Friday 1 December 2017

खुशफहमियों का अंबार

स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर ख्यातिप्राप्त पत्रकार हैं। वे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के घनघोर समर्थक हैं। अपने एक ताजा लेख में उन्होंने मोदी सरकार की तीन साल की आर्थिक उपलब्धियां संक्षेप में गिनाई हैं। 2009-10 में मौद्रिक घाटा जीडीपी का छह दशमलव सात प्रतिशत था। वह गिर कर तीन दशमलव दो प्रतिशत पर आ गया है। चालू खाते का घाटा 2013-14 में चार प्रतिशत से घटकर 2016-17 में जीरो दशमलव सात प्रतिशत पर आ गया है। उनके अनुसार मोदी एक झटके में नहीं, बल्कि धीरे-धीरे कर अर्थव्यवस्था में सुधार ला रहे हैं। इसमें वे आधार के माध्यम से सीधे मुद्रा हस्तांतरण को भी गिनते हैं। बिजली, सड़क और ब्राडबैंड का भी उल्लेख उन्होंने किया है। वे यह भी कहते हैं कि रिजर्व बैंक अब सरकार के नियंत्रण से दूर एक स्वायत्त संस्था है जो अपने निर्णय खुद लेने में सक्षम है।  इस आखिरी दावे को स्वीकार करना आसान नहीं है। बाकी के बारे में भी आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ बेहतर बता सकेंगे।
श्री अय्यर को मैंने खास वजह से उद्धृत किया है। एक तरफ वे मोदी सरकार की प्रशंसा करते हैं; दूसरी तरफ यह भी कहते हैं कि मोदी ने भारत की रेटिंग में जो सुधार किया है वह एक छोटी-मोटी घटना है, उसका मतदाताओं से कोई लेना-देना नहीं है और मोदीजी को उससे चुनाव जीतने में कोई मदद नहीं मिलेगी। वे फिर गिनाते हैं कि इन तीन वर्षों में आर्थिक क्षेत्र में क्या-क्या प्रतिकूल स्थितियां बनीं। एक सामान्य पाठक भी इनमें से अनेक तथ्यों से परिचित है। यह हम जानते हैं कि मोदीजी ने हर साल रोजगार के दो करोड़ नए अवसर सृजित करने की बात की थी। अब तक सात करोड़़ युवाओं को रोजगार मिल जाना चाहिए थालेकिन वास्तविक उपलब्धि मात्र दस प्रतिशत के आसपास है। पहले कहा कि नौकरी नहीं, रोजगार के अवसर देने की बात का वायदा किया गया था। दोनों में से कुछ भी नहीं हुआ। अब रविशंकर प्रसाद बेरोजगार नौजवानों का अपमान करते हुए कह रहे हैं कि जो कुशल या दक्ष थे उन्हें रोजगार मिल गया, बाकी को नहीं मिला।
सरकार के वरिष्ठ मंत्री की इस बात को मान लें तो फिर उन्हें बताना चाहिए कि कौशल विकास के लिए जो स्किल इंडिया कार्यक्रम शुरू किया था वह किस स्थिति में है। यदि देश के शैक्षणिक संस्थानतकनीकी संस्थाएं व कौशल विकास के नाम पर खुली दुकानें अपना काम ठीक से नहीं कर रही हैं तो यह किसकी जिम्मेदारी है। यह शायद पहली बार हुआ है कि देश के नामी-गिरामी संस्थानों में बरसों से संस्था प्रमुख के पद खाली पड़े हैं। अगर नियुक्तियां हो भी रही हैं तो संघ का अनुमोदन होना उसकी पहली शर्त है। जो संस्थान व्यवसायिक और तकनीकी पढ़ाई के लिए खोले गए हैं, उनमें संघ अजेंडा पर संगोष्ठियां होती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के एक पुलिस अधिकारी जो नकली मुठभेड़ों, नकली आत्मसमर्पण और अत्याचार दमन के लिए ख्याति पा गए हैं उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा पर विभिन्न संस्थानों में भाषण देने के लिए क्यों बुलाया जाता है?
मूडी ने जिन भी मानदंडों पर भारत की रेटिंग में सुधार किया हो, वह अर्थव्यवस्था की सामान्य सोच से मेल नहीं खाता। बड़े-बड़े इजारेदारों को अगर कम ब्याज दर पर ऋण मिल रहा है तो क्या इसके बाद देश के कारखाने पहले से अधिक गति से चल रहे हैं?  उनके उत्पादन के तुलनात्मक आंकड़े क्या हैं? क्या उनसे रोजगार के नए अवसर बने? मूडी के आकलन के बाद उम्मीद की जाती है कि विदेशी कारपोरेट घरानों को भारत में निवेश के लिए बेहतर वातावरण मिलेगा। लेकिन क्या सचमुच निकट भविष्य में ऐसा हो पाएगा? अगर औद्योगिक क्षेत्र की स्थिति में सुधार हुआ है तो फिर देश के तमाम मजदूर संगठनों को एकजुट होकर दिल्ली में संसद मार्ग पर महापड़ाव डालने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? गौर कीजिए कि संघ से उत्पन्न और भाजपा से पोषित भारतीय मजदूर संघ भी इसमें पीछे नहीं रहा गो कि उसने अलग से प्रदर्शन किया। इस सच्चाई के बरक्स क्या विदेशी कारखानेदार सचमुच भारत में उद्योग लगाने के लिए उत्साहित हैं?
यह तो सबको दिख रहा है कि मूडी की घोषणा के बाद मोदीजी और उनकी पूरी सरकार का मूड सुधर गया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो आनन-फानन पत्रवार्ता बुलाकर सगर्व ऐसे घोषणा की मानो विश्व-विजय करके आ गए हों। सरकार का मूड सुधारने के लिए इसके पहले दो खबरें और आईं थीं। पहली जिसमें बताया गया कि भारत में व्यापार करना पहले की अपेक्षा सुगम हो गया है। ईज़ ऑफ डूईंग बिजनेस में एक सौ तीसवें नंबर से लंबी छलांग लगाकर देश सौवें स्थान पर पहुंच गया है। खुश होकर सरकार ने यह खबर जनता को दी थी। इसके कुछ समय बाद प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण सामने आया। इससे हमें पता चला कि कि देश के नब्बे प्रतिशत लोगों की पहली पसंद नरेन्द्र मोदी हैं अर्थात उनके नेतृत्व में जनता का विश्वास लगातार कायम है। मोदीजी के नेतृत्व में 2014 में मात्र इकतीस प्रतिशत वोट पाकर भाजपा की सरकार बनी थी। आज यदि नब्बे प्रतिशत लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं तो निश्चित ही यह एक बड़ी खबर है।
नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। उनके कार्यकाल को अभी डेढ़ साल बाकी है। उन्हें यदि जनता का विश्वास हासिल है तो यह प्रसन्नता का विषय होना चाहिए। यहां हमारा ध्यान दूसरी दिशा में जाता है। वर्ल्ड बैंक की रैकिंग, प्यू रिसर्च सेंटर का सर्वेक्षण, मूडी का रेटिंग सुधार- इन सबमें एक सामान्य सूत्र है। ये तीनों संस्थाएं अमेरिका में स्थित हैं। अमेरिका के सैन्य-पूंजी गठजोड़ के इशारे पर चलती है। यह कोई नई बात नहीं है। इसके सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। अमेरिका विगत कई वर्षों से भारत के साथ संबंध सुधारने में लगा है। इसमें मनमोहन सिंह की भी अपने समय में भूमिका रही है। कारण स्पष्ट है। चीन एक महाशक्ति बन चुका है। अमेरिका विश्व के इस भूभाग में शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहता है। वह चीन के बढ़ते प्रभाव को तभी रोक सकता है जब भारत उसका विश्वस्त सहयोगी बन जाए। एक समय अमेरिका ने पाकिस्तान पर भरोसा किया था, लेकिन समीकरण बदल गए हैं।
चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए भारत को भी एक शक्तिशाली मित्र की आवश्यकता है। कल तक सोवियत संघ उसका साथी था। आज उसे अमेरिका दिखाई दे रहा है। भारत और अमेरिका के बीच दोस्ती हो यह अच्छी बात है, लेकिन हमें अपने दीर्घकालीन हितों को देखकर ही संबंधों की सीमा तय करना चाहिए। कल तक जिसे एशिया-पैसेफिक क्षेत्र कहा जाता था उसे डोनाल्ड ट्रंप ने इंडिया-पैसेफिक कह दिया तो इससे फूल कर कुप्पा होने में अपना ही नुकसान है। फारस की खाड़ी को अरब की खाड़ी कहकर पुकारना चाहें तो भी वह ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों से फारस की खाड़ी ही रहेगी। एशिया-पैसेफिक क्षेत्र में पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के तमाम देश आ जाते हैं। इंडिया-पैसेफिक कहेंगे तो जापान, फिलीपीन्स, वियतनाम कहां जाएंगे? अमेरिका जानता है कि भारत एक भावना-प्रधान देश है। वह लच्छेदार बातें करके हमें भरमाता है। यह हमारे नेतृत्व के विवेक पर निर्भर करता है कि लच्छेदार बातों में न आए और वास्तविकता की कठोर धरती पर रिश्तों का आकलन करे।
गौरतलब है कि द्धितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद से ही नवसाम्राज्यवादी ताकतें तीसरी दुनिया के मुल्कों पर अपना प्रभाव कायम करने के लिए भांति-भांति के हथकंडे अपनाती रही हैं। सीआईए ने अमेरिका को नापसंद सरकारों को अपदस्थ करने के लिए जो षड़यंत्र रचे उसकी सूची बहुत लंबी है। सांस्कृतिक मोर्चे पर भी उनके प्रयत्न चलते रहते हैं। हमारे फिल्मकार ऑस्कर पाने के लिए जिस तरह लालायित रहते हैं वह इसका प्रमाण है। मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स जैसी प्रतियोगिताएं भी तीसरी दुनिया के सांस्कृतिक मूल्यों को विनष्ट करने में भूमिका निभाती हैं। आर्थिक क्षेत्र में भारत को जो तीन प्रमाणपत्र हाल में मिले हैं जिनका उल्लेख हम ऊपर कर आए हैं के साथ-साथ एक भारतीय लड़की को मिस वर्ल्ड-2017 का खिताब मिलना भी इसी महायोजना का एक अंग है। इसका जिक्र मैं 2 नवंबर के अपने लेख में कर आया हूं। लब्बो लुआब यह कि हमें खुशफहमियों में नहीं जीना चाहिए।
 देशबंधु में 30 नवंबर 2017 को प्रकाशित 

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