Friday, 6 May 2016

आरक्षण आयोग की आवश्यकता




 पिछले सप्ताह दो निर्णय लगभग एक साथ सामने आए। पहला- मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का फैसला जिसमें राज्य सरकार द्वारा किए गए पदोन्नति में आरक्षण के एक पुराने कानून को खारिज कर दिया गया, दूसरा- गुजरात सरकार का, जिसमें आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। एक फैसला न्यायालय का और दूसरा कार्यपालिका का, दोनों आरक्षण से संबंधित, किंतु यदि बारीकी से गौर किया जाए तो ये फैसले न सिर्फ आरक्षण की व्यवस्था में विद्यमान जटिलताओं को उजागर करते हैं, अपितु देश की सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही नई प्रवृत्तियों की ओर भी संकेत करते हैं। इनके साथ-साथ अगर गुजरात में पाटीदार समाज तथा हरियाणा में जाट समाज द्वारा आरक्षण की मांग के लिए चलाए गए उग्र आंदोलनों को भी देखा जाए, तो ऐसा लगता है कि देश इस वक्त एक चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है और सामाजिक न्याय की दिशा में उसे किस रास्ते पर चलना चाहिए, यह समझ नहींआ रहा है।

आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में बहुत सी बातें कही जाती हैं। किंतु इतना तय है कि कोई भी राजनैतिक दल किसी भी समाज द्वारा की गई आरक्षण की मांग को सीधे-सीधे खारिज करने की स्थिति में नहींहै। अपने मूल रूप में आरक्षण का प्रावधान समाज के दो सबसे ज्यादा वंचित, शोषित और अन्याय के शिकार वर्गों अर्थात् अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए किया गया था। जैसा कि हमें पता है, प्रारंभ में यह प्रावधान मात्र दस वर्ष के लिए था, लेकिन इसे बाद में लगातार बढ़ाया जाते रहा। कालांतर में मंडल आयोग की अनुशंसा के अनुरूप अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के लिए भी आरक्षण का प्रावधान किया गया। अब जो वर्ग आरक्षण की मांग कर रहे हैं, वे सामान्य तौर से साधन-संपन्न तबके माने जाते हैं तथा पारंपरिक सोच कहती है कि इन्हें आरक्षण देना उचित नहींहै। लेकिन बात इतनी सरल नहीं है, क्योंकि देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में इस बीच काफी बदलाव आया है।

आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण आरक्षण की मांग इस बिना पर करते हैं कि उनकी स्थिति त्रिशंकु की हो गई है। वे अन्य सवर्णों की भांति साधन-संपन्न नहीं हैं और दूसरे वे एससीएसटी श्रेणी में भी नहीं आते, इस कारण वे चाहे-अनचाहे अन्याय का शिकार हो रहे हैं। उनकी शिकायत अपनी जगह पर सही है। किंतु यह ध्यान देने योग्य है कि अपनी तकलीफों के लिए वे दलित-आदिवासी पर दोषारोपण करते हैं, किंतु अपने ही साधन-संपन्न भाई-बंधुओं से उन्हें कोई शिकायत नहीं होती। यही स्थिति आरक्षित वर्गों को पदोन्नति के मामले में देखने मिलती है। बहुत से लोग सरकारी नौकरी के पहले पायदान पर आरक्षण को मन मारकर स्वीकार कर लेते हैं। किंतु उन्हें जब पदोन्नति मिलती है तो उसे वे न्यायोचित नहीं मानते। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने के बाद भी आरक्षित वर्ग अपनी जाति और जन्म का अनुचित लाभ उठाते हैं, यह शिकायत भी बारहा सुनने मिलती है।

दरअसल विगत तीन-चार दशकों से जो आरक्षण नीति चली आ रही है, उसमेें समय की वास्तविकताओं के साथ जो संशोधन होने चाहिए थे, उन्हें लागू करने से हमारे सत्ताधीश कतराते रहे हैं। इसमें बहुत सारे मुद्दे हैं। सबसे पहले तो इस वास्तविकता का संज्ञान लेना आवश्यक है कि देश में विकास योजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर लगातार विस्थापन हो रहा है। एक समय था जब बड़े बांधों और कारखानों के लिए विस्थापन हुआ, जिससे प्रभावित होने वाली जनसंख्या मुख्यत: आदिवासियों की थी। चूंकि नेहरू युग में जनता के मन में एक विश्वास था इसलिए लोगों ने खुशी-खुशी अपनी जमीनें दे दीं, किंतु जिन नौकरशाहों पर मुआवजा और पुनर्वास की जिम्मेदारी थी, उसे उन्होंने ठीक से नहींनिभाया। आज भी ऐसे विस्थापित आदिवासी मिल जाएंगे जो 55-60 साल से खानाबदोश की जिंदगी जी रहे हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि एक चतुर, संपन्न तबके ने इन विकास योजनाओं का लाभ अपने लिए लेने में कोई कसर बाकी नहींरखी।

विकास के दूसरे दौर में जो औद्योगिकरण और शहरीकरण हुआ, उसने अच्छे खाते-पीते किसानों को उनकी धरती से बेदखल कर दिया। इस तबके में राजनीतिक चेतना थी और हिसाब-किताब की समझ भी इसलिए उन्होंने मुआवजा तो ले लिया, पर यह सवाल अपनी जगह पर है कि मुआवजे की यह रकम कब तक काम आएगी, तथा किसान की दूसरी-तीसरी पीढ़ी क्या करेगी। गुडग़ांव से लेकर नया रायपुर तक हमने देखा है कि किसानों ने मुआवजे की राशि झूठी शान-शौकत तथा गैर-अनुत्पादक कामों में खर्च कर दी। आज अगर ये लोग अपने बच्चों के लिए आरक्षण मांग रहे हैं तो उसे एकबारगी गलत नहीं माना जा सकता, भले ही यह सिर्फ एक भरम क्यों न हो।

यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि एक ओर तो सार्वजनिक क्षेत्र के पुराने कारखानों का विनिवेश हो रहा है और नए कारखाने नहीं लग रहे। अर्थव्यवस्था के सूत्र धीरे-धीरे कर निजी क्षेत्र को सौंंपे जा रहे हैं। सरकार ने तो स्कूल और अस्पताल तक से मुंह मोड़ लिया है। ऐसे में नौकरियां अगर कहीं मिल सकती हैं तो सिर्फ निजी क्षेत्र के उद्यमों में, जो तथाकथित योग्यता का सुर अलापे रहता है और अपने व्यवसाय में आरक्षण नीति लागू करने में जिसे रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं है। यह तथाकथित योग्यता कैसी है इसे हम प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में एक-एक करोड़ डोनेशन देकर डॉक्टर बनने वालों में देख रहे हैं। इसी तरह निजी बैंकों में अगर कोई धनिक अच्छी-खासी राशि जमा करे तो उसके बच्चे को बैंक में नौकरी मिल जाती है। मतलब यह है कि पैसा देकर करवाया गया आरक्षण योग्यता कहलाती है और जो सचमुच सदियों से और दशकों से मुश्किलें झेल रहे हैं वे अपने आप अयोग्य घोषित हो जाते हैं।

हमारी दृष्टि में सबसे पहली आवश्यकता यह है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण को कानूनन लागू किया जाए। दूसरे, आरक्षण में जाति और जन्म का जो बुनियादी आधार है उसे यथावत रखा जाए, क्योंकि आदिवासी और दलित को सदियों के शोषण और अन्याय से उबर कर आत्मविश्वास हासिल करने में अभी समय बाकी है। आज भी उनके साथ आए दिन अपमान व तिरस्कार का व्यवहार होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। तीसरे, विकास के नाम पर जिन किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं, उन्हें नगद मुआवजे के अलावा मुकम्मल नौकरी तथा स्थानीय उद्यमों में लाभ में हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाना चाहिए। इन सारे प्रश्नों पर समग्र विचार करने के लिए बेहतर होगा कि सरकार एक आरक्षण आयोग का गठन करे, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर आगे के लिए निर्णय लिए जा सकेें।

देशबन्धु में 05 मई 2016 को प्रकाशित 

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