Wednesday, 14 December 2016

हाथी, टमाटर और आदिवासी



 एक सप्ताह पूर्व 8 दिसम्बर को रायपुर-बिलासपुर के अखबारों में दो समाचार छपे। एक पर पाठकों का कुछ ध्यान गया, दूसरे पर लगभग नहीं। दोनों खबरें उत्तरी छत्तीसगढ़ के आदिवासी  अंचल की थीं। क्रमश: सरगुजा और जशपुर जिले की। एक खबर जिस पर पाठकों का ध्यान थोड़ा-बहुत गया तथा सोशल मीडिया में टिप्पणियां भी आईं उसे मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के फैसले से जोडक़र देखा गया और इसी वजह से उस पर चर्चा हो सकी। इन दोनों खबरों में वैसे तो ऊपरी तौर पर कोई संबंध दिखाई नहीं देता किन्तु ध्यान से देखा जाए तो दोनों का मूल एक ही है। पहली खबर सरगुजा जिले के मुख्यालय अंबिकापुर की थी। वहां 7 दिसम्बर को ग्यारह हाथियों का एक झुंड नगर के भीतर आ गया, उसके कारण चारों तरफ हाहाकार मच गया, लोगों को जान-माल की चिंता सताने लगी, देखते ही देखते शहर का हर दरवाजा बंद हो गया और शटर गिरा दिए गए। दूसरी खबर जशपुर जिले के पत्थलगांव की है जहां आदिवासियों ने टमाटर की उपज का उचित मूल्य न मिलने पर कई टन टमाटर सडक़ पर फेंक कर नष्ट कर दिए।

यह सच है कि विमुद्रीकरण के बाद बाजार में बहुत सी जिंसों के भाव गिर गए हैं क्योंकि खरीदारों के पास पर्याप्त नकदी नहीं है और कैशलेस आर्थिक व्यवस्था जादूगर के छड़ी घुमाने मात्र से सच नहीं हो सकती। पत्थलगांव में किसानों के टमाटर न बिकने का यह एक कारण हो सकता है। लेकिन इस संदर्भ में मैं बहुत पीछे जाना चाहता हूँ। 1980 तक। किसी स्थानीय अखबार में एक पाठक का चार-छह लाइन का पत्र छपा था कि लुड़ेग में आदिवासियों का उपजाया टमाटर मिट्टी के मोल बिक रहा है। यह पत्र पढऩे के बाद मैंने अपने ऊर्जावान सहयोगी गिरिजाशंकर को लुड़ेग के लिए रवाना किया कि वे वहां जाकर वस्तुस्थिति का पता लगाएं। रायपुर से रायगढ़ ट्रेन से, वहां से बस या ट्रक से पत्थलगांव, फिर लुड़ेग। जो स्थिति वहां देखी वह सचमुच आश्चर्य में डालने वाली थी। गिरिजा ने लौटकर जो रिपोर्ट बनाई वह प्रथम पृष्ठ पर इस शीर्षक के साथ प्रकाशित हुई- दो रुपए में पचास किलो टमाटर। उन दिनों जब हम लोग एक या दो रुपए किलो टमाटर खरीदते थे तब वहां की वास्तविकता यह थी।

इसका व्यवहारिक गणित एकदम सीधा था। आदिवासी मंडी तक अपनी उपज लेकर तो आ गया है; टमाटर बिकेंगे नहीं तो उन्हें वह वापिस ले जाने से तो रहा। उसकी मजबूरी का फायदा उठाकर दूर-दूर से आए व्यापारी इतने सस्ते भाव पर याने कि लगभग मुफ्त में टमाटर खरीद लेते थे। किसान को जो मिल गया वह उसकी किस्मत। ‘देशबन्धु’ में जिस दिन यह रिपोर्ट छपी संयोग से उसी दिन या अगले दिन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायगढ़ दौरे पर आए, उनके सामने अखबार रखा गया; उन्होंने घोषणा करने में देर नहीं की कि रायगढ़ में टमाटर शोधन संयंत्र लगाया जाएगा ताकि आदिवासियों को उचित मूल्य मिल सके और देशी टमाटर की सॉस आदि जनता को सुलभ हो सके। जिले के ही एक विधायक लक्ष्मी पटेल को उन्होंने कृषि विकास निगम का अध्यक्ष बना यह संयंत्र स्थापित करने का दायित्व भी सौंप दिया। कुछ दिनों तक फाइलें दौड़ती रहीं। आज छत्तीस साल हो गए। टमाटर शोधन संयंत्र नहीं लगना था सो नहीं लगा।

आज आदिवासी पच्चीस पैसा किलो में अपनी फसल बेचने को मजबूर है। वह गांव से जितना वजन उठाकर लाया है उसे वापिस ले जाने की तकलीफ और क्यों उठाए? इन चार दशकों के दरमियान उसके मन में इतना गुस्सा जरूर पैदा हो गया है कि वह व्यापारियों की नाजायज शर्त मानने के बजाय अपनी फसल को ही नष्ट कर दे। यह गुस्सा आगे क्या रूप ले सकता है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

अब दूसरी खबर। अंबिकापुर में हाथी पहली बार शहर में नहीं आए। आज से दसेक वर्ष पूर्व गजराज न सिर्फ शहर में घुसे थे बल्कि सीधे सर्किट हाउस तक पहुंच गए थे। सर्किट हाउस यदि राजनेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारियों का विश्रामस्थल है तो हाथी उनसे किसी तरह कम तो नहीं है। वह भी अपने जंगल का राजा है जब तक कि शेर से मुठभेड़ की नौबत न आ जाए। इस बीच लगातार खबरें छप रही हैं कि जशपुर, सरगुजा तथा कोरबा जिले में हाथियों के झुंड या अकेले हाथी कभी एक गांव में, तो कभी दूसरे गांव में आकर उत्पात मचाते हैं। वे खड़ी फसल को नष्ट कर देते हैं, आदिवासी किसानों की, ग्रामीणों की झोपडिय़ां उजाड़ देते हैं और ऐसे भी बहुत से प्रसंग सामने आए हैं जिसमें हाथियों ने गुस्से में आकर ग्रामीणों को मार भी डाला है। यह एक बेहद चिंताजनक स्थिति है। हाथियों के द्वारा की गई जन-धन की हानि पर सरकार द्वारा मुआवजा दिए जाने के कुछ नियम लागू हैं, किन्तु मात्र इतने से बात नहीं बनती।  मुख्य सवाल तो यह है कि छत्तीसगढ़ में हाथी और मनुष्य के बीच यह द्वंद्व किन परिस्थितियों के चलते उत्पन्न हुआ और उसके निराकरण के लिए क्या प्रयत्न किए गए? मुआवजा देना एक फौरी उपाय है, स्थायी समाधान नहीं।

देश में राष्ट्रीय वन्य प्राणी संरक्षण प्राधिकरण या मंडल है। हर प्रदेश में उसी तर्ज पर राज्य वन प्राणी संरक्षण मंडल भी गठित किए गए हैं। दस साल पूर्व तक इसकी अध्यक्षता राज्य के वनमंत्री किया करते थे। इसके सदस्यों में वन्य जीवन के विशेषज्ञों को शामिल करने का प्रावधान था और है। केन्द्र सरकार ने पर्यावरण और वन्य जीवन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए नियमों में यह परिवर्तन कर दिया कि वन मंत्री के बजाय स्वयं मुख्यमंत्री इस समिति के अध्यक्ष होंगे। जब राज्य का मुखिया प्रभार में हो तब तो समिति का काम ईमानदारी और तेजी के साथ होना चाहिए, किन्तु हकीकत कुछ और ही है। वन्य जीव संरक्षण मंडल की बैठकें तो बदस्तूर होती हैं, लेकिन उसमें होता वही है जो वन विभाग के अधिकारी चाहते हैं। वे केन्द्र सरकार से मिले निर्देशों की भी कोई खास परवाह नहीं करते। हां, केन्द्र से किसी मद में कितनी राशि मिल रही है इस पर अवश्य उनकी निगाहें टिकी रहती हैं। जिन विशेषज्ञ सदस्यों को वे अपने अनुकूल नहीं समझते वे बैठक में न आ सकें इसके प्रयत्न भी करते हैं। मुख्यमंत्री अध्यक्ष भले ही होते हों, परन्तु उनके ऊपर वैसे ही बहुत सारे कामों का बोझ होता है।

कुल मिलाकर एक गंभीर समस्या का जो कार्य-कारण विश्लेषण है वह सही रूप में नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ में हाथियों का आना क्यों शुरू हुआ? यह सवाल सबसे पहले उठना चाहिए। झारखंड तथा उड़ीसा के सीमावर्ती जंगलों में हाथियों की रिहाइश लंबे समय से रही है। वह अब उजड़ती जा रही है। उन जंगलों में कोयला, लौह, अयस्क आदि खनिजों के भंडार हैं जिनका दोहन पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी के साथ बढ़ा है। इसके कारण पहले तो साल और अन्य बेशकीमती वृक्षों की अंधाधुंध कटाई प्रारंभ हुई। हाथी शाकाहारी प्राणी है। जंगलों के कटने से उसके भोजन के स्रोत धीरे-धीरे करके खत्म होने लगे। फिर जंगल इलाके में बुलडोजर, डम्पर, एक्सकेवेटर, ट्रक इत्यादि की आवाजाही के लिए सडक़ बनना शुरू हुई। इससे हाथी भयभीत होकर यहां-वहां भागने लगे। भारी मशीनों के नीचे दबकर इनकी मौतें भी हुईं। इसके बाद खदानें खुदने से बड़े-बड़े दैत्याकार गड्ढे निर्मित होने लगे, ये भी हाथियों की मृत्यु का कारण बने। ऐसे में हाथियों का भागकर छत्तीसगढ़ आना शुरू हुआ। जब तक संख्या कम थी तब तक किसी का ध्यान नहीं गया, अब परेशानी ही परेशानी है। पर्यावरण का विनाश करने की कीमत इस रूप में चुकाना पड़ेगी यह किसी ने नहीं सोचा था। शायद आज भी नहीं सोच रहे हैं। पहले किसी परियोजना के लिए पर्यावरण स्वीकृति के कठोर नियम थे, वे लगातार शिथिल किए जा रहे हैं। आज समस्या यह है कि एक तरफ हनुमान जी का अवतार माने जाने वाले बंदरों के उत्पात से दिल्ली तक की जनता त्रस्त है, तो दूसरी तरफ गणेश जी के अवतार हाथी के साथ संघर्ष का दौर प्रारंभ हो गया है।

दूसरे वन्य प्राणियों के साथ भी वैसी ही स्थितियां निर्मित हो रही हैं। अब तेन्दुए भी शहर की सीमाओं तक आने लगे हैं। औद्योगीकरण, शहरीकरण और मुनाफे का लालच- इन सबने मिलकर वर्तमान परिस्थिति को जन्म दिया है। गौरतलब है कि आदिवासी चिरौंजी, साल बीज, इमली, महुआ, तेन्दूपत्ता, टमाटर, इत्यादि उपभोक्ता वस्तुओं के लिए जंगलों का संरक्षण करते आया है। शेर, चीते और हाथी के साथ भी उसका सहअस्तित्व का संबंध सदैव रहा है, लेकिन उस आदिवासी से सहजीवन का अर्थ समझने की कोशिश करना तो दूर, वह अब हमारी सहानुभूति का पात्र भी नहीं है।  उसे हमने सशस्त्र बलों की दया पर छोड़ दिया है। यह अवमूल्यन वर्तमान समय की भीषण त्रासदी है।

 देशबंधु में 15 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित 

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