इम्फाल शहर के बीच बाजार में एक चौक पर काले पत्थर की एक प्रतिमा स्थापित है। एक हाथी है और उसे साधने का प्रयत्न करता हुआ महावत है। मैंने आसपास के लोगों से पूछा किसकी प्रतिमा है, किन्तु सभी ने अनभिज्ञता प्रकट की। वहीं एक जन फुग्गे बेच रहा था। चेहरे मोहरे से पूर्वोत्तर का न होकर उत्तर भारतीय। नाम-धाम पूछने पर पुष्टि हुई कि बिहार का है। वह भी प्रतिमा के बारे में मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं कर पाया और न पास ही तैनात यातायात पुलिस का सिपाही। मैंने प्रतिमा की तस्वीर खींची, अपने होटल में तीन-चार लोगों को दिखाई। वे स्थानीय निवासी होने के बावजूद उससे अनभिज्ञ थे। अंतत: डॉ. नारा सिंह ने मुझे बताया कि यह मूर्ति एक बिगड़ैल हाथी और महाराजा भाग्यचंद्र द्वारा उसे साध लेने की कथा को वर्णित करती है। वे 1764 से 1768 तक मणिपुर के राजा थे। मणिपुर में कृष्ण चरित पर आधारित रासलीला प्रारंभ करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। वे थे तो महाराजा, किन्तु उन्हें उनके उदात्त चरित्र के कारण राजर्षि की उपाधि मिली हुई थी।
मणिपुर के इतिहास की यह छोटी सी झलक पाकर अच्छा लगा, लेकिन अफसोस भी हुआ कि आज अधिकतर लोग ऐसे गुणी शासक के बारे में जानकारी नहीं रखते। प्रतिमा के नीचे कोई परिचय फलक भी नहीं था। मूर्ति के ठीक बाजू से एक फ्लाईओवर गुजरता है। हर आधुनिक नगर की यह अनिवार्य पहचान बन चुकी है। फ्लाईओवर के उस तरफ बसा है इमा मार्केट। मणिपुरी में मां को इमा कहते हैं। इस बाजार की ख्याति देश-विदेश में है। विशेषता यह है कि पूरा बाजार महिलाओं के हाथों में है। कोई एक हजार दूकानें हैं और उनका संचालन औरतें ही करती हैं। अधिकतर दूकानें साग-सब्जी, फल-फूल, किराना, बांस की टोकरियों आदि याने घर की दैनंदिन जरूरतों की हैं। कुछेक दूकानों पर मणिपुर के प्रसिद्ध ऊनी शाल व अन्य परिधान भी मिलते हैं। बाजार लगभग दस फुट ऊंचे आसन पर स्थित है। ऊपर छत है और आने-जाने के लिए अनेक जगहों पर सीढ़ियां बनी हैं। सारी दूकानें चबूतरों पर हैं जिनके बीच चलने के लिए संकरे गलियारे हैं।
मुझे इस बाजार में सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र वे मूर्तियां लगीं जो मुख्य द्वार से भीतर जाते साथ दाहिनी ओर स्थापित हैं। दो मूर्तियां स्लेटी पत्थर की हैं और कुछ पुरानी। उनकी आकृतियां भी अनगढ़ हैं। इनके बाजू में मणिपुरी वस्त्रों से सुसज्जित सुंदर भावभंगिमा वाली दो छोटी-छोटी मूर्तियां और हैं। इन दोनों मूर्ति युगलों की पूजा होती है और पत्र पुष्प चढ़ाए जाते हैं। आसपास की दूकानदार महिलाओं से जानना चाहा कि ये कौन हैं। उन्होंने मणिपुरी के साथ टूटी-फूटी हिन्दी-अंग्रेजी में जो उत्तर दिया वह पल्ले नहीं पड़ा। बाद में जानकारी मिली कि ये बाजार के रक्षक देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। एक तरह से क्षेत्रपाल। अनगढ़ मूर्तियां पुरानी हैं, लेकिन बाद में किसी कलाकार ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए बाजू में आकर्षक मूर्तियां बनाकर स्थापित कर दीं। इस बाजार में सौदा-सुलफ तो हर तरह का था और खरीदारी के साथ पर्यटकों की संख्या भी कम न थी; लेकिन मुझे यहां कोई खास बात प्रतीत नहीं हुई। मणिपुर के अन्य नगरों में व इम्फाल के अन्य बाजारों में भी सब तरफ महिलाएं ही दूकानों पर दिखीं। लेकिन अच्छा है कि मणिपुर ने इस बाजार की मार्केटिंग भली प्रकार की है जिससे यह पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बन गया है।
मैं मणिपुर अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने गया था। डॉ. नारा सिंह हमारे उपाध्यक्ष हैं। वे सीपीआई के नेता हैं। अनेक बार विधायक, दो बार मंत्री रह चुके हैं। पेशे से डॉक्टर हैं। विमानतल से होटल की ओर जाते हुए एक स्थान पर उन्होंने ध्यान आकृष्ट कराया। एक विशाल सिंहद्वार, उससे लगकर कोई आधा किलोमीटर तक सड़क के साथ चलती हुई चारदीवारी, बाहर पुराने जमाने की एक नहरनुमा खाई। नारा जी ने बताया यह प्राचीन कंगला फोर्ट है। सन् 0038 याने दो हजार साल पहले कंगला राजवंश ने इसे बनाया था। कभी मिट्टी का किला रहा होगा। फिलहाल वहां भीतर एक बगीचा और एक म्यूजियम मात्र है। अंग्रेजों के समय से यह असम राइफल्स के पास था। डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्री काल में सेना से इसे वापिस लेकर राज्य सरकार को सौंप दिया है। अब वनविभाग इसकी देखभाल करता है। मेरे लिए यह जानना रोचक था कि देश में मेवाड़ से भी पुराना कोई राजवंश और चित्तौड़ से भी पुराना कोई किला था।
मेरा विमान सात दिसम्बर की सुबह जब इम्फाल हवाई अड्डे पर उतर रहा था, तो यह देखकर सुकून मिला कि आसपास बहुमंजिलें भवन नहीं थे और चारों तरफ पहाड़ियां व हरियाली थी। यह राजधानी से आठ किलोमीटर दूर का नजारा था। शहर में खूब भीड़-भाड़ थी, वाहनों का शोर व धुआं था, बीच बाजार में तो पैदल चलना भी मुश्किल था। दूसरे दिन सुबह मैं होटल से बाहर घूमने निकला। कंगला फोर्ट का पश्चिमी द्वार आधा किलोमीटर से कुछ अधिक दूर था। वहीं एक चौराहा था। सुबह आठ बजे भी खासी गहमागहमी थी। मैं वापिस लौटने लगा तो देखा एक सिरे से बस कंपनियों के काउंटर बने हुए थे। इम्फाल से दीमापुर, कोहिमा, गुवाहाटी जाने के लिए बसें और मिनी बसें खड़ी थीं। इनके बीच खासी स्पर्धा होती होगी। म्यांमार की सीमा पर स्थित मोरे तक जाने के लिए भी बसें उपलब्ध थीं। आसपास चाय-नाश्ते के लिए छोटी-छोटी गुमटियां थीं और राईस होटलों के बोर्ड लगे थे जहां चावल और शोरबा ही मिल सकता था।
यहीं मेरी दृष्टि गन्ना रस के एक ठेले पर पड़ी। ठेलेवाले को देखकर अनुमान लगाया कि वह बिहार का होगा। अनुमान सही था। उमाशंकर बक्सर जिले का है। पिछले बीस साल से यहां रह रहा है। किसी परिचित के साथ आ गया था। पहले किसी दूकान पर नौकरी की मजदूरी भी, फिर किसी स्थानीय मित्र ने मदद की तो ठेला लगा लिया। पत्नी गांव में है, बच्चों को यहां साथ रखकर पढ़ा रहा है, कमाई ठीक-ठाक हो जाती है। मैं वापिस लौटा तो होटल के बाहर ही एक छोटा-मोटा बाजार नजर आया, वहां मुझे गन्ना रस बेचते हुए बिहार के सासाराम जिले के हरेराम मिल गए। वे चालीस साल से यहां हैं। बच्चे भी साथ में हैं। बड़े हो गए हैं, काम करते हैं। एक तो सीमा पर स्थित मोरे से सामान लाकर बेचता है। उसमें अच्छी कमाई हो जाती है। गांव में दो-चार बीघा जमीन भी खरीद ली है। हरेराम ने बताया कि इम्फाल में बिहार के कई हजार लोग काम कर रहे हैं। उन्हें कोई असुविधा नहीं है। अपना देश है, कहीं भी जाकर रोजी-रोटी कमा सकते हैं।
हम होटल इम्फाल में ठहरे थे। पहले यह पर्यटन विभाग का होटल था और ले-देकर चलता था। इसे बाद में निजी हाथों में सौंप दिया गया। यहां बरकत नामक युवा ने कमरे तक मेरा सामान पहुंचाया। मैंने उसे सामान्य पोर्टर समझा था। बातचीत में मालूम हुआ कि वह राजनीतिशास्त्र में एम.ए. है। सरकारी नौकरी मिलना कठिन है इसलिए जो काम मिल गया, कर रहा है। पिता नहीं है, परिवार को चलाना है। बरकत ने बताया कि मणिपुर में अल्पसंख्यक तेरह-चौदह प्रतिशत हैं और वे स्थानीय निवासी ही हैं और उनका खान-पान व अधिकतर रीति रिवाज वैसे ही हैं जो अन्य जातीय समुदायों के हैं। वैसे मणिपुर में तीन जातीय समुदाय मुख्य हैं- मैतेई, कूकी और नगा। इनके बीच जातीय संघर्ष चलते रहते हैं। मैतेई वैष्णव हैं और मुस्लिम बाकी देश से न्यारे मणिपुरी मुस्लिम कहलाते हैं। वे इम्फाल घाटी में मुख्यत: रहते हैं। कूकी ईसाई हैं, उनका वास चूड़ाचांदपुर (चूड़ाचांद भी एक महाराजा थे) और उसके आसपास के पहाड़ी क्षेत्र में है। नगा भी पहाड़ी क्षेत्र के ही निवासी हैं।
इस समय मणिपुर में सबसे बड़ी राजनीतिक चिंता वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा किए गए गुप्त नगा समझौते को लेकर है। किसी को नहीं पता कि इसमें क्या है। वे चिंतित हैं कि भारत सरकार कहीं नगा समुदाय के सामने झुककर नगालिम याने वृहतर नगालैंड की मांग स्वीकार न कर ले जिसमें मणिपुर से कुछ जिले भी उनको दे दिए जाने का प्रस्ताव है। प्रदेश में जोड़-तोड़ से बनी भाजपा सरकार है और वह नागरिकों को हर तरह से आश्वस्त करने में लगी है कि मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी ऐसा आश्वासन दे चुके हैं। लेकिन जनता को इन पर विश्वास नहीं हो रहा है।
देशबंधु में 28 दिसंबर 2017 को प्रकाशित
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