम खाई को और गहरा कर चुनावी लाभ उठाया है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। असम आंदोलन के प्रारंभिक दौर याने 1980 में भी ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) तथा असम गण परिषद (अगप) को संघ का प्रच्छन्न समर्थन प्राप्त था। सवाल यह है कि नए मुख्यमंत्री इस खाई को पाटने के प्रयत्न करेंगे या इसे और गहरा करने की दिशा में जाएंगे। अगर प्रदेश में शांति और स्थिरता चाहिए तो दूरियां कम करने के प्रयत्न ही करना होंगे। एक अच्छी बात यह हुई है कि मौलाना बदरूद्दीन अजमल खुद चुनाव हार गए। दूसरे- तरुण गोगोई के पन्द्रह साल के शासन के बारे में सामान्य धारणा है कि उन्होंने प्रशासन ठीक से चलाया तथा प्रदेश विकास की राह पर आगे बढ़ा। अगर युवा मुख्यमंत्री संकीर्ण मतवाद में न उलझ कर विकास को प्राथमिकता देते हैं तो इससे उनका राजनीतिक भविष्य उज्ज्वल होगा।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी न सिर्फ दुबारा जीती हैं बल्कि दो तिहाई बहुमत लेकर आई हैं। इन परिणामों पर अनेक प्रेक्षकों को आश्चर्य हुआ। ममता खुद कह रही हैं कि वाममोर्चे ने कांग्रेस से गठजोड़ कर गलती की। सूर्यकांत मिश्रा का अपवाद छोडक़र स्वयं वाममोर्चे के लोग भी यही मान रहे हैं। ऐसा करके वे अपने आपको तसल्ली दे रहे हैं। सच बात यह है कि वाममोर्चा, मुख्यत: माकपा, के अधिकतर कार्यकर्ताओं ने पिछले चुनावों के पहले ही पार्टी छोडक़र ममता का आंचल पकड़ लिया था। इन कार्यकर्ताओं के भरोसे माकपा का बूथ मैनेजमेंट होता था। वह लाभ अब ममता बनर्जी को मिल रहा है। वाममोर्चे ने पिछले पांच सालों में अपने को पुनर्गठित व मजबूत करने के लिए कोई उल्लेखनीय प्रयत्न नहीं किए। माकपा ने अपने वोट कांग्रेस को दे दिए, लेकिन कांग्रेस के वोट वाममोर्चे को नहीं मिले यह भी एक मिथक है।
2011 में कांग्रेस ने टीएमसी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था तब उसे बयालीस सीटें मिली थीं। इस बार उसकी कुल दो सीटें बढ़ी हैं। यदि त्रिकोणीय मुकाबला होता तो शायद कांग्रेस और वाममोर्चा दोनों का नुकसान होता। बहरहाल देखना यह है कि ममता बनर्जी आने वाले पांच सालों में क्या करती हैं। उनके रहन-सहन में भले ही कितनी सादगी हो, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा किसी से छुपी नहीं है और पार्टी को वे अन्य दलों के सुप्रीमो की तरह ही चलाती हैं। इस कारण से पार्टी के भीतर असंतोष निरंतर बना रहता है जिसके प्रमाण जब-तब देखने मिलते हैं। तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेताओं पर भ्रष्टाचार के भारी आरोप इस बीच लगे हैं, लेकिन कुल मिलाकर ममता बनर्जी ने राज्य को बेहतर प्रशासन दिया है। फिर भी मुख्यमंत्री के सामने प्रदेश का औद्योगीकरण, वित्तीय संतुलन तथा रोजगार के अवसर उत्पन्न करना जैसी अनेक चुनौतियां मौजूद हैं। वे अगर दूसरे कार्यकाल में इस दिशा में सार्थक पहल कर पाती हैं तो वह स्वागत योग्य होगा।
तमिलनाडु में जयललिता की दुबारा विजय को चुनावी धुरंधरों ने एग्जिट पोल के माध्यम से पहले ही खारिज कर दिया था। इस नाते उनकी दुबारा जीत भी एक आश्चर्य के रूप में सामने आई है। विश्लेषणकर्ता इस तथ्य से संतोष कर सकते हैं कि डीएमके की सीटें बढ़ी हैं और एआर्ईडीएमके की सीटें कम हुईं हैं। तमिलनाडु में बेहतर प्रशासन की परिपाटी राजाजी के दिनों से ही चली आ रही है अत: इस मुद्दे पर टिप्पणी करने के लिए कुछ खास नहीं है। दो ऐसे विषय अवश्य हैं जिन पर मुख्यमंत्री को राज्य और देश के दीर्घकालीन हितों की दृष्टि से विचार करना आवश्यक है। पहला- अंतरराज्यीय जल विवाद, दूसरा- श्रीलंकाई तमिलों का मामला। उनकी विवेकशीलता का परिचय इन्हीं के समाधान से मिलेगा। तमिलनाडु में विजयकांत के तीसरे मोर्चे को लेकर बहुत हवाई किले बांधे गए थे, लेकिन वह ध्वस्त हो गया। वामदल इस तीसरे मोर्चे में क्यों शामिल हुए यह मैं समझना चाहता हूं।
देशबन्धु में 26 मई 2016 को प्रकाशित