Thursday, 27 April 2017

प्रधानमंत्री की सही लेकिन अधूरी पहल


 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों आम जनता के मन को छूने वाली दो बातें कीं। एक तो अपने मासिक संदेश ‘मन की बात’ में उन्होंने खाद्यान्न के अपव्यय का मुुद्दा उठाया जिसके बाद होटलों और भोजनालयों में परोसी जाने वाली भोजन सामग्री में कटौती के लिए कानून बनाने की चर्चा ने भी जोर पकड़ा। प्रधानमंत्री का दूसरा कदम वीआईपी वाहनों से लालबत्ती हटाने के संबंधी केबिनेट के फैसले के रूप में सामने आया। मेरा मानना है कि दोनों बातें सही दिशा में हैं, लेकिन जिस रूप में ये सामने आई हैं उसमें अधूरापन झलकता है।

पहले खाद्यान्न की बर्बादी के मुद्दे को ही लें। यह सही है कि देश में अन्न की बर्बादी होती है। उसके बहुत से कारण हैं और यह भी मानना होगा कि बर्बादी को सौ फीसदी रोकना संभव नहीं है। प्रधानमंत्री का रेडियो उद्बोधन मैंने नहीं सुना, लेकिन जो प्रतिक्रियाएं जानने मिलीं उससे अनुमान होता है कि श्री मोदी ने होटलों इत्यादि में पके हुए भोजन के फेंके जाने से हुई बर्बादी को ध्यान में रखकर बात की थी। क्योंकि इसके तुरंत बाद केन्द्रीय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान ने होटलों में परोसे जाने वाले भोजन की मात्रा तय करने का विचार व्यक्त किया। हो सकता है कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ही यह बात कही हो! जो भी हो, इस पर जनता के बीच बहुत चर्चाएं हुईं, अनेक जनों ने इस पर आपत्ति जतलाई कि सरकार अब खानपान पर भी नियंत्रण रखेगी। इसे मोदीजी के ‘‘लैस गवर्नमेंट’’ के संकल्प के विपरीत कार्रवाई भी निरूपित किया गया। बाद में स्पष्टीकरण आया कि सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं है। मेरी समझ में इस विचार में एक व्यवहारिक बिन्दु निहित है। हमें तो बचपन से ही सिखाया गया था कि थाली में जूठन नहीं छोडऩा चाहिए। अधिकतर लोग अपने घरों में इस संबंध में सावधानी बरतते हैं कि भोजन व्यर्थ न जाए। किन्तु होटलों में सामान्यत: इसका पालन नहीं होता। अगर एक अकेला व्यक्ति होटल में भोजन करने जाए और सब्जी या दाल की प्लेट दो लोगों के पूरते हो तो वह क्या करे। होटलवाले आधा प्लेट दाल, चावल या सब्जी क्यों नहीं दे सकते? इसमें न कानून बनाने की बात है, न सरकारी दिशानिर्देश की। यह तो रेस्तोरां और भोजनालयों के संचालकों को स्वयं सोचना चाहिए।

बहरहाल, ऐसा हो तो बेहतर होगा, लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर कहा सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। यह एक अधूरी पहल है। महबूबा मुफ्ती का विवाह भोज में अतिथि संख्या पर नियंत्रण का निर्णय तथा कांग्रेस सांसद सुश्री रंजीत रंजन का वैवाहिक समारोहों में फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का निजी सदस्य बिल भी इस अधूरी सोच के परिचायक हैं। (मैंने अक्षर पर्व के अप्रैल 2017 के अंक में इन दोनों प्रस्तावों पर विस्तारपूर्वक लिखा है)। मुझे एक किस्सा याद आता है। मैं 1970 में एक बारात में पुणे गया था। पंगत बैठी तो बड़ी-बड़ी थालियों में कोई चालीस-पचास व्यंजन परोसे गए। दस-बीस नमकीन, दस-बीस मिठाईयां, इत्यादि। फिर भोजन प्रारंभ होने के पहले कुछ सेवादार खाली पात्र लेकर आए, बारातियों से आग्रह किया कि आपको जितना खाना हो उतना लीजिए, बाकी थाली से निकालकर खाली पात्र में डाल दीजिए। यह एक सम्पन्न परिवार द्वारा अन्न की बर्बादी रोकने का आग्रह था कि अपनी हैसियत का प्रदर्शन, यह पाठक समझ ही गए होंगे।

1970 के ही आसपास तत्कालीन बंबई में एक दंपति ने कुछ इसी तरह भोजन की बर्बादी रोकने का अभियान चलाया था। वे अपनी कार या स्टेशन वैगन लेकर विवाह भोजों में पहुंचते थे और आग्रह करते थे कि बची हुई सामग्री उन्हें दे दें, जिसे वे गरीब बस्तियों में जाकर बांटते थे। समाजसेवा करने का यह भी एक तरीका था जिसकी बहुत सराहना हुई, लेकिन यह प्रयोग लंबे समय तक नहीं चल पाया। दरअसल, सवाल तो यह है कि इस तरह का दिखावा किया ही क्यों जाए। प्रधानमंत्री अगर भोजन की बर्बादी सचमुच रोकना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को सख्त निर्देश देना चाहिए कि वे वैवाहिक या अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों में फालतू की टीम-टाम न करें। नितिन गडकरी इत्यादि ने जिस धूमधाम से बीते दिनों में ऐसे आयोजन किए, क्या वह मोदीजी को नहीं पता है! अगर वे राजनीति से परे हटकर विचार करें तो इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी के उदाहरण उनके सामने है, जिन्होंने क्रमश: राजीव और प्रियंका के विवाह अत्यन्त सादगी से सम्पन्न किए। अभी रायपुर में मोरारी बापू की रामकथा चल रही है। उसमें रोज ढेरों व्यंजन परोसे जा रहे हैं जिसकी सूची बड़े गर्व के साथ अखबारों में छपती है, दूसरी तरफ मोरारी बापू स्वयं उपदेश दे रहे हैं कि भोजन की बर्बादी न करें। क्या स्थानीय आयोजकगण सादगीपूर्ण भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकते थे?

प्रधानमंत्री ने जो ठोस निर्णय लिया वह वीआईपी वाहनों से लालबत्ती हटाने का है। इसका आम जनता पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है किन्तु यह भी एक आधी-अधूरी कवायद है। मुझे खुशी है कि इस निर्णय में जो कमियां हैं उनकी ओर जनता का ध्यान गया है और उन पर सोशल मीडिया में तर्कपूर्ण बातें हो रही हैं। सबसे अहम प्रश्न है कि क्या लालबत्ती हटने से अपने आपको वीआईपी मानने वाले नेताओं का घमंड कम हो जाएगा। उत्तर है कि ऐसा होने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। यह तो हमारे देश की परंपरा है कि जो अपने से कमजोर है उस पर धौंस बनाए रखो। हमारे जनतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यही है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि की गाड़ी में लालबत्ती रहे न रहे, इससे क्या फर्क पड़ता है? वे जब भी सडक़ पर निकलेंगे उनके लिए पहले से यातायात रोक दिया जाता है और वह भी दो-चार मिनट के लिए नहीं, बल्कि कई-कई घंटों तक। मैंने जापान से लेकर अमेरिका तक देखा है कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के लिए कभी भी यातायात दो या तीन मिनट से ज्यादा नहीं रुकता। मेरे जेहन में तो 1970 के दशक के ‘द गार्जियन’ अखबार में छपी वह तस्वीर आज तक बसी है कि प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ ट्रैफिक जाम में फंस जाने के कारण कार से उतरे और अपना ब्रीफकेस लेकर पार्लियामेंट के लिए पैदल चल पड़े। पाठकों को स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे का भी स्मरण होगा जो पत्नी के साथ सिनेमा देखकर पैदल घर लौट रहे थे, और अज्ञात हमलावर ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी। क्या हम अपने देश में ऐसी सहजता की कल्पना कर सकते हैं?

आप कहेंगे कि सुरक्षा की दृष्टि से भारत में ऐसा नहीं हो सकता। चलिए, मान लेते हैं, लेकिन फिर कोई बताए कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के काफिले में कितने वाहन होने चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से आगे-पीछे एक-एक वाहन हो, एकाध एम्बुलेंस भी हो, लेकिन पच्चीस-तीस गाडिय़ां किसलिए? यह याद दिलाना आवश्यक नहीं होना चाहिए कि तमाम सुरक्षा इंतजामों के बावजूद इस देश ने दो प्रधानमंत्रियों की हत्या होने की त्रासदी झेली है। कहने का आशय यह है कि लाव-लश्कर से सुरक्षा नहीं होती, उसके लिए सुरक्षातंत्र की मुस्तैदी आवश्यक है। इंग्लैंड में प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर पर भी आतंकी हमला हुआ था, लेकिन उससे डरकर उन्होंने अपना सुरक्षा प्रबंध दुगुना-तिगुना नहीं कर लिया था। हमें लगता है कि यह सुरक्षातंत्र भी एक तरह से लालबत्ती की तरह ही स्टेट्स सिंबल बन गया है।

यह सोचने की बात है कि केन्द्र या राज्य के किसी मंत्री के काफिले में पांच-सात वाहन क्यों होना चाहिए? इसी तरह से सांसदों और विधायकों को सुरक्षा प्रहरी देने की क्या आवश्यकता है? कुछेक प्रांतों में तो पूर्व विधायकों को भी यह सुविधा दी जा रही है। क्या इस तरह वे नहीं जतलाते कि उनका जीवन आम नागरिकों के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है? यह भी सोचने की बात है कि खाली-पीली अकड़बाजी की इस महामारी से राजनेता ही पीडि़त नहीं हैं, दूसरे, तीसरे और चौथे खंभे में भी यह रोग फैला हुआ है। हमारे यहां अफसरों के मिजाज ही नहीं मिलते, वही स्थिति न्यायिक अधिकारियों की भी है और हम जो मीडिया में हैं वे भी अपनी धौंस जमाने से कब बाज आते हैं! यह सही है कि सारे लोग ऐसे नहीं हैं, लेकिन सामान्य धारणा तो यही है कि ये सब अहंकार में डूबे हुए लोग हैं। आम जनता को दिन-रात उनके घमंड का सामना करना पड़ता है। सिर्फ कार की छत से लालबत्ती हटाने से इस रोग का इलाज नहीं होगा। क्या प्रधानमंत्री इस दिशा में कोई नवाचार करेंगे या भ्रष्टाचार दूर करने और स्वच्छ भारत बनाने जैसे नारों की तरह उनके उपरोक्त दोनों विचार भी पवित्र मंतव्य बनकर रह जाएंगे!

देशबंधु में 27 अप्रैल 2017 को प्रकाशित 

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