प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8 नवंबर की रात बड़े नोटों के विमुद्रीकरण की घोषणा के साथ आम जनता से धीरज रखने की अपील की थी और स्थिति को सामान्य करने के लिए पचास दिन का समय मांगा था। कल 30 दिसंबर को यह समय सीमा पूरी हो जाएगी। इस बीच में देश की जनता ने जो कुछ देखा, भुगता, सहन किया, उसके पांच अहम बिन्दु ध्यान में आते हैं: 1. रिजर्व बैंक की भूमिका 2. बाजार के हालात 3. जांच एजेंसियों की कार्रवाईयां 4. मुद्राहीन व्यवस्था की हकीकत 5. जनसामान्य, मीडिया और विशेषज्ञों की प्रतिक्रियाएं।
ऐसा याद नहीं पड़ता कि रिजर्व बैंक की भूमिका के बारे में आम जनता में इसके पहले कभी कोई चर्चा हुई हो। रिजर्व बैंक में गवर्नर की नियुक्ति और सेवानिवृत्ति एक सामान्य प्रक्रिया के तहत चली आ रही थी, जिसमें पहली बार एक नया मोड़ रघुराम राजन का कार्यकाल समाप्त होने के साथ आया। रिजर्व बैंक ही देश की मुद्रानीति का नियमन और संचालन करता है, यह बात आम तौर पर लोग नहीं जानते, लेकिन प्रधानमंत्री तो इसे जानते थे। इसलिए एक ओर जहां उन्होंने स्वयं दूरदर्शन पर आकर विमुद्रीकरण की घोषणा की, वहीं दूसरी ओर वैधानिक औपचारिकता पूरी करने के लिए उसी दिन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की बैठक आनन-फानन में बुलाकर उसमें सरकार की इच्छानुसार फैसला ले लिया गया। इस बारे में अब जाकर पता चला है कि रिजर्व बैंक के बोर्ड में स्वतंत्र सदस्यों के चौदह में दस पद खाली पड़े हैं और उपरोक्त बैठक में बचे चार में से कुल तीन स्वतंत्र सदस्य ही शामिल हुए। इस निर्णय से रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को आघात पहुंचा, साथ ही नवनियुक्त गवर्नर उर्जित पटेल की छवि भी धूमिल हुई।
यह अकारण नहीं है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का उपहास रिवर्स बैंक ऑफ इंडिया कहकर किया जा रहा है। विगत पचास दिनों में बैंक ने एक के बाद एक कोई साठ दिशानिर्देश जारी किए। उनमें से कई ऐसे थे जिनमें पिछले निर्देशों को ही काट दिया गया। इससे अफरातफरी का माहौल बना। सबसे बुरी स्थिति तब निर्मित हुई जब बैंक ने एकाएक पुराने नोट लेने की मनाही और लेने की स्थिति में सत्यापन आदि की शर्त रख दी।इससे प्रधानमंत्री द्वारा पहले दिन की गई घोषणा का उल्लंघन हुआ। लोग सवाल पूछने लगे कि क्या देश में प्रधानमंत्री के वचन का कोई मूल्य नहीं रह गया है? जबकि रिजर्व बैंक गवर्नर के वचन को तो पहले ही मूल्यहीन कर दिया गया था। दूसरी गड़बड़ी नोटों का आकार तय करने, छपाई करने, करेंसी चेस्ट और फिर बैंकों तक नोट पहुंचाने में हुई।बैंक अथवा अन्य निर्णयकर्ता यह अनुमान लगाने में गंभीर रूप से असफल हुए कि चौदह-पंद्रह लाख करोड़ के नोट वापिस आएंगे तो उसके बदले न्यूनतम कितने नोट शीघ्रातिशीघ्र बैंकों में पहुंचा दिए जाएं। नोट का आकार क्यों बदला गया, यह भी किसी को समझ नहीं आया; उसे एटीएम में भरने के लिए क्या तकनीकी परिवर्तन करना पड़ेंगे, यह भी नहीं सोचा गया। यह एक रहस्य है कि नए नोट पर देवनागरी में अंक क्यों लिखे गए, क्योंकि भारत में वैधानिक तौर पर रोमन अंकों का ही प्रयोग होता है।
इस अप्रत्याशित निर्णय के समर्थक अपनी तारीफ में चाहे जो कहें बाजार की हकीकत कुछ और ही बयां करती है। प्रतिदिन खबरें मिल रही हैं कि देश में उत्पादक गतिविधियों में भारी गिरावट आई है। बाजार में नकद राशि नहीं है और बिना नकदी के व्यापार कैसे चले? पंजाब के खेतों से हजारों की संख्या में किसान पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अपने गांवों में लौट आए हैं, रायपुर में इस्पात कारखानों में काम लगभग बंद है, मजदूरों को घर बैठा दिया गया है कि जब हालात सुधरेंगे तब वापिस बुला लेंगे। बैंकों के बाहर लाइनें अभी भी लग रही हैं। शहरों की स्थिति बेहतर हुई है, लेकिन गांवों के हालात बदतर ही कहे जाएंगे। उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादकों को भले ही चुनावों को ध्यान में रख भुगतान मिल रहा हो, छत्तीसगढ़ में किसानों को अपनी फसल का मूल्य पाने के लिए चक्कर पर चक्कर काटना पड़ रहे हैं। कहने को एक बार में भुगतान की सीमा पचास हजार है, लेकिन मिल रहा है दो हजार। स्थिति कब सुधरेगी कोई बताने की स्थिति में नहीं है।
इस बीच आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई की सरगर्मियों में एकाएक तेजी आई है। एक से एक विचित्र किन्तु सत्य किस्से सुनने मिल रहे हैं। गुजरात में एक व्यक्ति आईडीएस में एक लाख करोड़ से ज्यादा की अघोषित आय का खुलासा करता है और फिर उस पर टैक्स नहीं पटा पाता, तो अन्यत्र भजिए की दुकान से शुरू कर सूद का धंधा करने वाले व्यक्ति पर छापे में दो हजार करोड़ रुपए की छुपी आय खोजने का दावा होता है। राजनेताओं के पास से कहीं नए तो कहीं पुराने नोट पकड़े जा रहे हैं। तिरुपति मंदिर के ट्रस्टी के पास से कोई सौ करोड़ की रकम मिलती है, तमिलनाडु में प्रदेश का चीफ सेके्रटरी गिरफ्तार हो जाता है, केरल में सहकारी बैंकों पर छापे पड़ते हैं, लेकिन इन सब छापों से जो रकम मिली है, उसका आंकड़ा मात्र चार हजार करोड़ पर पहुंचा है और यह तय होना बाकी है कि इसमें वैध धन कितना है और अवैध कितना। यह सवाल भी उठता है कि ये सारी कार्रवाईयां तो इन विभागों के नियमित काम का हिस्सा है, इसे विमुद्रीकरण से कहां तक जोड़ा जाए?
ऐसी खबरें भी लगातार मिल रही हैं कि बैंक अधिकारियों ने बहुत लोगों के पुराने नोट बदलकर उन्हें नए नोट दे दिए। जहां इतने सारे बैंक और बैंक कर्मचारी हैं वहां सौ-पचास लोगों ने गलत ढंग से काम किया हो तो उसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस बारे में यह बिन्दु भी उभरता है कि क्या बैंक अधिकारी अपने बड़े खातेदारों अथवा रसूखदार लोगों को पुराने के बदले नए नोट देने से मना कर सकते थे। यह एक नैतिक प्रश्न है, लेकिन इसका व्यवहारिक पक्ष भी है। यह तो सरकार को पहले से सोचना चाहिए था कि अगर बैकों में पर्याप्त संख्या में नए नोट नहीं पहुंचाए गए तथा नोट बदली के लिए पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया तो इससे हाहाकार तो मचेगा ही, गलत तरीके से अपना काम करवा लेने की प्रेरणा भी कुछ लोगों के मन में जागृत हो सकती है।
जैसा कि प्रारंभ में बताया गया था, चौदह लाख करोड़ से कुछ अधिक के पुराने नोट प्रचलन में थे वह रकम लगभग पूरी की पूरी बैंकों में वापिस आ गई है। यह अभियान कुछ समझदारी के साथ चलाया जाता तो बहुत सी अवांछित स्थितियों से बचा जा सकता था।
पहले दिन प्रधानमंत्री ने विमुद्रीकरण के तीन मुख्य लक्ष्य बताए थे। वे नेपथ्य में चले गए। अब सारी बात कैशलैस और लैसकैश पर आकर टिक गई है। सरकार द्वारा मुद्राहीन भुगतान को बढ़ावा देने के लिए जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है, प्रलोभन दिए जा रहे हैं, यहां तक कि लाटरी भी शुरू कर दी गई है। यहां तीन बातें गौरतलब हैं-
- जर्मनी में अस्सी प्रतिशत और अमेरिका में पैंतालीस प्रतिशत नकदी लेनदेन आज हो रहा है।
- भारत में इलेक्ट्रॉनिक लेनेदेन के लिए जितनी सुदृढ़ अधोसंरचना चाहिए वह नहीं है। हमारे पास न तो पर्याप्त संख्या में पीओएस मशीनें हैं, न सबके पास स्मार्टफोन हैं और न 3जी-4जी में आवश्यक गति है।
- भारतीय जनमानस से एकाएक नकदी छोडक़र डिजिटल प्लेटफार्म पर आने की उम्मीद करना भी गलत है। आदमी है मशीन नहीं, बदलने में समय लगता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर देश की जनता का एक हिस्सा आंख मूंदकर विश्वास करता है। उसे लगता है कि मोदी जी जो कहते हैं, करके दिखाते हैं। वह उन्हें उचित समय भी देना चाहते हैं। विमुद्रीकरण के संदर्भ में इस वर्ग को विश्वास है कि नरेन्द्र मोदी के राज में कालाधन समाप्त होगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाएगा। इसलिए बैंकों के बाहर लगी कतारों में घंटों प्रतीक्षा करने के बाद जो सौ से अधिक लोग मर गए, उससे भी इस वर्ग की धारणा में कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन देश और दुनिया के तमाम अर्थनीति विशेषज्ञ इस कदम की आलोचना कर रहे हैं। इससे वैश्विक पूंजीजगत में भारत की साख को धक्का लगा है।
आम जनता को जो दिक्कतें हो रही हैं वह आज तो बर्दाश्त कर रही है, किन्तु यदि समय रहते स्थितियों में सुधार नहीं आया तो जनता का आक्रोश क्या रूप लेगा, इसकी कल्पना मैं अभी नहीं कर पा रहा हूं।
देशबंधु में 29 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित