तीस-पैंतीस साल पहले दुर्ग जिले में बेमेतरा के पास किसी गांव में कोई मालगुजार थे। जाहिर है कि गांव में उनका रुतबा था। किसी बात से नाराज हो गए तो कुछ निरीह गांव वालों को पेड़ों से बांधकर अपने कारिंदों से पिटवाया। वे जब वहां से छूटे तो भागकर दुर्ग में कलेक्टर के पास शिकायत करने के लिए आए। जिलाधीश नहीं थे तो तीन दिन कलेक्टरेट के बरामदे में ही सोए। हमारे तब के जिला प्रतिनिधि धीरजलाल जैन को वाकया पता चला तो एक अच्छी खासी रिपोर्ट अखबार में छप गई। इस पर कुपित होकर मालगुजार ने प्रधान संपादक, प्रबंध संपादक और संपादक तीनों के खिलाफ दफा 500 में मानहानि का मुकदमा दर्ज कर दिया। व्यक्तिगत पेशी से तो छूट मिल गई लेकिन लगभग आठ साल मुकदमा चलता रहा। जिस पेशी में आरोप निर्धारित होना थे उसमें प्रधान संपादक याने बाबूजी, संपादक याने पंडित रामाश्रय उपाध्याय और प्रबंध संपादक याने मैं खुद तीनों पेशी में पहुंचे।
एक और रोचक प्रकरण- रायगढ़ जिले में कहीं मेरे ऊपर मानहानि का मुकदमा चला। उपरोक्त प्रकरण से सबक लेते हुए मैंने बाबूजी और पंडितजी का नाम प्रिंट लाइन से हटवा दिया था ताकि उन्हें आगे ऐसे मुकदमों में उलझ कर पेशियों में आने-जाने का कष्ट न उठाना पड़े। बहरहाल इस केस में दहेज के मामले में भिलाई पुलिस ने रायगढ़ पहुंचकर कुछ गिरफ्तारियां कीं। पुलिस ने जो सूचना दी उसमें दहेज प्रताडि़त लडक़ी के पति के बजाय उसके जेठ का नाम गिरफ्तार होने वालों में बता दिया। इसमें हमारी कोई गलती नहीं थी। सूचना पुलिस से मिली थी उस पर संदेह करने का कोई कारण नहीं था। जब वादी का नोटिस आया तो हमने खंडन और भूल सुधार छापने की पेशकश की जो उन्हें मंजूर नहीं थी। उधर अदालत में जजों के बार-बार तबादलों के कारण पेशी पर हाजिर न होने की छूट समय पर नहीं मिल पाई। मैं छह साल में कई बार रायगढ़ की अदालत में पेश हुआ। आखिरकार मुकदमा खारिज हो गया, लेकिन रायपुर से रायगढ़ आने-जाने में समय भी बर्बाद हुआ और तकलीफ भी उठानी पड़ी।
एक अन्य प्रकरण ध्यान में आ रहा है- एक बहुत बड़े नेता थे। उनके बारे में दिल्ली की किसी पत्रिका में कोई खबर छपी। दिल्ली के हमारे एक स्तंभ लेखक ने वही खबर हमें भेज दी सो वह यहां भी छप गई। इस पर नेताजी काफी नाराज हुए। उन्हें अपने मित्रों को भी विरोधी बना लेने में महारत हासिल थी। छोटी-छोटी बातों को भी वे भूल नहीं पाते थे। उन्होंने दिल्ली की पत्रिका पर मुकदमा चलाने की बात नहीं सोची। देशबन्धु से भी सीधे विरोध मोल लेना भी उन्होंने नहीं चुना, लेकिन अपने किसी चारण के द्वारा उन्होंने सुदूर बस्तर की किसी अदालत में मुझ पर मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया। एक-दो पेशियां तो यूं ही निकल गईं, फिर मैं अपने अग्रज सदृश्य वकील (स्व.) भगवान सिंह ठाकुर तथा मित्र प्रभाकर चौबे के साथ पेशी पर गया। अदालत में वकील साहब ने सीधे-सीधे दलील रखी कि जो अपनी मानहानि होना मानता है स्वयं उसे वाद दायर करना चाहिए, उसका कोई समर्थक या परिचित ये काम नहीं कर सकता। दफा 499 और 500 में इसका स्पष्ट प्रावधान है। विद्वान न्यायाधीश ने इस बिना पर मानहानि की याचिका तुरंत खारिज कर दी। इस तरह एक और प्रकरण का पटाक्षेप हुआ।
एक समय था जब हम अखबारवालों को ऐसे मुकदमों से जूझना पड़ता था, गो कि आजकल ऐसे प्रकरण कम ही होते हैं। समाज में सहनशीलता बढऩे के बजाय कम हुई है, फिर भी अगर मानहानि के मुकदमे नहीं चल रहे हैं तो इसका एक कारण शायद यह भी है कि अब अखबारों में छपी बात पाठक गंभीरता से लेते नहीं हैं। जो भी हो, सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में भारतीय दंड संहिता में मानहानि से संबंधित धारा 499 एवं धारा 500 पर जो फैसला सुनाया है उसे पढ़ते हुए ये सारे किस्से एकाएक याद आ गए हैं।
उल्लेखनीय है कि देश के तीन राजनेताओं राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल एवं सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर प्रार्थना की थी कि भारतीय दंड संहिता की उपरोक्त धाराओं को गैरसंवैधानिक घोषित किया जाए। उन्हें याचिका दायर करने की आवश्यकता इसलिए आन पड़ी थी कि उन पर विभिन्न अदालतों में इन्हीं धाराओं के अंतर्गत मुकदमे चल रहे थे। मुझे जहां तक पता है इन राजनेताओं के अलावा कुछ अन्य व्यक्तियों ने भी इसी आशय की याचिकाएं दायर की थीं, लेकिन उनमें कोई पत्रकार था या नहीं, मुझे ज्ञात नहीं है। यह अच्छा होता कि समाचारपत्रों का कोई संगठन याचिकाकर्ताओं में शामिल होता तो हम पत्रकारों का पक्ष भी सामने आ जाता जिन्हें अक्सर सही खबर छापने पर और कभी कभार अनजाने में गलत खबर छापने पर तथा खेद प्रकाशन कर देने के बावजूद मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ता है।
राजनेताओं पर मानहानि के मुकदमे चलने की जहां तक बात है उसमें यह देखना रोचक है कि तीनों याचिकाकर्ता तीन विभिन्न राजनीतिक दलों से संबंध रखते हैं तथा इनमें से दो याने श्री केजरीवाल और याने श्री स्वामी दोनों अपने विरोधियों की आलोचना करने में किसी भी तरह की सीमा स्वीकार नहीं करते। यह हमने देखा है कि हमारे अनेक निर्वाचित राजनेता सदन के भीतर भी मर्यादापूर्ण व्यवहार नहीं करते। कुछेक विधान सभाओं में सदस्यगण जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वह कई बार अश्लीलता की सीमा लांघ जाती है। मैंने एक भी प्रकरण नहीं देखा जहां सभापति ने ऐसा उच्छृंखल व्यवहार करने वाले सदस्य पर कोई कार्रवाई की हो। आम सभाओं में खासकर चुनावों के समय जैसी टिप्पणियां की जाती हैं वे हमारे नेताओं के सुसंस्कृत होने पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। मुझे इसमें दो-तीन कारण दिखाई देते हैं।
सबसे पहली बात तो यह है कि वर्तमान समय के अधिकतर नेताओं का पढऩे-लिखने से कोई वास्ता नहीं है। ऐसे में उनके पास अगर अपनी बात कहने के लिए सही शब्दों का अभाव है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। दूसरे- किसी नेता का उसे सुनने आई भीड़ को देखकर प्रफुल्लित हो जाना स्वाभाविक है, लेकिन उससे कहीं अधिक वे टेलीविजन के कैमरों को देखकर पहले नकली आवेश में और फिर उसी रौ में बहते हुए अपने असली रूप याने एक कुपढ़ और बददिमाग व्यक्ति के रूप में सामने आ जाते हैं। उन्हें लगता है कि अपने विरोधियों को जितना अधिक गरियाएंगे उनकी लोकप्रियता और वोटों में उतना ही इजाफा होगा। वे भूल जाते हैं कि आपका विरोधी ही आपके भाषणों का रिकार्डिंग करवा रहा है। तीसरे- नेताओं का अहंकार सिर पर चढक़र बोलता है। इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक जीवन में मर्यादा का पालन करने की नसीहत दी है तथा व्यक्ति की मानहानि को अपराध की श्रेणी में रखा है तो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए शायद उचित ही हुआ है।
मैं व्यक्तिगत तौर पर मानहानि को दंडनीय अपराध की श्रेणी में नहीं रखना चाहूंगा, लेकिन शायद उसके लिए हमें अपने राजनीतिक वातावरण के परिपक्व होने की प्रतीक्षा करना होगी। फिलहाल मैं सुप्रीम कोर्ट द्वारा निचली अदालतों को दी गई इस सलाह को रेखांकित करना चाहूंगा कि मानहानि के प्रकरण का संज्ञान लेते समय वे अधिकतम सावधानी बरतें, याने बिना भलीभांति परीक्षण किए केस न चलाएं। यह सावधानी स्वागत योग्य होगी।
देशबन्धु में 19 मई 2016 को प्रकाशित
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