Thursday, 20 April 2017

भारत : एक वर्गभेदी समाज



विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने हाल में संसद में बयान दिया कि भारत नस्लवादी देश नहीं है। यह बात उन्होंने नोएडा में कुछ लोगों द्वारा एक नाइजीरियाई छात्र की पिटाई के संदर्भ में देश-विदेश में हो रही प्रतिक्रिया पर अपना पक्ष रखते हुुए कही। सुषमा जी वरिष्ठ राजनेता हैं, चालीस साल का उन्हें संसदीय अनुभव है, वे एक लोकप्रिय नेता भी हैं इसलिए वे कोई बात कहती हैं तो हमें उसे मान लेना चाहिए। लेकिन क्या वास्तविकता वही है जो सुषमा स्वराज बता रही हैं या हम सच्चाई को जानते-बूझते भी उसे नकार रहे हैं। यह हमारी शुभेच्छा हो सकती है कि देश नस्लवाद से मुक्त हो किन्तु हाल की ही कुछ घटनाएं इस विचार पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं; और हाल की ही बात क्या, यह तो इतिहास सिद्ध है कि भारत एक वर्ग-विभक्त समाज है। हमारे भीतर अपने को लेकर एक विचित्र किस्म का श्रेष्ठताबोध और साथ-साथ पवित्रताबोध है। दूसरे शब्दों में जितनी छुआछूत, जितना अपने-पराए का बोध, जितना ‘हम’ और ‘वे’ का विभाजन भारतीय समाज में है, वह शायद दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है।

हमारी वर्गभेदी सोच सिर्फ नस्लवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि वह विभिन्न कोटियों में फैली हुई है, जिसका सबसे ज्वलंत प्रमाण तो जातीय व्यवस्था में देखने मिलता है। यूं कहने को भारत एक जनतंत्र है जिसकी परिभाषा के अनुसार सारे नागरिक एक समान हैं। परन्तु क्या ऐसा सचमुच है? अभी चार दिन पहले बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती थी। बड़ौदा के उदारवादी राजा ने उन्हें अमेरिका पढऩे भेजा। लौटकर आए तो राजकीय पद पर उन्हें नियुक्त किया। लेकिन कैसी विडम्बना है कि जिस व्यक्ति की प्रतिभा को राजा ने पहचान लिया, उसका समादर बड़ौदा के जनसमाज ने नहीं किया। उन्होंने झूठे नाम से किराए पर मकान लिया, सच्चाई पता चलने पर वह मकान भी छोडऩा पड़ा। किसी मित्र ने उनकी मदद नहीं की। यहां तक कि गायकवाड़ राजा के प्रधानमंत्री ने भी उनका तिरस्कार किया। यह पुराना किस्सा है। पर मुझे इसी 14 अप्रैल को भाजपा के एक विधायक का बयान सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ कि बाबासाहेब ने संविधान नहीं लिखा, वे सिर्फ ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमेन थे। यह जानकर भी हैरत नहीं हुई कि उसी दिन आदित्यनाथ योगी ने महापुरुषों की जयंती पर अवकाश न देने का प्रस्ताव रखा। उन्हें इसके लिए और कोई दिन नहीं सूझा!

जातिवाद के बारे में जितना कहा जाय कम है। यह भी देखिए कि अपने ही अन्य देशवासियों के प्रति हमारी सोच क्या है। भाजपा नेता तरुण विजय संघ-दीक्षित हैं, पूर्णकालिक पत्रकार रहे हैं, पूर्व सांसद भी हैं। उन्होंने कहा कि हम अगर नस्लवादी होते तो दक्षिण भारत के काले लोगों के साथ क्यों रहते? इस बयान पर बवाल मचा। तरुण विजय ने इसे वापिस ले लिया। माफी भी मांग ली। लेकिन यह उनके अकेले की बात नहीं है। सवाल हमारी सामूहिक सोच का है। दक्षिण भारत के श्यामवर्णी लोगों को उत्तर भारत के गेंहुए रंग के लोग सदा से हिकारत की नज़र से देखते आए हैं। अपने बीच किसी काले व्यक्ति की उपस्थिति हमें खटकती है। हम उसके सामने नहीं तो पीठ पीछे मजाक उड़ाते हैं। उसे तरह-तरह की उपमाएं देते हैं। दूसरी ओर गोरे रंग के पीछे हमारे पागलपन का जवाब नहीं है। गौरांग विदेशियों पर हम बिछे जाते हैं। देश का बाजार गोरेपन की क्रीम आदि सौंदर्य प्रसाधनों से अटा पड़ा है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत में शरीर के रंगत का भले ही थोड़ा सा फर्क हो, किन्तु इस मामले में दोनों बराबर हैं। ऊपर हम जातिप्रथा की बात कर आए हैं। उसका एक और निंदनीय रूप वैवाहिक विज्ञापनों में और विवाह तय कराने वाली संस्थाओं के रजिस्टर में देखने मिलता है। आज भी विवाह संबंध तय करने में जाति, उपजाति, धर्म, प्रदेश और रंग-रूप को जितना महत्व दिया जा रहा है वह बेहद शर्मनाक है। ये विज्ञापन जीता-जागता उदाहरण हैं कि भारतवासी आज भी किस कदर सड़ी-गली परंपराओं की बेडिय़ों में जकड़े हुए हैं। इसमें थोड़ा सा परिवर्तन आया है कि लडक़ा/लडक़ी अपनी जात की न सही हिन्दू होना चाहिए लेकिन मुसलमान या क्रिश्चियन नहीं। लडक़ी सर्वगुण सम्पन्न तो हो ही, उसे घरेलू काम-काज में भी दक्ष होना चाहिए। इस गलित मानसिकता से बहुत कम लोग उबर पाए हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारी समाज व्यवस्था में स्त्री के साथ आज भी समानता का बर्ताव नहीं होता। यह स्थिति चारों तरफ है। कवयित्री निर्मला पुतुल ने हाल में कहा है कि आदिवासी समुदायों में भी सभी को पुरुष की आज्ञा ही मानना पड़ती है। जबकि हमारे समाजशास्त्री अब तक मानते आए हैं कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष बराबरी से रहते हैं। गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण एक अंतहीन बहस का मुद्दा बना हुआ है। महाराष्ट्र में कुछ डॉक्टर पीसीपीएनडीटी एक्ट का उल्लंघन करते पाए गए तो सरकार ने (शायद उन्हें बचाने की दृष्टि से ही) एक नया उपाय खोज लिया। वहां विधेयक आ रहा है कि गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण अनिवार्य कर दिया जाए जिससे कन्या भ्रूण हत्या रुक सके। यह उल्टी गंगा बहाने वाली बात हो गई। प्रधानमंत्री बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का लाख नारा देते रहें, हम तो वही करेंगे जो हम करते आए हैं। यह विचित्र है कि जो सामाजिक संस्थाएं बेटी बचाओ की बात करती हैं, उनमें से कई का नारा है कि बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे। गोया कि उसका जन्म बहू बनने के लिए हुआ है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है!

मैं एक और बहुत साधारण से दिखने वाले बिन्दु पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। विकलांग को प्रधानमंत्री ने दिव्यांग संज्ञा दे दी, लेकिन उससे उसकी स्थिति में क्या कोई सुधार आया?  रेलगाड़ी में, हवाई जहाज में, गर्भवती महिलाओं, छोटे बच्चों के साथ वाली महिलाओं, विकलांगों और वृद्धजनों के लिए सीटें आरक्षित होती हैं। सामान्य तौर पर किसी भी कतार में उन्हें प्राथमिकता देने का शिष्टाचार है पर इसका पालन शायद ही कहीं होता हो। इसका अनुभव अभी मैंने हाल में किया। दिल्ली हवाई अड्डे पर चेक-इन की कतार में दो जुड़वा बच्चों के साथ चल रही युवा मां को प्राथमिकता देने की बात पर मुझे सहयात्रियों से बहस करनी पड़ी। ऐसा लगता है कि हमारे दिलों में माया-ममता का कोई स्थान ही नहीं है।

आप कहेंगे कि इन सारी बातों का नस्लवाद से क्या संबंध है? मेरा उत्तर है कि नस्लवाद एक प्रकार का वर्गभेद ही तो है। जब आप किसी भी रूप में वर्ग विभाजन करते हैं या वर्ग विभाजन देखकर मौन रहते हैं तो वहां आपकी संकीर्ण एवं क्रूर मानसिकता प्रकट होती है। आप जहां सबल हैं वहां सब कुछ अपने लिए हथिया लेना चाहते हैं। दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित करने में, उनका तिरस्कार करने में, आपको लज्जा नहीं आती। संकोच का अनुभव नहीं होता। आप ब्राह्मण हैं तो अपने ब्राह्मणत्व का बखान करेंगे। गौरवर्ण हैं तो अपने गोरेपन पर इठलाएंगे। उत्तर भारत के हैं तो दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के नागरिकों को हिकारत से देखेंगे। जहां कहीं साथ रहने का मौका आएगा वहां आप अपने लोगों का समूह बना लेंगे। यह सब हमारे सामने हो रहा है और हम इस भेदभाव से तनिक भी विचलित नहीं दिखाई देते।

यह विडंबना है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में जब भारतीय मूल के नागरिकों पर हमले होते हैं तो हम उन देशों को नस्लवादी करार देने में एक मिनट की भी देरी नहीं करते। अन्यथा वे देश हमें स्वर्ग समान प्रतीत होते हैं और वश चले तो हम वहीं जाकर रहें। लेकिन जब हम अपने देश में धर्म, जाति, रंग व लिंग के आधार पर आक्रमण और अत्याचार करते हैं तो उसमें हमें नस्लभेद दिखाई नहीं देता। जब भारतीय मूल के लोग विदेशों में जाकर नाम कमाते हैं तो हम गौरव महसूस करते हैं लेकिन अगर विदेशी मूल का कोई व्यक्ति भारत को अपना घर बना ले, यहां रच-बस जाए और समाज में स्थान बना ले तो उसे देखकर हम दुखी हो जाते हैं। अपना सिर मुड़ा लेने की धमकी दे डालते हैं। हमारे हृदय में ‘अन्य’ के प्रति जो क्रूरता का भाव है क्या हम कभी उससे मुक्त हो पाएंगे?

देशबंधु में 20 अप्रैल 2017 को प्रकाशित 

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