सिलीगुड़ी से गंगटोक के रास्ते पर चलें तो सबसे पहले पड़ता है सालूगुड़ा नामक गांव। इन दोनों नामों के बीच जो शब्द मान्य और ध्वनि साम्य है, उस पर ध्यान जाए बिना नहीं रहता। संभवत: इनमें कोई अर्थ साम्य भी हो! थोड़ा आगे बढ़ने पर जो गांव आता है उसका नाम है- सेवक। यह नाम भला कैसे पड़ा होगा?यहां भारतीय सेना की कुछ इकाईयां तैनात हैं। और यहीं से साल के वृक्षों की श्रृंखला प्रारंभ हो जाती है, जो गंगटोक तक साथ चलती है और जिसे देखकर बस्तर और मंडला के शालवनों की याद आ जाती है। इसके साथ-साथ सड़क के दायीं तरफ तीस्ता नदी के दर्शन होने लगते हैं। सिलीगुड़ी से लगभग साठ किमी दूरी पर तीस्ता बाज़ार का पड़ाव मिलता है। उसे एक जंक्शन कहना बेहतर होगा जहां से दार्जिलिंग व कलिम्पोंग के रास्ते कट जाते हैं।मुझे बरबस स्मरण हो आया कि 1990 में गोरखा आंदोलन के एक चरण में कलिम्पोंग से हम पुलिस द्वारा अधिगृहीत ट्रक में बैठकर नीचे आ रहे थे और ऊपर से आंदोलनकारी पत्थर फेंक रहे थे। तीस्ता बाज़ार में ट्रक ने हमें छोड़ दिया था, फिर हम बस से सिलीगुड़ी पहुंचे थे। वह एक खौफनाक मंजर था।
तीस्ता बाज़ार के बाद नदी बाईं ओर आ जाती है और सिक्किम राज्य की सीमा तक संग-साथ बनाए रखती है। लेकिन यह वह तीस्ता नहीं है जिसे हमने लगभग तीस साल पहले देखा था। उस समय वह प्रचंड वेग से उतरती, पहाड़ों से टकराती, फेनिल जलधारा थी। अब वह जैसे थक गई है। कैद में जो है। नदी को जगह-जगह रोककर जलविद्युत उत्पादन के लिए बांध बना दिए गए हैं। जहां बांध हैं, वहां ठहरी हुई, गतिशून्य, भावशून्य अपने आप में खोई हुई जलराशि है। जहां बांध नहीं है, वहां चट्टानों पर माथा पटकते हुए रेत में अपना अभिमान खो चुकी जल की क्षीण धाराएं हैं। आगे रास्ते में कहीं रिवर रैफ्टिंग का केंद्र है।यहां पहाड़ी नदी में रबर की नौका में संतरण करने का रोमांचक खेल होता है। लेकिन हमने देखा कि तीस्ता में पानी न होने के कारण रैफ्टिंग के लिए उत्साही जन निराश होकर वापस लौट रहे थे। लगभग सवा सौ किमी के इस घेरदार-घुमावदार मार्ग पर सबसे अच्छी बात यही थी कि जंगल सुरक्षित थे। उनकी छाया पूरे रास्ते हमको सुकून देते चल रही थी।
तीस्ता बाज़ार के कुछ किमी आगे टैक्सी ड्राइवर ने हमें बताया कि नदी के इस तरफ पश्चिम बंगाल और उस तरफ सिक्किम है।पूर्वोत्तर का यह प्रदेश मुख्यत: तीन हिस्सों में विभाजित है- दक्षिण, पूर्व और उत्तर। राजधानी गंगटोक पूर्व में है तथा जो हम अपने बाईं ओर देख रहे थे, वह दक्षिण प्रदेश था। वहीं नदी के पार एक बीयर फैक्टरी थी, जिसके मालिक अभिनेता डैनी डैंगजोंग्पा हैं।इस इलाके में ही कुछ नामी दवा कंपनियों के कारखाने भी स्थापित हैं।गंगटोक के निकट भी एक औद्योगिक प्रक्षेत्र है जिसमें मुख्यत: दवा कारखाने ही हैं। जानकारी मिली कि कुछ साल पहले तक तीस्ता व अन्य नदियों में मछलियां पाई जाती थीं, जो अब लुप्तप्राय हैं, क्योंकि कारखानों के अवशिष्ट रसायनों ने नदी जल को विषाक्त कर दिया है। एक तो बिजली उत्पादन के लिए बने बांध और फिर यह जहरखुरानी। नदियों पर क्या बीत रही है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है। यही सब देखते-सुनते, सोचते-विचारते गंगटोक आ गया।
ड्राइवर विमल ने पूछा कि बाईपास से चलूं या कि शहर से। क्यों? इसलिए कि इस समय ट्रैफिक बहुत होगा। ठीक है, जो सुविधाजनक हो वही करो। पर्वत की गोद में बसे नगर में वहां की भवन संरचना ने एकबारगी ध्यान आकर्षित किया। संकरे-संकरे भूखंडों पर पांच-छह मंजिले मकान। खुली जगह की कमी है। रिहाइश कैसे हो। उपाय यही कि एक मंजिल पर दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठवीं मंजिल तान दी जाए। इन भवनों में लिफ्ट का प्रावधान नहीं है। सीढ़ियां ही तय करना पड़ती हैं। उसमें क्या दिक्कत है। आखिरकार दिन-रात पहाड़ों पर चढऩा-उतरना होता ही है। हां, आप मैदानी इलाके से आए हैं। अभ्यास नहीं है। तकलीफ हो सकती है। किंतु मौसम खुशगवार है। नई जगह देख पाने की खुशी है, उमंग है। ऐसे में पैरों को थोड़ा कष्ट देना पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं है।रायपुर में इस साल ठंड भी ठीक से नहीं पड़ी। उसकी कुछ कसर शिलांग जाकर पूरी की। जो बची वह गंगटोक में पूरी हो गई।
गंगटोक में सबसे बढ़िया स्थान है-पुराने समय का माल रोड, अभी का महात्मा गांधी मार्ग। दार्जिलिंग व शिमला जैसे हिल स्टेशनों में माल रोड पर भारी गहमा-गहमी रहती है। कंधे से कंधे टकराते हैं। यहां का एम.जी. रोड अपने आप में अनूठा है। लंबाई आधा किमी से अधिक नहीं। प्रवेश बिंदु पर महात्मा गांधी की सुंदर आकर्षक प्रतिमा। बीच में उनकी आवक्ष प्रतिमा। मार्ग दो भागों में विभाजित है। बीच में सुंदर फूलों की क्यारियां हैं। यह सिर्फ पदातिक मार्ग है। वाहनों की आवाजाही निषिद्ध। दोनों तरफ किसिम-किसिम की दूकानें हैं- भोजनालय, चायघर, ऊनी वस्त्र, बैंक, मदिरालय इत्यादि। सिक्किमवासी मनुष्य के विश्वस्त साथी श्वान से प्रेम रखते हैं। सो वे भी यहां विश्राम करने आ जाते हैं। वे किसी को परेशान नहीं करते। अपने आप में मगन रहते हैं।यहां एक पीपल का वृक्ष भी है। उसकी एक शाखा को बहुत यत्न से सूंड़ का रूप दे दिया गया है। कोई-कोई श्रद्धालु यहां आकर फूल-पत्र चढ़ा जाते हैं। भविष्य में मंदिर बन जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। बहरहाल, यह स्थान है बहुत दिलचस्प। मन हो तो सड़क पर तफरीह कीजिए, नहीं तो बैंच पर बैठकर लोक व्यवहार निरखिए, रेस्तोरां में जाकर क्षुधा शांत कीजिए, या फिर घर ले जाने के लिए सोवेनियर खरीद लीजिए।
सिक्किम में और गंगटोक में दर्शनीय स्थान अनेक हैं।मौसम अनुकूल हो तो भारत-चीन (तिब्बत) सीमा पर नाथू ला दर्रे तक जा सकते हैं। ऊपर बर्फ गिर गई हो तो गंगटोक के आसपास घूमिए। एक बढिय़ा जगह है-हनुमान टोक। टोक याने पहाड़ की चोटी। यह पहले व्यू पाइंट रहा होगा जहां से गंगटोक शहर की झलक देखी जा सके। मंदिर में लगे एक फलक के अनुसार 1954-55 में भारतीय कूटनीतिज्ञ अप्पा साहब पंत ने स्वप्न में मिले आदेश पर यहां हनुमान मंदिर बनवा दिया, जिसने कालांतर में बड़ा रूप ले लिया। यद्यपि 1974 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा 'ए मूमेंट इन टाइम’ में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। (यह जानना दिलचस्प होगा कि अप्पा साहब की सुपुत्री अदिति पंत अंटाकार्टिका पर पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला थीं।) नोट करने लायक तथ्य यह है कि इस मंदिर की पूरी व्यवस्था भारतीय सेना के जिम्मे है। मंदिर का पुजारी भी कोई सैनिक होता है। वही दर्शनार्थी को आचमन व प्रसाद देता है। यह व्यवस्था शायद इसलिए है कि मंदिर अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट है तथा यहां से बिना सेना की अनुमति के आगे नहीं जा सकते हैं।सेना मनोयोग से मंदिर का संचालन कर रही है। उसने यहां औषधीय वनस्पतियों का एक बगीचा भी विकसित कर दिया है। मुख्य सड़क से मंदिर तक जाने का दो किमी का मार्ग भी सेना के द्वारा निर्मित है। वैसे ही जैसे सिलीगुड़ी से गंगटोक मार्ग का संधारण सीमा सड़क बल की 'स्वस्तिक’ इकाई करती है।
हमारे लिए गंगटोक नगर का अन्य मुख्य आकर्षण तिब्बत ज्ञान म्यूजियम था। इसमें तिब्बत से सुरक्षित लाकर रखे गए भगवान बुद्ध और बौद्ध धर्म से संबंधित कलाकृतियों, चित्रों, मूर्तियों, पांडुलिपियों इत्यादि का अनमोल तथा दुर्लभ संग्रह है। नगर से 24 किमी दूर रुमटेक में बौद्ध मठ है जिसमें करमापा निवास करते हैं। इस मठ में बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत, नेपाल, भूटान, तिब्बत आदि से बालक और किशोर विद्यार्थी आते हैं। जो तिब्बती बौद्ध संप्रदाय के बारे में रुचि रखते हैं, उनके लिए उपरोक्त दोनों स्थान महत्वपूर्ण हैं।
रुमटेक के रास्ते की एक बड़ी खासियत है कि यहां से गंगटोक का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। पूरा शहर जैसे परत-दर-परत आपके सामने खुलता जाता है। पहाड़ों में क्षेत्रफल मापना सरल नहीं है, किंतु इस रास्ते से देखो तो अनुमान लगता है कि गंगटोक कितने बड़े क्षेत्रफल में फैला हुआ है। ऐसा दृश्य न तो हनुमान टोक से दिखता और न गणेश टोक से। गणेश टोक में जाहिर है कि गणेश मंदिर है जो एक संकरे से टीले पर बना हुआ है और मूलत: यह भी एक व्यू पाइंट है।
देशबंधु में 06 अप्रैल 2017 को प्रकाशित
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