Friday 9 December 2016

युद्ध विरोधी कवितायेँ




मुझे यह कहने के लिए माफ कीजिए कि युद्ध के बारे में भारतवासियों का ज्ञान व अनुभव बहुत अल्प, सीमित और अधूरा है। बावजूद इसके कि राम-रावण युद्ध तथा महाभारत हमारी जातीय स्मृति के अभिन्न अंश हैं; और बकौल आकार पटेल (पत्रकार एवं टीकाकार) गत दो हजार वर्ष से अधिक समय से भारतीय लोग भाड़े के सैनिक के रूप में दुनिया में अपनी सेवाएं देते आए हैं। अत्यन्त प्राचीन समय में रोमन सेना में भारतीय सैनिक थे, कर्बला के मैदान में पंजाब के हुसैनी ब्राह्मण हजरत अली की ओर से लडऩे गए थे, प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध में गुलाम भारत के सैनिक अंग्रेजी फौज में अपनी सेवाएं देने के लिए मजबूर थे। 1947 में आजादी हासिल होने के बाद से अब तक हमें चार लड़ाइयां लडऩी पड़ीं, लेकिन उसकी बड़ी कीमत खासकर सीमांत प्रदेशों के सैनिक परिवारों को ही चुकाना पड़ी। दूसरी ओर भारत ने कोरिया, कांगो और दक्षिण सूडान तक संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में अहम् भूमिका निभाई और विश्व संस्था से प्रशंसा हासिल की।

इन सबके बावजूद मोटे तौर पर हम युद्ध को बहुत संकीर्ण अर्थों में लेते हैं। हमारी  सामूहिक सोच में युद्ध का अर्थ प्रमुखत: पाकिस्तान से लडऩे या फिर चीन को मजा चखाने के संवादों तक सीमित रहता है। इधर टीवी पर युद्ध के आधे-अधूरे दृश्य देखने के साथ-साथ जीवन-मरण के इस प्रश्न पर मानो हमारी संवेदनशीलता ही लगातार शेष होते जा रही है। पुराकथाओं, मिथकों व प्रायोजित इतिहास के अध्यायों को पढक़र हम युद्ध की अनिवार्यता या निरर्थकता के बारे में चाहे जो राय बनाएं, अपने मानस के अनुरूप परिभाषाएं गढ़ें, वीर रस से आगे बढक़र ओज रस का आविष्कार करें, शौर्यभूमि की कल्पना करें, यह सच्चाई अपनी जगह कायम है कि वर्तमान समय में युद्ध की जो विकरालता है, उसके दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं, मनुष्यता किस तरह नष्ट होती है, प्रगति और समृद्धि की बजाय विपन्नता कैसे घर कर लेती है, इनके बारे में अपने देश में विवेक-सम्मत तरीके से बहुत कम सोचा जाता है। 

आज आवश्यकता है कि एक पल ठहर चारों तरफ नजर दौड़ाकर देखा जाए कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की दुनिया की कभी न कभी, कहीं न कहीं चल रही लड़ाइयों के कितने दुष्परिणाम भुगतना पड़े हैं। ये युद्ध साम्राज्यवादी, नवसाम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, नवउपनिवेशवादी, पूंजीवादी और नवपूंजीवादी ताकतों के द्वारा प्रायोजित किए गए, जिन्होंने अपने स्वार्थ के आगे, दुनिया पर एकछत्र हुकूमत करने के स्वप्न के आगे और कुछ नहीं सोचा। पिछले सौ-सवा सौ सालों में एक तरफ जहां वैश्विक समाज की रचना की कल्पनाएं की गईं, वहीं दूसरी ओर अधिनायकवाद, तानाशाहियां, सैन्य शासन, कठपुतली सरकारें, बनाना रिपब्लिक, गृहयुद्ध, देशों की कृत्रिम सीमाएं, देशों के विभाजन, सैन्य-औद्योगिक गठबंधन, कॉरपोरेट वर्चस्व और एटमबम द्वारा नरसंहार की तस्वीरें भी सामने आईं। इन तस्वीरों को समर्थ रचनाकारों ने अपनी कलम से बांधा है। चित्रकारों ने इन्हें कैनवास पर जीवंत किया है, पाब्लो पिकासो का बनाया चित्र ‘गुएर्निका’ याद कीजिए। संगीतज्ञों ने विश्वशांति के लिए बंदिशें तैयार की हैं, जैसे यहूदी मेन्युहिन व रविशंकर की वायलिन व सितार पर जुगलबंदी।

इस साल साहित्य का नोबल पुरस्कार बॉब डिलन को दिया गया है। वे युद्ध के खिलाफ व विश्वशांति के पक्ष में हजारों की सभा में गीत गाते रहे। उनके प्रेरणास्रोत पीट सीगर भी युद्ध के खिलाफ गीत लिखते और गाते रहे। फिर ‘हम होंगे कामयाब’ के अमर रचयिता पॉल रॉब्सन को भला कैसे भूला जा सकता है। यह उस अमेरिका की बात है, जो हमारे समय में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर और युद्ध का सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा है। इसके बावजूद लैटिन अमेरिका, जापान, इंग्लैंड, ईरान, ईराक, पाकिस्तान, इजिप्त, जर्मनी, फ्रांस, रूस- कौन सा देश नहीं है जिसके लेखकों, कवियों व बुद्धिजीवियों ने युद्ध के खिलाफ आवाज बुलंद न की हो? कौन सी भाषा है, जिसमें युद्ध विरुद्ध साहित्य न रचा गया हो, फिल्में न बनाई गई हों? हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में फैज अहमद फैज ने मिलिटरी हुकूमत के खिलाफ बोलने-लिखने के कारण बरसों जेल की कोठरी में बिताए। और वे ऐसे अकेले विवेकधर्मा लेखक नहीं थे।

युवा लेखक क्रिस्टोफर कॉडवेल ने स्पेन के गृहयुद्ध में तानाशाह फ्रांको के खिलाफ जनतांत्रिक शक्तियों की तरफ से लड़ते हुए प्राणों की आहुति दी। अर्नेस्ट हैमिंग्वे भी इस मोर्चे पर लडऩे गए। नाजिम हिकमत, स्टीफेन बिको, गार्सिया लोर्का, वाल्टर बैंजामिन, पाब्लो नेरूदा आदि के बारे में प्रबुद्ध पाठक जानते ही हैं। मैं पिछले 15-16 साल से युद्धविरोधी कविताओं के भावानुवाद करते आया हूं।  बेशक, अनुवाद अंग्रेजी से किए हैं लेकिन कविताएं विभिन्न भाषाओं की हैं- जर्मन, फ्रैंच, स्पेनिश, अरबी, फारसी, रूसी, जापानी इत्यादि। जिनके अनुवाद किए हैं, उनमें से कुछ तो बेहद जाने-पहचाने नाम हैं यथा बर्तोल्त ब्रेख्त, विस्लावा सिम्बोर्सका, जॉर्ज लुई बोर्खेज , दुन्या मिखाइल, मिमी खलवाती, फरीदा मुस्तफावी, जो ब्रूचाक, लैंगस्टन ह्यूज आदि। लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि युद्ध विरोधी रचनाएं करने वाले अनेक कवि पारंपरिक अवधारणा में कवि नहीं हैं। इनमें स्कूल के छात्र हैं, मोर्चे पर गए सिपाही की बहन है, गुआंटानामो में कैद कथित आतंकी हैं, और हैं अनेक सामान्य जन जिन्हें युद्ध से मिली मर्मांतक पीड़ा और भयावह दु:स्वप्नों ने कवि बना दिया है।

यह कहना अनावश्यक होगा कि भारत और भारतीय भाषाओं में भी ऐसे दृष्टा कवि कम नहीं हैं जो शांति के पक्ष में और युद्ध के विरुद्ध मुखर हैं। किंतु यह देखना और दिलचस्प है कि विशेषकर हिंदी में पिछली पीढिय़ों के कवियों ने अपने समय में युद्ध की अनिवार्य निस्सारता को समझ लिया था और उसे अपनी रचनाओं से जन-जन तक पहुंचाने का काम किया था। वे इस तरह एक सजग-समर्थ रचनाकार के रूप में लोक शिक्षण का काम कर रहे थे। इनमें वे कवि भी हैं, जो साहित्य के वर्तमान विमर्श में गीतकार कहकर खारिज कर दिए गए हैं। लेकिन क्या आज सचमुच मैं सोच रहा हूं/ अगर तीसरा युद्ध छिड़ा तो क्या होगा  जैसी रचनाएं लिखने वाले नीरज आदि कवियों को पूरी तरह से नकार सकते हैं?
 
यहां एक अन्य तथ्य पर हमारा ध्यान जाए बिना नहीं रहता। विश्व की अन्य भाषाओं में जो युद्धविरोधी कविताएं लिखी गई हैं, वे प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित हैं। उनमें बीसवीं व इक्कीसवीं सदी के दौरान हुए और चल रहे युद्धों के प्रामाणिक दृश्य हैं। वे आपको अपने समय में घट रही त्रासदियों के सामने लाकर खड़ा कर देती हैं। लो, साहस है तो इन सच्चाइयों का सामना करो। इनकी एक-एक पंक्ति जैसे लहू में डूबकर लिखी गई है। एक-एक शब्द जैसे आँसुओं से भीगा है। इनके बरक्स हिंदी कविता एक गहरे दार्शनिक स्तर पर युद्ध की विवेचना करती हैं। उनकी आधारभूमि पौराणिक गाथाएं, मिथक और इतिहास में है। इस तरह समर्थ कवि मानो काल की सीमा का अतिक्रमण करते हैं। जो दो या तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ, आज भी वही हो रहा है। युद्ध छेडऩे के कारण भी वही हैं- अहंकार, महत्वाकांक्षा, सत्ता की अभिलाषा, संपत्ति का लालच, स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने की रुग्ण मानसिकता आदि। मुक्तिबोध, शमशेर जैसे कुछ अपवाद हैं जिन्होंने अपने समय में, दूर से ही सही, देखे गए युद्धों की सटीक विवेचना की है।

आज देश-दुनिया का जो परिदृश्य है, उससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं, आज की प्रथा के अनुकूल सोशल मीडिया पर हम टिप्पणियां भी करते हैं, किंतु मैं सोचता हूं कि क्या अपने पूर्वज कवियों की परंपरा को आगे बढ़ाने में हमारे प्रयत्नों की क्या कोई सीमा है?
 
अक्षर पर्व दिसम्बर 2016 अंक की प्रस्तावना 

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