Sunday 10 December 2017

छुईमुई बन गया बरगद का वृक्ष



 यह संभव है कि इस कॉलम के छपने के पूर्व ही फिल्म पद्मावती प्रदर्शित हो जाए। यह भी उतना ही संभव है कि 1 दिसंबर की घोषित तिथि और आगे बढ़ा दी जाए। अनुमान होता है कि गुजरात के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने तक फिल्म को लेकर उठा विवाद किसी न किसी रूप में जारी रहेगा। मैंने दोनों अलग-अलग संभावनाएं इसलिए व्यक्त कीं क्योंकि इस कॉलम के लिखने और छपने के बीच लगभग दो सप्ताह का अंतराल होगा। मेरा मुख्य उद्देश्य फिल्म की कथावस्तु पर चर्चा करना नहीं था बल्कि मैं इस विवाद से जुड़े कुछ बुनियादी प्रश्नों पर अपने विचार पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूं इसलिए मुझे लगता है कि प्रवास पर रवाना होने के पहले लिखे गए लेख की प्रासंगिकता उसके छपने तक बनी रहेगी। बल्कि प्रकाशन के बाद उन मुद्दों पर चर्चा करने का गंभीर अवसर भी आपके और हमारे सामने होगा।
यह सवाल सबसे पहले उठता है कि हम आजकल इतने जल्दी आपा क्यों खोने लगे? इतनी अधीरता हमारे सामूहिक चिंतन में घर कैसे कर गई? हम बात-बात पर एक-दूसरे से लड़ने-मरने के लिए क्यों तैयार हो जाते हैं? क्या हम हमेशा से ऐसे ही थे या फिर यह कोई नई बात है? यह भी शायद सोचने की बात है कि अगर भारतीय समाज में धीरज की कमी पहले से थी तो क्या उसमें हाल के समय में इजाफा हुआ है? क्या हम चीजों को आई-गई करना भूल गए? क्या हमारी विनोद वृत्ति समाप्त या क्षीण हो चुकी है? आज जो भी स्थितियां दिखाई दे रही हैं उसका दोष हम किसे दें? यह भी एक मौजूं प्रश्न है। इन तमाम मुद्दों पर विचार करना मुझे इसलिए जरूरी लगता है कि बात सिर्फ एक फिल्म, एक किताब, एक नाटक, एक कलाकृति तक सीमित नहीं है क्योंकि ऐसे प्रसंग लगातार घटित हो रहे हैं। मकबूल फ़िदा हुसैन को जलावतन होना पड़ता है, तस्लीमा नसरीन को मार्क्सवादी सरकारें भी आश्रय नहीं देतीं, नाटक बीच में बंद करवा दिए जाते हैं, वैंडी डोनिगर की पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की मांग होती है, पद्मावती इस शृंखला की ताजा कड़ी है।
हमने अपना चरित्र लाजवंती के पौधा सा क्यों बना लिया है? जरा सा छुओ और पत्तियां अपने को समेट लेती हैं। आम बोलचाल में इसे छुईमुई का पौधा कहते हैं। यह कैसी विडंबना है कि जिस समाज को वटवृक्ष बनना चाहिए वह स्वयं को छुईमुई का पौधा बना रहा है। क्या इसकी वजह यह है कि देश को जो राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व मिलना चाहिए था वह सत्ता की दुरभिसंधियों के चलते धीरे-धीरे कर लुप्त हो गया है! मुझे भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित धीरोदात्त नायक की अवधारणा का अक्सर ख्याल आता है। इसके साथ ही प्लेटो ने द रिपब्लिक में फिलासफर किंग याने दार्शनिक शासक की अवधारणा प्रस्तुत की है वह भी ध्यान आती है। अपने पुराने लेखों में मैंने कहीं इनका उल्लेख भी किया है। एक जवाहर लाल नेहरू ही थे जो इस अवधारणा पर खरे उतरते थे। मेरा मानना है कि उनके जाने के बाद से राजनीति में मूल्यों का पराभव प्रारंभ हो गया था।
आजादी मिलने के बाद हमने नवनिर्माण की दिशा में कदम आगे बढ़ाए थे। भिलाई स्टील प्लांट बना तो उसे मिनी भारत की संज्ञा मिली। देश के तमाम हिस्सों से लोग यहां आकर बसे। उन्होंने मिलजुल कर काम किया। कुछ समय के लिए लगा कि धर्म, जाति, भाषा, प्रांत ये सारी दूरियां तिरोहित हो जाएंगी। मोहन सहगल की फिल्म नई दिल्ली में इसी का संदेश था। उसी समय आईआईएम, आईआईटी और एम्स की स्थापना हुई। आईआईएम अहमदाबाद में पंडित नेहरू ने मात्र चालीस वर्ष की आयु के रवि मथाई को पहला डायरेक्टर बनाकर भेजा।  रवि मथाई ने जो नींव डाली उसका प्रतिफल हम आज देख रहे हैं। डॉ. वर्गीज कुरियन ने अमूल डेयरी के माध्यम से श्वेत क्रांति को फलीभूत किया। डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन जैसे परम विद्वानों को संवैधानिक पदों पर सुशोभित किया गया। सी.वी. रमन, महर्षि धोंडो केशव कर्वे, डॉ. भगवानदास और एम. विश्वैश्वरैया जैसी विभूतियों को भारत रत्न से अलंकृत किया गया। क्या यह सब कुछ एक सपना तो न था?
भारत आज नौजवानों का देश है। हमारी आबादी में युवजनों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। अर्थशास्त्री और योजनाकार इसे डेमोग्राफिक डिवीडेंड की संज्ञा देते हैं याने यह युवा आबादी देश के लिए वरदान है। किसी भी समाज में युवाओं का होना वरदान ही माना जाना चाहिए, लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर पूछिए कि क्या हम इस डिवीडेंड का सही ढंग से उपयोग कर पा रहे हैं! एक बच्चे के जन्म लेने से युवावस्था में पहुंचने तक उसे क्या-क्या चाहिए- सुरक्षित प्रसव, स्वस्थ शैशव, स्वस्थ बालपन, पोषण आहार, उत्तम शिक्षा, उपयुक्त खेल और मनोरंजन, स्वास्थ्यदायक रिहाइश और जलवायु, बड़े होने पर क्षमता के अनुसार रोजगार। इनमें से कौन सा मानक है जिस पर भारत खरा उतर रहा है? योजनाएं तो सब अच्छी बनी हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन में ईमानदारी और तत्परता का अभाव किसी से छुपा नहीं है।
हमारे आज के नेता बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लंबे-चौड़े वादे करते हैं, वक्त के साथ सब भूल जाते हैं।  वायदे को जुमला कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच निकलते हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी की परवरिश सही ढंग से नहीं होगी यह स्वयंसिद्ध है। करेले पर नीम चढ़ा इस तरह कि बच्चों में बचपन से ही भेदभाव पैदा किया जा रहा है। सबके लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था होने के बजाय हैसियत के मुताबिक शिक्षा का प्रबंध है। एक अपार्टमेंट परिसर में रहने वाले बच्चे भी एक-दूसरे के घर जाकर पानी भी नहीं पीते। कालोनियां, धर्म और जाति के आधार पर बनने लगी हैं। कहीं सिर्फ ब्राह्मणों की कालोनी है, तो कहीं सिर्फ वैश्यों की। सबने अपने-अपने द्वीप बना लिए हैं और उस संकीर्णता में आत्ममुग्ध होकर जी रहे हैं। रहन-सहन, खानपान, सामाजिक मेलजोल इन सब में पोंगापंथी, जड़वादी सोच प्रभुवर्ग ने अपना ली है जिसकी कीमत नौजवान पीढ़ी को चुकाना पड़ रही है।
देश के नौजवानों में किसी कदर गुस्सा है। उन्हें पढ़ाई-लिखाई के सही अवसर नहीं मिले। उन्हें रोजगार के अवसर भी नहीं मिल रहे हैं। उनका आत्मविश्वास दरक रहा है, उनका स्वाभिमान स्खलित हो रहा है। उनकी इस बुझी हुई मानसिकता में उनकी शक्ति का दुरुपयोग वे चालाक शक्तियां कर रही हैं जो देश की राजनीतिक दशा-दिशा का निर्धारण करती हैं। उन्हें यह मुफीद आता है कि आम जनता वर्तमान के प्रश्नों से हटकर अतीत की गलियों में भटकती रहे और गैरजरूरी मसलों पर अपनी शक्ति जाया करती रहे। इस काम के लिए उन्हें फुट सोल्जर्स अर्थात प्यादों की जरूरत होती है। इसके लिए बेरोजगार नौजवानों से बेहतर पात्र और कोई नहीं होता। उनसे आप नारे लगवा लीजिए, गाली-गलौज करवा लीजिए, पत्थर फेंकवा लीजिए, मारकाट करवा लीजिए। वे खाली बैठे हैं, इनके पास जीवन का कोई मकसद नहीं है। उनकी दमित आकांक्षाओं का क्षरण इन विध्वंसकारी गतिविधियों में होता है तो वही सही।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जनतांत्रिक  राजनीति में जनता का जो राजनैतिक प्रशिक्षण होना चाहिए उस बेहद जरूरी दायित्व से सबने मुंह मोड़ लिया है। भाजपा, शिवसेना की बात छोड़िए, कांग्रेस के युवा और छात्र संगठनों का वैचारिक धरातल कितना मजबूत है? सीपीआईएम ने तीस साल के लंबे शासनकाल में पश्चिम बंगाल में जनता खासकर नौजवानों को अपने राजनैतिक सिद्धांतों में कितना दीक्षित किया? सीपीआई में युवजन कहां हैं? समाजवादियों के युवा नेतृत्व की राजनीति समझ कितनी पुष्ट है? अगर इस तरफ ध्यान दिया गया होता तो पुरोगामी ताकतों को यह अवसर ही नहीं मिलता कि वे जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ कर उसे गलत दिशा में ले जा पातीं।
देशबंधु में 7 दिसंबर 2017 को प्रकाशित 

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