Monday 11 December 2017

डॉ. रमन के चौदह साल

                                        
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल के चौदह वर्ष पूरे कर लिए हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास में इस तरह उन्होंने एक रिकार्ड अपने नाम कर लिया है। 1985 में जब अर्जुन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने लगातार दूसरा चुनाव जीता तो वह इस तरह का पहला रिकार्ड था। दूसरा रिकार्ड कायम किया दिग्विजय सिंह ने जो 1993 से 2003 तक लगातार  दस साल मुख्यमंत्री रहे। मध्यप्रदेश में उमा भारती और बाबूलाल गौर के बाद शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने, उन्होंने ग्यारह वर्ष से अधिक समय तक पद पर रहकर दिग्विजय सिंह का रिकार्ड तोड़ दिया। वैसे पुराने मध्यप्रदेश में, जिसे सीपी और बरार के नाम से जाना जाता था, पंडित रविशंकर शुक्ल 1947 से 1956 तक लगातार मुख्यमंत्री रहे थे। यह तो हुई प्रदेश की बात। राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो पाते हैं कि सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग सर्वाधिक लंबी अवधि तक रहने वाले मुख्यमंत्री बन गए हैं। देश में सबसे पहले मोहनलाल सुखाडिय़ा ने राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में सत्रह साल लंबी पारी खेलने का रिकार्ड बनाया था। पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु ने उस रिकार्ड को तोड़ा। वे तेईस साल मुख्यमंत्री रहे। सिक्किम के चामलिंग अपनी पांचवी पारी के आखिरी चरण में हैं। उड़ीसा में नवीन पटनायक  चौथी पारी के अठारह साल पूरे कर चुके हैं। इस तरह वर्तमान समय में डॉ. रमन सिंह कीर्तिमान बनाने की दृष्टि से तीसरे क्रम पर हैं।
छत्तीसगढ़ में अगले साल विधानसभा चुनाव होंगे तब तक डॉ. रमन सिंह के कार्यकाल को पन्द्रह वर्ष पूरे हो जाएंगे। यह देखना दिलचस्प है कि उनको पद से हटाए जाने की अफवाहें लगातार उड़ाई जाती हैं जो अंतत: झूठी सिद्ध होती हैं, फिर भी यह सिलसिला रुकता नहीं है। इसलिए स्वाभाविक ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा 2018 के चुनाव भी डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी। दूसरे शब्दों में पार्टी के भीतर जो उनके विरोधी हैं उनकी डॉ. रमन सिंह को केन्द्र में भिजवाने या मुख्यमंत्री पद से हटाने की कोशिशें फलीभूत होने की कोई संभावना फिलहाल नज़र नहीं आती। आज राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह का घमासान मचा हुआ है उसे देखते हुए यह प्रश्न मन में उठता है कि डॉ. रमन सिंह इतने लंबे समय तक कैसे अपनी कुर्सी को संभालकर रख पाए! अपनी सीमित जानकारी के आधार पर मैं कुछ अनुमान लगाता हूं। डॉ. रमन सिंह केन्द्र में राज्यमंत्री थे। अपना काम भलीभांति कर रहे थे। लालकृष्ण आडवाणी के निर्देश पर मंत्री पद की सुख-सुविधा छोड़कर वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का काम संभालने रायपुर आ गए। ऐसा करके उन्होंने पार्टी के प्रति निष्ठा का परिचय दिया जिससे निश्चय ही भाजपा और संघ के कर्णधारों के बीच वे सराहना और विश्वास के पात्र बने। फिर जिस छत्तीसगढ़ को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था उसको उन्होंने एक साल के भीतर ही ध्वस्त कर 2003 के आम चुनावों में आशातीत सफलता प्राप्त की जिसके कारण उनकी संगठन क्षमता और नेतृत्व क्षमता की धाक भी पार्टी व संघ के भीतर जमी होगी। यह तथ्य भी रेखांकित करने योग्य है कि 2004 से 2014 के बीच केन्द्र सरकार के जितने भी मंत्री छत्तीसगढ़ आए वे सब डॉ. रमन की सराहना करके ही लौटे। यह अपने आप में आश्चर्य की बात थी। भाजपा के जो बड़े नेता, प्रदेश प्रभारी आदि भी जब-जब यहां आए तो रमन सिंह से प्रसन्न होकर ही लौटे। अर्थात रमन सिंह मित्रों और विरोधियों दोनों को संतुष्ट रखने की कला मेें निष्णात हैं।
मैंने डॉ. रमन सिंह को जितना देखा है उसमें एक-दो बातें उल्लेख करने योग्य लगती हैं। एक तो उन्हें अगर पर्याप्त समय मिले तो वे किसी भी विषय पर पूरी तैयारी करके ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं अथवा निर्णय लेते हैं। वे जब केन्द्र में मंत्री थे तब अपने वरिष्ठ मंत्री मुरासोली मारन की बीमारी के चलते उन्हें लोकसभा में अपने विभाग के बारे में जवाब देना पड़ते थे। वे पूरी तैयारी करके प्रभावशाली तथा संतोषजनक रूप से उत्तर देते थे। मेरा कयास है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे हर विषय पर पूरी तैयारी कर पाएं। मैंने यह भी अक्सर नोट किया है कि वे सुनते अधिक और बोलते कम हैं। यह गुण अर्जुन सिंह में भरपूर था। डॉ. रमन अपने विरोधियों पर उनका नाम लिए बिना उन पर कटाक्ष करना या आलोचना करना बखूबी जानते हैं। यद्यपि इधर साल-दो साल से वे इस ओर कुछ असावधान हो गए प्रतीत होते हैं। रमन सिंह मेहनत भी बहुत करते हैं। अप्रैल-मई की चिलचिलाती धूप में गांव-गांव घूमना, उनके ही बस की बात है। मैं यह भी कहना चाहूंगा कि उनके सामने कोई भी आए, वे उसे अपने व्यवहार से पल-दो पल में जीत लेते हैं। इसीलिए उनके विरोधी भी निजी तौर पर उनकी आलोचना करने का अवसर मुश्किल से ही खोज पाते हैं।
एक लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का कीर्तिमान बनाना एक बात है, लेकिन उसके साथ यह सवाल तो उठता ही है कि इस लंबे कार्यकाल की उपलब्धियां क्या हैं? डॉ. रमन सिंह को कुछ बातों का श्रेय अवश्य देना होगा। मेरी याददाश्त में वे देश में पहले मुख्यमंत्री थे जिसने किसानों के लिए ऋण पर ब्याज दर बारह प्रतिशत से घटाकर छह प्रतिशत और बाद में शायद तीन प्रतिशत कर दी। इसके अलावा उन्होंने तमिलनाडु के उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए एक रुपया किलो चावल की योजना प्रारंभ की। वह भी एक महत्वपूर्ण निर्णय था। उन्होंने महेन्द्र कर्मा को सामने रख सलवा जुड़ूम की शुरूआत की थी। यदि वह नक्सलियों के विरुद्ध आदिवासियों की अपनी पहल बन पाती तो शायद उसके कुछ अच्छे परिणाम सामने आते! लेकिन हम जानते हैं कि सलवा जुड़ूम का अंतत: क्या हुआ। रमन सरकार के एक और सही निर्णय का मुझे ध्यान आता है जब उसने वन अधिकार कानून के अंतर्गत हजारों आदिवासियों पर चल रहे मुकदमे खत्म करने की घोषणा की थी। प्रदेश में स्कूली शिक्षा के लिए नियुक्त शिक्षाकर्मियों का पदनाम बदलकर पंचायत शिक्षक करने और उन्हें किसी हद तक सम्मानजनक वेतन देने की पहल भी स्वागत योग्य थी। इनके अलावा और बहुत से कार्यक्रम और योजनाएं हैं जिनका श्रेय सरकार लेती है। इनमें से अनेक योजनाएं केन्द्र प्रवर्तित हैं जिसके लिए धनराशि केन्द्र से आती हैं।  दूसरे सरकार की आमदनी में भी साल दर साल इजाफा हो रहा है, उसके कारण भी बहुत से विकास कार्य होते दिखाई दे रहे हैं। किसी भी कल्याणकारी राज्य में सड़क, बिजली, पानी के काम तो स्वाभाविक गति से तो होना ही चाहिए।
मैं मानता हूं कि डॉ. रमन सिंह की दृष्टि विकासपरक  है। वे समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहते हैं। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरा का नेता भी माना जाता रहा है। लेकिन ऐसे कुछ बिन्दु हैं जिस पर उनसे अगले एक साल के भीतर याने बचे हुए कार्यकाल में निर्णय एवं क्रियान्वयन की अपेक्षा हम करते हैं। छत्तीसगढ़ खनिज और वन संपदा का धनी प्रदेश है। इन बीते वर्षों में इस संपदा का दोहन करने के लिए यहां बेशुमार मात्रा में उद्योगों की स्थापना हुई है। इनसे जो राजस्व मिला है उसके चलते प्रदेश का सालाना बजट तीन हजार करोड़ से बढ़कर अस्सी हजार करोड़ तक पहुंच गया है। लेकिन इस प्राकृतिक संपदा पर जिनका पहला हक है याने आदिवासी- उनकी स्थितियों में कोई बड़ा सुधार हो गया हो ऐसा मानना कठिन है। सलवा जुड़ूम पूरी तरह से असफल हुआ। नक्सल गतिविधियां धीमी जरूर पड़ी हैं, लेकिन इसकी वजह नक्सल आंदोलन के अपने अंतर्विरोधों में अधिक है। बस्तर में अद्र्धसैनिक बलों की भीषण उपस्थिति से स्थिति नियंत्रण में आई हो ऐसा मुझे नहीं लगता। एस.आर.पी. कल्लूरी जैसे अधिकारी को खुली छूट देकर तथा सिविल सोसायटी को प्रताडि़त करने से सरकार की छबि को लाभ नहीं, नुकसान ही पहुंचा है।
कारखानेदारों को पानी पर पहला हक देने और भूमि अधिग्रहण से किसानों में बेचैनी है। रायगढ़, जांजगीर-चांपा आदि इलाकों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। प्रदेश के विकास के लिए सबसे पहली आवश्यकता शिक्षा और स्वास्थ्य तंत्र को सुधारने की है। इस ओर शासन का ध्यान सिर्फ इमारतें खड़ी कर देने पर है, आवश्यक सुविधाएं मुहैया कराने पर नहीं। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का लगातार हनन हो रहा है। प्राथमिक शाला से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेजों तक शिक्षकों के नियमित पदों पर भर्तियां बंद हैं। स्वास्थ्य सेवाएं निजी अस्पतालों और बीमा कंपनियों के हाथों सौंप दी गई हैं। अधिकतर सरकारी अस्पताल बेहाल हैं। जब सरकार अपनी उपलब्धियों को गिनाएं तो उसे अपनी कमियां भी देख लेना चाहिए। मैं जगह-जगह घूमता हूं, छत्तीसगढ़ के बारे में लोग मुझसे सवाल करते हैं मेरा जवाब यही होता है कि डॉ. रमन सिंह की निजी छवि के बल पर प्रदेश चल रहा है। बाकी तो मंत्री और अफसर अपनी मनमर्जी कर रहे हैं। डॉ. रमन सिंह को शुभकामनाएं देते हुए मैं उम्मीद करना चाहूंगा कि इन विसंगतियों को दूर करने की दिशा में वे अविलंब कदम उठाएंगे।
देशबंधु में 12 दिसंबर 2017 को प्रकाशित विशेष संपादकीय 

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