भारतीय संस्कृति में तीन ऋणों की बात कही गई है, जिनका शोधन हर मनुष्य को अपने जीवनकाल में करना चाहिए- देवऋण, पितृऋण और गुरुऋण। देवऋण से मुक्त होने के लिए व्यक्ति अनेक उपाय करता है। पूजा-पाठ, हवन-पूजन, मंदिर जाना, तीर्थाटन करना, धर्म-अनुकूल आचरण करना याने सत्य, न्याय, विवेक के पथ पर चलना इत्यादि बातें इसमें आती हैं। विद्वान पाठक अपनी जानकारी के अनुसार इस सूची को बढ़ा सकते हैं। पितृऋण में वर्तमान समय की मान्यताओं के अनुकूल इसमें मातृऋण जोड़ लेना उचित होगा। इसके अंतर्गत माता-पिता की सेवा करना, श्रवणकुमार को अपना आदर्श मानना, वृद्धावस्था में उनके सुख का ध्यान रखना आदि का समावेश होगा। यहां भी पाठक चाहें तो संशोधन करते हुए वृद्ध, असहाय माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोडक़र आना, वहां बीच-बीच में जाकर उनकी खोज-खबर लेने को भी उऋण होने की प्रक्रिया का अंग मान सकते हैं। अवतार, बागवान जैसी फिल्में न चाहकर भी यहां ख्याल आ जाती हैं।
अब बच गया गुरुऋण। गुरु की महिमा से भला कौन परिचित नहीं है। गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाँय/बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय, यह दोहा भला किस हिन्दी पढ़े व्यक्ति को याद न होगा। इसका उपयोग स्कूल में पढ़ते हुए निबंध लेखन में भी किया होगा, वाद—विवाद, तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में और बड़े होने पर शिक्षक दिवस पर लेख लिखने या स्कूल में अतिथि की आसंदी से उद्बोधन देते हुए। पश्चिमी देशों में मनाते होंगे टीचर्स डे, लेकिन हम तो 5 सितंबर को बाकायदा शिक्षक दिवस का आयोजन करते ही करते हैं। कोई-कोई गुरुजी के पास इतने शाल-श्रीफल इकट्ठे हो जाते हैं कि समझ नहीं आता, इनका क्या करें। यह गुरुऋण से मुक्त होने की सालाना जुगत है। जिनका मन इतने से नहीं भरता, वे गुरु पूर्णिमा के अवसर पर कसर पूरी कर देते हैं। इन दिनों जिसे देखो वह किसी न किसी आध्यात्मिक गुरु का शिष्य या शिष्या नज़र आता या आती है। गुरु की सेवा कर ये शिष्य अक्सर इहलोक-परलोक दोनों की सुध ले लेते हैं।
एक ओर यह गुरुभक्ति है तो दूसरी ओर वह कहावत भी है- गुरु गुड़ रह गए, चेला शक्कर बन गया। यह कहावत शक्कर का आविष्कार होने के उपरांत चलन में आई होगी। शक्कर को वैसे उत्तर भारत में चीनी कहा जाता है। इसलिए कि इस मीठे पदार्थ का आविष्कार चीन में हुआ था, वैसे ही जैसे बारूद का। लेकिन फिलहाल उस पर बात करना ठीक नहीं। चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करते-करते चीनी या शक्कर तक पहुंच गए तो दैनंदिन जीवन से मिठास गायब न हो जाएगी? बहरहाल, हमारी जिज्ञासा यह है कि किन परिस्थितियों में चेला शक्कर बनता है और गुरु गुड़ ही रह जाता है। गुड़ का परिष्कार करने से शक्कर निर्मित होती है। गुड़ होता है चिपचिपा, बेढब, देखो तो ढेले जैसा, रंग किसी बूढ़े की त्वचा जैसा, खाओ तो दांतों में चिपक भी जाता है। उसके मुकाबले चीनी सफेद झक्क, दाना-दाना खिला हुआ, क्या रूप, क्या सज-धज। सवाल उठता है कि यह परिष्कार कौन करता है? ऐसा क्यों होता है कि चेले का व्यक्तित्व तो निखर जाता है, लेकिन गुरु जहां था, वहीं छोड़ दिया जाता है। तो फिर भारतीय समाज में गुरु का सही स्थान कहां है? क्या गुरु का ऋणी होना, तदनंतर उससे मुक्त होने के उपाय करना- ये सारी बातें सिर्फ कहने के लिए हैं और व्यवहार में उनका कोई उपयोग नहीं है?
एक उदाहरण से बात कुछ स्पष्ट होगी। छत्तीसगढ़ में सभी विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में नए शैक्षणिक सत्र में छात्र संघ के चुनाव संपन्न हुए। चुनावों के परिणाम 2 सितम्बर को आ गए। सहज कल्पना होती है कि विजयी छात्र नेताओं ने बिना देर किए अपना पदभार ग्रहण कर लिया होगा। लेकिन ऐसा सर्वत्र नहीं हुआ और कुछ स्थानों पर तो हास्यास्पद स्थितियां बन गईं। एक संस्थान में शपथ ग्रहण का कार्यक्रम दो बार हुआ, क्योंकि छात्रसंघ के सभी विजयी प्रत्याशी किसी एक धारा के न होकर बंटे हुए थे। छत्तीसगढ़ में लगभग हर जगह मुकाबला भाजपा की अखिल भारतीय छात्र परिषद एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय छात्र संगठन के बीच था। जहां इनके दो, उनके दो इस तरह मिले-जुले परिणाम आए वहां शपथ ग्रहण में मुख्य अतिथि किसे बुलाया जाए, इस पर एका कायम न हो सका। दोनों छात्र संगठन, अपने-अपने राजनैतिक संरक्षकों की उपस्थिति में ही समारोह करना चाहते थे। शिक्षा परिसर में दलीय राजनीति इस हद तक हावी हो गई।
इसमें सबसे उल्लेखनीय और कदाचित शोचनीय स्थिति प्रदेश के सबसे बड़े और बावन साल पुराने पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. में हुई। यहां भाजपा का छात्र दल विजयी हुआ। उसने तय किया कि जिस विधानसभा क्षेत्र में वि.वि. परिसर अवस्थित है, उसके भाजपा विधायक एवं प्रदेश के रसूखदार मंत्री राजेश मूणत के मुख्य आतिथ्य में शपथ ग्रहण समारोह होगा। लेकिन जो काम 2 सितंबर याने नतीजे आने के दो-चार दिन बाद हो जाना चाहिए थे, उसमें ये दो माह लग गए। धनतेरस के दिन कार्यक्रम रखा गया। एक तो दो माह का विलंब क्यों हुआ, यही अजब घटना थी, फिर कार्यक्रम रखना तो था तो एक बड़े त्यौहार का दिन ही क्यों चुना? यह किसी ने नहीं सोचा कि धनतेरस के दिन कितने लोग आ पाएंगे। वैसे भी चुनाव हो जाने के बाद शपथ ग्रहण में दर्शक बनने में कितने छात्रों की रुचि होती? दूसरे, मंत्रीजी जनता के आदमी हैं। उनके भाषण सब लोग आए दिन सुनते रहते हैं। घर का त्यौहार छोड़ कौन विश्वविद्यालय जाता? परिणाम? कार्यक्रम में कुल जमा दो दर्जन लोग पहुंचे। क्षीण उपस्थिति से नाराज मंत्री महोदय ने कार्यक्रम स्थगित करवा दिया और अखबारी रिपोर्ट के अनुसार कुलपति पर अपना गुस्सा उतारा।
आप कहेंगे- इन बातों का गुरु ऋण से क्या संबंध, जिसकी खासी भूमिका मैं ऊपर बांध आया हूं। सोचकर देखिए- संबंध है कि नहीं। मैं मानता हूं कि कॉलेज के विद्यार्थियों को दलीय राजनीति में भाग लेना चाहिए। वे बालिग हंै। उन्हें मताधिकार प्राप्त है। अगर वे राजनीति में आगे नहीं आएंगे तो समाज में बदलाव कैसे आएगा। लेकिन छात्रसंघ के शपथ ग्रहण में राजनेता को बुलाने की आवश्यकता कहां है? क्या हमारे विद्यार्थियों का ध्यान अपने शैक्षिक उन्नयन पर नहीं होना चाहिए? शपथ ग्रहण एक तरह से सक्रिय राजनीति की राह पर पहला कदम है। इस अवसर पर क्या किसी विद्वान या विदुषी को नहीं बुलाया जा सकता? जो कुलपति आपके स्नातक बनने पर आपको उपाधि एवं मार्गदर्शन देकर बाहर की दुनिया में भेजता है, क्या वह या आपके महाविद्यालय का प्राचार्य शपथ ग्रहण का मुख्य अतिथि नहीं हो सकता। अपने अंचल के किसी प्रबुद्ध व्यक्ति को, किसी लेखक या कलाकार को बुलाने के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता जिसके जीवन के विविध अनुभव ज्ञान-समृद्ध बना सकते हैं।
मुझे यह भी समझ नहीं आता कि नेतागण हर समय, हर जगह मंच पर विराजमान होने के लिए क्यों लालायित रहते हैं। ऐसा लगता है कि सत्तामोह ने अजगर की तरह इन्हें बुरी तरह से जकड़ लिया है। आप जब तक नहीं आएंगे तो नाटक शुरु नहीं होगा, संगीत सभा रुकी रहेगी; जिन पुस्तकों को आपने न पढ़ा है और न पढ़ेंगे, उनका लोकार्पण आपके करकमलों से होगा, यह कहां का न्याय है। विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोह में स्थानीय विधायक, सांसद या महापौर का मंच पर क्या काम? आप श्रोताओं के साथ प्रथम पंक्ति में बैठकर समारोह की शोभा क्यों नहीं बढ़ा सकते? अभी जो प्रसंग पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. में हुआ, उसमें कुलपति पर मंत्री के नाराज़ होने में क्या औचित्य था? कार्यक्रम छात्रसंघ का था, वह भी आपकी पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं का। उनकी तैयारियों में कोई कमी थी तो मंत्री उनको आगे के लिए सावधान करते। फिर वे तो अनुभवी व्यक्ति हैं। खुद क्यों नहीं सोचा कि धनतेरस के दिन कितने लोग आ पाएंगे। बल्कि उन्हें सबसे पहले तो यही विचार करना चाहिए था कि शपथ ग्रहण में दो माह का विलंब क्यों हुआ और उसकी जिम्मेदारी किसकी है?
अभी कुछ माह पूर्व भाजपा की मातृसंस्था याने संघ के प्रदेश प्रमुख ने कुलपतियों की बैठक बुलाई थी, जिस पर काफी बवाल मचा। वे श्रीमान ही शपथ ग्रहण में संघ के किसी विद्वान को मुख्य अतिथि बनाकर भेज देते तो बात बन जाती। यह पुराना प्रसंग अनायास ध्यान आ गया तो यह पूछने को भी मन कर रहा है कि कार्यवाहजी, आपको कुलपतियों की बैठक बुलाने की इतनी ही आवश्यकता थी तो उसके लिए कोई और रास्ता नहीं था। मसलन, शिक्षामंत्री के बंगले पर बैठक हो जाती। दूसरे, कुलपतियों को उनके बुलावे पर जाना भी क्यों चाहिए था। यह तो खुद होकर अपनी प्रतिष्ठा गिराना हुआ। लेकिन मैं एक बुनियादी बात समझना चाहता हूं। आजकल अधिकतर नेता पढ़े-लिखे ही होते हैं। उनके पास वि.वि. की उपाधि भी होती है। अनेक युवा नेता मौका मिलने से विधायक-मंत्री बन जाते हैं। जबकि उनके शिक्षक उसी महाविद्यालय या शाला में सेवा दे रहे होते हैं। आपका पद आपके पास, उनका पद उनके पास। क्या चुनाव जीतने मात्र से (भले ही वह छात्रसंघ का क्यों न हो) आपको इतनी बुद्धि प्राप्त हो जाती है कि आप अपने गुरुओं का अपमान या तिरस्कार करने लगें? क्या वाकई आप परिशोधित शक्कर की अवस्था को प्राप्त हो गए हैं और गुरु गुड़ से आगे नहीं बढ़ सके हैं। तब तो फिर सारे स्कूल, कॉलेज विश्वविद्यालय बंद कर सिर्फ चुनाव लडऩे के स्कूल खोल देना चाहिए।
देशबंधु में 03 नवम्बर 2016 को प्रकाशित
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