Wednesday, 18 May 2016

हिंदी में साहित्येतर लेखन और एक अच्छी पुस्तक




हमें अक्सर यह सुनने मिलता है कि हिन्दी में कविता, कहानी, उपन्यास के अलावा और कुछ लिखा ही नहीं जाता। इस शिकायत में दम तो है, लेकिन बात पूरी तरह सच नहीं है। दरअसल हुआ यह है कि जिस समय में साहित्यिक कृतियों से ही समाज अनभिज्ञ बना हुआ है, उसमें साहित्येतर लेखन लोगों तक पहुंचे भी तो कैसे? एक तो नई पीढ़ी में हिन्दी अथवा भारतीय भाषाओं के साहित्य के प्रति एक तरह से दुराव तथा अवज्ञा का भाव उत्पन्न हो गया है। इसमें दोष युवाओं का नहीं बल्कि उनके अभिभावकों का है, जिन्होंने अपने बच्चों को साहित्य तथा जीवन के अन्य बेहतरीन मूल्यों से विमुख कर उन्हें पैकेज के चक्रव्यूह में ढकेल दिया है। सामान्यजन की बात क्या करें, ऐसे हिन्दी साहित्यकार बिरले ही होंगे जिन्होंने कभी अपने परिवार के सदस्यों, विशेषकर बच्चों के साथ बैठकर साहित्य चर्चा की होगी, बच्चों में हिन्दी के प्रति अनुराग जगाने के प्रयत्न किए होंगे। हम सबको अंग्रेजी से बहुत कोफ्त है, लेकिन बच्चों का कॅरियर बनाने के लिए उन्हें तथाकथित कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाने को हम अनिवार्यता मानकर स्वीकार कर लेते हैं। 

इस वातावरण में स्वाभाविक है कि नागरिकों के बड़े वर्ग को हिन्दी के प्रति कोई लगाव महसूस न हो और हिन्दी में छपने वाली पुस्तकें ग्राहकों का रास्ता अगोरते शैल्फ पर पड़ी धूल खाते रहें। यह तो एक बात हुई। अन्य बड़ा कारण है कि अब हिन्दी में ऐसी कोई भी पत्रिका प्रकाशित नहीं होती जिसे घर के सारे सदस्य पढ़ सकें। धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान और उनके अलावा नवनीत और कादम्बिनी यूं तो साहित्यिक पत्रिकाएं ही कहलाती थीं, लेकिन वे घर-घर में इसलिए पढ़ी जाती थीं क्योंकि उनमें साहित्यिक कृतियों के अलावा और भी ऐसी सामग्री होती थीं जिसे गृहणियां और बच्चे भी चाव के साथ पढ़ते थे। यूं तो देश के जाने-माने वाणिज्यिक घरानों से इन पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था, लेकिन सामग्री के चयन में उनका सामान्यत: हस्तक्षेप न होकर संपादक का निर्णय ही सर्वोपरि होता था और पाठकों को बेहतरीन सामग्री पढऩे मिलती थी। 

मुझे स्मरण आता है कि धर्मयुग में यशपाल का उपन्यास मेरी तेरी उसकी बात धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। भवानी प्रसाद मिश्र की एक प्रसिद्ध कविता खुशबू के शिलालेख भी धर्मयुग में पूरे पृष्ठ में छपी थी। व्योमबाला (एयर होस्टेस) मेहर मूस की रोमांचक यात्राओं के वृत्तांत भी इसमें छपे थे। पत्रिका में फिल्मों पर भी चर्चा होती थी और बच्चों के लिए आबिद सुरती द्वारा रचित ढब्बूजी की कार्टून स्क्रिप्ट अपार लोकप्रिय हुई थी। इसी तरह साप्ताहिक हिन्दुस्तान में तीसरे आवरण पृष्ठ पर मुसीबत है शीर्षक से पूरे पन्ने की कार्टून कथा छपती थी जो बरसों चलती रही, तो इसी पत्रिका में आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास सोना और खून धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ.आत्माराम और विख्यात शल्य चिकित्सक डॉ. विक्रम मारवाह की मूलत: हिन्दी में लिखी आत्मकथाएं साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ही प्रकाशित हुई थीं। 

नवनीत हमारे समय की एक प्रतिष्ठित पत्रिका थी। हिन्द साइकिल्स के साहित्यप्रेमी मालिक श्रीगोपाल नेवटिया इसके संपादक थे। रीडर डाइजेस्ट की तर्ज पर निकाली गई इस पत्रिका में विविध विषयों पर लिखे गए लेख शामिल होते थे। किसी एक उपन्यास का संक्षिप्त रूप भी नवनीत में छपता था। सुप्रसिद्ध चित्रकार अलमेलकर ने मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल मंडला में काफी वक्त गुजारा था। उनके द्वारा आदिवासी जनजीवन पर बनाए गए चित्र आवरण पृष्ठ पर तथा भीतर भी छपते थे। बिड़ला घराने ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के बाद कादम्बिनी प्रकाशित की तो उसमें भी विविधतापूर्ण सामग्री दी जाती थी। प्रथम संपादक रामानंद दोषी संपादकीय के स्थान पर जो बिन्दु-बिन्दु विचार लिखते थे वह अनूठा आनंद देने वाला गद्यगीत ही होता था। इधर पत्रिका कैसी निकल रही है पता नहीं, लेकिन नवनीत में संपादक विश्वनाथ सचदेव आज भी पुरानी परिपाटी का सीमित रूप में पालन कर रहे हैं। नवनीत में डॉ. परशुराम शुक्ल पेड़-पौधों पर जो विस्तृत जानकारी देते हैं वह मुझे बहुत रोचक लगती है। इसी से ध्यान आया कि धर्मयुग में रमेशदत्त शर्मा वनस्पति शास्त्र पर सामान्य पाठक को समझ आ जाए ऐसी भाषा में लेख दिया करते थे। 

यह वह दौर था जब विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाएं भी इन कथित व्यावसायिक पत्रिकाओं के समानांतर प्रकाशित हो रही थीं। इनमें कल्पना का स्थान सर्वोपरि था। हैदराबाद के सम्पन्न व्यवसायी और डॉ. लोहिया की समाजवादी विचारधारा से प्रेरित बदरीविशाल पित्ती इसके संचालक-स्वामी थे। संपादक मंडल में हिन्दी के कुछेक जाने-माने नाम थे। इसमें साहित्य पर बहुत गंभीर और तार्किक चर्चाएं होती थीं। मुख्य पृष्ठ पर अमूमन मकबूल फिदा हुसैन का ही कोई चित्र छपता था। पित्ती जी हुसैन साहब के मित्र व संरक्षक थे। कलकत्ता से प्रकाशित ज्ञानोदय दूसरी प्रमुख साहित्यिक पत्रिका थी, जिसके संपादकण प्रयोगधर्मिता के लिए भी जाने-जाते थे। ग्यारह सपनों का देश ग्यारह (या बारह!) मासिक किश्तों में छपा उपन्यास था और हर किश्त का लेखक अलग था। ज्ञानोदय में ही प्रकाशित मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव द्वारा संयुक्त रूप से लिखित उपन्यास एक इंच मुस्कान का प्रकाशन एक अन्य प्रयोग था। अजमेर से प्रकाश जैन और मनमोहिनी द्वारा संपादित प्रकाशित लहर सही अर्थों में एक लघु पत्रिका थी। इसे कोई आर्थिक संरक्षण नहीं था।  तत्कालीन साहित्य समाज में लहर ने प्रतिष्ठा और प्रशंसा अर्जित की थी। 

यह तो बात हुई साहित्यिक पत्रिकाओं की। दैनिक समाचार पत्रों में भी साहित्यिक लेखन के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध उन दिनों होता था। यह मैंने अन्यत्र लिखा है कि उस समय संपादक के बाद साहित्य संपादक का ही नाम आता था। किसी-किसी पत्र में रविवार के अंक में साहित्य संपादक का नाम छापने की  भी परंपरा थी। अखबार के साहित्य परिशिष्ट में कविता, कहानी, यहां तक कि धारावाहिक उपन्यास भी छपते थे, किन्तु इसके अलावा अन्य विषयों पर भी सामग्री देने का प्रयत्न किया जाता था। राजनीति से संबंधित लेखों को प्रमुखता मिलती थी, किन्तु विज्ञान, चिकित्सा, पुरातत्व, इतिहास, भूगोल आदि पर भी लेख बराबर छपते थे। संपादक ऐसे लेखों में भाषा और तथ्यपरकता इन दोनों के बारे में काफी सजगता बरतते थे। 

जाहिर है कि जब समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में साहित्येतर विषयों पर छपी सामग्री घर-घर में पहुंचती थी तो उससे एक विशाल पाठक वर्ग भी लगातार बन रहा था तथा दूसरी तरफ लेखकों का भी उत्साहवद्र्धन हो रहा था। हर लेखक कवि या कहानीकार तो नहीं होता किन्तु यदि वह किसी विषय विशेष पर लिखता था और उस पर पाठकों की अनुकूल प्रतिक्रिया मिलती थी, तो लेखक के मन में अपनी लेखनी को गति देने का उत्साह भी जागता था। अब यह हो गया है कि इन पुराने पत्र-पत्रिकाओं का स्थान जिन प्रकाशनों ने ले लिया है उनमें रचनाशीलता के प्रति कोई अनुकूल वातावरण नहीं है। अखबारों के रविवारीय पृष्ठों में पुरानी किताबों से निकालकर छापी गई प्रतियां कभी-कभी पढऩे मिल जाती हैं लेकिन नए रचनाकारों की तलाश एवं उन्हें प्रोत्साहन देने का काम कोई नहीं करता। जो साहित्यिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं उनमें से अधिकांश स्वयं साहित्यकारों द्वारा संपादित एवं प्रकाशित हैं तथा उनकी कोई दिलचस्पी साहित्येतर लेखन के प्रति दिखाई नहीं देती। अखबारों में भी साहित्येतर लेखन क्रिकेट, टीवी और सिनेमा तक सिमट कर रह गया है। इसका परिणाम है कि कविता, कहानी, उपन्यास से इतर लेखन की ओर अब किसी का तवज्जो नहीं है। 

मेरी मान्यता है कि साहित्य की प्रचलित विधाओं से अलग इस साहित्य (यद्यपि मैं उसे साहित्येतर लेखन कहने की गलती कर चुका हूं) का अपना  महत्त्व है। यदि कविता, कहानी, उपन्यास अथवा नाटक पाठक को समय, समाज व मनुष्य मन की गहराइयों में झांकने का अवसर देते हैं तो ये लेख, प्रलेख व निबंध उसकी दृष्टि को क्षैतिजिक विस्तार में विचरण करने की सुविधा जुटाते हैं। ऐसा कौन सा विषय है जो इस लेखन की परिधि से बाहर हो? यदि हम मानते हैं कि सरस्वती हिन्दी की पहिली प्रामाणिक, सर्वांगीण साहित्यिक पत्रिका थी और उसके आद्य संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी संपादक प्रवर थे तो उस अवधि में सरस्वती में प्रकाशित सामग्री में मेरी मान्यता का अनुमोदन देखा जा सकता है। 

मुझे जब कभी इस साहित्येतर लेखन के अंतर्गत प्रकाशित कोई पुस्तक पसंद आई है तो मैंने अक्षर पर्व में इस स्तंभ के अंतर्गत उसकी चर्चा यथासमय पर की है। एक बार फिर एक और अच्छी पुस्तक मेरे हाथों में है। वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा शीर्षक से जो पुस्तक दस साल पहिले लिखी, उसके अब तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह तो तय है कि भारतीय डाक विभाग ने इस पुस्तक की बिक्री में खासा योगदान किया होगा; फिर भी उसके छह संस्करण प्रकाशित होना इस बात का सबूत है कि सामान्य पाठकों के बीच भी पुस्तक लोकप्रिय हुई है। चूंकि इसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है, इसलिए बिक्री के आंकड़े भी प्रामाणिक होंगे, इसमें संदेह नहीं। 

अरविंद ने भारतीय डाक लिखने हेतु सामग्री जुटाने में गहन शोध और अपार श्रम किया है। इसके लिए उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर डाकघर की प्रणाली का अध्ययन किया, कुछ पड़ोसी देशों की डाक व्यवस्था को भी समझा, डाक विभाग के अभिलेखों में डूबकर तथ्य और आंकड़े जुटाए, नीति निर्माताओं याने डाक विभाग के मंत्रियों व अफसरान के साथ बातचीत कर उनका दृष्टिकोण समझा, तब कहीं जाकर 400 पृष्ठ की यह किताब तैयार हो सकी है। 

आज भारतीय डाक का जो स्वरूप हम देखते हैं, वह मूलत: अंग्रेजी राज की देन है। किन्तु जब डाकघर नहीं थे, तब संवादों का प्रेषण किस तरह होता था? पहिले अध्याय में लेखक हमें परिचित कराता है कि प्राचीन समय में विश्व व भारत में संदेश भेजने की क्या व्यवस्था थी। वह बतलाता है कि तब याने एक लंबे समय तक जो प्रबंध था वह सिर्फ राजा-महाराजाओं और बादशाहों के लिए था। 31 मार्च 1774 (क्या संयोग है कि मैं यह लेख 31 मार्च को ही लिख रहा हूं!) को अंग्रेजी राज द्वारा कलकत्ता में जी.पी.ओ. की स्थापना के साथ ही भारत में आम जनता के लिए डाक सुविधा खोली गई। आगे के अध्यायों में डाक सेवाओं का क्रमिक विस्तार कैसे हुआ, डाक टिकिट कब प्रारंभ हुए, भारत में हरकारों की क्या भूमिका थी, डाकिया याने पोस्टमैन को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था, पिन कोड कब, क्यों लागू हुआ व उसकी क्या आवश्यकता थी, ऐसे तमाम मुद्दों पर लेखक ने प्रकाश डाला है। 

आज जब एक तरफ डाकघर के स्वरूप में परिवर्तन आ रहा है, नाम के अनुकूल बुनियादी डाक सुविधा से हटकर उसने नई-नई गतिविधियां प्रारंभ कर दी हैं;  जब चिट्ठी-पत्री का स्थान इंटरनेट और वाट्सएप ने देखते ही देखते ले लिया है, तब इस पुस्तक को पढऩे का अर्थ है सभ्यता के इतिहास के एक प्रमुख अध्याय के बारे में जानना, ऐसा अध्याय जिसने साहित्यकारों की कल्पना को भी पंख दिए और चित्रकारों के चित्रों में रंग भरे। ताराशंकर वंद्योपाध्याय का उपन्यास हरकारा शायद बहुत से पाठकों को याद होगा। फिर जरा उन डाक टिकटों के बारे में सोचिए जो हमें देश-विदेश की सैर करवाती थीं, विभिन्न देशों की प्रकृति व संस्कृति से परिचय करवाती थीं, घर बैठे दुनिया की सैर करवाती थीं, तब सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए डाक टिकट से बेहतर शिक्षक शायद कोई और नहीं था! संभव है कि अपनी ही दुनिया में खोये रचनाकारों को इस साहित्य में दिलचस्पी न हो, लेकिन मैं इस जैसी पुस्तकों का स्वागत करता हूं कि इनसे अंतत: हिन्दी भाषा समर्थ और समृद्ध होती है।

अक्षर पर्व मई 2016 अंक की प्रस्तावना 



 
 

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