बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर पिछले सप्ताह एक ऐसी घटना घटी जिसका समाचार पढ़कर मन उद्विग्न हो उठा। समाचार कुछ इस तरह का था कि एक छत्तीस वर्षीय युवक अपने छह बच्चों के साथ बिलासपुर स्टेशन पर उतरा। गोद में छोटा बच्चा था, जिसे पानी पिलाने के लिए वह रुक गया और साथ में चल रही पांच बेटियां आगे निकलकर भटक गईं। गनीमत यह हुई कि वे रास्ता ढूंढकर अपने किसी रिश्तेदार के यहां चली गईं, जिसने पुलिस को खबर कर दी और पुलिस ने उन्हें तुरंत पिता के सुपुर्द कर दिया। आप पूछेंगे कि घटना का अंत तो सुखद है फिर इसमें चिंतित होने की बात कहां से आ गई। अगर तफसील में जाएं तो चिंता के बिन्दु अपने आप उभरने लगते हैं। ध्यान दीजिए कि जिस युवक का जिक्र हुआ है, उसकी उम्र मात्र छत्तीस वर्ष है। इतनी कम आयु में वह छह संतानों का पिता बन चुका है। पहली पांच संतानें बेटियां हैं और अंतिम संतान वह बेटा है। अनुमान लगाना गलत न होगा कि बेटे की चाहत में वह छह बच्चों का पिता बन गया और उसकी पत्नी छह बच्चों की मां।
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान प्रारंभ हुआ। यह मोदी सरकार के प्रमुखतम कार्यक्रमों में एक है। इसका उद्देश्य है कि भारत में जो लैंगिक असमानता सदियों से विद्यमान है, देश में लड़के व लड़कियों के अनुपात में एक बड़ी खाई बनी है वह बढ़ती जा रही है, उसे दूर किया जाए। कुछ प्रदेश लंबे समय से कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम रहे हैं। अगर बेटी हुई है तो जन्म होते ही उसे मार डालने के लोमहर्षक प्रसंग सामने आए हैं। यह भी अध्ययन से पता चला है कि शहरी पढ़े-लिखे सक्षम वर्ग में पुत्री के बजाय पुत्र को प्राथमिकता दी जा रही है। दिल्ली, मुंबई इत्यादि महानगरों के आंकड़े यही बयान करते हैं। कुछ समय पहले ही महाराष्ट्र के सांगली जिले में किसी जगह पर दर्जनों मृत भ्रूण प्राप्त हुए जिससे खलबली मच गई। अनुमान है कि आसपास के अल्ट्रासाउण्ड क्लीनिकों में गर्भस्थ शिशु के लड़की होने की जानकारी मिलने के बाद गर्भपात करवा भ्रूण वहां दफनाए गए। इसकी खोजबीन जारी है, लेकिन कोई न्यायिक कार्रवाई हुई हो तो मेरी जानकारी में नहीं है।
अब यदि बिलासपुर के उपरोक्त प्रसंग को हँस कर टालना चाहें तो कह सकते हैं कि इस युवक को तो मोदीजी से प्रमाणपत्र मिलना चाहिए कि उसने पांच पुत्रियों का पिता बनकर एक उदाहरण पेश किया है। लेकिन बात हँसी की नहीं है। हमारे समाज में न जाने क्यों लड़कियों को शुरु से ही बोझ मान लिया जाता है। पुत्री को जन्म देने वाली मां को ससुराल में सास, ननद और परिवार के अन्य सदस्यों के ताने ही नहीं, प्रताडऩा भी झेलना पड़ती है। जिन परिवारों में अर्थाभाव है वहां भूखे रहने की नौबत आए तो वह तकलीफ मां-बेटी को ही झेलना पड़ती है। बेटी की पढ़ाई-लिखाई की ओर दुर्लक्ष्य किया जाता है। उसकी स्वतंत्रता कदम-कदम पर बाधित होती है। घर, सड़क, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, ससुराल, उस पर अदृश्य निगाहें गड़ी रहती हैं। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी जब लड़कियां अपना दमखम दिखाती हैं तो उन्हें एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन उस आदर्श का अनुकरण करने की बात कदाचित ही सोची जाती है। इसके बावजूद अगर आज लड़कियां आगे बढ़ रही हैं तो इसका श्रेय आधुनिक शिक्षा और आधुनिक प्रौद्योगिकी को देना चाहिए।
आज जो परिदृश्य है उसे बेहतर बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष, यूनिसेफ, यूएन वीमेन जैसी वैश्विक संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं। सरकार के अपने कानून और कार्यक्रम भी हैं। अनेक एनजीओ और स्वैच्छिक संगठन भी इस विषम परिस्थिति को बदलने में योगदान कर रहे हैं। फिर भी कुछ सवाल रह-रह कर उठते हैं। सबसे पहले लड़की की सुरक्षा की बात आती है। घर के बाहर तो क्या, घर के भीतर भी लड़कियां पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। इसके अनेक चिंताजनक उदाहरण सामने आए हैं। दूसरे, यह मान्यता है कि लड़की का विवाह करना परिवार विशेषकर पिता की जिम्मेदारी है। लड़की के हाथ पीले करने के बाद सब जैसे चैन की सांस लेते हैं कि एक बोझ उतर गया। लड़की इसलिए बोझ है कि शादी में जो खर्च होता है, उसके अलावा मनमाना दहेज देना पड़ सकता है। सीमित साधन में यह व्यवस्था कैसे हो? तीसरे- हमारी सामाजिक व्यवस्था में हर मां को यह डर रहता है कि बेटी ससुराल में सुख नहीं पाएगी। इस सोच में शायद उसका अपना अनुभव भी शामिल होता है। ऐसे और भी प्रश्न हैं।
जाहिर है कि यह स्थिति संतोषजनक नहीं है। जो लोग लड़कियों के लिए बेहतर भारत बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं उन्हें इन सवालों से जूझना पड़ता है। विडंबना यह है कि लैंगिक असमानता के विरुद्ध काम करने वाली संस्थाओं पर भी पितृसत्तात्मक सोच हावी है। मैं रविवार 26 मार्च को कोलकाता में था। बड़ा बाज़ार में एक जुलूस के कारण बीस-पच्चीस मिनट जाम में फंसा रहा। वृहत कोलकाता मारवाड़ी समाज अथवा वैश्य समाज द्वारा बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ मिशन के समर्थन में यह रैली निकाली गई थी। कोई पचास वर्ग किलोमीटर के दायरे से बड़ी संख्या में महिलाएं सज-धज कर भाग लेने आई थीं। रैली के बैनर देखकर खुशी हुई, लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिकी, जब मैंने देखा कि अनेक महिलाओं के हाथ में जो प्लेकार्ड थे उनकी इबारत थी-बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे। यह नारा पहले रायपुर में भी सुनने में आया था।
बेटी का जन्म क्या सिर्फ इसलिए हुआ है कि वह किसी घर की बहू बनकर मायके से विदा हो जाए? क्या उसके जीवन की सार्थकता पत्नी या मां बनने में ही है? यह मेरी दृष्टि में उस पितृसत्तात्मक समाज की सोच है जो राजा दुष्यंत के समय से चली आ रही है। किंवदंती है कि दुष्यंत के बेटे भरत ने भारतवर्ष की स्थापना की थी। भरत को पता था कि पिता दुष्यंत ने मां शकुंतला के साथ क्या बर्ताव किया था, फिर भी उसके द्वारा स्थापित राज्य में स्त्री सम्मान की अधिकारी नहीं हो सकी, उसे बराबरी का दर्जा नहीं मिल पाया, यह बड़ी विडंबना है। राम ने सीता की अग्नि परीक्षा ली और फिर उन्हें अपने जीवन से निर्वासित कर दिया। गांधारी पूरे जीवन भर अपनी आंखों पर पट्टी बांधने के लिए मजबूर हुई। भीष्म ने प्रेम का तिरस्कार किया। द्रौपदी को न जाने कितनी परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। ये सारी पौराणिक गाथाएं हमारे सामने हैं। लोकगीतों में सीता पर आई विपत्तियों का मार्मिक चित्रण है, किन्तु स्थितियां कमोबेश वही चली आ रही हैं।
अतीत की बात छोड़कर वर्तमान की चर्चा करते हैं। विगत कई वर्षों से कन्याओं को सुरक्षा और सम्मान देने की दिशा में सरकार द्वारा अनेक कदम उठाए गए हैं। एक लोक कल्याणकारी राज्य व्यवस्था में ऐसा होना वांछित और आवश्यक है। पीसीपीएनडीटी एक्ट विगत बीस वर्षों से लागू है। यह कानून भ्रूण के लिंग परीक्षण को वर्जित करता है। इसमें कठोर सजा का प्रावधान है। लेकिन निजी अस्पतालों में सोनोग्राफी मशीनों की संख्या बढ़ती जा रही है। जो साधनसम्पन्न लोग कानून से बचना चाहते हैं वे पड़ोस में थाइलैंड जाकर भ्रूण परीक्षण करवा लेते हैं। इधर मोबाइल सोनोग्राफी मशीनें भी बाजार में आ गई हैं। चतुर लोग किसी दूसरे प्रांत में जाकर भ्रूण परीक्षण करवाते हैं और अपने गांव लौट गर्भपात करवा लेते हैं। जांचने वाले डॉक्टर दो तरह के हैं। एक वे जो लालच में फंसकर लिंग परीक्षण करते हैं; दूसरे कुछ ऐसे भी हैं जो गर्भवती मां की दलीलों से पिघल जाते हैं कि लड़की हुई तो ससुराल वाले घर से निकाल देंगे इत्यादि। बहरहाल कानून तो है, लेकिन उसका पालन कैसे हो, उसमें व्यवहारिक अड़चनें क्या हैं आदि पर सम्यक विचार नहीं किया गया है।
पीसीपीएनडीटी एक्ट को लेकर एक और विडंबना अभी सामने आई। महाराष्ट्र सरकार विधानसभा में बिल लाने जा रही है कि भ्रूण के लिंग परीक्षण को अनिवार्य कर दिया जाए। यह डॉक्टरों को बचाने के लिए लाया गया एक चालाक प्रस्ताव है। क्यूंकि वर्तमान एक्ट के तहत सबसे ज्यादा मुकदमे महाराष्ट्र में ही चल रहे हैं। जब लिंग परीक्षण अनिवार्य हो जाएगा, तो सोनोग्राफी करने वाले डॉक्टरों पर कोई कार्रवाई होने का सवाल ही नहीं उठेगा। फिर भ्रूणस्थ शिशु के गर्भपात के लिए मां या परिवार के लोग जहां जाना चाहे जाएं, उनसे मतलब नहीं।अंत में हम बिलासपुर स्टेशन वापिस लौटते हैं। युवक के नाम-गाम से अनुमान होता है कि वह साधारण वित्तीय स्थिति का व्यक्ति है। वह जहां रहता है वहां आंगनबाड़ी होगी, एएनएम होगी, मितानिन होगी, नसबंदी शिविर भी चलते होंगे, इस युवक की पत्नी को संस्थागत प्रसव की जानकारी भी दी गई होगी। जब सरकार की ओर से इतनी सारी व्यवस्थाएं हैं, तब भी इस दंपति को क्या किसी ने सही सलाह नहीं दी या इन्होंने हर सलाह सुनी अनसुनी कर दी। यह तो ठीक है कि पांचों बेटियां सही सलामत घर आ गईं। लेकिन इनका भविष्य क्या है? अगर आप मेरी चिंता में शामिल हैं तो इस पर बात कीजिए।
देशबंधु में 18 मई 2017 को प्रकाशित
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