साम्राज्यवादी पश्चिम ने अमेरिका के नेतृत्व में पिछले सौ सालों के दौरान अरब देशों के खिलाफ लगातार षडय़ंत्रों की रचना की है। इसके तीन प्रमुख कारण समझ आते हैं। एक- पश्चिम एशिया व उत्तर अफ्रीका, याने मिडिल ईस्ट के तेल भंडारों पर कब्जा करना। दो- यहूदियों के लिए इजरायल देश की स्थापना कर उनके साथ सदियों के जटिल संबंधों को अपने हित में एक नया मोड़ देना। तीन- ईसाईयत और इस्लाम के बीच एक हजार वर्ष पूर्व हुए धर्मयुद्धों की जातीय स्मृति के साथ अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित करना। कहना आवश्यक है कि साम्राज्यवादी और पूंजी-पोषक वर्ग के संदर्भ में यह बात की गई है जिसके प्रमाण पश्चिम के ही उदारवादी लेखकों, चिंतकों व राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लेखों में मिलते हैं। इस इतिहास की एक त्रासद विडंबना इस रूप में देखने मिलती है कि एक ओर जहां उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों से ही यहूदियों के पितृदेश याने इजरायल के निर्माण की भूमिका साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा तैयार की जा रही थी, जिसकी सफल परिणति 1948 में नए देश के उदय के साथ हुई, वहीं दूसरी ओर नाजी-जर्मनी के दुर्दान्त तानाशाह हिटलर के राज में यहूदियों का नरसंहार हुआ।
इसी इतिहास की दूसरी विडंबना है कि आज इजरायल की गणना विश्व के बड़े युद्ध सामग्री निर्यातक के रूप में की जाने लगी है जबकि हजारों सालों के वासी फिलीस्तीनियों को बेघर कर दिया गया है। आज से दो हजार साल पहले यहूदियों को जिन भी कारणों से अपना वतन छोड़ अन्यत्र शरण लेना पड़ी हो, फिलीस्तीनियों ने भला कौन सा अपराध किया था जिसकी सजा उन्हें जलावतन कर दी जा रही है? एक तरफ विश्वग्राम का ढिंढोरा पीटा जाता है तो दूसरी ओर इजरायल में यहूदियों और फिलीस्तीनियों के बीच चीन की दीवार की तर्ज पर कांक्रीट की दीवार खड़ी कर दी गई है। यह एक तस्वीर है। दूसरी तस्वीर में नवसाम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अरब जगत पर थोपे गए युद्ध और गृहयुद्धों के दृश्य हैं। इन दारुण स्थितियों के पीछे क्या सोच काम कर रही है इसका खुलासा सेमुअल हंटिंगटन की बहुचर्चित पुस्तक द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन अर्थात सभ्यताओं के संघर्ष में मिलता है। इसका जिक्र मैं पहले भी अपने लेखों में कर चुका हूं। अगर इस पुस्तक को नवसाम्राज्यवादियों का धर्मग्रंथ भी कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी।
यह 1980 की बात है जब ईरान और इराक के बीच दस-साला खाड़ी युद्ध की शुरूआत हुई। उस समय अमेरिका इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के साथ खड़ा था और ईरान के अयातुल्ला खुमैनी को दुनिया के सामने एक राक्षस के रूप में पेश किया जा रहा था। उस दौर में फ्रांस के किसी ज्योतिषी नास्त्रोदोमस की चार सौ साल पहले की गई कथित भविष्यवाणियों की खूब चर्चा की गई थी। 1990 में यह युद्ध समाप्त हुआ। सद्दाम हुसैन की पीठ पर हाथ रख ईरान को शक्तिहीन करना था, वह काम तो पूरा हो गया था। लेकिन इसके बाद दस-बारह साल ही हुए थे कि सद्दाम हुसैन को खलनायक बना दिया गया। इराक के पास डब्लूएमडी याने नरसंहार के शस्त्रास्त्र होने का दावा खूब उछाला गया, लेकिन जब हकीकत सामने आई तो वह अमेरिकी दावों से बिल्कुल विपरीत थी। अंतत: यह हुआ कि इराक के बड़े हिस्से पर अमेरिकापरस्त सरकार काबिज हो गई तथा देश के तेल भंडारों पर अमेरिका का नियंत्रण हो गया।
इस तरह पश्चिम एशिया के दोनों बड़े देश तबाही का शिकार हो गए। लेकिन नवसाम्राज्यवादी शक्तियों को इतने से संतोष नहीं हुआ। उन्होंने 2010 में नया प्रपंच रचा और 2011 के शुरूआती महीनों में ही ट्यूनीसिया, इजिप्त, लीबिया, यमन आदि देशों में अरब बसंत के नाम से चर्चित आंदोलन खड़ा हो गया। दुनिया को बताया गया कि इन तमाम देशों की जनता अपनी वर्तमान सरकारों से त्रस्त है और वहां जनतांत्रिक बदलाव के लिए मुहिम छिड़ गई है। यह भी कहा गया कि इन देशों की युवा पीढ़ी इन आंदोलन के पीछे है और वह सोशल मीडिया का प्रभावी उपयोग कर बदलाव ला रही है। मैंने उस समय भी लिखा था कि सोशल मीडिया की बात तो सिर्फ झांसा देने के लिए है। असल में तो अमेरिका की शह पर ही यह सब हो रहा है। इस अरब बसंत में ट्यूनीसिया, इजिप्त व यमन की सरकारें पलट गईं और लीबिया में अमेरिका ने सीधे हस्तक्षेप कर कर्नल गद्दाफी को अपदस्थ कर उनको दुनिया से ही विदा कर दिया। लेकिन इसके बाद क्या हुआ?
इजिप्त में नए चुनाव हुए तो वहां मुस्लिम ब्रदरहुड पार्टी को पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिल गया, किन्तु यह बात साम्राज्यवादी ताकतों को रास नहीं आई और वहां एक बार फिर सैन्य क्रांति होकर सैनिक जनरल के हाथों सत्ता आ गई। यमन में एक राष्ट्रपति की जगह दूसरा राष्ट्रपति आ गया, लेकिन आज वह स्वयं अपने देश से निर्वासित है और देश में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है। यहां इस अंतर्विरोध पर गौर कीजिए कि इजिप्त में कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड का राष्ट्रपति अमेरिका को मंजूर नहीं हुआ, लेकिन यमन में अमेरिका का दोस्त और कट्टरपंथी इस्लाम के लिए कुख्यात सऊदी अरब निर्वासित राष्ट्रपति को समर्थन दे रहा है। उसके लिए एक संयुक्त अरब मोर्चा भी बन गया है और अमेरिका को इसमें कोई आपत्ति नहीं है। ट्यूनीसिया अपेक्षाकृत छोटा देश है, वहां सरकार बदलने के बाद भी जनजीवन लगभग पहले की तरह चल रहा है। अरब बसंत की इस परिणति के बाद साम्राज्यवादी शक्तियों की निगाहें सीरिया पर आ टिकती हैं। इस बीच अरब जगत में एक नई उन्मादी शक्ति का उदय होता है, जिसे कभी आईएसआईएल, कभी आईएसआईएस और सामान्यत: आईएस के नाम से जाना जाता है। आईएस याने इस्लामिक स्टेट। इसका मकसद इस्लाम में वापिस खिलाफत याने खलीफा का साम्राज्य कायम करना है। आईएस की नृशंसता के तमाम प्रसंग पिछले दो-तीन साल में लगातार सामने आए हैं। एक सभ्य दुनिया में आईएस जैसी ताकत को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। किन्तु यह जानकर हैरानी होती है कि आईएस को खड़ा करने में अमेरिका और उसके पिछलग्गू देशों ने प्रेरक भूमिका निभाई है। बराक ओबामा के कार्यकाल में आईएस की फंडिंग भी अमेरिका द्वारा की गई है। अमेरिका इसके माध्यम से इस्लाम के दो पंथों सुन्नी और शिया के बीच की दरार को फैलाने और उन्हें एक-दूसरे पर आक्रमण कर खत्म हो जाने की कल्पना पाले हुए है। दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर का फायदे वाली कहावत का यह उम्दा उदाहरण है।
यह सर्वविदित है कि अरब जगत मुख्यत: इस्लाम धर्मावलंबी है। सामान्यत: लोग इस्लाम को एक एकसार धर्म के रूप में देखते हैं। वे नहीं जानते कि इस्लाम के भीतर भी बहुत से फिरके हैं और उनके बीच बहुत से मसलों पर मतभेद ही नहीं, कटुताएं भी हैं। यह बात भी अधिकतर लोग याद नहीं रखते कि शिया बहुल इराक की सत्ता सुन्नी सद्दाम हुसैन के हाथों थी, दूसरी तरफ सुन्नी बहुल सीरिया पर शिया बशर अल असद का राज है। एक समय लगभग समूचे अरब जगत में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष बाथ पार्टी का बोलबाला था, जिसमें अब बशर अल असद के अलावा कोई नहीं बचा है। यह भी स्मरणीय है कि ईरान, इराक, तुर्की और सीरिया के सीमावर्ती इलाके में कुर्द निवास करते हैं जिनकी इस्लाम की अवधारणा बाकी से कुछ अलग है। इन्हें भी पश्चिमी ताकतें लंबे समय से उकसाती रही हैं।
सीरिया के उत्तर में पालमीरा और अलेप्पो जैसे नगर हैं। इन पर पिछले तीन साल से आईएस का कब्जा रहा है। पालमीरा में आईएस ने विश्व की प्राचीन धरोहरों को नष्ट कर दिया जैसे अफगानिस्तान में तालिबान ने। अमेरिका, ब्रिटेन फ्रांस सब मिलकर असद को हटाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। वे इसके लिए आईएस को भरपूर मदद भी पहुंचा रहे हैं। आईएस और सीरिया के तथाकथित विद्रोहियों ने इन तीन सालों में नागरिक आबादी पर जो भीषण अत्याचार किए हैं उसकी कोई गंभीर पड़ताल मीडिया ने नहीं की। लेकिन जब रूस असद की मदद के लिए आगे आया और अलेप्पो को आईएस के कब्जे से मुक्त कर लिया गया तो वहां नागरिक आबादी पर अत्याचार की खबरें जोर-शोर से प्रचारित होने लगीं। उल्लेखनीय है कि रूस ने इसके पहले बार-बार अमेरिका से चर्चा कर संयुक्त अभियान चलाने के प्रस्ताव रखे, संघर्षविराम भी बीच-बीच में हुआ, लेकिन अमेरिका की नियत ही कुछ और है।
कल कथित अरब बसंत, आज अलेप्पो। समझना कठिन नहीं है कि आग में घी डालने का काम किसने किया है। जब साम्राज्यवादी ताकतें देशों की सार्वभौमिक सत्ता का अतिक्रमण करने पर तुली हों, तब वे देश राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर कोई कदम उठाएं तो उसकी एकतरफा आलोचना कैसे की जाए? युद्ध और हिंसा हमें स्वीकार नहीं है किंतु शांति स्थापना के लिए तो सभी पक्षों को मर्यादा व विवेक का परिचय देना होगा।
देशबंधु में 22 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित
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