Sunday, 30 April 2017

रमाकांत श्रीवास्तव : सचमुच बहुमुखी प्रतिभा




 खैरागढ़। 1984। ऋतुसंहार। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ऐसा आयोजन जिसे ‘न भूतो न भविष्यति’ की कोटि में रखा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। हिंदी कविता पर केंद्रित यह अखिल भारतीय कार्यक्रम था। वह भी पूरे चार दिन का। रमाकांत ने प्रस्ताव दिया कि इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय के सहयोग से इसे खैरागढ़ में आयोजित किया जाए। यूं तो वि.वि. की स्थापना 1954 में हो चुकी थी, लेकिन वह कोई बड़ा संस्थान नहीं था। ललित कलाओं की शिक्षा प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय की अपनी सीमाएं थीं। तिस पर छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले का मंझोले आकार का नगर। रियासत कालीन नगर जिसमें वि.वि. की स्थापना इसलिए संभव हो सकी थी कि पूर्ववर्ती राजपरिवार ने दिवंगत राजकुमारी इंदिरा की स्मृति में तत्कालीन सीपी एंड बरार सरकार को राजमहल दान में देने की पेशकश की थी। ऐसे स्थान पर जहां रेलगाड़ी भी न जाती हो, अखिल भारतीय स्तर का आयोजन करने का प्रस्ताव देना दुस्साहसिक ही माना जाएगा। किंतु सम्मेलन के अध्यक्ष बाबूजी (स्व. मायाराम सुरजन) ने डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, हिंदी विभागाध्यक्ष, इंदिरा कला संगीत वि.वि. की संगठन क्षमता पर विश्वास कर यह बड़ी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी और कहना होगा कि रमाकांत कसौटी पर सौ टंच खरे उतरे। एक नितांत अनौपचारिक, कह लें कि पारिवारिक चार दिनी कार्यक्रम तरतीबवार, सुचारू, सुव्यवस्थित ढंग से संपन्न हुआ। रमाकांत को सबकी सराहना मिली।

मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि रमाकांत से पहली मुलाकात कब हुई थी। वे मुझसे दो साल पूर्व एम.ए. कर चिरमिरी के महाविद्यालय में प्राध्यापक पद पर सेवाएं देने जा चुके थे। अगर सही स्मरण है तो 1965-70 तक चिरमिरी के पते से ही उनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं। शायद तब देशबन्धु में भी उनकी कृतियां छपीं हों? यह एक लेखक के साथ दूर का परिचय था। इस बीच कभी रायपुर में हुए साहित्यिक आयोजनों में हम कभी मिले हों या पारस्परिक मित्रों के साथ भेंट हुई हो तो उसकी कोई स्मृति मुझे नहीं है। हम शायद कायदे से पहली बार 1 जनवरी 1973 में भोपाल में संपन्न उत्सव-73 में मिले। बकौल रमाकांत यह भेंट हमारे परस्पर मित्र सुबोध श्रीवास्तव ने करवाई थी। बहरहाल, हमारे परिचय और चार दशकों की पारिवारिक मैत्री की शुरुआत 1974-75 में प्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ हुई। 1974 में रायपुर में आयोजित कबीर प्रसंग में परसाईजी आए थे। वे कुछ सप्ताह हमारे घर ठहरे थे। उनकी प्रेरणा व निर्देश से हम मित्रों ने प्रलेस की रायपुर इकाई का गठन किया और छत्तीसगढ़ में उसके विस्तार में जुट गए। देखते ही देखते अनेक स्थानों पर इकाईयां गठित हो गईं। इस उपक्रम में बिलासपुर में डॉ. राजेश्वर सक्सेना, राजनांदगांव में मलयजी और खैरागढ़ में रमाकांत ने काम आगे बढ़ाने का दायित्व अपने ऊपर लिया।

इस बीच मई 1976 में बाबूजी ने सम्मेलन के विदिशा अधिवेशन में अध्यक्ष पद संभाल लिया था। उसकी गतिविधियों का भी तेजी से विस्तार हुआ। रमाकांत उस तरफ भी सक्रिय दिलचस्पी लेने लगे। इन गतिविधियों के चलते हम लोगों का संपर्क बढऩे लगा। रमाकांत रायपुर आते तो घर पर ही ठहरते। वे भाभी को भी यदा-कदा साथ लाते, सो दोनों परिवारों के बीच आत्मीयता हो गई। प्रलेस की रायपुर इकाई ने युवा रचना शिविरों की एक श्रृंखला आयोजित करने का निर्णय लिया। पहला शिविर 4-5-6 मार्च 1978 को रायपुर के निकट चंपारन में संपन्न हुआ। इसकी आयोजन समिति में तथा आगे के भी अनेक कार्यक्रमों में रायपुर से बाहर के साथियों को जोडऩे के निश्चय स्वरूप रमाकांत, मलयजी, राजेश्वरजी शामिल हुए। सबके अपने-अपने गुण। रमाकांत बहुत अच्छे वक्ता तो हैं ही, कार्यक्रम का संचालन करना भी उन्हें बखूबी आता है। वे न विषय को भटकने देते हैं और न वक्ता को। मेरा मानना है कि यह गुण उन्होंने और मैंने जाने-अनजाने परसाईजी से सीखा है। हम इस बात पर एक-दूसरे की तारीफ भी करते हैं। अपनी पीठ आप ठोंक लेते हैं कि गोष्ठी के संचालन में हमसे अच्छा कोई नहीं।

रमाकांत की जीवन शैली भी वैसी ही सतर्क और सुगठित है। हिंदी के अध्यापकों में बारहां एक दैन्य भाव देखा जाता है, जो उनमेें बिल्कुल नहीं है। अपनी वेशभूषा, चाल-ढाल, बातचीत के तौर-तरीकों में वे हमेशा सावधान रहते हैं। और कमबख्त का चेहरा तो बिल्कुल फोटोजनिक है। भाभी उनके गायन पर मुग्ध होकर प्रेम में पड़ीं, उनके फोटो पर या उन्हें साक्षात सामने देखकर, यह मुझे नहीं पता; लेकिन रमाकांत के व्यक्तित्व में एक सहज आकर्षण है, सामने वाले को प्रभावित करने की चुंबकीय क्षमता। और शायद यह एक बड़ा कारण है कि उन्हें न तो खैरागढ़ नगर आज तक भूल पाया है, न उनका पूर्व विश्वविद्यालय, और बाहर भी वे जल्दी ही अपना प्रभामंडल बना लेते हैं। बस, प्रभाकर चौबे और ललित सुरजन ही दो प्राणी हैं जिन पर उनका रुआब तारी नहीं हो पाता। शायद डॉ. हरिशंकर शुक्ल पर भी जो उनके शोध दिग्दर्शक याने रिसर्च गाइड थे।

रमाकांत चिरमिरी से खैरागढ़ आए, यह अच्छा हुआ। नहीं, वहां उन्हें ससुराल पक्ष से किसी तरह का खतरा नहीं था। बल्कि इसलिए कि साहित्य के अलावा ललित कलाओं में उनकी सच्ची व गहरी दिलचस्पी है। वे संगीत, नृत्य, चित्रकला की बारीकियों को बखूबी समझते हैं। खैरागढ़ पधारने वाली अनेक विभूतियों के साथ उनके संबंध इस गुण के चलते विकसित हुए। रमाकांत ने सुमधुर कंठ स्वर पाया है। किसी आयोजन में हम कुछ साथी एक ही कमरे में ठहरेथे। रमाकांत ने फैज़ की 'ग़ुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौ बहार चले’ गुनगुनाना प्रारंभ किया तो मैं सोते-सोते उठकर बैठ गया। फिर उन्होंने पूरी तल्लीनता के साथ गाया और हमने तन्मय होकर सुना। अब हाल यह कि रमाकांत जब भी मिलते हैं, मैं उनसे फरमाइश कर यही रचना सुनता हूं। यही नहीं, उनमें एक और गुण है कि वे नकल उतारने में उस्ताद हैं। जब वे साभिनय किसी की हूबहू नकल उतारते हैं तो लोग हँस कर लोट-पोट हो जाते हैं। उन्हें बांग्ला भाषा का भी अच्छा ज्ञान है तथा वे कविगुरु के अलावा अन्य कवियों की रचनाएं भी मन आने पर सुना देते हैं। उनकी ललित कलाओं में जो रुचि व समझ है, वह मुझे प्रभावित करती है। इसने उनके लेखन को भी समृद्ध किया है। ‘उस्ताद के सुर’ जैसी मार्मिक कहानी इस गहरी समझ से ही उपजी है।

यदि ‘ऋतुसंहार’ आयोजन रमाकांत के सांगठनिक कौशल व क्षमता का उत्स है तो छत्तीसगढ़ के कथागीतों पर किए गए शोधकार्य को मैं उनकी अकादमिक प्रतिभा का शिखर मानता हूं। प्रदेश के विभिन्न अंचलों व विविध सामाजिक समूहों में प्रचलित लोकगाथाओं पर उन्होंने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक शोध किया है। इस प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने, उससे आमजन को परिचित कराने व भविष्य के लिए संदर्भ उपलब्ध कराने इत्यादि दृष्टियों से यह एक उल्लेखनीय व ऐतिहासिक महत्व का कार्य है। मील का पत्थर कहूं तो गलत नहीं होगा। मुझे इस शोध कार्य के पुस्तक रूप में शीघ्र आने की प्रतीक्षा है, गो कि इसके अनेक अध्याय ‘अक्षर पर्व’  में प्रकाशित हो चुके हैं। एक सर्जनात्मक लेखक के नाते भी रमाकांत का फलक काफी विस्तृत है। मैं सिर्फ उन बिंदुओं का उल्लेख करना चाहूंगा जिन पर अभी विद्वत समाज का ध्यान ठीक से नहीं गया है। रमाकांत श्रीवास्तव को हिंदी के अधिकतर पाठक एक कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। कथा लेखन उनके कृतित्व का बड़ा एवं महत्वपूर्ण अंग है, किंतु संपूर्ण नहीं।

यह शायद बहुतों के ध्यान में न हो कि रमाकांत बाल साहित्य के एक श्रेष्ठ रचयिता हैं। उन्होंने किशोरवय के लिए ‘बच्चू चाचा के कारनामे’ शीर्षक से एक मनोरंजक उपन्यास लिखा है। इस विधा में उनकी अन्य रचनाएं भी हैं। वे फिल्मों के शौकीन हैं तथा एक समालोचक की दृष्टि से फिल्मों का विश्लेषण करते हैं। अमिताभ बच्चन को अपूर्व प्रतिष्ठा मिलने का उन्होंने समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है। इसके अलावा समय-समय पर फिल्मों पर सटीक  लेख लिखे हैं। वे वैश्विक राजनीति के भी अध्येता हैं तथा उनकी कुछ कहानियां इस पृष्ठभूमि पर भी हैं। अमेरिका द्वारा ईराक पर किए गए एकतरफा व अन्यायपूर्ण हमले को अपनी कहानी का विषय उन्होंने बनाया है। शायद वर्तमान समय में वे अकेले कथाकार हैं जो सतह पर दीखते बाजारवाद के बजाय उसके प्रणेता नवपूंजीवाद व नवसाम्राज्यवाद के मूल में जाकर उसकी पड़ताल कर रहे हैं।

रमाकांत जब तक खैरागढ़ में थे, हर माह एक-दो बार मिलना हो जाता था। कभी वे आए, कभी हम चले गए। उन्होंने दाऊचौरा मोहल्ले में बड़े प्यार से अपना घर बनाया था। मुख्य मार्ग पर गली के एक तरफ जीवन यदु, दूसरी तरफ गोरेलाल चंदेल का घर, गली में प्रवेश करने के कुछ मीटर बाद रमाकांत व दीपा भाभी का घरौंदा। तीन साहित्यकार एक साथ। पारिवारिक कारणों से रमाकांत खैरागढ़ छोड़ पहले भोपाल गए, वहां से रायपुर लौटे, वापस खैरागढ़ जाने का निश्चय किया, लेकिन अंतत: भोपाल दुबारा गए और वहीं के होकर रह गए। अब मैं भोपाल जाता हूं तो भेंट होती ही है। अन्यथा फोन पर जब मन होता है, बातें कर लेते हैं, लेकिन मन कहां भरता है?

मैंने रमाकांत की साहित्यिक उपलब्धियों पर यहां चर्चा करने से बचना चाहा है। यह सुधी समीक्षकों का काम है। मैं तो एक प्यारे दोस्त को, जिससे कई बार तीखी बहसें भी होती हैं, पचहत्तर साल के हो जाने के अवसर का उपयोग कुछ मीठी यादों को ताजा करने के साथ बधाई व शुभकामनाएं देने के लिए कर रहा हूं।

राग भोपाली अप्रैल 2017 अंक में प्रकाशित/ देशबंधु में 30 अप्रैल 2017 को साभार पुनर्प्रकाशित 

Thursday, 27 April 2017

प्रधानमंत्री की सही लेकिन अधूरी पहल


 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों आम जनता के मन को छूने वाली दो बातें कीं। एक तो अपने मासिक संदेश ‘मन की बात’ में उन्होंने खाद्यान्न के अपव्यय का मुुद्दा उठाया जिसके बाद होटलों और भोजनालयों में परोसी जाने वाली भोजन सामग्री में कटौती के लिए कानून बनाने की चर्चा ने भी जोर पकड़ा। प्रधानमंत्री का दूसरा कदम वीआईपी वाहनों से लालबत्ती हटाने के संबंधी केबिनेट के फैसले के रूप में सामने आया। मेरा मानना है कि दोनों बातें सही दिशा में हैं, लेकिन जिस रूप में ये सामने आई हैं उसमें अधूरापन झलकता है।

पहले खाद्यान्न की बर्बादी के मुद्दे को ही लें। यह सही है कि देश में अन्न की बर्बादी होती है। उसके बहुत से कारण हैं और यह भी मानना होगा कि बर्बादी को सौ फीसदी रोकना संभव नहीं है। प्रधानमंत्री का रेडियो उद्बोधन मैंने नहीं सुना, लेकिन जो प्रतिक्रियाएं जानने मिलीं उससे अनुमान होता है कि श्री मोदी ने होटलों इत्यादि में पके हुए भोजन के फेंके जाने से हुई बर्बादी को ध्यान में रखकर बात की थी। क्योंकि इसके तुरंत बाद केन्द्रीय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान ने होटलों में परोसे जाने वाले भोजन की मात्रा तय करने का विचार व्यक्त किया। हो सकता है कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ही यह बात कही हो! जो भी हो, इस पर जनता के बीच बहुत चर्चाएं हुईं, अनेक जनों ने इस पर आपत्ति जतलाई कि सरकार अब खानपान पर भी नियंत्रण रखेगी। इसे मोदीजी के ‘‘लैस गवर्नमेंट’’ के संकल्प के विपरीत कार्रवाई भी निरूपित किया गया। बाद में स्पष्टीकरण आया कि सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं है। मेरी समझ में इस विचार में एक व्यवहारिक बिन्दु निहित है। हमें तो बचपन से ही सिखाया गया था कि थाली में जूठन नहीं छोडऩा चाहिए। अधिकतर लोग अपने घरों में इस संबंध में सावधानी बरतते हैं कि भोजन व्यर्थ न जाए। किन्तु होटलों में सामान्यत: इसका पालन नहीं होता। अगर एक अकेला व्यक्ति होटल में भोजन करने जाए और सब्जी या दाल की प्लेट दो लोगों के पूरते हो तो वह क्या करे। होटलवाले आधा प्लेट दाल, चावल या सब्जी क्यों नहीं दे सकते? इसमें न कानून बनाने की बात है, न सरकारी दिशानिर्देश की। यह तो रेस्तोरां और भोजनालयों के संचालकों को स्वयं सोचना चाहिए।

बहरहाल, ऐसा हो तो बेहतर होगा, लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर कहा सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। यह एक अधूरी पहल है। महबूबा मुफ्ती का विवाह भोज में अतिथि संख्या पर नियंत्रण का निर्णय तथा कांग्रेस सांसद सुश्री रंजीत रंजन का वैवाहिक समारोहों में फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का निजी सदस्य बिल भी इस अधूरी सोच के परिचायक हैं। (मैंने अक्षर पर्व के अप्रैल 2017 के अंक में इन दोनों प्रस्तावों पर विस्तारपूर्वक लिखा है)। मुझे एक किस्सा याद आता है। मैं 1970 में एक बारात में पुणे गया था। पंगत बैठी तो बड़ी-बड़ी थालियों में कोई चालीस-पचास व्यंजन परोसे गए। दस-बीस नमकीन, दस-बीस मिठाईयां, इत्यादि। फिर भोजन प्रारंभ होने के पहले कुछ सेवादार खाली पात्र लेकर आए, बारातियों से आग्रह किया कि आपको जितना खाना हो उतना लीजिए, बाकी थाली से निकालकर खाली पात्र में डाल दीजिए। यह एक सम्पन्न परिवार द्वारा अन्न की बर्बादी रोकने का आग्रह था कि अपनी हैसियत का प्रदर्शन, यह पाठक समझ ही गए होंगे।

1970 के ही आसपास तत्कालीन बंबई में एक दंपति ने कुछ इसी तरह भोजन की बर्बादी रोकने का अभियान चलाया था। वे अपनी कार या स्टेशन वैगन लेकर विवाह भोजों में पहुंचते थे और आग्रह करते थे कि बची हुई सामग्री उन्हें दे दें, जिसे वे गरीब बस्तियों में जाकर बांटते थे। समाजसेवा करने का यह भी एक तरीका था जिसकी बहुत सराहना हुई, लेकिन यह प्रयोग लंबे समय तक नहीं चल पाया। दरअसल, सवाल तो यह है कि इस तरह का दिखावा किया ही क्यों जाए। प्रधानमंत्री अगर भोजन की बर्बादी सचमुच रोकना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को सख्त निर्देश देना चाहिए कि वे वैवाहिक या अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों में फालतू की टीम-टाम न करें। नितिन गडकरी इत्यादि ने जिस धूमधाम से बीते दिनों में ऐसे आयोजन किए, क्या वह मोदीजी को नहीं पता है! अगर वे राजनीति से परे हटकर विचार करें तो इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी के उदाहरण उनके सामने है, जिन्होंने क्रमश: राजीव और प्रियंका के विवाह अत्यन्त सादगी से सम्पन्न किए। अभी रायपुर में मोरारी बापू की रामकथा चल रही है। उसमें रोज ढेरों व्यंजन परोसे जा रहे हैं जिसकी सूची बड़े गर्व के साथ अखबारों में छपती है, दूसरी तरफ मोरारी बापू स्वयं उपदेश दे रहे हैं कि भोजन की बर्बादी न करें। क्या स्थानीय आयोजकगण सादगीपूर्ण भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकते थे?

प्रधानमंत्री ने जो ठोस निर्णय लिया वह वीआईपी वाहनों से लालबत्ती हटाने का है। इसका आम जनता पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है किन्तु यह भी एक आधी-अधूरी कवायद है। मुझे खुशी है कि इस निर्णय में जो कमियां हैं उनकी ओर जनता का ध्यान गया है और उन पर सोशल मीडिया में तर्कपूर्ण बातें हो रही हैं। सबसे अहम प्रश्न है कि क्या लालबत्ती हटने से अपने आपको वीआईपी मानने वाले नेताओं का घमंड कम हो जाएगा। उत्तर है कि ऐसा होने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। यह तो हमारे देश की परंपरा है कि जो अपने से कमजोर है उस पर धौंस बनाए रखो। हमारे जनतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यही है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि की गाड़ी में लालबत्ती रहे न रहे, इससे क्या फर्क पड़ता है? वे जब भी सडक़ पर निकलेंगे उनके लिए पहले से यातायात रोक दिया जाता है और वह भी दो-चार मिनट के लिए नहीं, बल्कि कई-कई घंटों तक। मैंने जापान से लेकर अमेरिका तक देखा है कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के लिए कभी भी यातायात दो या तीन मिनट से ज्यादा नहीं रुकता। मेरे जेहन में तो 1970 के दशक के ‘द गार्जियन’ अखबार में छपी वह तस्वीर आज तक बसी है कि प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ ट्रैफिक जाम में फंस जाने के कारण कार से उतरे और अपना ब्रीफकेस लेकर पार्लियामेंट के लिए पैदल चल पड़े। पाठकों को स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे का भी स्मरण होगा जो पत्नी के साथ सिनेमा देखकर पैदल घर लौट रहे थे, और अज्ञात हमलावर ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी। क्या हम अपने देश में ऐसी सहजता की कल्पना कर सकते हैं?

आप कहेंगे कि सुरक्षा की दृष्टि से भारत में ऐसा नहीं हो सकता। चलिए, मान लेते हैं, लेकिन फिर कोई बताए कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के काफिले में कितने वाहन होने चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से आगे-पीछे एक-एक वाहन हो, एकाध एम्बुलेंस भी हो, लेकिन पच्चीस-तीस गाडिय़ां किसलिए? यह याद दिलाना आवश्यक नहीं होना चाहिए कि तमाम सुरक्षा इंतजामों के बावजूद इस देश ने दो प्रधानमंत्रियों की हत्या होने की त्रासदी झेली है। कहने का आशय यह है कि लाव-लश्कर से सुरक्षा नहीं होती, उसके लिए सुरक्षातंत्र की मुस्तैदी आवश्यक है। इंग्लैंड में प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर पर भी आतंकी हमला हुआ था, लेकिन उससे डरकर उन्होंने अपना सुरक्षा प्रबंध दुगुना-तिगुना नहीं कर लिया था। हमें लगता है कि यह सुरक्षातंत्र भी एक तरह से लालबत्ती की तरह ही स्टेट्स सिंबल बन गया है।

यह सोचने की बात है कि केन्द्र या राज्य के किसी मंत्री के काफिले में पांच-सात वाहन क्यों होना चाहिए? इसी तरह से सांसदों और विधायकों को सुरक्षा प्रहरी देने की क्या आवश्यकता है? कुछेक प्रांतों में तो पूर्व विधायकों को भी यह सुविधा दी जा रही है। क्या इस तरह वे नहीं जतलाते कि उनका जीवन आम नागरिकों के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है? यह भी सोचने की बात है कि खाली-पीली अकड़बाजी की इस महामारी से राजनेता ही पीडि़त नहीं हैं, दूसरे, तीसरे और चौथे खंभे में भी यह रोग फैला हुआ है। हमारे यहां अफसरों के मिजाज ही नहीं मिलते, वही स्थिति न्यायिक अधिकारियों की भी है और हम जो मीडिया में हैं वे भी अपनी धौंस जमाने से कब बाज आते हैं! यह सही है कि सारे लोग ऐसे नहीं हैं, लेकिन सामान्य धारणा तो यही है कि ये सब अहंकार में डूबे हुए लोग हैं। आम जनता को दिन-रात उनके घमंड का सामना करना पड़ता है। सिर्फ कार की छत से लालबत्ती हटाने से इस रोग का इलाज नहीं होगा। क्या प्रधानमंत्री इस दिशा में कोई नवाचार करेंगे या भ्रष्टाचार दूर करने और स्वच्छ भारत बनाने जैसे नारों की तरह उनके उपरोक्त दोनों विचार भी पवित्र मंतव्य बनकर रह जाएंगे!

देशबंधु में 27 अप्रैल 2017 को प्रकाशित 

Thursday, 20 April 2017

भारत : एक वर्गभेदी समाज



विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने हाल में संसद में बयान दिया कि भारत नस्लवादी देश नहीं है। यह बात उन्होंने नोएडा में कुछ लोगों द्वारा एक नाइजीरियाई छात्र की पिटाई के संदर्भ में देश-विदेश में हो रही प्रतिक्रिया पर अपना पक्ष रखते हुुए कही। सुषमा जी वरिष्ठ राजनेता हैं, चालीस साल का उन्हें संसदीय अनुभव है, वे एक लोकप्रिय नेता भी हैं इसलिए वे कोई बात कहती हैं तो हमें उसे मान लेना चाहिए। लेकिन क्या वास्तविकता वही है जो सुषमा स्वराज बता रही हैं या हम सच्चाई को जानते-बूझते भी उसे नकार रहे हैं। यह हमारी शुभेच्छा हो सकती है कि देश नस्लवाद से मुक्त हो किन्तु हाल की ही कुछ घटनाएं इस विचार पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं; और हाल की ही बात क्या, यह तो इतिहास सिद्ध है कि भारत एक वर्ग-विभक्त समाज है। हमारे भीतर अपने को लेकर एक विचित्र किस्म का श्रेष्ठताबोध और साथ-साथ पवित्रताबोध है। दूसरे शब्दों में जितनी छुआछूत, जितना अपने-पराए का बोध, जितना ‘हम’ और ‘वे’ का विभाजन भारतीय समाज में है, वह शायद दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है।

हमारी वर्गभेदी सोच सिर्फ नस्लवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि वह विभिन्न कोटियों में फैली हुई है, जिसका सबसे ज्वलंत प्रमाण तो जातीय व्यवस्था में देखने मिलता है। यूं कहने को भारत एक जनतंत्र है जिसकी परिभाषा के अनुसार सारे नागरिक एक समान हैं। परन्तु क्या ऐसा सचमुच है? अभी चार दिन पहले बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती थी। बड़ौदा के उदारवादी राजा ने उन्हें अमेरिका पढऩे भेजा। लौटकर आए तो राजकीय पद पर उन्हें नियुक्त किया। लेकिन कैसी विडम्बना है कि जिस व्यक्ति की प्रतिभा को राजा ने पहचान लिया, उसका समादर बड़ौदा के जनसमाज ने नहीं किया। उन्होंने झूठे नाम से किराए पर मकान लिया, सच्चाई पता चलने पर वह मकान भी छोडऩा पड़ा। किसी मित्र ने उनकी मदद नहीं की। यहां तक कि गायकवाड़ राजा के प्रधानमंत्री ने भी उनका तिरस्कार किया। यह पुराना किस्सा है। पर मुझे इसी 14 अप्रैल को भाजपा के एक विधायक का बयान सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ कि बाबासाहेब ने संविधान नहीं लिखा, वे सिर्फ ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमेन थे। यह जानकर भी हैरत नहीं हुई कि उसी दिन आदित्यनाथ योगी ने महापुरुषों की जयंती पर अवकाश न देने का प्रस्ताव रखा। उन्हें इसके लिए और कोई दिन नहीं सूझा!

जातिवाद के बारे में जितना कहा जाय कम है। यह भी देखिए कि अपने ही अन्य देशवासियों के प्रति हमारी सोच क्या है। भाजपा नेता तरुण विजय संघ-दीक्षित हैं, पूर्णकालिक पत्रकार रहे हैं, पूर्व सांसद भी हैं। उन्होंने कहा कि हम अगर नस्लवादी होते तो दक्षिण भारत के काले लोगों के साथ क्यों रहते? इस बयान पर बवाल मचा। तरुण विजय ने इसे वापिस ले लिया। माफी भी मांग ली। लेकिन यह उनके अकेले की बात नहीं है। सवाल हमारी सामूहिक सोच का है। दक्षिण भारत के श्यामवर्णी लोगों को उत्तर भारत के गेंहुए रंग के लोग सदा से हिकारत की नज़र से देखते आए हैं। अपने बीच किसी काले व्यक्ति की उपस्थिति हमें खटकती है। हम उसके सामने नहीं तो पीठ पीछे मजाक उड़ाते हैं। उसे तरह-तरह की उपमाएं देते हैं। दूसरी ओर गोरे रंग के पीछे हमारे पागलपन का जवाब नहीं है। गौरांग विदेशियों पर हम बिछे जाते हैं। देश का बाजार गोरेपन की क्रीम आदि सौंदर्य प्रसाधनों से अटा पड़ा है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत में शरीर के रंगत का भले ही थोड़ा सा फर्क हो, किन्तु इस मामले में दोनों बराबर हैं। ऊपर हम जातिप्रथा की बात कर आए हैं। उसका एक और निंदनीय रूप वैवाहिक विज्ञापनों में और विवाह तय कराने वाली संस्थाओं के रजिस्टर में देखने मिलता है। आज भी विवाह संबंध तय करने में जाति, उपजाति, धर्म, प्रदेश और रंग-रूप को जितना महत्व दिया जा रहा है वह बेहद शर्मनाक है। ये विज्ञापन जीता-जागता उदाहरण हैं कि भारतवासी आज भी किस कदर सड़ी-गली परंपराओं की बेडिय़ों में जकड़े हुए हैं। इसमें थोड़ा सा परिवर्तन आया है कि लडक़ा/लडक़ी अपनी जात की न सही हिन्दू होना चाहिए लेकिन मुसलमान या क्रिश्चियन नहीं। लडक़ी सर्वगुण सम्पन्न तो हो ही, उसे घरेलू काम-काज में भी दक्ष होना चाहिए। इस गलित मानसिकता से बहुत कम लोग उबर पाए हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारी समाज व्यवस्था में स्त्री के साथ आज भी समानता का बर्ताव नहीं होता। यह स्थिति चारों तरफ है। कवयित्री निर्मला पुतुल ने हाल में कहा है कि आदिवासी समुदायों में भी सभी को पुरुष की आज्ञा ही मानना पड़ती है। जबकि हमारे समाजशास्त्री अब तक मानते आए हैं कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष बराबरी से रहते हैं। गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण एक अंतहीन बहस का मुद्दा बना हुआ है। महाराष्ट्र में कुछ डॉक्टर पीसीपीएनडीटी एक्ट का उल्लंघन करते पाए गए तो सरकार ने (शायद उन्हें बचाने की दृष्टि से ही) एक नया उपाय खोज लिया। वहां विधेयक आ रहा है कि गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण अनिवार्य कर दिया जाए जिससे कन्या भ्रूण हत्या रुक सके। यह उल्टी गंगा बहाने वाली बात हो गई। प्रधानमंत्री बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का लाख नारा देते रहें, हम तो वही करेंगे जो हम करते आए हैं। यह विचित्र है कि जो सामाजिक संस्थाएं बेटी बचाओ की बात करती हैं, उनमें से कई का नारा है कि बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे। गोया कि उसका जन्म बहू बनने के लिए हुआ है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है!

मैं एक और बहुत साधारण से दिखने वाले बिन्दु पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। विकलांग को प्रधानमंत्री ने दिव्यांग संज्ञा दे दी, लेकिन उससे उसकी स्थिति में क्या कोई सुधार आया?  रेलगाड़ी में, हवाई जहाज में, गर्भवती महिलाओं, छोटे बच्चों के साथ वाली महिलाओं, विकलांगों और वृद्धजनों के लिए सीटें आरक्षित होती हैं। सामान्य तौर पर किसी भी कतार में उन्हें प्राथमिकता देने का शिष्टाचार है पर इसका पालन शायद ही कहीं होता हो। इसका अनुभव अभी मैंने हाल में किया। दिल्ली हवाई अड्डे पर चेक-इन की कतार में दो जुड़वा बच्चों के साथ चल रही युवा मां को प्राथमिकता देने की बात पर मुझे सहयात्रियों से बहस करनी पड़ी। ऐसा लगता है कि हमारे दिलों में माया-ममता का कोई स्थान ही नहीं है।

आप कहेंगे कि इन सारी बातों का नस्लवाद से क्या संबंध है? मेरा उत्तर है कि नस्लवाद एक प्रकार का वर्गभेद ही तो है। जब आप किसी भी रूप में वर्ग विभाजन करते हैं या वर्ग विभाजन देखकर मौन रहते हैं तो वहां आपकी संकीर्ण एवं क्रूर मानसिकता प्रकट होती है। आप जहां सबल हैं वहां सब कुछ अपने लिए हथिया लेना चाहते हैं। दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित करने में, उनका तिरस्कार करने में, आपको लज्जा नहीं आती। संकोच का अनुभव नहीं होता। आप ब्राह्मण हैं तो अपने ब्राह्मणत्व का बखान करेंगे। गौरवर्ण हैं तो अपने गोरेपन पर इठलाएंगे। उत्तर भारत के हैं तो दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के नागरिकों को हिकारत से देखेंगे। जहां कहीं साथ रहने का मौका आएगा वहां आप अपने लोगों का समूह बना लेंगे। यह सब हमारे सामने हो रहा है और हम इस भेदभाव से तनिक भी विचलित नहीं दिखाई देते।

यह विडंबना है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में जब भारतीय मूल के नागरिकों पर हमले होते हैं तो हम उन देशों को नस्लवादी करार देने में एक मिनट की भी देरी नहीं करते। अन्यथा वे देश हमें स्वर्ग समान प्रतीत होते हैं और वश चले तो हम वहीं जाकर रहें। लेकिन जब हम अपने देश में धर्म, जाति, रंग व लिंग के आधार पर आक्रमण और अत्याचार करते हैं तो उसमें हमें नस्लभेद दिखाई नहीं देता। जब भारतीय मूल के लोग विदेशों में जाकर नाम कमाते हैं तो हम गौरव महसूस करते हैं लेकिन अगर विदेशी मूल का कोई व्यक्ति भारत को अपना घर बना ले, यहां रच-बस जाए और समाज में स्थान बना ले तो उसे देखकर हम दुखी हो जाते हैं। अपना सिर मुड़ा लेने की धमकी दे डालते हैं। हमारे हृदय में ‘अन्य’ के प्रति जो क्रूरता का भाव है क्या हम कभी उससे मुक्त हो पाएंगे?

देशबंधु में 20 अप्रैल 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 12 April 2017

यात्रा वृतांत : पूर्वोत्तर : कुछ और बातें




 एक समय असम प्रांत और पूर्वोत्तर भारत पर्यायवाची थे। इस प्रदेश में अनेक जनजातियां निवास करती हैं, सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं, भाषा, भूषा, धार्मिक विश्वास, सामाजिक परंपराएं, हरेक दूसरे से बिल्कुल अलग। इन जनजातियों की सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराओं का संरक्षण हो सके, वे स्वायत्त भाव से अपना सामाजिक जीवन जी सकें यह सोचकर इंदिरा गांधी के कार्यकाल में असम का विभाजन कर छह नए प्रांत बनाए गए। इन्हें अब सेवन सिस्टर्स या कि सात बहनों के नाम से जाना जाता है। सिक्किम के भारत में विलय के बाद सात की जगह आठ बहनें हैं। इसके बावजूद उतर-पूर्व के प्रांतों में किसी न किसी कारण से विग्रह बना रहता है। नगालैण्ड के राजनेता एक वृहत्तर नगालिम की स्थापना के लिए लगे हुए हैं। केन्द्र सरकार के साथ कई वर्षों से बातचीत चल रही है और कहते हैं कि कोई गुप्त समझौता भी हो चुका है। मणिपुर में कूकी, मैतेई और नगाओं के बीच हिंसक संघर्ष होते रहते हैं।  मिजोरम में शांति, सद्भाव और प्रगति का माहौल स्थापित हो चुका है, लेकिन असम अभी भी विवादों से मुक्त नहीं है। त्रिपुरा में शांति है, किन्तु मेघालय में जातीय अस्मिताओं का सवाल बीच-बीच में सिर उठाता है। अरुणाचल की चीन के साथ सीमा को लेकर एक अलग तरह की उलझन है। सिक्कम में धार्मिक पुनरुत्थानवादी ताकतें सक्रिय दिखाई देती हैं।

यह सब इसके बावजूद कि कंचनजंघा के हिमशिखर व महानद ब्रह्मपुत्र जैसे प्रकृति के अनमोल उपहारों के चलते यह भूभाग स्वर्ग के समान प्रतीत होता है। पहाड़, नदी, झरने, विशालकाय वृक्ष, सुन्दर और दुर्लभ फूल, हाथकरघा और हस्तशिल्प, लोकनृत्य व लोकसंगीत इत्यादि इस स्वर्ग में रंग भरते हैं। इसे सैलानियों और शोधकर्ताओं के लिए अनुपम आकर्षण का केन्द्र बनाते हैं। मैदानी इलाके में गर्मी का अहसास प्रारंभ हुआ कि नहीं बड़ी संख्या में पर्यटक उत्तर-पूर्व की राह पकड़ लेते हैं। कोई अरुणाचल देखना चाहता है, तो किसी का मन त्रिपुरा देखने का है, किसी का चित्त इस भूभाग की बड़ी-बड़ी झीलों को देखने का है, तो कोई जलप्रपात देखकर आंखों को ठंडा करना चाहता है, किसी को सैकड़ों किस्म के आर्किड फूल लुभाते हैं तो कोई हाथ से बुने रंग-बिरंगे दुशाले और कालीन लेकर घर लौटना चाहता है।

यह सब कुछ देखना सचमुच भला लगता है, लेकिन यह तो ऊपर-ऊपर दिखने वाली लुभावनी तस्वीर है। सैलानी के पास समय भी कहां कि जनजीवन को देखने समझने का यत्न करे। बहुत हुआ तो स्थानीय वेशभूषा में फोटो खिंचवा लिए। पहले इसके लिए कश्मीर जाते थे अब उत्तर-पूर्व जाते हैं। सिलीगुड़ी एक तरह से इन राज्यों के लिए प्रवेश द्वार है। सिलीगुड़ी नगर से लगा न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन एक महत्वूपर्ण रेलवे जंक्शन है। गुवाहाटी से लेकर न्यू जलपाईगुड़ी के काफी आगे तक ट्रेन में फेरीवाले चक्कर लगाते घूमते हैं। समय बदला है तो बिक्री का सामान भी बदल गया है। अब वे घड़ी और फाउंटेन पैन के बजाय पैन ड्राइव, पावर पैक और चार्जर इत्यादि की हांक लगाते हैं। यूं ट्रेन में बहुत सस्ते दाम पर साडिय़ां और चादरें भी मिल जाती हैं। ऐसी अविश्वसनीय कीमत की सामान या तो चोरी का है या तस्करी का। एक तरफ बंगलादेश की सीमा, दूसरी ओर नेपाल की, इसलिए तस्करी का सामान बिकता हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

देश में जिस रफ्तार से आबादी बढ़ रही है वाहनों की संख्या उससे अधिक गति से बढ़ रही है। गुवाहाटी उत्तर-पूर्व का सबसे बड़ा नगर है इसलिए वहां सडक़ों पर भीड़-भाड़ हो, जाम लग जाए तो स्वाभाविक, पर यह स्थिति तो चारों ओर है। गुवाहाटी और राजधानी नगर दिसपुर दोनों मिलकर एक हो गए हैं। यहां प्रगति के प्रतीक फ्लाईओवर भी बन चुके हैं। बाजार में गाडिय़ों के खड़े होने की जगह नहीं मिलती। यह अच्छा है कि गुवाहाटी स्टेशन से लगकर एक मल्टीस्टोरी पार्किंग भवन बन गया है। शिलांग और गंगटोक इन दोनों नगरों में भी भारी भीड़-भाड़ है। सुबह दफ्तर जाने के समय और शाम लौटने के समय जाम में आधा-आधा घंटा फंसना आम बात हो गई है। पर्यटन व्यवसाय के कारण टैक्सियों की अच्छी खासी तादाद है, लेकिन स्थानीय लोगों को अगर कार खरीदने और जाम में फंसने का शौक है, तो उन्हें कौन रोकेगा? गुवाहाटी से शिलांग व सिलीगुड़ी से गंगटोक के रास्ते पर भी आवागमन दिन-रात चलता रहता है।

यूं पर्वतीय प्रदेशों में पानी की कोई कमी नहीं होना चाहिए। इतनी सारी झीलें हैं, जब बर्फ पिघलती है तो पहाड़ी झरनों में पानी प्रवाहित होता ही है। इसके बावजूद अब देश का कोई भी हिल स्टेशन ऐसा नहीं है जहां पानी की किल्लत न होती हो। इसकी एक वजह निश्चित ही पेड़ों की अंधाधुंध कटाई है। दूसरा बड़ा कारण है जल संरक्षण की पारंपरिक विधियों की ओर दुर्लक्ष्य। शिलांग में नगरपालिका ने जगह-जगह नल लगाए हैं। हमने वहां पानी के लिए लगी कतारें देखीं, प्लास्टिक की बाल्टियों और कनस्तरों में पानी भरकर ले जाते लोगों को देखा। शिलांग में एक अच्छी बात यह थी कि वहां नलकूप या बोरिंग खोदने पर प्रतिबंध है। जलसंकट के बारे में एक और अनुमान हुआ कि अब जो भवन बन रहे हैं, उनमें छतें ढलवां नहीं हंै जिस कारण वर्षा जल बहकर चला जाता है। इसके अलावा पर्यटकों की आवाजाही तथा आधुनिक जीवन शैली के चलते भी पानी की खपत में पहले की अपेक्षा काफी वृद्धि हुई होगी।

मेघालय में तीन प्रमुख जनजातियां हैं- खासी, गारो और जयंतिया। राजधानी शिलांग खासी पहाडिय़ों में है। खासी और गारों दोनों प्रमुखत: ईसाई मत के हैं, जबकि जयंतिया जनजाति ने किसी हद तक हिन्दू रीति-रिवाज अपना लिए हैं। इस प्रदेश में खासी स्टूडेंट यूनियन नामक एक संगठन है। उसकी गतिविधियों के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं मिल पाई। उधर सिक्किम में बहुसंख्यक आबादी नेपाली मूल के हिन्दुओं की है- पचास प्रतिशत से कुछ अधिक। तीसेक प्रतिशत बौद्ध हैं, शायद दसेक प्रतिशत ईसाई, दोनों प्रदेशों में मुसलमान भी आठ- दस प्रतिशत के आसपास होंगे या शायद कुछ कम। इनमें से कुछ असमिया मूल के हैं और कुछ बंगलादेशी मूल के। यह तथ्य नोट करने लायक है कि मेहनत मजूरी के अनेक काम जैसे ऑटोरिपेयर, पंचर बनाना, राजमिस्त्री आदि इन्हीं के  भरोसे चलते हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार से इन्हीं की तरह जीविका की तलाश में आए हिन्दुओं की भी कमी नहीं हैं।

स्थानीय शासन-प्रशासन में स्वाभाविक रूप से स्थानीय जन ही हैं, किन्तु व्यापार अधिकतर राजस्थान से आए कर्मठ-कुशल व्यापारियों के हाथों में हैं। गंगटोक के एमजी रोड पर एक दवा दुकान के संचालक से भेंट हुई। उन्होंने बताया कि उनके परदादा या उनके भी पिता तकरीबन एक सौ चालीस साल पहले तत्कालीन राजा जिसे चौग्याल कहा जाता था, के समय में यहां आए थे। राजस्थान से दिल्ली होकर सिलीगुड़ी ट्रेन से, आगे का रास्ता बैलगाड़ी या खच्चर गाड़ी से। उस समय आज की जैसी सडक़ें तो थीं नहीं। अनेक दशक पूर्व असम में मारवाड़ी-विरोधी आंदोलन हुआ था, अब वैसी स्थिति नहीं है। असम, सिक्किम, मेघालय सब जगह विभिन्न समाजों के लोग साथ मिलकर रहते हैं, लेकिन इधर-उधर बातचीत से पता चलता है कि भीतर ही भीतर एक अलगाव का भाव बना हुआ है। इधर हिन्दुत्व का जोर बढ़ा है और व्यापारी समाज इसमें तन-मन-धन से सहयोग कर रहा है।

हमारी आठ दिन की भागमभाग वाली यात्रा में कुछ और रोचक बातें हुईं। एक तो शिलांग में युवा लेखक, आलोचक श्यामबाबू शर्मा हमें मिल गए। उनके और उनके परिवार के साथ कुछ अच्छा समय बीता। श्यामबाबू एनसीसी में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं। बड़ी लगन और जीवट के साथ उन्होंने साहित्य जगत में अपना स्थान बनाया है। फिर सिलीगुड़ी में कवि, लेखक व राजनैतिक कार्यकर्ता देवेन्द्रनाथ शुक्ल से भेंट हुई। वे सत्तर वर्ष की आयु में भी सुबह छह बजे न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन पर हमें लेने आ गए। उनके घर पर विश्राम कर हम आगे बढ़े। इस तरह यात्रा में दो स्थानों पर घर का माहौल और घर का भोजन मिला। उधर श्यामबाबू ने गुवाहाटी में हमारे लिए टैक्सी तय कर दी थी, इधर सिलीगुड़ी में शुक्लजी ने। गुवाहाटी से ड्रायवर जैनुल आब्दीन हमें शिलांग ले गया था। उसकी ड्राइविंग कमाल की थी। लौटने के लिए हमने उसे ही दुबारा बुलाया। सिलीगुड़ी से गंगटोक तक विमल नामक नेपाली ड्राइवर हमें मिला। वह भी पहाड़ी रास्तों पर चलने में दक्ष था। गंगटोक में कृष्णा नामक ड्राइवर के साथ हमने साइट-सीइंग की और उसको लेकर ही सिलीगुड़ी वापस लौटे।

सबसे मजेदार संयोग यह था कि गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के किनारे स्टीमर से उमानंद मंदिर जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे, तभी एक युवक आया- सुरजन जी? हां। सर, मैं निरंजन। अरे, तुम यहां कैसे? मेरी पोस्टिंग पिछले दो साल से यहीं है। निरंजन सेन छत्तीसगढ़ के हैं। रायपुर में जेट एयरवेज में थे, वहां से दिल्ली और अब गुवाहाटी जेट एयरवेज में ही ड्यूटी मैनेजर के पद पर काम कर रहे हैं। सुदूर प्रदेश में अपने गाँव का कोई मिल गया तो थी न यह खुशी की बात!

देशबंधु में 13 अप्रैल 2017 को प्रकाशित 

Monday, 10 April 2017

आडंबर के विरुद्ध




बिहार के सुपौल संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित कांग्रेस सदस्य श्रीमती रंजीत रंजन ने लोकसभा में एक निजी सदस्य विधेयक इस बजट सत्र में पेश किया है। संसदीय जनतंत्र में कई बार संसद सदस्य अपने विचारों को पुरजोर तरीके से सामने रखने के लिए तथा अपने मतदाताओं के बीच प्रभाव डालने के लिए ऐसे प्रस्ताव पेश करते हैं। इसके लिए पार्टी के अनुमोदन अथवा समर्थन की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे बिलों पर चर्चा का अवसर भले ही मिल जाए, लेकिन इनका पारित होना लगभग असंभव होता है। संसदीय इतिहास में दो-चार मौके ही आए हैं जब किसी निजी सदस्य विधेयक को पारित किया गया हो। बहरहाल रंजीत रंजन ने जो विषय सामने रखा है वह अत्यंत रोचक होने के साथ-साथ प्रासंगिक है। उस पर संसद में कोई निर्णय हो या न हो भारतीय समाज में व्यापक चर्चा अवश्य होना चाहिए। अपने प्रस्ताव में श्रीमती रंजन ने विवाह खर्च की अधिकतम सीमा पांच लाख रुपए करने की मांग की है। विवाह समारोह में अतिथियों व व्यंजनों की संख्या सीमित रखने की बात भी उन्होंने कही है। जो लोग निर्धारित सीमा से अधिक व्यय करें उन पर जुर्माना लगाया जाए तथा इस तरह प्राप्त राशि गरीब परिवारों की बेटियों के विवाह में उपयोग की जाए, यह भी उनका मत है। 

इस प्रस्ताव पर अभी लोकसभा में चर्चा होगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता, किन्तु लगभग इसके समानांतर चलते हुए महबूबा मुफ्ती की सरकार ने जम्मू कश्मीर विधानसभा में यह विधेयक पास कर दिया है कि राज्य में किसी विवाह समारोह में पांच सौ से अधिक मेहमान न बुलाएं जाएं। इस बिल में कुछ अन्य प्रावधान भी हैं। इन दोनों प्रस्तावों में एक विचार समान है कि देश में शादियां बेहद खर्चीली हो रही हैं, आडंबर बढ़ गया है, गैर जरूरी शानो-शौकत का प्रदर्शन किया जा रहा है, बात हद से बढ़ गई है और इस पर रोक लगाना चाहिए। अपने आप में यह विचार ठीक मालूम होता है, लेकिन इसे लेकर मीडिया में महबूबा मुफ्ती और रंजीत रंजन दोनों की किसी न किसी तरीके से खिल्ली उड़ाई जा रही है। एक पत्रिका ने कश्मीरी शादी में होने वाली दावत का फोटो छापा, तो रंजीत रंजन के बारे में बताया गया कि वे खुद अपनी शादी में जालंधर से बिहार चार्टर्ड प्लेन लेकर आई थीं और यह भी कि वे हार्ले डेविडसन जैसी महंगी बाइक चलाती हैं। कश्मीर में या कहीं भी अभी शादियों में जो चलन है उसका कोई फोटो डाल देना क्या सिद्ध करता है और क्या सुश्री रंजन के विचारों में कोई परिवर्तन आया है तो उसे नकार देना चाहिए? 

मुझे वह समय याद आता है जब देश में अतिथि नियंत्रण आदेश लागू था। कुछ प्रांतों में तो विवाह हो या अन्य कोई समारोह, पच्चीस से अधिक मेहमान बुलाने की अनुमति नहीं थी। पश्चिम बंगाल में वैवाहिक निमंत्रण में लिखा होता था- अपना राशन खुद लेकर आइए। इसका अर्थ था कि अगर अतिथि संख्या सीमा से अधिक हो गई और कहीं छापा पड़ जाए तो बताया जा सके- सब अपना-अपना राशन खुद लेकर आए हैं, मेजबान ने कानून नहीं तोड़ा है। ये वे दिन थे जब देश में अन्न की कमी थी। पैंसठ-छयासठ में दो साल लगातार अकाल झेलना पड़ा था; बहुत सम्पन्न लोगों को छोडक़र बाकी को गेहूं, चावल, तेल, शक्कर के लिए राशन दुकान के आगे लाइन लगानी पड़ती थी; शादी हो या बरसी, सामाजिक परंपराओं के निर्वाह के लिए लोग कालाबाजार से प्रबंध करते थे। वे दिन हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं, लेकिन  यह भी सोचने की बात है कि आज जो देख रहे हैं वह कितना शोभाजनक है। 

मैं यहां हिन्दी सिनेमा के प्रभाव को देखता हूं। 1994 के अंत या 1995 की शुरूआत में ‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म आई थी। इसने वैवाहिक या अन्य पारिवारिक समारोहों को लेकर भारतीय समाज की सोच बदलने में भारी भूमिका निभाई। यही दौर था जब देश में तथाकथित आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर प्रारंभ हो चुका था। ‘डोन्ट वरी बी हैप्पी’ जैसे नारे गूंजने लगे थे। ‘इंडिया है अराइव्ड’ का उद्घोष होने लगा था। यही वक्त था जब देश का राजनीतिक विमर्श गरीबी, बेरोजगारी, रोटी, कपड़ा, मकान से हटकर जीडीपी दर पर केन्द्रित होने लगा था, शेयर बाजार ने उछाल लेना शुरू किया था और वायदा कारोबारी हर्षद मेहता देश के युवाओं का आदर्श बन गया था। इस पृष्ठभूमि में ‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म बनी थी। केशवप्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ को सारे संदर्भों में काटते हुए चकाचौंध के आवरण में लपेट दिया गया था। इसी उपन्यास पर पहले बनी फिल्म नदिया के पार और इस फिल्म में जो चाक्षुष अंतर था वह पुराने भारत को पीछे छोड़ एक नया इंडिया बनने का संकेत था। मुझे किन्हीं मायनों में हम आपके हैं कौन हिन्दी की पहली ग्लैमर फिल्म प्रतीत होती है। ऐसा ग्लैमर जिसके पीछे ग्लानि का कोई भाव न हो। इस फिल्म को देखने से लगता है कि भारत में दुख, दारिद्रय, दैन्य जैसा कुछ भी नहीं है, चारों तरफ आनंद ही आनंद है और सब लोग इस आनंद में डूबे हुए हैं। काश कि यह सब सच होता! 

1990 का दशक आने के पहले तक हमारे यहां शादी-ब्याह जैसे कार्यक्रम अपेक्षाकृत सादगी से होते थे। सम्पन्न परिवार भी तडक़-भडक़ करने के बावजूद ऐसे मौकों पर गांव-जवार के साथ चले आ रहे पारंपरिक रिश्तों को निभाने की कोशिश करते थे। बारातें आती थीं तो धर्मशाला में ठहरती थीं या छुट्टियों के दिन हुए तो स्कूल के कमरों में दरी-गद्दे डालकर इंतजाम हो जाता था। आस-पड़ोस के घरों से शादी के लिए बर्तन और दरी आदि उधार मांगकर काम चल जाता था। बारात वापसी के बाद एक बड़ा काम यह होता था कि चाहे कितने थक गए हो, बर्तन-भांडे साफ कर, गिनती गिनकर जहां से उधार लाए वहां वापस कर आओ। इसमें गिलास और कटोरी की अदला-बदली कई बार हो जाती थी। बेटी की शादी में हितू जन काम संभालने आ जाते थे लेकिन भोजन अपने घर जाकर करते थे कि लडक़ी वाले पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पडऩा चाहिए। लेकिन समय बदलने लगा था। उसके दो-एक किस्से याद आ रहे हैं- महाराष्ट्र में ग्रामीण अंचल के किसी बड़े नेता के यहां विवाह था, तो गांव के सारे कुओं में मनों शक्कर डाल दी गई ताकि सबको मीठा पानी या शरबत मिल सके। इस विवाह में शायद तीस हजार लोगों को न्यौता दिया गया था। इसी के आस-पास दूसरी खबर थी कि नागपुर के एक उद्योगपति के यहां कलकत्ता से चार्टर्ड प्लेन में बारात आई और हर बाराती को विदाई में सोने का एक-एक हार दिया गया। ये खबरें एक तरह से देश में नवपूंजीवाद आने की दस्तक दे रही थीं। 

अब जो दृश्य है वह कम से कम मुझ जैसे लोगों की कल्पना से परे था। हम सोचते थे कि दिन-ब-दिन स्थितियां सुधरेंगी, आधुनिक युग में लोग सादगी की ओर आकर्षित होंगे, फिजूलखर्ची छोड़ेंगे, समय की बचत करेंगे, आडंबर को तिलांजलि देंगे, लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा। मैं जिस लिफाफे में निमंत्रण पत्रिका आती थी, उसी में भेंट राशि रखकर वर या वधू को दे देता था। यह सोचकर कि एक नया लिफाफा क्यों बर्बाद किया जाए। मेरी देखा-देखी कुछ और मित्र भी ऐसा करने लगे, लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं हुआ। विवाह में एक से एक महंगे कार्ड छपने लगे हैं, कोई-कोई कार्ड तो पुस्तक या पेटी के आकार में आते हैं। जहां ऐसी फिजूलखर्ची हो रही हो, वहां एक लिफाफा बचाने का क्या महत्व है? अब तो ऐसा हो गया है कि जिसके पास पैसा है उसे खर्च करने के लिए हर समय किसी न किसी बहाने की तलाश रहती है। शादी है तो उसके पहले सगाई है, तिलक है, रिंग सेरेमनी है, लेडी संगीत है, काकटेल पार्टी है और सबके अलग-अलग न्यौते दिए जा रहे हैं। कभी माता-पिता के विवाह की पचासवीं सालगिरह मनाई जाती है, तो कभी पच्चीसवीं, कभी गृहप्रवेश है, तो कभी और कुछ। बर्थ डे पार्टी तो होती ही होती है। कभी ये सारे कार्यक्रम परिवार और इष्ट मित्रों तक सीमित रहते थे; फिर ये सामाजिक संपर्क बढ़ाने का माध्यम बन गए और अब तो इनका मकसद सिर्फ अपने वैभव का प्रदर्शन करना रह गया है। शहर से बाहर दूर-दूर तक मैरिज पैलेस और मैरिज गार्डन्स बन गए हैं जहां ये कार्यक्रम होते हैं। हर कोई यहां तक पहुंचने में समर्थ नहीं होता। 

कोई तीसेक साल पहले स्वयंप्रकाश ने कहानी लिखी थी बड्डे। इस कहानी में मध्यमवर्ग की दोहरी मानसिकता का बेहतरीन चित्रण था। एक तरफ समकक्षों को अपने कुछ होने का अहसास करवाना, दूसरी ओर पार्टी में उपहार के रूप में नकद राशि मिल जाने की उम्मीद कि उसी से पार्टी का खर्च निकल आए। यह उसी समय की कहानी है जब समाजचिंतक ऐसी मानसिकता पर आक्रमण कर स्थितियां बेहतर होने की कल्पना कर रहे थे। लेकिन ऐसा कहां हो पाया? अब तो बच्चों की बर्थ डे पार्टी में रिटर्न गिफ्ट देने का चलन हो गया है जिसका कोई औचित्य मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसका मकसद यही बताना हो कि हम किसी से कम नहीं हैं और बराबरी का लेन-देन करते हैं। इसमें आपसी रिश्तों की मधुरता की गुंजाइश कहीं नहीं है। आजकल सम्पन्न लोगों के यहां से जो पत्रिकाएं आती हैं उसमें एक झूठी विनम्रता के साथ निवेदन होता है कि आपका आशीर्वाद सर्वश्रेष्ठ उपहार है। मतलब यह कि आपसे भेंट, उपहार लेकर हम आपके सामने छोटे नहीं बनना चाहते। यह एक विचित्र चलन है। 

बहरहाल इस पूरे मामले का एक दूसरा पहलू भी है। मुझे हास्य कलाकार स्टीव मार्टिन द्वारा अभिनीत हॉलीवुड की फिल्म माइ डाटर्स मेरिज का ध्यान आ रहा है। पति-पत्नी, बेटी की शादी की तैयारियों में जुटते हैं, बजट बनाते हैं कि इसके भीतर काम करना है, वे फिर एक इवेन्ट मैनेजर को सारा जिम्मा सौंप देते हैं। वह आकर एक तरह से इनके घर पर कब्जा ही कर लेता है। यहां ऐसा करो, वहां वैसा करो, यह सामान हटाओ, वह सामान रखो, मेहमान कहां बैठेंगे, सजावट कैसी होगी, डिनर में क्या-क्या आइटम रहेंगे सारी बातें वही तय करते जाता है और हतप्रभ माता-पिता उसके सामने कुछ नहीं बोल पाते। कुल मिलाकर परिणाम यह होता है कि बजट हवा में उड़ जाता है और विवाह के कर्ज चुकाने में दंपत्ति पर अतिरिक्त बोझ आ पड़ता है। हॉलीवुड की यह कॉमेडी हमारे समाज का सच बन गई है। अब हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन के सारे समारोह इवेन्ट मैनेजमेंट कंपनियों के भरोसे छोड़ दिए गए हैं। इस सिलसिले में अभी हाल की एक रोचक घटना है। ऑस्कर समारोह का इवेंट मैनेजमेंट प्राइस वाटर हाउस कूपर नामक दुनिया की नामी-गिरामी फर्म करती है। इस साल इस कंपनी के इवेंट प्रभारी ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नाम ही गलत घोषित कर दिया। दो मिनट बाद यह गलती सुधारी गई। इसकी कीमत इवेंट मैनेजर को अपनी नौकरी गंवाकर चुकानी पड़ी। 

बहरहाल, हमारे यहां शायद ऐसी स्थिति नहीं आई है। भले ही मंच टूट जाए या डोम गिर जाए, शामियाना कंपनी के असली मालिक बच निकलते हैं। अब परिवार में बेटे का विवाह हो या बेटी का या फिर और किसी प्रयोजन से पार्टी करना हो, अगर  बटुए में या तिजोरी में या बैंक में पर्याप्त धन है तो किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मुहावरे में कहूं तो हाथ-पैर भी नहीं हिलाना है। मैरिज गार्डन और होटल वालों के पास पैकेज हैं। आप अपनी क्षमता और इच्छा के अनुसार पैकेज चुन लीजिए, घर के रिश्तेदारों को भी होटल में खिलाइए, सारा इंतजाम वहीं है। आपको जो सबसे बड़ा काम करना है वह चुनिंदा लोगों के पास जाकर व्यक्तिगत तौर पर निमंत्रित करना है। वे आएंगे तो समारोह की शान बढ़ेगी, आपका रुआब भी बढ़ेगा कि इनके यहां तो ऐसे-ऐसे लोग आते हैं। अगर आप राजधानी में रहते हैं और मुख्यमंत्री नहीं आए तो इसका मतलब है कि आप रसूखदार व्यक्ति नहीं हैं। इन समारोहों में जो ताम-झाम और व्यर्थ का खर्च होता है उस पर बहुत तफसील में लिखा जा सकता है, लेकिन क्या फायदा?

मैं तो यह सोच रहा हूं कि एक अरब तीस करोड़ की आबादी वाले मुल्क में जहां किसान मजदूर में तब्दील हो रहे हैं, जहां बेरोजगारी का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है, जहां युवा पीढ़ी का काफी समय निरुद्देश्य बीत रहा है, वहां ऐसे समारोहों का क्या कोई औचित्य है। शायद इस दृष्टि से है कि जिन्हें कोई स्थायी नौकरी नहीं मिल रही वे इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में छोटा-बड़ा काम पा सकते हैं; कुछ गाने-बजाने का शौक हो तो बैंड पार्टी, धमाल पार्टी या आर्केस्ट्रा पार्टी में शामिल हो सकते हैं; थोड़ी प्रतिभा हो तो शायद डीजे भी बन सकते हैं; कैटरिंग कंपनी द्वारा दी गई सजीली ड्रेस पहनकर भोजन के काउंटर के पीछे खड़े हो सकते हैं; घूम-घूमकर साफ्ट ड्रिंक और स्नैक्स सर्व कर सकते हैं, फूलों की सजावट का काम मिल सकता है; पार्किंग लॉन के अटेन्डेंट बन सकते हैं, कार्ड छापने वाले प्रेस में टाइप सेटर या प्रिंटर का काम मिल सकता है; कूरियर कंपनी में जाकर डिलीवरी ब्वाय बन सकते हैं और वे औरतें जो इस तमाम विद्या से दूर हैं, वे और कुछ नहीं तो बारात में सिर पर रोशनी का हंडा लिए या हाथ में ट्यूबलाइट थामे चल सकती हैं। जो भी रोजी मिलेगी उससे शायद एक वक्त का भोजन जुट जाए। महेश कटारे ने अपनी एक कहानी में इनका मार्मिक चित्रण किया है। 

देश के किसी बड़े जिम्मेदार नेता ने विधानसभा चुनावों के दौरान स्पष्टीकरण दिया कि हमारी सरकार ने नौकरियां नहीं, रोजगार देने का वायदा किया था। शायद उनका वायदा इस तरह के रोजगार देने से पूरा होता हो। ठीक भी है। इस श्रेणी-विभक्त और जाति-विभक्त समाज में इससे बेहतर क्या हो सकता है कि कुछ लोगों के जीवन में हर दिन इवेंटफुल हो, नित नए अनुभवों के रोमांच से भरपूर हो और एक बड़ा वर्ग इनके सपनों को पूरा करने के लिए अपने सपनों का, अपनी इच्छाओं का, अपनी आवश्यकताओं का दमन करता रहे। शेर याद आता है- 
जिंदा हूं इस तरह कि गमे जिंदगी नहीं, 
जलता हुआ चिराग हूं मगर रोशनी नहीं।
बात कहां से चली थी और कहां-कहां घूम गई। रंजीत रंजन और महबूबा मुफ्ती को तो हम भूल ही गए। उनसे अब हम यही कह सकते हैं कि आप जो कर रहे हैं वह लाक्षणिक और सतही है। समाज में हर कदम पर जो अन्याय और विषमता देखने मिल रही है, उसकी तरफ अगर आपने सत्यनिष्ठा के साथ गौर फरमाया होता तो शायद बात कुछ और होती।
 अक्षर पर्व अप्रैल 2017 अंक की प्रस्तावना

Saturday, 8 April 2017

यात्रा वृतांत : गंगटोक: सपने में आए हनुमान !

सिलीगुड़ी से गंगटोक के रास्ते पर चलें तो सबसे पहले पड़ता है सालूगुड़ा नामक गांव। इन दोनों नामों के बीच जो शब्द मान्य और ध्वनि साम्य है, उस पर ध्यान जाए बिना नहीं रहता। संभवत: इनमें कोई अर्थ साम्य भी हो! थोड़ा आगे बढ़ने पर जो गांव आता है उसका नाम है- सेवक। यह नाम भला कैसे पड़ा होगा?यहां भारतीय सेना की कुछ इकाईयां तैनात हैं। और यहीं से साल के वृक्षों की श्रृंखला प्रारंभ हो जाती है, जो गंगटोक तक साथ चलती है और जिसे देखकर बस्तर और मंडला के शालवनों की याद आ जाती है। इसके साथ-साथ सड़क के दायीं तरफ तीस्ता नदी के दर्शन होने लगते हैं। सिलीगुड़ी से लगभग साठ किमी दूरी पर तीस्ता बाज़ार का पड़ाव मिलता है। उसे एक जंक्शन कहना बेहतर होगा जहां से दार्जिलिंग व कलिम्पोंग के रास्ते कट जाते हैं।मुझे बरबस स्मरण हो आया कि 1990 में गोरखा आंदोलन के एक चरण में कलिम्पोंग से हम पुलिस द्वारा अधिगृहीत ट्रक में बैठकर नीचे आ रहे थे और ऊपर से आंदोलनकारी पत्थर फेंक रहे थे। तीस्ता बाज़ार में ट्रक ने हमें छोड़ दिया था, फिर हम बस से सिलीगुड़ी पहुंचे थे। वह एक खौफनाक मंजर था।
तीस्ता बाज़ार के बाद नदी बाईं ओर आ जाती है और सिक्किम राज्य की सीमा तक संग-साथ बनाए रखती है। लेकिन यह वह तीस्ता नहीं है जिसे हमने लगभग तीस साल पहले देखा था। उस समय वह प्रचंड वेग से उतरती, पहाड़ों से टकराती, फेनिल जलधारा थी। अब वह जैसे थक गई है। कैद में जो है। नदी को जगह-जगह रोककर जलविद्युत उत्पादन के लिए बांध बना दिए गए हैं। जहां बांध हैं, वहां ठहरी हुई, गतिशून्य, भावशून्य अपने आप में खोई हुई जलराशि है। जहां बांध नहीं है, वहां चट्टानों पर माथा पटकते हुए रेत में अपना अभिमान खो चुकी जल की क्षीण धाराएं हैं। आगे रास्ते में कहीं रिवर रैफ्टिंग का केंद्र है।यहां पहाड़ी नदी में रबर की नौका में संतरण करने का रोमांचक खेल होता है। लेकिन हमने देखा कि तीस्ता में पानी न होने के कारण रैफ्टिंग के लिए उत्साही जन निराश होकर वापस लौट रहे थे। लगभग सवा सौ किमी के इस घेरदार-घुमावदार मार्ग पर सबसे अच्छी बात यही थी कि जंगल सुरक्षित थे। उनकी छाया पूरे रास्ते हमको सुकून देते चल रही थी।
तीस्ता बाज़ार के कुछ किमी आगे टैक्सी ड्राइवर ने हमें बताया कि नदी के इस तरफ पश्चिम बंगाल और उस तरफ सिक्किम है।पूर्वोत्तर का यह प्रदेश मुख्यत: तीन हिस्सों में विभाजित है- दक्षिण, पूर्व और उत्तर। राजधानी गंगटोक पूर्व में है तथा जो हम अपने बाईं ओर देख रहे थे, वह दक्षिण प्रदेश था। वहीं नदी के पार एक बीयर फैक्टरी थी, जिसके मालिक अभिनेता डैनी डैंगजोंग्पा हैं।इस इलाके में ही कुछ नामी दवा कंपनियों के कारखाने भी स्थापित हैं।गंगटोक के निकट भी एक औद्योगिक प्रक्षेत्र है जिसमें मुख्यत: दवा कारखाने ही हैं। जानकारी मिली कि कुछ साल पहले तक तीस्ता व अन्य नदियों में मछलियां पाई जाती थीं, जो अब लुप्तप्राय हैं, क्योंकि कारखानों के अवशिष्ट रसायनों ने नदी जल को विषाक्त कर दिया है। एक तो बिजली उत्पादन के लिए बने बांध और फिर यह जहरखुरानी। नदियों पर क्या बीत रही है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है। यही सब देखते-सुनते, सोचते-विचारते गंगटोक आ गया।
ड्राइवर विमल ने पूछा कि बाईपास से चलूं या कि शहर से। क्यों? इसलिए कि इस समय ट्रैफिक बहुत होगा। ठीक है, जो सुविधाजनक हो वही करो। पर्वत की गोद में बसे नगर में वहां की भवन संरचना ने एकबारगी ध्यान आकर्षित किया। संकरे-संकरे भूखंडों पर पांच-छह मंजिले मकान। खुली जगह की कमी है। रिहाइश कैसे हो। उपाय यही कि एक मंजिल पर दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठवीं मंजिल तान दी जाए। इन भवनों में लिफ्ट का प्रावधान नहीं है। सीढ़ियां ही तय करना पड़ती हैं। उसमें क्या दिक्कत है। आखिरकार दिन-रात पहाड़ों पर चढऩा-उतरना होता ही है। हां, आप मैदानी इलाके से आए हैं। अभ्यास नहीं है। तकलीफ हो सकती है। किंतु मौसम खुशगवार है। नई जगह देख पाने की खुशी है, उमंग है। ऐसे में पैरों को थोड़ा कष्ट देना पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं है।रायपुर में इस साल ठंड भी ठीक से नहीं पड़ी। उसकी कुछ कसर शिलांग जाकर पूरी की। जो बची वह गंगटोक में पूरी हो गई।
गंगटोक में सबसे बढ़िया स्थान है-पुराने समय का माल रोड, अभी का महात्मा गांधी मार्ग। दार्जिलिंग व शिमला जैसे हिल स्टेशनों में माल रोड पर भारी गहमा-गहमी रहती है। कंधे से कंधे टकराते हैं। यहां का एम.जी. रोड अपने आप में अनूठा है। लंबाई आधा किमी से अधिक नहीं। प्रवेश बिंदु पर महात्मा गांधी की सुंदर आकर्षक प्रतिमा। बीच में उनकी आवक्ष प्रतिमा। मार्ग दो भागों में विभाजित है। बीच में सुंदर फूलों की क्यारियां हैं। यह सिर्फ पदातिक मार्ग है। वाहनों की आवाजाही निषिद्ध। दोनों तरफ किसिम-किसिम की दूकानें हैं- भोजनालय, चायघर, ऊनी वस्त्र, बैंक, मदिरालय इत्यादि। सिक्किमवासी मनुष्य के विश्वस्त साथी श्वान से प्रेम रखते हैं। सो वे भी यहां विश्राम करने आ जाते हैं। वे किसी को परेशान नहीं करते। अपने आप में मगन रहते हैं।यहां एक पीपल का वृक्ष भी है। उसकी एक शाखा को बहुत यत्न से सूंड़ का रूप दे दिया गया है। कोई-कोई श्रद्धालु यहां आकर फूल-पत्र चढ़ा जाते हैं। भविष्य में मंदिर बन जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। बहरहाल, यह स्थान है बहुत दिलचस्प। मन हो तो सड़क पर तफरीह कीजिए, नहीं तो बैंच पर बैठकर लोक व्यवहार निरखिए, रेस्तोरां में जाकर क्षुधा शांत कीजिए, या फिर घर ले जाने के लिए सोवेनियर खरीद लीजिए।
सिक्किम में और गंगटोक में दर्शनीय स्थान अनेक हैंमौसम अनुकूल हो तो भारत-चीन (तिब्बत) सीमा पर नाथू ला दर्रे तक जा सकते हैं। ऊपर बर्फ गिर गई हो तो गंगटोक के आसपास घूमिए। एक बढिय़ा जगह है-हनुमान टोक। टोक याने पहाड़ की चोटी। यह पहले व्यू पाइंट रहा होगा जहां से गंगटोक शहर की झलक देखी जा सके। मंदिर में लगे एक फलक के अनुसार 1954-55 में भारतीय कूटनीतिज्ञ अप्पा साहब पंत ने स्वप्न में मिले आदेश पर यहां हनुमान मंदिर बनवा दिया, जिसने कालांतर में बड़ा रूप ले लिया। यद्यपि 1974 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा 'ए मूमेंट इन टाइम’ में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। (यह जानना दिलचस्प होगा कि अप्पा साहब की सुपुत्री अदिति पंत अंटाकार्टिका पर पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला थीं।) नोट करने लायक तथ्य यह है कि इस मंदिर की पूरी व्यवस्था भारतीय सेना के जिम्मे है। मंदिर का पुजारी भी कोई सैनिक होता है। वही दर्शनार्थी को आचमन व प्रसाद देता है। यह व्यवस्था शायद इसलिए है कि मंदिर अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट है तथा यहां से बिना सेना की अनुमति के आगे नहीं जा सकते हैं।सेना मनोयोग से मंदिर का संचालन कर रही है। उसने यहां औषधीय वनस्पतियों का एक बगीचा भी विकसित कर दिया है। मुख्य सड़क से मंदिर तक जाने का दो किमी का मार्ग भी सेना के द्वारा निर्मित है। वैसे ही जैसे सिलीगुड़ी से गंगटोक मार्ग का संधारण सीमा सड़क बल की 'स्वस्तिक’ इकाई करती है।
हमारे लिए गंगटोक नगर का अन्य मुख्य आकर्षण तिब्बत ज्ञान म्यूजियम था। इसमें तिब्बत से सुरक्षित लाकर रखे गए भगवान बुद्ध और बौद्ध धर्म से संबंधित कलाकृतियों, चित्रों, मूर्तियों, पांडुलिपियों इत्यादि का अनमोल तथा दुर्लभ संग्रह है। नगर से 24 किमी दूर रुमटेक में बौद्ध मठ है जिसमें करमापा निवास करते हैं। इस मठ में बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत, नेपाल, भूटान, तिब्बत आदि से बालक और किशोर विद्यार्थी आते हैं। जो तिब्बती बौद्ध संप्रदाय के बारे में रुचि रखते हैं, उनके लिए उपरोक्त दोनों स्थान महत्वपूर्ण हैं।
रुमटेक के रास्ते की एक बड़ी खासियत है कि यहां से गंगटोक का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। पूरा शहर जैसे परत-दर-परत आपके सामने खुलता जाता है। पहाड़ों में क्षेत्रफल मापना सरल नहीं है, किंतु इस रास्ते से देखो तो अनुमान लगता है कि गंगटोक कितने बड़े क्षेत्रफल में फैला हुआ है। ऐसा दृश्य न तो हनुमान टोक से दिखता और न गणेश टोक से। गणेश टोक में जाहिर है कि गणेश मंदिर है जो एक संकरे से टीले पर बना हुआ है और मूलत: यह भी एक व्यू पाइंट है।
देशबंधु में 06 अप्रैल 2017 को प्रकाशित