चीन विश्व की दूसरी शक्ति काफी पहले बन चुका है। यह स्थान उसने सोवियत संघ के वारिस रूस से छीना। अब चीन अमेरिका को पीछे छोड़ पहली महाशक्ति बनने के लिए बेताब हो रहा है। लगभग चार साल पूर्व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वाणिज्यिक महत्व के दो प्रकल्प घोषित किए- सिल्क रोड इकानॉमिक बेल्ट तथा ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी मेरीटाइम सिल्क रोड (इक्कीसवीं सदी सामुद्रिक रेशम मार्ग)। इन दोनों को संयुक्त रूप से वन बेल्ट वन रोड याने ओबोर के नाम से अब जाना जाता है। चीन के ही कुछ अर्थशास्त्रियों की राय है कि विगत वर्षों में चीन ने अपनी औद्योगिक उत्पादन क्षमता जिस गति से बढ़ाई है, उसमें उसे नए बाज़ार ढूंढने की आवश्यकता महसूस हो रही है, जहां वह अपने यहां उत्पादित सामग्रियां खपा सके। बाज़ार में माल खपेगा तो आर्थिक शक्ति बढ़ेगी जिससे विश्व में खासकर एशिया में चीन का दबदबा बढ़ेगा। इस महत्वाकांक्षी योजना को दुनिया के सामने औपचारिक रूप से रखने के लिए उसने गत 14-15 मई को बीजिंग में बेल्ट रोड इनीशिएटिव या बीआरआई शीर्षक से एक अंतरराष्ट्रीय शीर्ष सम्मेलन का आयोजन किया। 29 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने इसमें शिरकत की, 30-35 अन्य देशों ने उच्चस्तरीय शिष्ट मंडल भेजे, 130 वैश्विक संगठनों ने भी भागीदारी निभाई, किंतु भारत ने ज़ाहिर तौर पर महत्वपूर्ण इस आयोजन में अनुपस्थित रहना बेहतर समझा।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अधिकतर अध्येता हैरान हैं कि भारत ने शीर्ष सम्मेलन का बहिष्कार क्यों किया, जबकि जापान और वियतनाम जैसे देश जिनके चीन के साथ संबंध दोस्ताना नहीं कहे जा सकते, ने भी चीन का निमंत्रण स्वीकार कर शिरकत की। रूस के साथ भी चीन के संबंध बहुत सहज नहीं हैं, तथा ओबोर प्रकल्प उसके लिए नई परेशानियां खड़ी कर सकता है, तब भी स्वयं राष्ट्रपति पुतिन ने अपने देश के शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। दक्षिण पूर्व एशियाई सहयोग संगठन (सार्क) याने भारत के तमाम पड़ोसी राष्ट्र भी इस वृहद कार्यक्रम में शामिल हुए। सिर्फ एक भूटान ने भारत का साथ निभाया। एक तरफ से देखें तो लगता है कि इस बड़े मौके पर भारत विश्व बिरादरी से अलग-थलग पड़ गया है। वह भारत जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से लेकर अब तक कितने ही मौकों पर विश्व के कितने ही मंचों पर पुरजोर एवं निर्णायक भूमिका निभाई है। लेकिन भारत सरकार के इस बारे में अपने तर्क हैं, जिन्हें जान लेना उचित होगा।
भारत की मुख्य आपत्ति अति प्राचीन रेशम मार्ग या कि सिल्क रोड के प्रस्तावित पुनर्निर्माण एवं विकास को लेकर है। आज से दो हजार वर्ष पूर्व यह मार्ग चीन के शियान नगर से प्रारंभ होकर रोम तक जाता था। इस रास्ते पर मध्य एशिया के अनेक नगर पड़ते थे। वर्तमान में इस मार्ग का एक हिस्सा पाक अधिकृत काश्मीर के उत्तरी इलाके को पार करते हुए जाएगा। चीन ने इस भाग का नामकरण चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (चाइना-पाक इकानॉमिक कॉरीडोर) किया है। भारत का कहना है कि इस गलियारे के निर्माण से हमारी सार्वभौमिकता का हनन होता है, क्योंकि हम संपूर्ण जम्मू-काश्मीर को अपने देश का अभिन्न अंग मानते हैं, और जिस हिस्से पर पाक ने कब्जा कर रखा है, उसे वापिस लेने के लिए लगातार प्रयत्नशील हैं। दूसरे शब्दों में पाकिस्तान को कोई अधिकार नहीं है कि वह चीन को सिल्क रोड बनाने की अनुमति दे सके। इस पेंचीदा मसले का एक संभावित हल दिल्ली स्थित चीनी राजदूत लिओ झाओहुई ने निकाला था कि सीपीईसी याने गलियारे का नाम बदल दिया जाए। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह प्रस्ताव रखा था किंतु एक सप्ताह बाद ही बीजिंग ने उसे वापिस ले लिया अर्थात मामला फिर अटक गया।
इस बिंदु पर भारत का पक्ष नैतिक दृष्टि से मजबूत मालूम होता है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और कहती है। भारत और पाकिस्तान दोनों काश्मीर को मुद्दा बनाकर चाहे जितना वैमनस्य पालते रहें, यह तथ्य सबके सामने है कि एक समय की जो जम्मू-काश्मीर रियासत थी, गत सत्तर वर्षों से उसका एक भाग भारत के पास विलय पत्र पर राजा द्वारा हस्ताक्षर करने के बाद से है, जबकि दूसरा भाग पाकिस्तान के वास्तविक नियंत्रण में है। वह जिसे आज़ाद काश्मीर कहता है, वहां किसी भी तरह की स्वायत्तता नहीं है और उसकी तथाकथित सरकार इस्लामाबाद द्वारा ही मनोनीत की जाती है। पाकिस्तान के कब्जे वाले भाग में चीन लंबे समय से सक्रिय है तथा बलोचिस्तान के निर्माणाधीन ग्वादर बंदरगार तक चीन की आवाजाही का रास्ता वहीं से गुजरता है। यह भारत पर निर्भर करता है कि इस वास्तविकता को किस हद तक स्वीकार करे, उसकी तरफ से मुंह मोड़ ले या फिर पूरी तरह आंखें बंद कर ले। चूंकि पाकिस्तान में भी निर्वाचित सरकार के बजाय सेना का ही हुक्म चलता है, इसलिए आपसी बातचीत से कोई समाधान जल्दी होते नहीं दिखता। किंतु चीन को इससे क्या फर्क पड़ता है। वह तो अपने मकसद में कामयाबी हासिल कर ही रहा है।
चीन ने भारत के जले पर नमक छिड़कने का काम बीजिंग शिखर सम्मेलन के अगले ही दिन किया। विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता सुश्री हुआ चुनयिंग ने 16 मई को प्रेस वार्ता में कहा कि चीन के दरवाजे भारत के ओबोर में शामिल होने के लिए सदैव खुले हुए हैं। भारत जब भी चाहे वह इस परियोजना में साथ आ सकता है। प्रवक्ता ने भारत के विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया पर भी कटाक्ष किया कि वे अर्थपूर्ण संवाद की बात करते हैं। संवाद संवाद है, इसमें अर्थपूर्ण का क्या आशय है, हम नहीं जानते। चीन का यह बयान भारत को अवश्य कड़वा लगा होगा। दरअसल, हमें यह अनुमान ही नहीं था कि बीआरआई महासम्मेलन को ऐसी सफलता मिलेगी। कुछेक पर्यवेक्षकों के अनुसार भारत का पांसा उल्टा पड़ गया। उसे उम्मीद न थी कि जिन अमेरिका और जापान के साथ मिलकर वह चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने की कोशिशों में लगा है, वे ही सम्मेलन में अपने उच्चस्तरीय शिष्टमंडल भेज देंगे। श्रीलंका के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ ने भी स्पष्ट कहा है कि प्रस्तावित समुद्री रेशम मार्ग के निर्माण में उनका देश अपने लिए महत्वपूर्ण संभावना देख रहा है। यह वक्तव्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया श्रीलंका यात्रा के तुरंत बाद ही आया। नेपाल तो ओबोर को अंदरूनी मामलों में भारत को रोकने के उपाय के रूप में देख रहा है।
बहरहाल, सम्मेलन तो निपट गया। अगला सम्मेलन दो साल बाद होने का निर्णय हुआ है। ओबोर का भविष्य इस दरमियान होने वाले वैश्विक घटनाचक्र पर काफी हद तक निर्भर करेगा। याद करें कि एशिया को यूरोप से जोड़ने वाला एक भूमि-पथ सौ साल से विद्यमान है, जिसे हम ट्रांस साईबेरियन रेलवे लाइन के नाम से जानते हैं। रूस के सुदूर पूर्व से होकर मास्को तक यह रेल मार्ग बिछा है। जहां से यूरोप के लिए दूसरा रेल मार्ग जुड़ जाता है। याने चीन का सिल्क रूट एक तरह से रूस के साथ प्रतिस्पर्द्धा करेगा। दोनों देशों के बीच विश्वास का स्तर बहुत ऊंचा नहीं है। चीन की विस्तारवादी नीति को वैसे भी विश्व समुदाय में शंका की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी स्थिति में आगे चलकर रूस क्या करेगा, यह सवाल स्वाभाविक ही उठता है। चीन ने अभी लंदन तक मालगाड़ी चलाने का सफल प्रयोग किया है किंतु उसकी लागत समुद्री मार्ग द्वारा परिवहन से तीन गुना पड़ रही है। क्या चीन इस महंगे सौदे को जारी रखने का खतरा उठाएगा। मध्यएशिया के उकाबेकिस्तान आदि देश सिल्क रोड में संभावनाएं देख रहे हैं। यहां भी प्रश्न है कि चीन से भारी रकम उधार लेकर वे जो एसईजेड आदि विकसित करेंगे, क्या वे आर्थिक रूप से लाभकारी सिद्ध होगें या कर्जे में डूब जाएंगे।
श्रीलंका ने भी अभी भले ही समुद्री पथ में अपने आर्थिक उन्नयन की आशा देखी हो, तथ्य यह है कि चीनी सहयोग से श्रीलंका ने जो बंदरगाह विकसित किया है, फिलहाल अनुपयोगी सिद्ध हो रहा है। जापान, वियतनाम आदि पड़ोसी देशों ने भी सम्मेलन में भाग लिया हो, यह शायद उनका एक कूटनीतिक निर्णय रहा हो और चीन के साथ सुदीर्घ व्यापारिक सहयोग अभी शायद दूर की कौड़ी ही हो। इधर भारत एक समानांतर योजना पर काम कर रहा है। रूस के साथ उसकी बातचीत अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण आर्थिक गलियारा जैसी कोई परियोजना शुरु करने पर जारी है। ईरान में भारत के सहयोग से चाबहार बंदरगाह बन रहा है, जो रूस के काम आ सकेगा। दूसरे, एशिया व अफ्रीका के अनेक समुद्रवर्ती देश चीन से प्राप्त आर्थिक सहयोग के कारण उसके दबाव में आ जाते हैं, लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि प्रारंभ से हिंद महासागर भारत का प्रभाव क्षेत्र रहा है इसलिए चीन समुद्री मार्ग पर आंशिक सफलता की ही उम्मीद कर सकता है। भारत यदि अपने पड़ोसी देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों में बेहतर सोच का परिचय दे तो यह उसके लिए अच्छा होगा।
ताज़ा खबर हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के हवाले से है कि भारत समय आने पर ओबोर में शामिल हो सकता है। भारत ने म्यांमार, यहां तक कि पाकिस्तान में निर्माणाधीन कुछ परियोजनाओं का भी हवाला दिया है, जिनमें भारत व चीन दोनों एशियाई अधोसंरचना कार्यक्रम के अन्तर्गत साथ-साथ काम कर रहे हैं। इस बयान से भारत के रुख में नरमी आने का संकेत मिलता है। यह वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में स्वागत योग्य है। इसलिए कि पड़ोसी देशों के बीच जितने सहज-सामान्य संबंध हों उतना अच्छा, यद्यपि हमें उतना ही सदा चौकस रहने की भी आवश्यकता है।
देशबंधु में 25 मई 2017 को प्रकाशित
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