Wednesday, 31 May 2017

मोदी सरकार के तीन साल



 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार के तीन साल 26 मई को पूरे हो गए। अब दो साल का समय बाकी है। जैसा कि ज्ञात है लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत है, इसके बावजूद पार्टी ने चुनाव पूर्व किए गठबंधन को जारी रखा तथा तीन साल की अवधि में इसमें कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हुआ। यह दिलचस्प तथ्य है कि वैचारिक दृष्टि से शिवसेना भाजपा के सबसे निकट है। इस बीच जो भी तकरार हुई है वह इन दोनों पार्टियों के बीच ही हुई है। अन्य दल मंत्रिमंडल में स्थान मिलने मात्र से संतुष्ट हैं। उनमें से किसी का भाजपा से नीतिगत विरोध है तो वे उसे बर्दाश्त कर रहे हैं। मंत्री पद की महिमा ही कुछ ऐसी है। वे इस हकीकत को भी जानते हैं कि सरकार उन पर किसी भी रूप में निर्भर नहीं है। कुल मिलाकर केन्द्र में एक स्थायी सरकार है और इससे वे लोग अवश्य ही खुश होंगे जो संसदीय व्यवस्था में बाकी सारी बातों को एक किनारे रख स्थायित्व पर बल देते हैं।

मोदी सरकार के तीन साल पर विहंगम दृष्टि डालने पर पहली बात हमें दिखाई देती है कि पार्टी और सरकार दोनों पांच साल के एक कार्यकाल मात्र के लिए सत्ता में आ जाने से संतुष्ट नहीं हैं। उनकी सतर्क निगाहें भविष्य की ओर हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो सरकार व उसके नेता निरंतर चुनाव लडऩे की मुद्रा में हैं। वे अपनी उपलब्धियों का जितना बखान करते हैं उससे कई गुना अधिक पिछली सरकारों की कथित कमजोरियों अथवा गलतियों की बुराई करते हैं। पिछले सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ- यह हर भाषण की टेक बन गई है। प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में नरेन्द्र मोदी व उनके सहयोगियों ने बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही थी। इसे दोहराते हुए वे आज भी नहीं थकते। वे मानो मतदाता के दिमाग में ठूंस-ठूंसकर भर देना चाहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ही उनका प्रथम और अंतिम विकल्प है। यह भावना जनतंत्र की सेहत पर कितना विपरीत असर डाल सकती है, इस बारे में सोचने की उनकी इच्छा तनिक भी दिखाई नहीं देती।
मोदी सरकार और भाजपा दोनों चूंकि निरंतर चुनाव के मूड में हैं इसलिए स्वाभाविक तौर पर उनका ध्यान अधिकतम प्रचार पर है। यह तो हमने चुनाव के पूर्व देख लिया था कि श्रीे मोदी प्रचार माध्यमों और प्रचार तकनीकी का इस्तेमाल करने में कितने माहिर हैं। सत्ता में आने के बाद इस कला में उन्होंने और महारत हासिल कर ली है। अमेरिका के मेडिसन स्क्वेयर गार्डन से लेकर टोक्यो के स्कूल तक इसके उदाहरण देखने मिले हैं। उन्हें यह भी पता है कि आलोचना भी प्रचार का माध्यम हो सकती है। वे जब अमेरिकी राष्ट्रपति को मिस्टर प्रेसिडेंट न कहकर बराक संबोधित करते हैं तो उसकी चर्चा होती है। वे जब सोने के तार से मढ़ा अपने नाम वाला सूट पहनते हैं तो उसकी भी चर्चा होती है। वे जब दिन में चार बार परिधान बदलते हैं तो उससे भी लोगों का ध्यान आकर्षित होता है। मूल बिन्दु यह है कि लोगों की जबान पर नाम चढऩा चाहिए। फिर सरकार है तो सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करने की सुविधा भी है। प्रधानमंत्री भाषण देते हैं तो सौ-सौ चैनलों पर लाइव प्रसारण होता है।
इस आधार पर मान्यता बन गई है कि प्रधानमंत्री बहुत अच्छे संवादी हैं। वे माह में एक बार आकाशवाणी पर मन की बात करते हैं जिसका विस्तार देखते ही देखते दूरदर्शन, एफएम रेडियो और अनेक टीवी चैनलों तक हो चुका है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने प्रधानमंत्री के संवाद कौशल की प्रशंसा करते हुए उनकी तुलना जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से तक कर दी है। राष्ट्रपति जी ने इसके एक दिन पहले मीडिया को बहुत सारी नसीहतें दे डाली थीं उसे छोड़िए। मैं समझना चाहता हूं कि क्या एकालाप को संवाद कौशल माना जा सकता है। प्रधानमंत्री अपने भाषणों में हर समय उत्तेजना से भरे नज़र आते हैं। उनको आज तक किसी ने शायद मुस्कुराते हुए नहीं देखा है। वे अच्छे भाषणकर्ता तो हैं, लेकिन आम जनता के साथ उनका संवाद लगभग नहीं है। विगत तीन वर्षों में उन्होंने एक बार भी पत्रकार वार्ता का आयोजन नहीं किया। वे अपने दौरों में भी पत्रकारों को साथ नहीं ले जाते। उनका जब मन होता है तब जनसमूह में किसी से बात कर लेते हैं, लेकिन जनता मिलना चाहे तो उनसे नहीं मिल सकती। इसी बिंदु पर तो हम मनमोहन सिंह की भी आलोचना करते थे।
यह भी गौरतलब है कि जिसे तकनीकी रूप से एनडीए सरकार कहा जाता है वह प्रचलन में मोदी सरकार है। यह धारणा बन गई है कि जो कुछ हैं मोदी हैं और उनके आगे-पीछे, आजू-बाजू, दूर-दूर तक और कोई नहीं है। जब मोदी सरकार कहते हैं तो छोटे-छोटे घटक दलों की बात तो क्या, एक तरह से भारतीय जनता पार्टी भी दरकिनार हो जाती है। दूसरे शब्दों में पार्टी का अस्तित्व ही मानो उन पर निर्भर हो गया है जिसका संचालन वे अमित शाह के माध्यम से करते हैं। अब अगर विपक्ष भी नहीं और सत्ता पक्ष भी नहीं बल्कि सिर्फ एक व्यक्ति पर देश का सारा दारोमदार है तो यह स्थिति किस हद तक स्वागत योग्य और वांछनीय है यह राजनैतिक विश्लेषकों के सोचने का मामला है। यूं तो ब्रिटिश संसदीय परंपरा में प्रधानमंत्री को समकक्षों में प्रथम माना गया है। लेकिन भारतीय संदर्भ में नरेन्द्र मोदी का कोई भी समकक्ष आज दिखाई नहीं देता।
यह अच्छी बात है कि पिछली सरकारों की दिन-रात आलोचना करने के बावजूद बीते वर्षों में जो योजनाएं प्रारंभ हुई थीं उन्हें तिलांजलि नहीं दी गई बल्कि उनको पूरा करने पर ध्यान दिया जा रहा है अटल बिहारी वाजपेयी के समय में स्वर्णिम चतुर्भुज योजना प्रारंभ हुई थी। उसे मनमोहन सरकार ने आगे बढ़ाया था, वह आज भी जारी है। असम में ब्रह्मपुत्र पर देश का सबसे बड़ा पुल यूपीए-2 में शुरु हुआ था, उसे मोदी जी ने पूरा किया। इसी तरह पिछली सरकार में जम्मू- श्रीनगर सड़क पर नई सुरंग का निर्माण प्रारंभ हुआ था, वह भी पूरी हुई और मोदी जी के हाथों उसका उद्घाटन सम्पन्न हुआ। एक समय नरेन्द्र मोदी ने मनरेगा की कटु आलोचना की थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद इस कल्याणकारी योजना को समाप्त नहीं किया गया। नरेन्द्र मोदी विशिष्ट पहचान पत्र याने आधार कार्ड के भी खिलाफ थे, लेकिन अब उनकी सरकार इस काम को दस गुने उत्साह से कर रही है। जिस जीएसटी की राह में मोदी जी ने ही रोड़े अटकाए थे उसके लागू होने में भी कुछ ही दिन बाकी हैं।
 यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बहुमतवादी दर्शन से अनुप्राणित है। भाजपा का शुरू से मानना है कि भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनना चाहिए। अपने इस दर्शन को अमली जामा पहनाने का अवसर उसे 2014 की चुनावी जीत के बाद मिला है। लोकसभा में बहुमत हासिल करने के बाद पार्टी ने अल्पमत की चिंता करना छोड़ दिया है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने तो राज्यसभा तक की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया थाजबकि वे स्वयं उसी उच्च सदन के सदस्य हैं। कांग्रेस को विपक्षी दल की औपचारिक मान्यता न देना, आधार के संशोधन बिल को मनी बिल के रूप में पेश करना ताकि राज्यसभा में उस पर चर्चा न हो सके, लोकपाल की नियुक्ति में विपक्षी दल का नेता न होने का हवाला देकर उसे लंबित करना जैसे कुछ उदाहरण हैं जो सत्तारूढ़ दल के अहंकार को प्रतिबिंबित करते हैं। प्रधानमंत्री होने के नाते नरेन्द्र मोदी यदि ऐसे अवसरों पर उदारता का परिचय देते तो यह उनकी अपनी छवि के लिए बेहतर होता।
 बहुमतवाद के अहंकार का अवांछित रूप कई मायनों में हमें देश की आंतरिक शांति व्यवस्था के संदर्भ में देखने मिल रहा है। इस बारे में कितने उदाहरण गिनाए जाएं- हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या, दादरी में अखलाक खान की हत्या, अलवर में पहलू खान की हत्या, झारखंड में भीड़ द्वारा सात लोगों को मार डालना, जेएनयू प्रकरण, फिल्मों की सेंसरशिप, स्वायत्त संस्थाओं में पदस्थापनाएं, ये सारी घटनाएं देश के राजनैतिक इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं और किसी न किसी दिन इनकी समग्र विवेचना होगी। अपने पड़ोसी देशों के साथ प्रधानमंत्री की कोशिशों के बावजूद परस्पर विश्वास के संबंध नहीं बन पा रहे। काश्मीर को अब 'मिनी वार जोन’ की संज्ञा दी जाने लगी है। आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री इन सारे प्रश्नों पर सम्यक विचार करेंगे, हम यही उम्मीद उनसे कर सकते हैं। 
देशबंधु में 01 जून 2017 को प्रकाशित 

Friday, 26 May 2017

चीन, ओबोर और भारत

                                 

 चीन विश्व की दूसरी शक्ति काफी पहले बन चुका है। यह स्थान उसने सोवियत संघ के वारिस रूस से छीना। अब चीन अमेरिका को पीछे छोड़ पहली महाशक्ति बनने के लिए बेताब हो रहा है। लगभग चार साल पूर्व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वाणिज्यिक महत्व के दो प्रकल्प घोषित किए- सिल्क रोड इकानॉमिक बेल्ट तथा ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी मेरीटाइम सिल्क रोड (इक्कीसवीं सदी सामुद्रिक रेशम मार्ग)। इन दोनों को संयुक्त रूप से वन बेल्ट वन रोड याने ओबोर के नाम से अब जाना जाता है। चीन के ही कुछ अर्थशास्त्रियों की राय है कि विगत वर्षों में चीन ने अपनी औद्योगिक उत्पादन क्षमता जिस गति से बढ़ाई है, उसमें उसे नए बाज़ार ढूंढने की आवश्यकता महसूस हो रही है, जहां वह अपने यहां उत्पादित सामग्रियां खपा सके। बाज़ार में माल खपेगा तो आर्थिक शक्ति बढ़ेगी जिससे विश्व में खासकर एशिया में चीन का दबदबा बढ़ेगा। इस महत्वाकांक्षी योजना को दुनिया के सामने औपचारिक रूप से रखने के लिए उसने गत 14-15 मई को बीजिंग में बेल्ट रोड इनीशिएटिव या बीआरआई शीर्षक से एक अंतरराष्ट्रीय शीर्ष सम्मेलन का आयोजन किया। 29 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने इसमें शिरकत की, 30-35 अन्य देशों ने उच्चस्तरीय शिष्ट मंडल भेजे, 130 वैश्विक संगठनों ने भी भागीदारी निभाई, किंतु भारत ने ज़ाहिर तौर पर महत्वपूर्ण इस आयोजन में अनुपस्थित रहना बेहतर समझा।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अधिकतर अध्येता हैरान हैं कि भारत ने शीर्ष सम्मेलन का बहिष्कार क्यों किया, जबकि जापान और वियतनाम जैसे देश जिनके चीन के साथ संबंध दोस्ताना नहीं कहे जा सकते, ने भी चीन का निमंत्रण स्वीकार कर शिरकत की। रूस के साथ भी चीन के संबंध बहुत सहज नहीं हैं, तथा ओबोर प्रकल्प उसके लिए नई परेशानियां खड़ी कर सकता है, तब भी स्वयं राष्ट्रपति पुतिन ने अपने देश के शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। दक्षिण पूर्व एशियाई सहयोग संगठन (सार्क) याने भारत के तमाम पड़ोसी राष्ट्र भी इस वृहद कार्यक्रम में शामिल हुए। सिर्फ एक भूटान ने भारत का साथ निभाया। एक तरफ से देखें तो लगता है कि इस बड़े मौके पर भारत विश्व बिरादरी से अलग-थलग पड़ गया है। वह भारत जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से लेकर अब तक कितने ही मौकों पर विश्व के कितने ही मंचों पर पुरजोर एवं निर्णायक भूमिका निभाई है। लेकिन भारत सरकार के इस बारे में अपने तर्क हैं, जिन्हें जान लेना उचित होगा।
भारत की मुख्य आपत्ति अति प्राचीन रेशम मार्ग या कि सिल्क रोड के प्रस्तावित पुनर्निर्माण एवं विकास को लेकर है। आज से दो हजार वर्ष पूर्व यह मार्ग चीन के शियान नगर से प्रारंभ होकर रोम तक जाता था। इस रास्ते पर मध्य एशिया के अनेक नगर पड़ते थे। वर्तमान में इस मार्ग का एक हिस्सा पाक अधिकृत काश्मीर के उत्तरी इलाके को पार करते हुए जाएगा। चीन ने इस भाग का नामकरण चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (चाइना-पाक इकानॉमिक कॉरीडोर) किया है। भारत का कहना है कि इस गलियारे के निर्माण से हमारी सार्वभौमिकता का हनन होता है, क्योंकि हम संपूर्ण जम्मू-काश्मीर को अपने देश का अभिन्न अंग मानते हैं, और जिस हिस्से पर पाक ने कब्जा कर रखा है, उसे वापिस लेने के लिए लगातार प्रयत्नशील हैं। दूसरे शब्दों में पाकिस्तान को कोई अधिकार नहीं है कि वह चीन को सिल्क रोड बनाने की अनुमति दे सके। इस पेंचीदा मसले का एक संभावित हल दिल्ली स्थित चीनी राजदूत लिओ झाओहुई ने निकाला था कि सीपीईसी याने गलियारे का नाम बदल दिया जाए। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह प्रस्ताव रखा था किंतु एक सप्ताह बाद ही बीजिंग ने उसे वापिस ले लिया अर्थात मामला फिर अटक गया।
इस बिंदु पर भारत का पक्ष नैतिक दृष्टि से मजबूत मालूम होता है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और कहती है। भारत और पाकिस्तान दोनों काश्मीर को मुद्दा बनाकर चाहे जितना वैमनस्य पालते रहें, यह तथ्य सबके सामने है कि एक समय की जो जम्मू-काश्मीर रियासत थी, गत सत्तर वर्षों से उसका एक भाग भारत के पास विलय पत्र पर राजा द्वारा हस्ताक्षर करने के बाद से है, जबकि दूसरा भाग पाकिस्तान के वास्तविक नियंत्रण में है। वह जिसे आज़ाद काश्मीर कहता है, वहां किसी भी तरह की स्वायत्तता नहीं है और उसकी तथाकथित सरकार इस्लामाबाद द्वारा ही मनोनीत की जाती है। पाकिस्तान के कब्जे वाले भाग में चीन लंबे समय से सक्रिय है तथा बलोचिस्तान के निर्माणाधीन ग्वादर बंदरगार तक चीन की आवाजाही का रास्ता वहीं से गुजरता है। यह भारत पर निर्भर करता है कि इस वास्तविकता को किस हद तक स्वीकार करेउसकी तरफ से मुंह मोड़ ले या फिर पूरी तरह आंखें बंद कर ले। चूंकि पाकिस्तान में भी निर्वाचित सरकार के बजाय सेना का ही हुक्म चलता है, इसलिए आपसी बातचीत से कोई समाधान जल्दी होते नहीं दिखता। किंतु चीन को इससे क्या फर्क पड़ता है। वह तो अपने मकसद में कामयाबी हासिल कर ही रहा है।
चीन ने भारत के जले पर नमक छिड़कने का काम बीजिंग शिखर सम्मेलन के अगले ही दिन किया। विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता सुश्री हुआ चुनयिंग ने 16 मई को प्रेस वार्ता में कहा कि चीन के दरवाजे भारत के ओबोर में शामिल होने के लिए सदैव खुले हुए हैं। भारत जब भी चाहे वह इस परियोजना में साथ आ सकता है। प्रवक्ता ने भारत के विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया पर भी कटाक्ष किया कि वे अर्थपूर्ण संवाद की बात करते हैं। संवाद संवाद है, इसमें अर्थपूर्ण का क्या आशय है, हम नहीं जानते। चीन का यह बयान भारत को अवश्य कड़वा लगा होगा। दरअसल, हमें यह अनुमान ही नहीं था कि बीआरआई महासम्मेलन को ऐसी सफलता मिलेगी। कुछेक पर्यवेक्षकों के अनुसार भारत का पांसा उल्टा पड़ गया। उसे उम्मीद न थी कि जिन अमेरिका और जापान के साथ मिलकर वह चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने की कोशिशों में लगा हैवे ही सम्मेलन में अपने उच्चस्तरीय शिष्टमंडल भेज देंगे। श्रीलंका के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ ने भी स्पष्ट कहा है कि प्रस्तावित समुद्री रेशम मार्ग के निर्माण में उनका देश अपने लिए महत्वपूर्ण संभावना देख रहा है। यह वक्तव्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया श्रीलंका यात्रा के तुरंत बाद ही आया। नेपाल तो ओबोर को अंदरूनी मामलों में भारत को रोकने के उपाय के रूप में देख रहा है।
बहरहाल, सम्मेलन तो निपट गया। अगला सम्मेलन दो साल बाद होने का निर्णय हुआ है। ओबोर का भविष्य इस दरमियान होने वाले वैश्विक घटनाचक्र पर काफी हद तक निर्भर करेगा। याद करें कि एशिया को यूरोप से जोड़ने वाला एक भूमि-पथ सौ साल से विद्यमान है, जिसे हम ट्रांस साईबेरियन रेलवे लाइन के नाम से जानते हैं। रूस के सुदूर पूर्व से होकर मास्को तक यह रेल मार्ग बिछा है। जहां से यूरोप के लिए दूसरा रेल मार्ग जुड़ जाता है। याने चीन का सिल्क रूट एक तरह से रूस के साथ प्रतिस्पर्द्धा करेगा। दोनों देशों के बीच विश्वास का स्तर बहुत ऊंचा नहीं है। चीन की विस्तारवादी नीति को वैसे भी विश्व समुदाय में शंका की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी स्थिति में आगे चलकर रूस क्या करेगा, यह सवाल स्वाभाविक ही उठता है। चीन ने अभी लंदन तक मालगाड़ी चलाने का सफल प्रयोग किया है किंतु उसकी लागत समुद्री मार्ग द्वारा परिवहन से तीन गुना पड़ रही है। क्या चीन इस महंगे सौदे को जारी रखने का खतरा उठाएगा। मध्यएशिया के उकाबेकिस्तान आदि देश सिल्क रोड में संभावनाएं देख रहे हैं। यहां भी प्रश्न है कि चीन से भारी रकम उधार लेकर वे जो एसईजेड आदि विकसित करेंगे, क्या वे आर्थिक रूप से लाभकारी सिद्ध होगें या कर्जे में डूब जाएंगे।
श्रीलंका ने भी अभी भले ही समुद्री पथ में अपने आर्थिक उन्नयन की आशा देखी हो, तथ्य यह है कि चीनी सहयोग से श्रीलंका ने जो बंदरगाह विकसित किया है, फिलहाल अनुपयोगी सिद्ध हो रहा है। जापान, वियतनाम आदि पड़ोसी देशों ने भी सम्मेलन में भाग लिया हो, यह शायद उनका एक कूटनीतिक निर्णय रहा हो और चीन के साथ सुदीर्घ व्यापारिक सहयोग अभी शायद दूर की कौड़ी ही हो। इधर भारत एक समानांतर योजना पर काम कर रहा है। रूस के साथ उसकी बातचीत अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण आर्थिक गलियारा जैसी कोई परियोजना शुरु करने पर जारी है। ईरान में भारत के सहयोग से चाबहार बंदरगाह बन रहा है, जो रूस के काम आ सकेगा। दूसरे, एशिया व अफ्रीका के अनेक समुद्रवर्ती देश चीन से प्राप्त आर्थिक सहयोग के कारण उसके दबाव में आ जाते हैं, लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि प्रारंभ से हिंद महासागर भारत का प्रभाव क्षेत्र रहा है इसलिए चीन समुद्री मार्ग पर आंशिक सफलता की ही उम्मीद कर सकता है। भारत यदि अपने पड़ोसी देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों में बेहतर सोच का परिचय दे तो यह उसके लिए अच्छा होगा।
ताज़ा खबर हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के हवाले से है कि भारत समय आने पर ओबोर में शामिल हो सकता है। भारत ने म्यांमार, यहां तक कि पाकिस्तान में निर्माणाधीन कुछ परियोजनाओं का भी हवाला दिया है, जिनमें भारत व चीन दोनों एशियाई अधोसंरचना कार्यक्रम के अन्तर्गत साथ-साथ काम कर रहे हैं। इस बयान से भारत के रुख में नरमी आने का संकेत मिलता है। यह वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में स्वागत योग्य है। इसलिए कि पड़ोसी देशों के बीच जितने सहज-सामान्य संबंध हों उतना अच्छा, यद्यपि हमें उतना ही सदा चौकस रहने की भी आवश्यकता है।
देशबंधु में 25 मई 2017 को प्रकाशित 

Thursday, 18 May 2017

बिलासपुर की पांच बहनें



 बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर पिछले सप्ताह एक ऐसी घटना घटी जिसका समाचार पढ़कर मन उद्विग्न हो उठा। समाचार कुछ इस तरह का था कि एक छत्तीस वर्षीय युवक अपने छह बच्चों के साथ बिलासपुर स्टेशन पर उतरा। गोद में छोटा बच्चा था, जिसे पानी पिलाने के लिए वह रुक गया और साथ में चल रही पांच बेटियां आगे निकलकर भटक गईं। गनीमत यह हुई कि वे रास्ता ढूंढकर अपने किसी रिश्तेदार के यहां चली गईं, जिसने पुलिस को खबर कर दी और पुलिस ने उन्हें तुरंत पिता के सुपुर्द कर दिया। आप पूछेंगे कि घटना का अंत तो सुखद है फिर इसमें चिंतित होने की बात कहां से आ गई। अगर तफसील में जाएं तो चिंता के बिन्दु अपने आप उभरने लगते हैं। ध्यान दीजिए कि जिस युवक का जिक्र हुआ है, उसकी उम्र मात्र छत्तीस वर्ष है। इतनी कम आयु में वह छह संतानों का पिता बन चुका है। पहली पांच संतानें बेटियां हैं और अंतिम संतान वह बेटा है। अनुमान लगाना गलत न होगा कि बेटे की चाहत में वह छह बच्चों का पिता बन गया और उसकी पत्नी छह बच्चों की मां।

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान प्रारंभ हुआ। यह मोदी सरकार के प्रमुखतम कार्यक्रमों में एक है। इसका उद्देश्य है कि भारत में जो लैंगिक असमानता सदियों से विद्यमान है, देश में लड़के व लड़कियों के अनुपात में एक बड़ी खाई बनी है वह बढ़ती जा रही है, उसे दूर किया जाए। कुछ प्रदेश लंबे समय से कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम रहे हैं। अगर बेटी हुई है तो जन्म होते ही उसे मार डालने के लोमहर्षक प्रसंग सामने आए हैं। यह भी अध्ययन से पता चला है कि शहरी पढ़े-लिखे सक्षम वर्ग में पुत्री के बजाय पुत्र को प्राथमिकता दी जा रही है। दिल्ली, मुंबई इत्यादि महानगरों के आंकड़े यही बयान करते हैं। कुछ समय पहले ही महाराष्ट्र के सांगली जिले में किसी जगह पर दर्जनों मृत भ्रूण प्राप्त हुए जिससे खलबली मच गई। अनुमान है कि आसपास के अल्ट्रासाउण्ड क्लीनिकों में गर्भस्थ शिशु के लड़की होने की जानकारी मिलने के बाद गर्भपात करवा भ्रूण वहां दफनाए गए। इसकी खोजबीन जारी है, लेकिन कोई न्यायिक कार्रवाई हुई हो तो मेरी जानकारी में नहीं है।
अब यदि बिलासपुर के उपरोक्त प्रसंग को हँस कर टालना चाहें तो कह सकते हैं कि इस युवक को तो मोदीजी से प्रमाणपत्र मिलना चाहिए कि उसने पांच पुत्रियों का पिता बनकर एक उदाहरण पेश किया है। लेकिन बात हँसी की नहीं है। हमारे समाज में न जाने क्यों लड़कियों को शुरु से ही बोझ मान लिया जाता है। पुत्री को जन्म देने वाली मां को ससुराल में सास, ननद और परिवार के अन्य सदस्यों के ताने ही नहीं, प्रताडऩा भी झेलना पड़ती है। जिन परिवारों में अर्थाभाव है वहां भूखे रहने की नौबत आए तो वह तकलीफ मां-बेटी को ही झेलना पड़ती है। बेटी की पढ़ाई-लिखाई की ओर दुर्लक्ष्य किया जाता है। उसकी स्वतंत्रता कदम-कदम पर बाधित होती है। घर, सड़क, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, ससुराल, उस पर अदृश्य निगाहें गड़ी रहती हैं। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी जब लड़कियां अपना दमखम दिखाती हैं तो उन्हें एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन उस आदर्श का अनुकरण करने की बात कदाचित ही सोची जाती है। इसके बावजूद अगर आज लड़कियां आगे बढ़ रही हैं तो इसका श्रेय आधुनिक शिक्षा और आधुनिक प्रौद्योगिकी को देना चाहिए।
आज जो परिदृश्य है उसे बेहतर बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष, यूनिसेफ, यूएन वीमेन जैसी वैश्विक संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं। सरकार के अपने कानून और कार्यक्रम भी हैं। अनेक एनजीओ और स्वैच्छिक संगठन भी इस विषम परिस्थिति को बदलने में योगदान कर रहे हैं। फिर भी कुछ सवाल रह-रह कर उठते हैं। सबसे पहले लड़की की सुरक्षा की बात आती है। घर के बाहर तो क्या, घर के भीतर भी लड़कियां पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। इसके अनेक चिंताजनक उदाहरण सामने आए हैं। दूसरे, यह मान्यता है कि लड़की का विवाह करना परिवार विशेषकर पिता की जिम्मेदारी है। लड़की के हाथ पीले करने के बाद सब जैसे चैन की सांस लेते हैं कि एक बोझ उतर गया। लड़की इसलिए बोझ है कि शादी में जो खर्च होता है, उसके अलावा मनमाना दहेज देना पड़ सकता है। सीमित साधन में यह व्यवस्था कैसे हो? तीसरे- हमारी सामाजिक व्यवस्था में हर मां को यह डर रहता है कि बेटी ससुराल में सुख नहीं पाएगी। इस सोच में शायद उसका अपना अनुभव भी शामिल होता है। ऐसे और भी प्रश्न हैं।
जाहिर है कि यह स्थिति संतोषजनक नहीं है। जो लोग लड़कियों के लिए बेहतर भारत बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं उन्हें इन सवालों से जूझना पड़ता है। विडंबना यह है कि लैंगिक असमानता के विरुद्ध काम करने वाली संस्थाओं पर भी पितृसत्तात्मक सोच हावी है। मैं रविवार 26 मार्च को कोलकाता में था। बड़ा बाज़ार में एक जुलूस के कारण बीस-पच्चीस मिनट जाम में फंसा रहा।  वृहत कोलकाता मारवाड़ी समाज अथवा वैश्य समाज द्वारा बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ मिशन के समर्थन में यह रैली निकाली गई थी। कोई पचास वर्ग किलोमीटर के दायरे से बड़ी संख्या में महिलाएं सज-धज कर भाग लेने आई थीं। रैली के बैनर देखकर खुशी हुई, लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिकी, जब मैंने देखा कि अनेक महिलाओं के हाथ में जो प्लेकार्ड थे उनकी इबारत थी-बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे यह नारा पहले रायपुर में भी सुनने में आया था।
बेटी का जन्म क्या सिर्फ इसलिए हुआ है कि वह किसी घर की बहू बनकर मायके से विदा हो जाए? क्या उसके जीवन की सार्थकता पत्नी या मां बनने में ही है? यह मेरी दृष्टि में उस पितृसत्तात्मक समाज की सोच है जो राजा दुष्यंत के समय से चली आ रही है। किंवदंती है कि दुष्यंत के बेटे भरत ने भारतवर्ष की स्थापना की थी। भरत को पता था कि पिता दुष्यंत ने मां शकुंतला के साथ क्या बर्ताव किया था, फिर भी उसके द्वारा स्थापित राज्य में स्त्री सम्मान की अधिकारी नहीं हो सकी, उसे बराबरी का दर्जा नहीं मिल पाया, यह बड़ी विडंबना है। राम ने सीता की अग्नि परीक्षा ली और फिर उन्हें अपने जीवन से निर्वासित कर दिया। गांधारी पूरे जीवन भर अपनी आंखों पर पट्टी बांधने के लिए मजबूर हुई। भीष्म ने प्रेम का तिरस्कार किया। द्रौपदी को न जाने कितनी परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। ये सारी पौराणिक गाथाएं हमारे सामने हैं। लोकगीतों में सीता पर आई विपत्तियों का मार्मिक चित्रण है, किन्तु स्थितियां कमोबेश वही चली आ रही हैं।
अतीत की बात छोड़कर वर्तमान की चर्चा करते हैं। विगत कई वर्षों से कन्याओं को सुरक्षा और सम्मान देने की दिशा में सरकार द्वारा अनेक कदम उठाए गए हैं। एक लोक कल्याणकारी राज्य व्यवस्था में ऐसा होना वांछित और आवश्यक है। पीसीपीएनडीटी एक्ट विगत बीस वर्षों से लागू है। यह कानून भ्रूण के लिंग परीक्षण को वर्जित करता है। इसमें कठोर सजा का प्रावधान है। लेकिन निजी अस्पतालों में सोनोग्राफी मशीनों की संख्या बढ़ती जा रही है। जो साधनसम्पन्न लोग कानून से बचना चाहते हैं वे पड़ोस में थाइलैंड जाकर भ्रूण परीक्षण करवा लेते हैं। इधर मोबाइल सोनोग्राफी मशीनें भी बाजार में आ गई हैं। चतुर लोग किसी दूसरे प्रांत में जाकर भ्रूण परीक्षण करवाते हैं और अपने गांव लौट गर्भपात करवा लेते हैं। जांचने वाले डॉक्टर दो तरह के हैं। एक वे जो लालच में फंसकर लिंग परीक्षण करते हैं; दूसरे कुछ ऐसे भी हैं जो गर्भवती मां की दलीलों से पिघल जाते हैं कि लड़की हुई तो ससुराल वाले घर से निकाल देंगे इत्यादि। बहरहाल कानून तो है, लेकिन उसका पालन कैसे हो, उसमें व्यवहारिक अड़चनें क्या हैं आदि पर सम्यक विचार नहीं किया गया है।
पीसीपीएनडीटी एक्ट को लेकर एक और विडंबना अभी सामने आई। महाराष्ट्र सरकार विधानसभा में बिल लाने जा रही है कि भ्रूण के लिंग परीक्षण को अनिवार्य कर दिया जाए। यह डॉक्टरों को बचाने के लिए लाया गया एक चालाक प्रस्ताव है। क्यूंकि वर्तमान एक्ट के तहत सबसे ज्यादा मुकदमे महाराष्ट्र में ही चल रहे हैं। जब लिंग परीक्षण अनिवार्य हो जाएगा, तो सोनोग्राफी करने वाले डॉक्टरों पर कोई कार्रवाई होने का सवाल ही नहीं उठेगा। फिर भ्रूणस्थ शिशु के गर्भपात के लिए मां या परिवार के लोग जहां जाना चाहे जाएं, उनसे मतलब नहीं।अंत में हम बिलासपुर स्टेशन वापिस लौटते हैं। युवक के नाम-गाम से अनुमान होता है कि वह साधारण वित्तीय स्थिति का व्यक्ति है। वह जहां रहता है वहां आंगनबाड़ी होगी, एएनएम होगी, मितानिन होगी, नसबंदी शिविर भी चलते होंगे,  इस युवक की पत्नी को संस्थागत प्रसव की जानकारी भी दी गई होगी। जब सरकार की ओर से इतनी सारी व्यवस्थाएं हैं, तब भी इस दंपति को क्या किसी ने सही सलाह नहीं दी या इन्होंने हर सलाह सुनी अनसुनी कर दी। यह तो ठीक है कि पांचों बेटियां सही सलामत घर आ गईं। लेकिन इनका भविष्य क्या है? अगर आप मेरी चिंता में शामिल हैं तो इस पर बात कीजिए।
देशबंधु में 18 मई 2017 को प्रकाशित 

Thursday, 11 May 2017

एक जागा हुआ ग्राहक !



एक फोन आया। आप ललित सुरजन बोल रहे हैं? जी हां। सर, मैं डाबर कंपनी से अमरेन्द्र बोल रहा हूं, आपसे मिलना चाहता हूं। ठीक है, फलाने समय आ जाइए। नियत समय पर अमरेन्द्र आए। आपने कंपनी में हमारे किसी उत्पाद के बारे में शिकायत की थी?  हां, लेकिन आपकी वेबसाइट पर जाकर शिकायत दर्ज की, उसके दो-तीन घंटे बाद ही आपके किसी अधिकारी का फोन आ गया था। उनके साथ बातचीत से मैं संतुष्ट हो गया था। हां सर, लेकिन मेरे पास हेडऑफिस से फोन आया है कि आपसे जाकर मिलूं और आपको जो परेशानी हुई उसके लिए माफी माँगूं। इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, मुझे अब कोई शिकायत नहीं है। आपने एक ग्राहक की शिकायत को गंभीरता से लिया, मेरे लिए इतना ही संतोष का कारण है। बात खत्म हुई। अमरेन्द्र ने डाबर आंवला तेल की एक छोटी शीशी मुझे भेंट की और जिस पुरानी शीशी की कैप ठीक नहीं होने की शिकायत मैंने की थी, वे उसे अपने गुणवत्ता नियंत्रण विभाग को भेजने के लिए वापिस ले गए। बात सचमुच बहुत छोटी थी, लेकिन एक पूरी कहानी बन गयी।

 यह मेरी आदत में शुमार है कि अगर किसी सेवा या उत्पाद में कोई कमी प्रतीत होती है तो अक्सर मैं उसकी शिकायत कर देता हूं और मेरी यह आदत ‘जागो ग्राहक जागो’ का नारा गढ़े जाने के पचास साल पहले से बनी हुई है। मैंने यह गुण, जिसे बहुत लोग दुर्गुण भी मानेंगे, बाबूजी से शायद विरासत में हासिल किया है।  बहुत लोग बातों को आयी-गयी कर देते हैं, कौन समय बर्बाद करें, कौन पचड़े में पड़े, ऐसी भावना अक्सर रहती है। मैं भी कई बार ऐसी बातों को टाल देता हूं, लेकिन कभी-कभी दिमाग पर भूत सवार हो जाता है तो ऐसे किस्से बन जाते हैं। बहुत पहले 1970 में बड़ौदा रेलवे स्टेशन पर वजन की मशीन में सिक्का डाला, तब शायद पच्चीस पैसे का ही सिक्का लगता था। मशीन खराब थी, वजन का टिकट नहीं निकला। मैंने कंपनी के कलकत्ता ऑफिस चिट्ठी भेजकर शिकायत की तो कुछ दिनों बाद चार-चार आने के दो डाक टिकट जवाब के साथ मिले। एक टिकट हर्जाने का, दूसरा टिकट मेरे द्वारा लगाए गए डाक टिकट का खर्च। आज इस घटना को याद करता हूं तो अपने आप हंसी आ जाती है। 

 इस तरह के एक-दो प्रसंग और घटित हुए। एक बार विल्किंसन शेविंग ब्लेड बनाने वाली मल्होत्रा एण्ड कंपनी को शिकायत भेजी तो उन्होंने पांच ब्लेड का नया पैकेट हर्जाने के रूप में भेज दिया।  एक बार मैंने कुछ गुस्ताखी भी की। 1967 की बात है। ट्रेन यात्रा में कोई परेशानी हुई। मैं दिल्ली में राज्यसभा सदस्य महंत लक्ष्मीनारायण दास जी के 6-साऊथ एवेन्यू निवास पर रुका था। उनके पते से ही रेलवे बोर्ड को शिकायत भेज दी। राज्यसभा सदस्य का पता था, कुछ हड़बड़ी मची होगी। दो अधिकारी जांच करने उनके निवास पर पहुंचे। मैं तब तक रायपुर आ चुका था तो वे यहां तक आए, मुझसे सारी बात समझकर दोषी टीटी पर कार्रवाई की जिसकी बाकायदा सूचना मुझे भेजी गई। 
मेरा अनुभव है कि उन दिनों रेलवे को वैसे भी कोई शिकायत भेजो तो उसके निराकरण के प्रयत्न होते थे। पत्र का जवाब तो निश्चित रूप से मिलता ही था। फिलहाल ऐसा है कि प्रचार तो बहुत है, लेकिन ट्विटर पर शिकायत भेजने के बाद भी उसे दूर करने रेलवे की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया जाता। 

एक अन्य प्रसंग याद आ रहा है। यह शायद 1972-73 के आस-पास की बात होगी। बजाज इलेक्ट्रिकल्स में अजीत सेठ नामक सज्जन कार्यकारी निर्देशक नियुक्त हुए थे। वे रायपुर आए और छत्तीसगढ़ के अपने विक्रेताओं के सम्मेलन में उन्होंने एक सुन्दर और व्यवहारिक बात कही। उन्होंने कहा कि अगर ग्राहक शिकायत लेकर आता है तो उससे बिना बहस किए बेचा गया सामान बदल दो। यदि वह कीमत वापस चाहता है, तो वह भी कर दो। ऐसा करने से बहस में समय बर्बाद नहीं होगा, माथा भी गरम नहीं होगा और वही ग्राहक दो दिन बाद अवश्य लौटकर आएगा। उन्होंने कहा कि अगर शिकायत झूठी भी है तो भी बहस मत करो। इस सलाह पर विक्रेताओं ने जब अमल शुरू किया तो उस दौर में बजाज इलेक्ट्रिकल्स की साख व बिक्री दोनों में बढ़ोतरी हुई। मैंने जो डाबर कंपनी का उदाहरण पूर्व में दिया, उसमें मानो इस सलाह का ही पालन हुआ है। हमारे देश में आफ्टर सेल्स सर्विस की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता लेकिन ये उदाहरण बेहतरीन अपवाद के रूप में सामने आते हैं।  

इन उदाहरणों से यह न समझिए कि मैं कोई झगड़ालू ग्राहक हूं और सिर्फ शिकायत ही करता हूं। इस आदत का दूसरा पहलू है कि अच्छी सेवा मिलने पर मैं प्रशंसा अथवा अनुशंसा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखता और ऐसा करने में मेरे मन को सचमुच संतोष मिलता है। एक उदाहरण सन् 2005 का है जिसका जिक्र मैंने 10 मार्च 2005 तारीख के अपने कॉलम में किया था। हावड़ा-मुंबई मेल की पेन्ट्री कार के वेटर अली असगर खान ने भोजन का समय समाप्त हो जाने के बाद भी मेरे लिए भोजन की व्यवस्था की। मैंने उसकी प्रशंसा में दक्षिण पूर्व रेलवे के महाप्रबंधक को पत्र भेजा। कुछ दिनों बाद महाप्रबंधक का फोन आया कि हमारी कमियों की शिकायत तो बहुत होती है, लेकिन अच्छा करें तो उसकी तारीफ शायद ही कोई करता है। आपने जिस वेटर की प्रशंसा की है, उसे मैं आगामी रेलवे दिवस पर सम्मानित कर रहा हूं और उसे अपनी ओर से पुरस्कार राशि भी प्रदान कर रहा हूं। मुझे बहुत अच्छा लगा कि रेलवे ने एक छोटी सी नौकरी करने वाले व्यक्ति की कर्मनिष्ठा और सेवा भावना का इस तरह से सम्मान किया।

एक अन्य प्रसंग हवाई यात्रा का है। मैंने इंडियन एयरलाइंस के कूपन खरीद रखे थे। नब्बे दिन की अवधि की मान्यता थी। मैं उसे तीन माह मान कर चल रहा था। जिस दिन आखिरी कूपन दिल्ली में इंडियन एयरलाइंस के चेकिंग काउंटर पर दिया तब नब्बे दिन पर एक दिन ऊपर हो चुका था। मेरे पास टिकट खरीदने के लिए पर्याप्त नकद राशि नहीं थी, सोच में डूबा था कि क्या किया जाए। एक सज्जन आए। मैं ड्यूटी मैनेजर हूं, आपको काफी देर से खड़े देख रहा हूं, क्या परेशानी है? मैंने उन्हें स्थिति बताई, वे मुझे अपने दफ्तर ले गए, कुछ औपचारिकताएं पूरी कीं और मेरा कूपन मान्य हो गया। मैं रायपुर समय पर लौट सका। आने के बाद इंडियन एयरलाईंस के सीएमडी को पत्र लिखकर धन्यवाद दिया। कुछ माह बाद इंडियन एयरलाइंस के एक परिचित सज्जन से बातों-बातों में इस घटना का जिक्र हुआ तो मालूम पड़ा कि मेरा पत्र मिलने के बाद ड्यूटी मैनेजर की तत्काल पदोन्नति हुई, उन्हें स्टेशन मैनेजर बनाकर किसी अच्छे हवाई अड्डे पर भेज दिया गया।

 जेट एयरवेज के रायपुर विमानतल स्थित कार्यालय का भी मेरा ऐसा ही अनुभव है। दसेक साल पहले मैंने टेलीफोन कर सीट आरक्षित करना चाही। उत्तर मिला कि आप हमारे नियमित यात्री नहीं हैं, इसलिए यह सुविधा आपको नहीं दी जा सकती। मैंने आग्रह किया कि मैं सीनियर सिटीजन हूं, इसी नाते सीट आरक्षित कर दीजिए। मेरी बात मान ली गई। उसके बाद मैंने लगातार देखा कि जेट का स्टाफ यात्रियों की सुविधा का हर तरह से ख्याल रखने की कोशिश करता है, फिर वह चाहे विमान का परिचालक दल या क्रू हो, चाहे विमानतल स्टाफ। एक दिलचस्प बात इंडियन एयरलाइंस और जेट एयरवेज दोनों में देखी कि यात्रा के दौरान अगर आपने फीडबैक फार्म मांगा तो विमानकर्मी सशंकित होकर पूछते हैं कि कोई गलती तो नहीं हो गई है जिसकी शिकायत कर रहा हूं। मुझे तब आश्वस्त करना पड़ता है कि शिकायत नहीं प्रशंसा करने के लिए फार्म मांग रहा हूं, तब वे खुश हो जाते हैं। 

इतने सारे प्रसंगों का उल्लेख करते समय मैं अपने आप से पूछ रहा हूं कि यह सब लिखने की क्या आवश्यकता है। इन साधारण सी घटनाओं का क्या महत्व है? मेरा उत्तर है कि हमारी मानसिकता में एक निहायत आवश्यक बदलाव लाने के लिए इन प्रसंगों को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। एक तो हमारे यहां हर स्तर पर भेदभाव का माहौल है, जो हमसे बली है, सजोर है उसके सामने हम घुटने टेकते हैं; जो हमसे कमजोर हैं, उसे दबाने की कोशिश करते हैं;  जहां आवाज उठाना चाहिए वहां हम चुप रहते हैं और जहां जरूरत नहीं है वहां शोर मचाते हैं।  इस तेजी से बदलती दुनिया में जिस पूंजीवादी जनतंत्र को हमने अपनाया है उसमें उत्पादन के संबंधों को लेकर हमारा आज भी वही पुराना सामंती नजरिया चला आ रहा है। मेरा कहना है कि समाजवादी समाज की रचना आज के भारत में तो एक दिवास्वप्न है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में सामाजिक संबंधों का क्या स्वरूप हो, कम से कम इतना तो हम सीख लें।
 
देशबंधु में 11 मई 2017 को प्रकाशित 

Thursday, 4 May 2017

नक्सल समस्या कैसे हल हो?


 बस्तर में माओवाद अथवा नक्सलवाद के बारे में अब तक न जाने कितनी बहसें हो चुकी हैं, कितने लेख और टिप्पणियां लिखी जा चुकी हैं, चर्चाओं के कितने ही दौर चल चुके हैं, लेकिन इस समस्या का समाधान कैसे हो, यह अभी तक तय नहीं हो पाया है। नक्सली जब कभी हिंसा की किसी बड़ी वारदात को अंजाम देते हैं तो स्वाभाविक तौर पर लोगों के मन में गुस्सा आता है, निंदा प्रस्ताव पारित होते हैं, वीर जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए मोमबत्तियां जलाई जाती हैं, नगर बंद और प्रदेश बंद का आह्वान किया जाता है, कठोर से कठोर कार्रवाई करने की मांग होती है, बस्तर को सेना के हवाले करने का सुझाव आता है, तो कभी और कोई सुझाव आ जाता है। लेकिन सरकार, वह भी निर्वाचित और उत्तरदायी सरकार, भावनाओं में बहकर कोई ताबड़तोड़ फैसले नहीं ले सकती। उसे जनभावनाओं का आदर करने के साथ-साथ कठोर वास्तविकताओं के धरातल पर भी स्थितियों का आकलन करना होता है।

बस्तर में लंबे समय से नक्सली वीभत्स हत्याएं कर रहे हैं। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि वे अपनी हिंसापूर्ण योजनाओं को अंजाम देने में कैसे सफल हो जाते हैं। अभी 24 अप्रैल को सुकमा के निकट उन्होंने सशस्त्र बलों पर जो खूनी हमला किया उसमें पच्चीस जवानों को प्राणों की आहुति देना पड़ी। इस वारदात को लेकर विशेषज्ञों की राय में तीन प्रमुख बिन्दु उभरे हैं।  जो लोग सुरक्षातंत्र की बारीकियों को जानते हैं उनका कहना है कि खुफियातंत्र की नाकामी सबसे प्रमुख कारण है। वे आश्चर्य कर रहे हैं कि तीन सौ नक्सली घात लगाने के लिए एक जगह इकट्ठे हुए और सुरक्षाबलों को उसकी भनक तक नहीं लगी। ऐसा कैसे हुआ? जाहिर है कि इंटैलिजेंस का काम राज्य पुलिस के जिम्मे है न कि सीआरपीएफ के। इससे दूसरा बिन्दु उभरता है कि सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के बीच तालमेल का अभाव है, अन्यथा सीआरपीएफ को नक्सली हलचल की सूचना मिल गई होती।

यहां तीसरा बिन्दु स्पष्ट होता है कि नक्सलियों से लडऩे में राज्य पुलिस की क्या भूमिका है। सीआरपीएफ के अधिकारी और जवान खुलकर आरोप लगाते हैं कि उन्हें राज्य पुलिस का कोई सहयोग नहीं मिलता। सीआरपीएफ की प्रकृति और कार्यशैली एकदम अलग है। उसका चरित्र प्रादेशिक न होकर देशव्यापी है। वे स्थानीय भूगोल, स्थानीय भाषा से परिचित नहीं होते। ऐसे में खुद होकर नक्सलियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई करना उनके लिए तब तक दुष्कर होता है जब तक कि स्थानीय पुलिस बल का साथ न हो। विडंबना यह है कि राज्य सरकार सीआरपीएफ के ऊपर नक्सलियों से लडऩे की जिम्मेदारी डालकर किसी हद तक निश्चिंत हो गई है। यह प्रस्ताव सुकमा कांड के बाद आया कि डीजी नक्सल ऑपरेशन का मुख्यालय रायपुर के बजाय बस्तर में हो। मुझे ध्यान आता है कि मध्यप्रदेश के दिनों में भी नक्सल ऑपरेशन के आईजी का मुख्यालय बस्तर के बजाय राजनांदगांव में रखा गया था। इससे यह संकेत मिलता है कि पुलिस के उच्चाधिकारी निरापद परिस्थितियों में रहना पसंद करते हैं!

दूसरी ओर राज्य सरकार नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में जिन पुलिस अधिकारियों को तैनात करती है उनका ध्यान मुख्यत: अपने राजनैतिक संरक्षकों से वाहवाही पाने में लगा रहता है। इसके लिए वे तरह-तरह के प्रपंच रचते हैं। कभी निर्दोष ग्रामीणों को नक्सली बताकर उनका आत्मसमर्पण कराया जाता है, तो कभी नक्सलियों के खिलाफ जुलूस और रैलियां निकाली जाती हैं।  मानो इनके जुलूस देखकर नक्सली डर जाएंगे। यही नहीं, ऐसे अधिकारियों के इंगित पर निर्दोष आदिवासियों को मानसिक यातना और शारीरिक प्रताडऩा देने के प्रकरण भी सामने आए हैं। अगर कोई व्यक्ति या समूह संवैधानिक तंत्र द्वारा नागरिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध आवाज उठाए तो उसे भी प्रताडि़त करने में इन्हें संकोच नहीं होता। ये अधिकारी अपने समर्थन में कुछ ऐसी संस्थाएं भी खड़ी कर लेते हैं जिनके सदस्यों के साथ इनके निजी हित जुड़े होते हैं।

एक पत्रकार होने के नाते मैं प्रदेश में नक्सलवाद के बारे में विगत चार दशकों से जानने-समझने की कोशिश करता रहा हूं। एक समय था जब बस्तर हो या सरगुजा, नक्सलवाद जैसा कोई मुद्दा यहां नहीं था। जबकि हमारे लिए सरगुजा मानो किसी अन्य प्रदेश का हिस्सा था और बस्तर कालापानी। रियासती काल में भी बस्तर की दशा कोई बहुत अच्छी नहीं थी। आजादी के बाद स्थितियां बदलने के प्रयत्न हुए थे, लेकिन टिम्बर, टिन, कोरंडम आदि के तस्करों और उनसे जुड़े अन्य निहित स्वार्थों का ही बस्तर पर वर्चस्व बना रहा। जब 85-86 के आसपास नक्सलियों का बस्तर के भीतरी इलाकों में आना शुरु हुआ तब भी वनोपज के तेंदूपत्ता के व्यापारी मित्र खुश होकर बताते थे कि उन्हें काम करने में कोई तकलीफ नहीं होती, क्योंकि दादा लोगों को अर्थात नक्सलियों को उनका हिस्सा दे दिया जाता है। आज तीस साल बाद भी स्थितियां वहीं के वहीं हैं।

1990 में सुदीप बनर्जी बस्तर के कमिश्नर होकर आए। उन्होंने आदिवासियों के शोषण को रोकने की कोशिश की। शराब लॉबी ने उनका तबादला करवा दिया। ललित जोशी भी कमिश्नर रहे। उन्होंने साइकिल से पूरे संभाग की यात्रा की, किन्तु वे भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। बहुत पहले शायद 53-54 में धर्मेन्द्रनाथ बस्तर के कलेक्टर थे। तब संभाग नहीं बना था। आदिवासियों के मौरुसी हक याने मालिक मकबूजा के पेड़ों को काटने की प्रक्रिया में टिम्बर व्यापारी उनका कितना शोषण कर रहे हैं इस पर एक उन्होंने लंबी रिपोर्ट लिखी थी। जब बैलाडीला से लौह अयस्क का उत्खनन प्रारंभ हुआ लगभग उसी समय ब्रह्मदेव शर्मा जिलाधीश बनकर पहुंचे। उन्होंने आदिवासियों का शोषण रोकने के तमाम प्रयत्न किए। बाबा बिहारीदास जो कि टिम्बर व्यापारियों के हाथों कठपुतली था उसे जिले से बाहर किया। लेकिन दो दशक बाद उनके साथ बस्तर में स्वार्थी तत्वों की शह पर जो सुलूक हुआ उसकी सभ्य समाज में कल्पना नहीं की जा सकती थी। एक तरफ ये सारे दृष्टांत हमारे सामने हैं, लेकिन इनको याद करेंगे तो खेल बिगड़ जाएगा, शासक वर्ग में शायद यही भावना है।

कहना होगा कि बस्तर में नक्सलवाद को पनपने का अवसर हमारी सरकारों ने ही दिया है। सलवा जुड़ूम और उसके बाद की बहुत सी बातों के लिए रमन सरकार को दोषी ठहराया जा सकता है, लेकिन उसके पूर्व के सालों में क्या स्थिति थी? अंचल की आश्रम शालाओं में रहकर बहुत से बच्चे पढ़े, उनकी सोच का दायरा बढ़ा, अनेक युवा कम्युनिस्ट पार्टी में भी गए। महेन्द्र कर्मा आदिवासियों के हक में लडऩे वाले एक जुझारू नेता थे लेकिन समय के साथ उनकी संघर्षशीलता समाप्त हो गई। कांग्रेस के युवा नेता अरविंद नेताम को इंदिरा जी ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। उन्होंने साल वन काटकर पाइन रोपण का विरोध किया, आगे चलकर छठवीं अनुसूची की मांग जैसे तार्किक सवाल उठाए।  लेकिन राजनीति की मृगतृष्णा में वे बार-बार दल बदलते गए और धीरे-धीरे कर हाशिए पर चले गए। आज एक मनीष कुंजाम हैं तो व्यापक दृष्टिकोण लेकर सही बात करते हैं लेकिन नक्सली उनको चुनाव नहीं जीतने देते।

1980 के दशक में अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और डॉ. रामचन्द्र सिंह देव राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष। सिंहदेवजी ने शायद उसी समय बस्तर विकास योजना का प्रारूप तैयार किया था। वे आज भी उसके बारे में बात करते हैं, अगर कोई सुनने को तैयार हो तो। डॉ. रमन सिंह को भी बस्तर ही क्या, प्रदेश की वनराशि से बहुत लगाव है। उन्होंने बस्तर और सरगुजा दोनों के लिए विकास प्राधिकरण बनाए हैं, जिसके वे स्वयं अध्यक्ष हैं। वे बस्तर की युवा पीढ़ी को आधुनिक दौर में लाना चाहते हैं। जावंगा से लेकर दिल्ली तक आदिवासी बच्चों के पढऩे के लिए उन्होंने ढेर सारी व्यवस्थाएं की हैं। उनके शासनकाल में कुछेक ऐसे अधिकारी भी आए हैं जिन्होंने ईमानदारी से विकास योजनाओं को मूर्तरूप देने का काम किया है। फिर भी बात बनती नजर नहीं आ रही है। इसके कारणों के समझने की आवश्यकता है।

सर्वप्रथम बस्तर और अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची तथा पेसा कानून ईमानदारी के साथ लागू करना लाजमी है। आदिवासियों को स्वशासन का अधिकार संविधान की सीमाओं के अंतर्गत मिलना ही चाहिए। डीजी नक्सल ऑपरेशन का मुख्यालय बस्तर में हो, मैं इस प्रस्ताव का स्वागत करता हूं। साथ ही अपने एक पुराने सुझाव को भी दोहराना चाहूंगा कि बस्तर में चीफ सेक्रेटरी के समकक्ष अधिकारी नियुक्त हो जो सीधा मुख्यमंत्री के प्रति जिम्मेदार हो। नक्सलियों से लडऩे के लिए प्रदेश पुलिस की क्षमता का विकास करना आवश्यक है। इसके साथ ही आदिवासी समाज के बीच यह संदेश भी जाना चाहिए कि प्रदेश की सरकार उनकी हितैषी है। नागर समाज आदिवासियों का जो तिरस्कार और उपहास करता है उसे भी अपनी इस हीन मानसिकता को छोडऩा होगा। आखिरी बात मुख्यमंत्री को अपने द्वार उनके लिए खुले रखना चाहिए जो इस विकट समस्या पर गंभीर चर्चा करने में सक्षम व उसके लिए उत्सुक हों।

 देशबंधु में 04 मई 2017 को प्रकाशित 

Monday, 1 May 2017

बिंदास बिम्बों के ग़ज़लकार कुमार विनोद

 

कुमार विनोद गणित के प्रोफेसर हैं इसलिए इस सवाल का जवाब वे ही बेहतर दे सकते हैं कि उनके हाल में प्रकाशित गजल संग्रह में अठहत्तर रचनाएं किस हिसाब से हैं, पचहत्तर, अस्सी या सौ क्यों नहीं? लेखक से यह पूछने का भी मन होता है कि एक तरफ गणित का अध्ययन-अध्यापन तथा दूसरी ओर कविता और गजल का लेखन। इन दो विपरीत धाराओं के बीच वे संतुलन किस तरह स्थापित कर पाते हैं। संभव है कि गणितज्ञ-लेखक उनके अलावा और भी हों, किन्तु उनका परिचय पढक़र किंचित आश्चर्य  होता ही है। वह यूं कि गणित को एक रूखा विषय माना जाता है जिसमें रस के लिए कोई स्थान नहीं होता। गणित का अध्येता अंकों, रेखाओं और बिन्दुओं में ही हर वक्त उलझा रहता है तथा इस दुनिया के बाहर उसका कोई सरोकार नहीं होता, ऐसा हमें लगता है। यह एक गलतफहमी भी हो सकती है। किन्तु जो अन्य विषय हैं उनमें मनुष्य और प्रकृति के बीच एक सीधा और प्रत्यक्ष संबंध दिखाई देता है जो गणित में नहीं है। फिर भी यह मानना होगा कि अगर गणित न होता तो हम प्रगति की इतनी सारी मंजिलें पार न कर पाते। बिना गणित के चन्द्रमा पर भला कैसे पहुंचते? और समुद्र से लेकर आकाश तक के बहुत सारे रहस्यों से परिचय कैसे पाते? 

बहरहाल, कुमार विनोद इसी वर्ष प्रकाशित अपने नए गजल संग्रह 'सजदे में आकाश'  में गजल विधा को लीक से हटकर शिल्प और कथन दोनों दृष्टियों से एक नए रूप में सामने लेकर आते हैं। उनकी प्रयोगधर्मिता की एक झलक इस शेर में मिलती है- 
जमाना मेल का है और तुम खत पर ही अटके हो
जो ग़ालिब को भी इंटरनेट मिला होता, तो क्या होता।

इस एक शेर में एक अनोखा अंदाज है। आज के मुहावरे में इसे बिंदासपन कहा जा सकता है। एक तरफ कवि गालिब की परंपरा से खुद को जोड़ रहा है, दूसरी तरफ वह खुले मन से आधुनिक प्रविधि को अपना रहा है। वह किसी बंधे-बंधाए सांचे में खुद को कैद करके नहीं रखना चाहता, बल्कि समय के साथ-साथ चलने में विश्वास रखता है। 

कुमार विनोद के विचारों में टटकापन है, भाषा में ताजगी है और बिम्ब गढऩे में उनकी प्रयोगशीलता अनोखी है। एक दूसरा शेर देखिए- 
सूरज अपने पास कोई अच्छी-सी घड़ी क्या रखता है
या वो अपने मोबाइल पर समय देखकर चलता है।

इस गजल में कवि ने एक साथ बहुत से नए बिम्ब गढ़े हैं और मेरा मन कर रहा है कि पाठक इन्हें पढ़े। आगे ये दो शेर और देखिए-

बारिश से बचने को क्या चिडिय़ा भी छाता रखती है
या बारिश थम जाने का ‘वेट’ उसे भी रहता है।

शाम ढले इक दिन बगिया में मुझको मिल गए जुगनू जी
बोले, पिछले कई दिन से बिजली का संकट रहता है।

एक ओर जहां कवि गालिब के जमाने में इंटरनेट का रूपक रचता है, वहीं यहां सूरज के हाथ में मोबाइल दे देता है और जुगनू के मुख से बिजली संकट का वर्णन करवाता है। अगर इसे आधुनिक भावबोध नहीं तो और क्या मानें? मुझे कुमार विनोद की यह बात अच्छी लगी कि वे बहुत आसानी से और बहुत मजे में नए शब्दों को अपनी गजलों में इस तरह पिरो लेते हैं कि किसी भी तरह से रसभंग नहीं होता और न कहीं अनाधिकार चेष्टा प्रतीत होती है। एक गजल में वे बहुत कम लफ्ज़ों में अपनी बात करते हैं- 

साथ मेरे खूबसूरत हमसफ़र 
तेज बारिश और ऑटो का सफ़र।

इसमें बारिश, खूबसूरत, हमसफ़र- ये सारे संज्ञाएं पुरानी हैं, लेकिन ऑटो का सफ़र लिखकर कवि एक ऐसी तस्वीर हमारे सामने रख देता है जो बिल्कुल आज की है। प्रसिद्ध उपन्यासकार शंकर के उपन्यास चौरंगी में कहीं एक कवितांश आता है- स्कूटर पर बैठ चली घूमने शामों की नायिका। यह पचास साल पहले अपने समय का नया प्रयोग था। कुछ वैसा ही प्रयोग हमारे कवि ने ऑटो में घूमने को लेकर किया है। 

अपने समय में एक आम नागरिक को सामान्य दिनचर्या में भी जो जद्दोजहद करना पड़ती है, उसका एक बिम्ब जुगनू द्वारा बिजली संकट के बखान में था, तो कवि की कल्पना में सूरज को भी अपना काम निभाने के लिए कुछ न कुछ उठापटक करनी पड़ती होगी। यह शेर पढि़ए- 

सूरज इतना ईंधन-पानी आखिर  कहां से लाता है
क्या उसको भी इन सबका कुछ बिल-विल भरना पड़ता है।

सूरज तो सूरज है, लेकिन उसे प्रतीक बनाकर कवि ने वर्तमान जीवन के एक पहलू को इस शेर में उजागर कर दिया है। एक और शेर है जिसमें विनोद आधुनिक टेक्नालॉजी के प्रभाव का खूबसूरती से उल्लेख करते हुए बतलाते हैं कि सोशल मीडिया कैसे हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। 

ख़त लिखने का दौर गया जी, वक़्त है मेल स्काइप का
वाट्सएप भी मन लुभा रही है अब आगे क्या होगा जी।

कुमार विनोद की गजलों में प्रकृति के चित्र बार-बार आते हैं। जैसे- सूरज, चन्द्रमा, जुगनू, नदी, झरना, तितली, फूल आदि। इनके बिना वैसे भी कहां किसी कवि का काम चला है? कुमार विनोद की विशेषता यह है कि वे इन उपादानों को नए रंगों से भर देते हैं। जैसे इस शेर को ही लें- 

जेठ दुपहरी में सूरज ने डॉक्टर को जाकर बोला
आंख सुबह जल्दी खुलती है नींद मुझे कम आती है। 

कौन नहीं जानता कि गर्मी में दिन लम्बे होते हैं और रातें छोटी। परन्तु इस शेर में सूरज डॉक्टर से नींद कम आने की शिकायत करता है तो एक स्थापित सत्य बिल्कुल नए और बेहद रोचक ढंग से पाठक के सामने आ जाता है। इस तरह के कुछ और चित्र आप देखिए- 

कांपती चिडिय़ा ने सूरज से दिसंबर में कहा
काम चल जाएगा मेरा एक चम्मच धूप से।

कहां दरकार सूरज को किसी छुट्टी की रहती है
नदी को भी कहां फुर्सत वो संडे को भी बहती है।

समंदर ने लिखा इक रोज अपनी डायरी में यूं
किनारे तोडक़र दरिया बहे अच्छा नहीं लगता।

अलग-अलग ग़ज़लों से उठाए गए इन तीनों शेरों में एक चम्मच धूप, नदी का संडे को बहना और समंदर का डायरी लिखना- इन नए बिंबों से पाठकों को एक नया आस्वाद मिलता है। कवि ने बचपन को लेकर भी कुछ अच्छी गजलें कही हैं। नीचे दिए शेर में बाल मनोविज्ञान का सिर्फ दो पंक्तियों में ही अर्थप्रवण वर्णन किया गया है- 

बच्चा बोला शोर करूं तो डांट मुझी को पड़ती है।
छत पर बैठी चिडिय़ा भी तो कितना चीं-चीं करती है।

एक दूसरे शेर में बच्चों की कल्पनाशीलता और उनकी सृजनशीलता को वह एक नए रूप में प्रस्तुत करता है-
वो बच्चे भी किसी इंजीनियर से कम कहां थे जीघरौंदा रेत का कोई, जिन्होंने भी बनाया था

इन गजलों की चर्चा करते हुए पुस्तक के पन्ने बार-बार पलट रहा हूं। हर पन्ने पर कोई न कोई ऐसा शेर नजर आता है जिसे पाठकों के साथ साझा करने का लोभ हो रहा है। लेकिन बेहतर तो यह होगा कि पाठक इन गजलों को पढ़े और खुद अपनी राय कायम करें। मैंने जैसा कि प्रारंभ में कहा इन रचनाओं में भाषा, शैली और बिंब इन तीनों स्तर पर जो प्रयोगशीलता है उसने मुझे प्रभावित किया है। कुमार विनोद अपने कंधों पर जमाने का दर्द लेकर नहीं चलते, फिर भी इन गजलों में पर्याप्त संकेत हैं कि वे वर्तमान समय की विसंगतियों को ठीक से पहचान रहे हैं। उनकी रचनाओं में दार्शनिक भाव भी अनेक स्थानों पर है। एक गणितज्ञ से जैसा कि अपेक्षित हो सकता है वे प्रकृति के जटिल रहस्यों को समझने की कोशिश करते हैं। उनसे अगर कोई यह कहता है कि ईश्वर ने यह दुनिया बनाई है तो वे प्रकारांतर से पूछते हैं कि फिर उसको याने ईश्वर को किसने बनाया है। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जब जीवन के तार उलझ जाते हैं तो मनुष्य किसी अज्ञात शक्ति के सामने समर्पण कर देता है। 

यह कैसे हो सकता है कि कविता की किताब में प्रेम कविताएं न हों! इस संग्रह में प्रेम पर जो गजलें हैं उन्हें मैं दो कोटियों में रखना चाहूंगा। कुछ तो पारंपरिक किस्म की हैं तथा अन्य बहुत से कवियों-गजलकारों द्वारा लिखी गई रचनाओं से बहुत भिन्न नहीं है। दूसरी कोटि की गजलें मानो एक संकोच के दायरे में रहकर कही गईं हैं। कुछ-कुछ गुलजार की ‘‘हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो’’ की तर्ज पर। जैसे एक शेर में तितली भौंरे को साथ डांस करने के लिए बुलाती है और भौंरा शरमा जाता है। इसमें कुमार विनोद ने एक नया बिंब तो गढ़ा ही है, मन की बात कहने में सकुचाने का भाव भी इसमें है। इसी तरह अन्यत्र वह किसी के सम्मोहन में बंधता तो है, लेकिन उसकी शॉल को हल्के से छूकर रह जाता है। इस कोटि की रचनाएं बहुत कुछ पाठक की कल्पना के लिए छोड़ देती हैं।

कुमार विनोद का पहला गजल संग्रह 2010 में प्रकाशित हुआ था। इसके पूर्व वे एक कविता संग्रह भी प्रकाशित कर चुके थे। सात साल के अंतराल में यह नया संकलन आया है। मैंने पुराने संकलन 'बेरंग हैं सब तितलियां' की रचनाओं को भी उड़ती नजर से देखा है। उस गजल संग्रह पर शहरयार ने प्रशंसात्मक टीका की थी। मैं कहना चाहता हूं कि इस दौरान कवि ने अपना विकास किया है। यह नया संकलन आश्वस्त करता है कि कुमार विनोद भविष्य में इससे भी बेहतर रचनाएं लेकर आएंगे। मैं विशेषकर यह देखना चाहूंगा कि सामाजिक जीवन के जिन प्रश्नों को उन्होंने सजदे में आकाश में प्रकारांतर से उठाया है, आने वाली रचनाओं में और शिद्दत के साथ, मुकम्मल रूप में सामने आएंगे। यह जो कठिन समय है इसमें जो शब्द शिल्पी हैं वे ही जन-जन की पीड़ा को बेबाकी से अभिव्यक्त कर सकते हैं और जनता को उनसे ऐसा करने की प्रतीक्षा भी है। 

अक्षर पर्व मई 2017 अंक की प्रस्तावना 
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गज़़ल संग्रह : सजदे में आकाश
गज़़लकार : कुमार विनोद
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)
फोन : 0120-2648212, 098718 56053
मूल्य : 140 रुपए