Thursday 8 December 2016

काली कमाई के कुछ ठिकाने



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का जो अभूतपूर्व कदम उठाया है, उसका तात्कालिक परिणाम तो विगत एक माह में बैंकों और एटीएम के सामने लगी अंतहीन कतारों के रूप में सामने आया है। मोदी जी ने जो पचास दिन का समय मांगा था, उसमें अब मात्र बीस दिन बचे हैं। इसके बाद ही पता चलेगा कि इस नई व्यवस्था का दूरगामी प्रभाव किस प्रकार पड़ता है। आम जनता ने इस बीच जो तकलीफ झेली है, वह उसने यह सोच कर बर्दाश्त की कि बड़े लोगों ने जो कालाधन संचित कर रखा है, वह बाहर आएगा एवं भविष्य में उस पर पूरी तरह से अंकुश लग जाएगा। आम जन का यह विश्वास कितना फलित होता है यह तो समय ही बताएगा।  हम यहां उन कुछ वास्तविक स्थितियों का जायजा लेना चाहते हैं जो कालेधन के प्रचलन का मुख्य कारण रही हैं।

यह निर्विवाद सत्य है कि राजनीति में, चुनावी राजनीति में विशेषकर भारी संख्या में धनराशि व्यय होती है। कांग्रेस के एक प्रखर नेता महावीर त्यागी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि पंडित नेहरू के समय में भी पार्टी को ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से चुनाव फंड जुटाना पड़ता था। इसकी जानकारी नेहरू जी को नहीं दी जाती थी, क्योंकि वे गलत तरीके से चंदा लेने के खिलाफ थे। हो सकता है कि नेहरू जी इसकी अनदेखी कर देते हों! इसी तरह भारतीय राजनीति के एक विद्वान अध्येता पॉल आर ब्रास ने चौधरी चरण सिंह की राजनैतिक जीवनी लिखी है, उसमें भी उन्होंने आज़ादी के उस शुरूआती दौर में ही नेताओं द्वारा कैसे पैसा लिया जाता है, इसके उदाहरण सहित विवरण दिए हैं। ‘‘सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ नेहरू’’ में पं. नेहरू द्वारा सीपी एवं बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल को लिखे वे पत्र संकलित हैं, जिनमें उन्होंने मुख्यमंत्री को छत्तीसगढ़ अंचल के एक मंत्री द्वारा गलत तरीकों से की जा रही कमाई पर कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे।

तब और अब में एक बड़ा फर्क है। उस समय एक तो बहुत अधिक धन की आवश्यकता पड़ती नहीं थी और दूसरे ऐसे राजनेता बिरले थे जो ऐसे गलत कामों में लिप्त होते थे। आज स्थिति एकदम विपरीत है। पहिले टाटा-बिड़ला-डालमिया इत्यादि राजनैतिक दलों को चंदा तो देते थे, लेकिन स्वयं राजनीति में आने की इच्छा नहीं रखते थे। अब भावना है कि जब हमारे दिए पैसे से कोई चुनाव जीत सकता है तो हम ही क्यों न नेता बन जाएं। उदाहरण अनेक हैं और सबके सामने हैं। प्रश्न उठता है कि क्या विमुद्रीकरण से इस बुराई को समाप्त किया जा सकेगा? क्या राज्य विधानसभाओं के आसन्न चुनाव बिना पैसे के और निर्धारित व्यय सीमा के भीतर लड़े जाएंगे? जिस मतदाता के मन में आपने लालच भर दिया है, जो मतदान की रात लक्ष्मी के इंतजार में अपने दरवाजे उढक़ाए रखता है, क्या उसका मन एकाएक बदल जाएगा? मतदाता सूची के पन्ने तैयार करना, पर्चियां लिखना-बांटना, मतदान केन्द्र पर कार्यकर्ता तैनात करना, चुनावी सभाएं, पोस्टर-पैंफलेट-बैनर, मंच-माइक, ये तमाम व्यवस्थाएं वैधानिक व्यय सीमा के भीतर पूरी हो पाएंगी? मोदी जी ने विपक्षियों की खिल्ली तो खूब उड़ाई कि उनके स्रोत बंद हो गए, लेकिन क्या भाजपा आगामी चुनावों में पैसा सचमुच खर्च नहीं करेगी?

चलिए, चुनाव तो सामान्यत: पांच साल में एक बार होते हैं किन्तु राजनैतिक दलों को तो हर समय अनेक चुनावों की तैयारी में लगे रहना पड़ता है। पार्टी दफ्तर के दैनंदिन काम-काज से लेकर और न जाने कितने प्रयोजनों में धन की आवश्यकता होती है। किसी दौर में सदस्यों और आम जनता से मिले चंदे से पार्टी भवन बन जाता था। आज इसके लिए ठेकेदारों व व्यापारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। रायपुर और महासमुंद के कांग्रेस भवन के पुराने उदाहरण मेरे सामने हैं। रायपुर की किरोड़ीमल धर्मशाला से ही कभी जनसंघ का दफ्तर चला करता था। भोपाल में दक्षिण टीटी नगर के एक सामान्य से टीन की छत वाले क्वार्टर में प्रदेश कांग्रेस कमेटी का कार्यालय था। क्या उन दिनों की आज कल्पना भी की जा सकती है? क्या यही वजह नहीं है कि राजनैतिक दल आज अपनी आय के स्रोतों का खुलासा नहीं करना चाहते? क्या इसीलिए उन्हें सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने पर सब एकमत नहीं है? (यह बात दीगर है कि इस कानून को ही मोदी सरकार ने लगभग निष्प्रभावी बना दिया है)। आप लाख पारदर्शिता की बात करें। राजनैतिक दलों के फंड का हिसाब-किताब फिलहाल तो सार्वजनिक होने से रहा। विमुद्रीकरण के कुछ दिन पहले भाजपा द्वारा नकद रकम से जमीनें खरीदना शायद इसका एक प्रमाण है।

राजनीति की बात छोड़ प्रशासनतंत्र पर एक नज़र डाली जाए। जो सरकारी काम-काज प्रतिदिन होता है, उसकी क्या स्थिति है? क्या यह सोचना गलत है कि भ्रष्टाचार का, कालेधन के उत्पादन का मुख्य स्रोत तो सरकारी दफ्तर ही है। यह सच है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती, लेकिन ताली बजाने के लिए हाथ पहिले कौन बढ़ाता है? अगर रिश्वत देने वाले ने पहल की है तो लेने वाले अपना हाथ खींच क्यों नहीं लेते? अंग्रेजों के समय में भी बड़े लाट, छोटे लाट, कलेक्टर, एसपी, सबके बंगलों पर दीवाली-ईद डालियाँ पहुंचती थीं। वे आज भी बदस्तूर जारी हैं। यह हमारी व्यवस्था है जिसमें एक ईमानदार व्यक्ति भी बेईमान की संपत्ति की रक्षा करने तैयार हो जाता है। प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ याद कीजिए। देश को स्वाधीनता मिलने के बाद जो नवनिर्माण का महत्तर काम प्रारंभ हुआ, जब नए-नए कल-कारखाने, बांध-पुल और सडक़ें बनाना प्रारंभ हुआ, अनेकानेक विकास योजनाएं प्रारंभ हुई, उसके चलते देश की नौकरशाही, लालफीताशाही और अधिक शक्तिशाली हुई। जिन लोगों ने स्वाधीनता के लिए अपना जीवन होम कर दिया, जिन्होंने नए भारत का सपना दिखाया, वे तो समय के साथ इतिहास के पन्नों में खो गए। उनके बाद राजनेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों की नई पीढ़ी आई, उसके सामने पैसा कमाने के सिवाय और कोई वृहत्तर लक्ष्य नहीं था। नरेन्द्र मोदी क्या इस दारुण सच्चाई से अवगत नहीं हैं? वे तो संघ के कार्यकर्ता रह चुके हैं। फिर उन्होंने काले धन की इस खदान को बंद करने के बारे में क्यों विचार नहीं किया?

कालाधन सिर्फ नेताओं व अफसरों तथा जो घोषित तौर पर व्यापारी या उद्यमी है, सिर्फ उनके पास ही नहीं है। कारोबारी समाज तो अपने पक्ष में यह तर्क भी देता है कि उसके पास जो भी रकम है वह व्यापार में लगी हुई है। इस तर्क में एक हद तक सच्चाई है और इसका एक अन्य आयाम भी है। बहुत से अफसर अपनी अघोषित आय का एक बड़ा हिस्सा विश्वासपात्र व्यापारियों के पास निवेश कर देते हैं। उनका यह रिश्ता लंबे समय तक कायम रहता है।  इस तरह जो धनराशि व्यापार में लगी हुई हो, वह अघोषित तो है, लेकिन निष्क्रिय कालाधन नहीं है। लेकिन मैं बात उस वर्ग की करना चाहता था जो खुद को कारोबारी की श्रेणी से बाहर रखकर भी व्यापार ही करता है। इस वर्ग में तीन प्रमुख शाखाएं हैं- धार्मिक प्रतिष्ठान, शिक्षण संस्थान और चिकित्सा प्रतिष्ठान। अगर किसी कथित दैवी पुरुष के देवलोक प्रयाण के उपरान्त उसके शयन कक्ष से सैकड़ों करोड़ की नकद राशि प्राप्त हो तो इसका स्पष्टीकरण क्या होगा? मेरा अनुमान है कि ऐसे अनेक प्रतिष्ठान प्रशासनिक अधिकारियों व उद्यमियों के बीच लेन-देन का सुगम एवं सुरक्षित माध्यम होते हैं। दैवी पुरुष मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं। लेने वाले और देने वाले दोनों इनके आश्रय में जाकर विनिमय कर लेते हैं। अब मान लीजिए कि देने वाले ने आज जाकर राशि जमा कर दी और लेने वाला कल आएगा, इस बीच सिद्धात्मा को परमात्मा ने अपने पास बुला लिया तो राशि तो वहीं जमकर रह गई!

समाज में इन गुरुओं के बाद जिन्हें सबसे अधिक सम्मान से देखा जाता है वे हैं शिक्षक और डॉक्टर। शिक्षा व चिकित्सा जगत का विगत तीस वर्षों में जिस गति के साथ व्यवसायीकरण हुआ है, वह एक अद्भुत घटना है। सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल दिनों दिन दुर्दशा को प्राप्त हो रहे हैं। उनकी इमारतें भी किसी दिन निजी हाथों में सौंप दी जाएंगी।  इन निजी संस्थानों के संचालक यदि व्यापारी नहीं तो क्या है? इनका उद्देश्य आम जनता की सेवा करना है या मुनाफा कमाना है? (वैसे तो हर दुकानदार भी एक रूप में जनता की सेवा ही करता है।) स्कूल-अस्पताल संचालित करने वाले इन उद्यमियों की जो आमदनी है, क्या वह पूरी तरह से एक नंबर की है? डॉक्टर बनने के लिए एक करोड़ या अधिक इंजीनियर बनने के लिए लाखों और वकालत की पढ़ाई के लिए कई लाख कैपिटेशन फीस देना पड़ती है और बड़े-बड़े अस्पतालों में नामी डॉक्टरों के दलाल मरीजों से जाकर सौदेबाजी करते हैं।

मैंने सिर्फ कुछ दृष्टांत ही दिए हैं किन्तु सूची बहुत लंबी है। इन वास्तविक स्थितियों का संज्ञान लिए बिना क्या देश से भ्रष्टाचार व कालेधन का उन्मूलन हो सकता है, यह यक्ष प्रश्न है।

देशबंधु में 08 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित 
 

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