Monday, 10 April 2017

आडंबर के विरुद्ध




बिहार के सुपौल संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित कांग्रेस सदस्य श्रीमती रंजीत रंजन ने लोकसभा में एक निजी सदस्य विधेयक इस बजट सत्र में पेश किया है। संसदीय जनतंत्र में कई बार संसद सदस्य अपने विचारों को पुरजोर तरीके से सामने रखने के लिए तथा अपने मतदाताओं के बीच प्रभाव डालने के लिए ऐसे प्रस्ताव पेश करते हैं। इसके लिए पार्टी के अनुमोदन अथवा समर्थन की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे बिलों पर चर्चा का अवसर भले ही मिल जाए, लेकिन इनका पारित होना लगभग असंभव होता है। संसदीय इतिहास में दो-चार मौके ही आए हैं जब किसी निजी सदस्य विधेयक को पारित किया गया हो। बहरहाल रंजीत रंजन ने जो विषय सामने रखा है वह अत्यंत रोचक होने के साथ-साथ प्रासंगिक है। उस पर संसद में कोई निर्णय हो या न हो भारतीय समाज में व्यापक चर्चा अवश्य होना चाहिए। अपने प्रस्ताव में श्रीमती रंजन ने विवाह खर्च की अधिकतम सीमा पांच लाख रुपए करने की मांग की है। विवाह समारोह में अतिथियों व व्यंजनों की संख्या सीमित रखने की बात भी उन्होंने कही है। जो लोग निर्धारित सीमा से अधिक व्यय करें उन पर जुर्माना लगाया जाए तथा इस तरह प्राप्त राशि गरीब परिवारों की बेटियों के विवाह में उपयोग की जाए, यह भी उनका मत है। 

इस प्रस्ताव पर अभी लोकसभा में चर्चा होगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता, किन्तु लगभग इसके समानांतर चलते हुए महबूबा मुफ्ती की सरकार ने जम्मू कश्मीर विधानसभा में यह विधेयक पास कर दिया है कि राज्य में किसी विवाह समारोह में पांच सौ से अधिक मेहमान न बुलाएं जाएं। इस बिल में कुछ अन्य प्रावधान भी हैं। इन दोनों प्रस्तावों में एक विचार समान है कि देश में शादियां बेहद खर्चीली हो रही हैं, आडंबर बढ़ गया है, गैर जरूरी शानो-शौकत का प्रदर्शन किया जा रहा है, बात हद से बढ़ गई है और इस पर रोक लगाना चाहिए। अपने आप में यह विचार ठीक मालूम होता है, लेकिन इसे लेकर मीडिया में महबूबा मुफ्ती और रंजीत रंजन दोनों की किसी न किसी तरीके से खिल्ली उड़ाई जा रही है। एक पत्रिका ने कश्मीरी शादी में होने वाली दावत का फोटो छापा, तो रंजीत रंजन के बारे में बताया गया कि वे खुद अपनी शादी में जालंधर से बिहार चार्टर्ड प्लेन लेकर आई थीं और यह भी कि वे हार्ले डेविडसन जैसी महंगी बाइक चलाती हैं। कश्मीर में या कहीं भी अभी शादियों में जो चलन है उसका कोई फोटो डाल देना क्या सिद्ध करता है और क्या सुश्री रंजन के विचारों में कोई परिवर्तन आया है तो उसे नकार देना चाहिए? 

मुझे वह समय याद आता है जब देश में अतिथि नियंत्रण आदेश लागू था। कुछ प्रांतों में तो विवाह हो या अन्य कोई समारोह, पच्चीस से अधिक मेहमान बुलाने की अनुमति नहीं थी। पश्चिम बंगाल में वैवाहिक निमंत्रण में लिखा होता था- अपना राशन खुद लेकर आइए। इसका अर्थ था कि अगर अतिथि संख्या सीमा से अधिक हो गई और कहीं छापा पड़ जाए तो बताया जा सके- सब अपना-अपना राशन खुद लेकर आए हैं, मेजबान ने कानून नहीं तोड़ा है। ये वे दिन थे जब देश में अन्न की कमी थी। पैंसठ-छयासठ में दो साल लगातार अकाल झेलना पड़ा था; बहुत सम्पन्न लोगों को छोडक़र बाकी को गेहूं, चावल, तेल, शक्कर के लिए राशन दुकान के आगे लाइन लगानी पड़ती थी; शादी हो या बरसी, सामाजिक परंपराओं के निर्वाह के लिए लोग कालाबाजार से प्रबंध करते थे। वे दिन हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं, लेकिन  यह भी सोचने की बात है कि आज जो देख रहे हैं वह कितना शोभाजनक है। 

मैं यहां हिन्दी सिनेमा के प्रभाव को देखता हूं। 1994 के अंत या 1995 की शुरूआत में ‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म आई थी। इसने वैवाहिक या अन्य पारिवारिक समारोहों को लेकर भारतीय समाज की सोच बदलने में भारी भूमिका निभाई। यही दौर था जब देश में तथाकथित आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर प्रारंभ हो चुका था। ‘डोन्ट वरी बी हैप्पी’ जैसे नारे गूंजने लगे थे। ‘इंडिया है अराइव्ड’ का उद्घोष होने लगा था। यही वक्त था जब देश का राजनीतिक विमर्श गरीबी, बेरोजगारी, रोटी, कपड़ा, मकान से हटकर जीडीपी दर पर केन्द्रित होने लगा था, शेयर बाजार ने उछाल लेना शुरू किया था और वायदा कारोबारी हर्षद मेहता देश के युवाओं का आदर्श बन गया था। इस पृष्ठभूमि में ‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म बनी थी। केशवप्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ को सारे संदर्भों में काटते हुए चकाचौंध के आवरण में लपेट दिया गया था। इसी उपन्यास पर पहले बनी फिल्म नदिया के पार और इस फिल्म में जो चाक्षुष अंतर था वह पुराने भारत को पीछे छोड़ एक नया इंडिया बनने का संकेत था। मुझे किन्हीं मायनों में हम आपके हैं कौन हिन्दी की पहली ग्लैमर फिल्म प्रतीत होती है। ऐसा ग्लैमर जिसके पीछे ग्लानि का कोई भाव न हो। इस फिल्म को देखने से लगता है कि भारत में दुख, दारिद्रय, दैन्य जैसा कुछ भी नहीं है, चारों तरफ आनंद ही आनंद है और सब लोग इस आनंद में डूबे हुए हैं। काश कि यह सब सच होता! 

1990 का दशक आने के पहले तक हमारे यहां शादी-ब्याह जैसे कार्यक्रम अपेक्षाकृत सादगी से होते थे। सम्पन्न परिवार भी तडक़-भडक़ करने के बावजूद ऐसे मौकों पर गांव-जवार के साथ चले आ रहे पारंपरिक रिश्तों को निभाने की कोशिश करते थे। बारातें आती थीं तो धर्मशाला में ठहरती थीं या छुट्टियों के दिन हुए तो स्कूल के कमरों में दरी-गद्दे डालकर इंतजाम हो जाता था। आस-पड़ोस के घरों से शादी के लिए बर्तन और दरी आदि उधार मांगकर काम चल जाता था। बारात वापसी के बाद एक बड़ा काम यह होता था कि चाहे कितने थक गए हो, बर्तन-भांडे साफ कर, गिनती गिनकर जहां से उधार लाए वहां वापस कर आओ। इसमें गिलास और कटोरी की अदला-बदली कई बार हो जाती थी। बेटी की शादी में हितू जन काम संभालने आ जाते थे लेकिन भोजन अपने घर जाकर करते थे कि लडक़ी वाले पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पडऩा चाहिए। लेकिन समय बदलने लगा था। उसके दो-एक किस्से याद आ रहे हैं- महाराष्ट्र में ग्रामीण अंचल के किसी बड़े नेता के यहां विवाह था, तो गांव के सारे कुओं में मनों शक्कर डाल दी गई ताकि सबको मीठा पानी या शरबत मिल सके। इस विवाह में शायद तीस हजार लोगों को न्यौता दिया गया था। इसी के आस-पास दूसरी खबर थी कि नागपुर के एक उद्योगपति के यहां कलकत्ता से चार्टर्ड प्लेन में बारात आई और हर बाराती को विदाई में सोने का एक-एक हार दिया गया। ये खबरें एक तरह से देश में नवपूंजीवाद आने की दस्तक दे रही थीं। 

अब जो दृश्य है वह कम से कम मुझ जैसे लोगों की कल्पना से परे था। हम सोचते थे कि दिन-ब-दिन स्थितियां सुधरेंगी, आधुनिक युग में लोग सादगी की ओर आकर्षित होंगे, फिजूलखर्ची छोड़ेंगे, समय की बचत करेंगे, आडंबर को तिलांजलि देंगे, लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा। मैं जिस लिफाफे में निमंत्रण पत्रिका आती थी, उसी में भेंट राशि रखकर वर या वधू को दे देता था। यह सोचकर कि एक नया लिफाफा क्यों बर्बाद किया जाए। मेरी देखा-देखी कुछ और मित्र भी ऐसा करने लगे, लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं हुआ। विवाह में एक से एक महंगे कार्ड छपने लगे हैं, कोई-कोई कार्ड तो पुस्तक या पेटी के आकार में आते हैं। जहां ऐसी फिजूलखर्ची हो रही हो, वहां एक लिफाफा बचाने का क्या महत्व है? अब तो ऐसा हो गया है कि जिसके पास पैसा है उसे खर्च करने के लिए हर समय किसी न किसी बहाने की तलाश रहती है। शादी है तो उसके पहले सगाई है, तिलक है, रिंग सेरेमनी है, लेडी संगीत है, काकटेल पार्टी है और सबके अलग-अलग न्यौते दिए जा रहे हैं। कभी माता-पिता के विवाह की पचासवीं सालगिरह मनाई जाती है, तो कभी पच्चीसवीं, कभी गृहप्रवेश है, तो कभी और कुछ। बर्थ डे पार्टी तो होती ही होती है। कभी ये सारे कार्यक्रम परिवार और इष्ट मित्रों तक सीमित रहते थे; फिर ये सामाजिक संपर्क बढ़ाने का माध्यम बन गए और अब तो इनका मकसद सिर्फ अपने वैभव का प्रदर्शन करना रह गया है। शहर से बाहर दूर-दूर तक मैरिज पैलेस और मैरिज गार्डन्स बन गए हैं जहां ये कार्यक्रम होते हैं। हर कोई यहां तक पहुंचने में समर्थ नहीं होता। 

कोई तीसेक साल पहले स्वयंप्रकाश ने कहानी लिखी थी बड्डे। इस कहानी में मध्यमवर्ग की दोहरी मानसिकता का बेहतरीन चित्रण था। एक तरफ समकक्षों को अपने कुछ होने का अहसास करवाना, दूसरी ओर पार्टी में उपहार के रूप में नकद राशि मिल जाने की उम्मीद कि उसी से पार्टी का खर्च निकल आए। यह उसी समय की कहानी है जब समाजचिंतक ऐसी मानसिकता पर आक्रमण कर स्थितियां बेहतर होने की कल्पना कर रहे थे। लेकिन ऐसा कहां हो पाया? अब तो बच्चों की बर्थ डे पार्टी में रिटर्न गिफ्ट देने का चलन हो गया है जिसका कोई औचित्य मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसका मकसद यही बताना हो कि हम किसी से कम नहीं हैं और बराबरी का लेन-देन करते हैं। इसमें आपसी रिश्तों की मधुरता की गुंजाइश कहीं नहीं है। आजकल सम्पन्न लोगों के यहां से जो पत्रिकाएं आती हैं उसमें एक झूठी विनम्रता के साथ निवेदन होता है कि आपका आशीर्वाद सर्वश्रेष्ठ उपहार है। मतलब यह कि आपसे भेंट, उपहार लेकर हम आपके सामने छोटे नहीं बनना चाहते। यह एक विचित्र चलन है। 

बहरहाल इस पूरे मामले का एक दूसरा पहलू भी है। मुझे हास्य कलाकार स्टीव मार्टिन द्वारा अभिनीत हॉलीवुड की फिल्म माइ डाटर्स मेरिज का ध्यान आ रहा है। पति-पत्नी, बेटी की शादी की तैयारियों में जुटते हैं, बजट बनाते हैं कि इसके भीतर काम करना है, वे फिर एक इवेन्ट मैनेजर को सारा जिम्मा सौंप देते हैं। वह आकर एक तरह से इनके घर पर कब्जा ही कर लेता है। यहां ऐसा करो, वहां वैसा करो, यह सामान हटाओ, वह सामान रखो, मेहमान कहां बैठेंगे, सजावट कैसी होगी, डिनर में क्या-क्या आइटम रहेंगे सारी बातें वही तय करते जाता है और हतप्रभ माता-पिता उसके सामने कुछ नहीं बोल पाते। कुल मिलाकर परिणाम यह होता है कि बजट हवा में उड़ जाता है और विवाह के कर्ज चुकाने में दंपत्ति पर अतिरिक्त बोझ आ पड़ता है। हॉलीवुड की यह कॉमेडी हमारे समाज का सच बन गई है। अब हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन के सारे समारोह इवेन्ट मैनेजमेंट कंपनियों के भरोसे छोड़ दिए गए हैं। इस सिलसिले में अभी हाल की एक रोचक घटना है। ऑस्कर समारोह का इवेंट मैनेजमेंट प्राइस वाटर हाउस कूपर नामक दुनिया की नामी-गिरामी फर्म करती है। इस साल इस कंपनी के इवेंट प्रभारी ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नाम ही गलत घोषित कर दिया। दो मिनट बाद यह गलती सुधारी गई। इसकी कीमत इवेंट मैनेजर को अपनी नौकरी गंवाकर चुकानी पड़ी। 

बहरहाल, हमारे यहां शायद ऐसी स्थिति नहीं आई है। भले ही मंच टूट जाए या डोम गिर जाए, शामियाना कंपनी के असली मालिक बच निकलते हैं। अब परिवार में बेटे का विवाह हो या बेटी का या फिर और किसी प्रयोजन से पार्टी करना हो, अगर  बटुए में या तिजोरी में या बैंक में पर्याप्त धन है तो किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मुहावरे में कहूं तो हाथ-पैर भी नहीं हिलाना है। मैरिज गार्डन और होटल वालों के पास पैकेज हैं। आप अपनी क्षमता और इच्छा के अनुसार पैकेज चुन लीजिए, घर के रिश्तेदारों को भी होटल में खिलाइए, सारा इंतजाम वहीं है। आपको जो सबसे बड़ा काम करना है वह चुनिंदा लोगों के पास जाकर व्यक्तिगत तौर पर निमंत्रित करना है। वे आएंगे तो समारोह की शान बढ़ेगी, आपका रुआब भी बढ़ेगा कि इनके यहां तो ऐसे-ऐसे लोग आते हैं। अगर आप राजधानी में रहते हैं और मुख्यमंत्री नहीं आए तो इसका मतलब है कि आप रसूखदार व्यक्ति नहीं हैं। इन समारोहों में जो ताम-झाम और व्यर्थ का खर्च होता है उस पर बहुत तफसील में लिखा जा सकता है, लेकिन क्या फायदा?

मैं तो यह सोच रहा हूं कि एक अरब तीस करोड़ की आबादी वाले मुल्क में जहां किसान मजदूर में तब्दील हो रहे हैं, जहां बेरोजगारी का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है, जहां युवा पीढ़ी का काफी समय निरुद्देश्य बीत रहा है, वहां ऐसे समारोहों का क्या कोई औचित्य है। शायद इस दृष्टि से है कि जिन्हें कोई स्थायी नौकरी नहीं मिल रही वे इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में छोटा-बड़ा काम पा सकते हैं; कुछ गाने-बजाने का शौक हो तो बैंड पार्टी, धमाल पार्टी या आर्केस्ट्रा पार्टी में शामिल हो सकते हैं; थोड़ी प्रतिभा हो तो शायद डीजे भी बन सकते हैं; कैटरिंग कंपनी द्वारा दी गई सजीली ड्रेस पहनकर भोजन के काउंटर के पीछे खड़े हो सकते हैं; घूम-घूमकर साफ्ट ड्रिंक और स्नैक्स सर्व कर सकते हैं, फूलों की सजावट का काम मिल सकता है; पार्किंग लॉन के अटेन्डेंट बन सकते हैं, कार्ड छापने वाले प्रेस में टाइप सेटर या प्रिंटर का काम मिल सकता है; कूरियर कंपनी में जाकर डिलीवरी ब्वाय बन सकते हैं और वे औरतें जो इस तमाम विद्या से दूर हैं, वे और कुछ नहीं तो बारात में सिर पर रोशनी का हंडा लिए या हाथ में ट्यूबलाइट थामे चल सकती हैं। जो भी रोजी मिलेगी उससे शायद एक वक्त का भोजन जुट जाए। महेश कटारे ने अपनी एक कहानी में इनका मार्मिक चित्रण किया है। 

देश के किसी बड़े जिम्मेदार नेता ने विधानसभा चुनावों के दौरान स्पष्टीकरण दिया कि हमारी सरकार ने नौकरियां नहीं, रोजगार देने का वायदा किया था। शायद उनका वायदा इस तरह के रोजगार देने से पूरा होता हो। ठीक भी है। इस श्रेणी-विभक्त और जाति-विभक्त समाज में इससे बेहतर क्या हो सकता है कि कुछ लोगों के जीवन में हर दिन इवेंटफुल हो, नित नए अनुभवों के रोमांच से भरपूर हो और एक बड़ा वर्ग इनके सपनों को पूरा करने के लिए अपने सपनों का, अपनी इच्छाओं का, अपनी आवश्यकताओं का दमन करता रहे। शेर याद आता है- 
जिंदा हूं इस तरह कि गमे जिंदगी नहीं, 
जलता हुआ चिराग हूं मगर रोशनी नहीं।
बात कहां से चली थी और कहां-कहां घूम गई। रंजीत रंजन और महबूबा मुफ्ती को तो हम भूल ही गए। उनसे अब हम यही कह सकते हैं कि आप जो कर रहे हैं वह लाक्षणिक और सतही है। समाज में हर कदम पर जो अन्याय और विषमता देखने मिल रही है, उसकी तरफ अगर आपने सत्यनिष्ठा के साथ गौर फरमाया होता तो शायद बात कुछ और होती।
 अक्षर पर्व अप्रैल 2017 अंक की प्रस्तावना

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