खैरागढ़। 1984। ऋतुसंहार। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ऐसा आयोजन जिसे ‘न भूतो न भविष्यति’ की कोटि में रखा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। हिंदी कविता पर केंद्रित यह अखिल भारतीय कार्यक्रम था। वह भी पूरे चार दिन का। रमाकांत ने प्रस्ताव दिया कि इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय के सहयोग से इसे खैरागढ़ में आयोजित किया जाए। यूं तो वि.वि. की स्थापना 1954 में हो चुकी थी, लेकिन वह कोई बड़ा संस्थान नहीं था। ललित कलाओं की शिक्षा प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय की अपनी सीमाएं थीं। तिस पर छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले का मंझोले आकार का नगर। रियासत कालीन नगर जिसमें वि.वि. की स्थापना इसलिए संभव हो सकी थी कि पूर्ववर्ती राजपरिवार ने दिवंगत राजकुमारी इंदिरा की स्मृति में तत्कालीन सीपी एंड बरार सरकार को राजमहल दान में देने की पेशकश की थी। ऐसे स्थान पर जहां रेलगाड़ी भी न जाती हो, अखिल भारतीय स्तर का आयोजन करने का प्रस्ताव देना दुस्साहसिक ही माना जाएगा। किंतु सम्मेलन के अध्यक्ष बाबूजी (स्व. मायाराम सुरजन) ने डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, हिंदी विभागाध्यक्ष, इंदिरा कला संगीत वि.वि. की संगठन क्षमता पर विश्वास कर यह बड़ी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी और कहना होगा कि रमाकांत कसौटी पर सौ टंच खरे उतरे। एक नितांत अनौपचारिक, कह लें कि पारिवारिक चार दिनी कार्यक्रम तरतीबवार, सुचारू, सुव्यवस्थित ढंग से संपन्न हुआ। रमाकांत को सबकी सराहना मिली।
इस बीच मई 1976 में बाबूजी ने सम्मेलन के विदिशा अधिवेशन में अध्यक्ष पद संभाल लिया था। उसकी गतिविधियों का भी तेजी से विस्तार हुआ। रमाकांत उस तरफ भी सक्रिय दिलचस्पी लेने लगे। इन गतिविधियों के चलते हम लोगों का संपर्क बढऩे लगा। रमाकांत रायपुर आते तो घर पर ही ठहरते। वे भाभी को भी यदा-कदा साथ लाते, सो दोनों परिवारों के बीच आत्मीयता हो गई। प्रलेस की रायपुर इकाई ने युवा रचना शिविरों की एक श्रृंखला आयोजित करने का निर्णय लिया। पहला शिविर 4-5-6 मार्च 1978 को रायपुर के निकट चंपारन में संपन्न हुआ। इसकी आयोजन समिति में तथा आगे के भी अनेक कार्यक्रमों में रायपुर से बाहर के साथियों को जोडऩे के निश्चय स्वरूप रमाकांत, मलयजी, राजेश्वरजी शामिल हुए। सबके अपने-अपने गुण। रमाकांत बहुत अच्छे वक्ता तो हैं ही, कार्यक्रम का संचालन करना भी उन्हें बखूबी आता है। वे न विषय को भटकने देते हैं और न वक्ता को। मेरा मानना है कि यह गुण उन्होंने और मैंने जाने-अनजाने परसाईजी से सीखा है। हम इस बात पर एक-दूसरे की तारीफ भी करते हैं। अपनी पीठ आप ठोंक लेते हैं कि गोष्ठी के संचालन में हमसे अच्छा कोई नहीं।
रमाकांत की जीवन शैली भी वैसी ही सतर्क और सुगठित है। हिंदी के अध्यापकों में बारहां एक दैन्य भाव देखा जाता है, जो उनमेें बिल्कुल नहीं है। अपनी वेशभूषा, चाल-ढाल, बातचीत के तौर-तरीकों में वे हमेशा सावधान रहते हैं। और कमबख्त का चेहरा तो बिल्कुल फोटोजनिक है। भाभी उनके गायन पर मुग्ध होकर प्रेम में पड़ीं, उनके फोटो पर या उन्हें साक्षात सामने देखकर, यह मुझे नहीं पता; लेकिन रमाकांत के व्यक्तित्व में एक सहज आकर्षण है, सामने वाले को प्रभावित करने की चुंबकीय क्षमता। और शायद यह एक बड़ा कारण है कि उन्हें न तो खैरागढ़ नगर आज तक भूल पाया है, न उनका पूर्व विश्वविद्यालय, और बाहर भी वे जल्दी ही अपना प्रभामंडल बना लेते हैं। बस, प्रभाकर चौबे और ललित सुरजन ही दो प्राणी हैं जिन पर उनका रुआब तारी नहीं हो पाता। शायद डॉ. हरिशंकर शुक्ल पर भी जो उनके शोध दिग्दर्शक याने रिसर्च गाइड थे।
रमाकांत चिरमिरी से खैरागढ़ आए, यह अच्छा हुआ। नहीं, वहां उन्हें ससुराल पक्ष से किसी तरह का खतरा नहीं था। बल्कि इसलिए कि साहित्य के अलावा ललित कलाओं में उनकी सच्ची व गहरी दिलचस्पी है। वे संगीत, नृत्य, चित्रकला की बारीकियों को बखूबी समझते हैं। खैरागढ़ पधारने वाली अनेक विभूतियों के साथ उनके संबंध इस गुण के चलते विकसित हुए। रमाकांत ने सुमधुर कंठ स्वर पाया है। किसी आयोजन में हम कुछ साथी एक ही कमरे में ठहरेथे। रमाकांत ने फैज़ की 'ग़ुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौ बहार चले’ गुनगुनाना प्रारंभ किया तो मैं सोते-सोते उठकर बैठ गया। फिर उन्होंने पूरी तल्लीनता के साथ गाया और हमने तन्मय होकर सुना। अब हाल यह कि रमाकांत जब भी मिलते हैं, मैं उनसे फरमाइश कर यही रचना सुनता हूं। यही नहीं, उनमें एक और गुण है कि वे नकल उतारने में उस्ताद हैं। जब वे साभिनय किसी की हूबहू नकल उतारते हैं तो लोग हँस कर लोट-पोट हो जाते हैं। उन्हें बांग्ला भाषा का भी अच्छा ज्ञान है तथा वे कविगुरु के अलावा अन्य कवियों की रचनाएं भी मन आने पर सुना देते हैं। उनकी ललित कलाओं में जो रुचि व समझ है, वह मुझे प्रभावित करती है। इसने उनके लेखन को भी समृद्ध किया है। ‘उस्ताद के सुर’ जैसी मार्मिक कहानी इस गहरी समझ से ही उपजी है।
यदि ‘ऋतुसंहार’ आयोजन रमाकांत के सांगठनिक कौशल व क्षमता का उत्स है तो छत्तीसगढ़ के कथागीतों पर किए गए शोधकार्य को मैं उनकी अकादमिक प्रतिभा का शिखर मानता हूं। प्रदेश के विभिन्न अंचलों व विविध सामाजिक समूहों में प्रचलित लोकगाथाओं पर उन्होंने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक शोध किया है। इस प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने, उससे आमजन को परिचित कराने व भविष्य के लिए संदर्भ उपलब्ध कराने इत्यादि दृष्टियों से यह एक उल्लेखनीय व ऐतिहासिक महत्व का कार्य है। मील का पत्थर कहूं तो गलत नहीं होगा। मुझे इस शोध कार्य के पुस्तक रूप में शीघ्र आने की प्रतीक्षा है, गो कि इसके अनेक अध्याय ‘अक्षर पर्व’ में प्रकाशित हो चुके हैं। एक सर्जनात्मक लेखक के नाते भी रमाकांत का फलक काफी विस्तृत है। मैं सिर्फ उन बिंदुओं का उल्लेख करना चाहूंगा जिन पर अभी विद्वत समाज का ध्यान ठीक से नहीं गया है। रमाकांत श्रीवास्तव को हिंदी के अधिकतर पाठक एक कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। कथा लेखन उनके कृतित्व का बड़ा एवं महत्वपूर्ण अंग है, किंतु संपूर्ण नहीं।
यह शायद बहुतों के ध्यान में न हो कि रमाकांत बाल साहित्य के एक श्रेष्ठ रचयिता हैं। उन्होंने किशोरवय के लिए ‘बच्चू चाचा के कारनामे’ शीर्षक से एक मनोरंजक उपन्यास लिखा है। इस विधा में उनकी अन्य रचनाएं भी हैं। वे फिल्मों के शौकीन हैं तथा एक समालोचक की दृष्टि से फिल्मों का विश्लेषण करते हैं। अमिताभ बच्चन को अपूर्व प्रतिष्ठा मिलने का उन्होंने समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है। इसके अलावा समय-समय पर फिल्मों पर सटीक लेख लिखे हैं। वे वैश्विक राजनीति के भी अध्येता हैं तथा उनकी कुछ कहानियां इस पृष्ठभूमि पर भी हैं। अमेरिका द्वारा ईराक पर किए गए एकतरफा व अन्यायपूर्ण हमले को अपनी कहानी का विषय उन्होंने बनाया है। शायद वर्तमान समय में वे अकेले कथाकार हैं जो सतह पर दीखते बाजारवाद के बजाय उसके प्रणेता नवपूंजीवाद व नवसाम्राज्यवाद के मूल में जाकर उसकी पड़ताल कर रहे हैं।
रमाकांत जब तक खैरागढ़ में थे, हर माह एक-दो बार मिलना हो जाता था। कभी वे आए, कभी हम चले गए। उन्होंने दाऊचौरा मोहल्ले में बड़े प्यार से अपना घर बनाया था। मुख्य मार्ग पर गली के एक तरफ जीवन यदु, दूसरी तरफ गोरेलाल चंदेल का घर, गली में प्रवेश करने के कुछ मीटर बाद रमाकांत व दीपा भाभी का घरौंदा। तीन साहित्यकार एक साथ। पारिवारिक कारणों से रमाकांत खैरागढ़ छोड़ पहले भोपाल गए, वहां से रायपुर लौटे, वापस खैरागढ़ जाने का निश्चय किया, लेकिन अंतत: भोपाल दुबारा गए और वहीं के होकर रह गए। अब मैं भोपाल जाता हूं तो भेंट होती ही है। अन्यथा फोन पर जब मन होता है, बातें कर लेते हैं, लेकिन मन कहां भरता है?
मैंने रमाकांत की साहित्यिक उपलब्धियों पर यहां चर्चा करने से बचना चाहा है। यह सुधी समीक्षकों का काम है। मैं तो एक प्यारे दोस्त को, जिससे कई बार तीखी बहसें भी होती हैं, पचहत्तर साल के हो जाने के अवसर का उपयोग कुछ मीठी यादों को ताजा करने के साथ बधाई व शुभकामनाएं देने के लिए कर रहा हूं।
राग भोपाली अप्रैल 2017 अंक में प्रकाशित/ देशबंधु में 30 अप्रैल 2017 को साभार पुनर्प्रकाशित