Thursday 8 February 2018

आसियान देशों के साथ दोस्ती-2



 
इस साल गणतंत्र दिवस पर मोदी सरकार ने एक ओर जहां आसियान देशों के राज्य प्रमुखों को आमंत्रित किया वहीं इन देशों के एक-एक अग्रणी व्यक्ति को पद्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया। यह भी अपने आप में एक नई पहल थी। इस सम्मानित जनों में एक को मैं कुछ-कुछ जानता हूँ। थां मिंट ऊ वैश्विक राजनीति के अधिकारी विद्वान हैं। अपने देश म्यांमार के इतिहास और राजनीति का उन्होंने गहन अध्ययन किया है। उनकी एक चर्चित पुस्तक है- व्हेयर चाइना मीट्स इंडिया: बर्मा एंड द न्यू क्रॉसरोड्स ऑफ एशिया।  इस पुस्तक में उन्होंने म्यांमार की भौगोलिक स्थिति और राजनैतिक इतिहास की विवेचना करते हुए प्रतिपादित किया है कि कैसे उनका देश चीन और भारत के बीच का मिलन बिन्दु है। ऊ का जन्म न्यूयार्क में हुआ। वे रहते भी विदेश में हैं, लेकिन वे प्रारंभ से ही म्यांमार के नागरिक हैं। शायद कुछ वैसे ही जैसे नोबल विजेता अमर्त्य सेन ने भारत की नागरिकता कभी नहीं छोड़ी।
थां मिंट ऊ के बारे में यह उल्लेखनीय है कि वे अपने समय में बर्मा के प्रमुख राजनेता और बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव रहे ऊ थां के बेटे हैं। यह जानना दिलचस्प है कि एशिया में पारिवारिक परंपराओं का विस्तार कहां से कहां तक है। यदि राजवंशों की बात न करें तो भी जनतांत्रिक देशों में भी अपवाद की बजाय नियम की तरह उनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। शिंजो आबे, मेघावती सुकार्णोपुत्री, आन सांग सू ची, चंद्रिका कुमारतुंग, बेनजीर भुट्टो इत्यादि उदाहरण सामने हैं। बहरहाल आसियान देशों के साथ भारत के संबंधों की चर्चा करते समय यह भी ध्यान आता है कि इन देशों में एक जैसी शासन प्रणाली नहीं है; और इनके राजनैतिक इतिहास में उपनिवेशवाद से मुक्ति भले ही एक सामान्य सूत्र हो, लेकिन असमानताएं भी बहुत सी हैं। कुल मिलाकर विविध छटाओं वाली एक तस्वीर सामने आती है। भारत को प्रत्येक देश से उसको विशेष परिस्थिति के अनुसार संबंधों को निभाना है।
भारत और आसियान देशों के मैत्री संबंधों की क्या तस्वीर बनती है यह बहुत कुछ भारत-चीन संबंधों तथा चीन की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर निर्भर करता है। भारत और चीन दोनों एशिया के ही नहीं, दुनिया के दो प्रमुख देश हैं। दोनों की आबादी मिलकर विश्व की एक तिहाई आबादी होती है। दोनों के अपने-अपने बुलंद इरादे हैं। राजनैतिक पर्यवेक्षक इसे ड्रैगन और हाथी के बीच प्रतिस्पर्द्धा का रूपक बनाकर देखते हैं। भारत ने दो सौ साल अंग्रेजों की गुलामी झेली और फिर नवस्वतंत्र देश को आगे ले जाने के लिए आधुनिक गणतंत्र की अवधारणा को स्वीकार किया। चीन वैसे कभी पूरी तरह से किसी विदेशी सत्ता का दास नहीं रहा; लेकिन जापान और कोरिया के अलावा ब्रिटेन, पुर्तगाल, फ्रांस और अमेरिका का सीमित प्रभुत्व उसे इतिहास में झेलना पड़ा। 1949 में वहां एक पार्टी की सत्ता कायम हुई जो अभी तक चली आ रही है और जिसे कायम रखने में सैन्यशक्ति के अलावा बहुसंख्यक हन भाषा व संस्कृति का बड़ा रोल रहा है।
वियतनाम ने पहले डच और फिर अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ लंबा संघर्ष किया। सार्वभौम देश बनने के बाद वहां कम्युनिस्ट सत्ता स्थापित हुई। यह इतिहास की विडंबना है कि कम्युनिस्ट चीन ने एक दूसरे कम्युनिस्ट देश पर हमला कर अपना प्रभुत्व जतलाने की कोशिश की। कंबोडिया में खमेर और पोल पाट द्वारा किए गए नरसंहार के बाद कम्युनिस्ट सत्ता स्थापित हुई, लेकिन वहां प्रधानमंत्री हन सेन तीस वर्षों से एकछत्र नेता बने हुए हैं। म्यांमार में सेना द्वारा संचालित जनतंत्र है जिसमें  नोबल विजेता आन सांग सू ची निष्प्रभावी तथा निर्बल नजर आती हैं। फिलीपींस का इतिहास भी रक्तरंजित है और फिलहाल राष्ट्रपति दुतेर्ते ने वहां निरंकुश सत्ता स्थापित कर ली है। थाइलैंड में सेना ही निर्णायक भूमिका में है और चुने गए नेता उसके सामने कोई हैसियत नहीं रखते। सिंगापुर में एक पार्टी का ही शासन चला आ रहा है। मोटे तौर पर इन सभी देशों में मानव अधिकार या नागरिक स्वतंत्रता जैसी संज्ञाएं बहुत मायने नहीं रखतीं।
कुल मिलाकर इन देशों के साथ संबंधों को गति देने के लिए बहुत सारे बिंदुओं पर अलग-अलग विचार करने और नीति बनाने की आवश्यकता भारत को है। यह तथ्य गौरतलब है कि चीन ने बीते वर्षों में कई आसियान देशों में भारी मात्रा में पूंजी निवेश किया है। जैसा कि उसने एशिया और अफ्रीका के अन्य बहुत से देशों में किया है। यदि भारत चाहे भी तो इस मामले में चीन से प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकता। चीन के पास जो संसाधन हैं वे हमारे पास नहीं हैं। चीन जिस तरह की आक्रामक राजनीति करता है वह भी हम नहीं कर सकते। चीन ने आसियान देशों को जो आर्थिक सहयोग दिया है, वहां आधारभूत संरचना में जैसा निवेश किया है उसके चलते उनमें चीन की पूछ-परख हमारे मुकाबले अधिक होती है। यह बात अलग है कि इस सहयोग का असली लाभ उस देश को नहीं बल्कि चीन को मिल रहा है। क्योंकि यह पूंजी निवेश मुख्यत: ऋण की शक्ल में किया गया है न कि अनुदान के रूप में।

यह हम जानते हैं कि चीन ने सदियों पुराने सिल्क रूट को नए सिरे से खोलकर मध्यएशिया से होते हुए यूरोप तक का रास्ता बना लिया है। इसमें पाकिस्तान भी उसका भागीदार है जबकि भारत इस परियोजना को संशय की दृष्टि से देख रहा है। इसी तरह चीन हिन्द महासागर में भी अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है। इससे भी भारत सशंकित है। इतना ही नहीं चीन से बर्मा तक सड़क और ऐसे बहुत से उपक्रमों पर काम हो रहा है। भारत भी पुराने बर्मा रोड को खोलकर दक्षिणपूर्व एशिया के साथ संपर्क को बढ़ाना चाहता है, लेकिन मुझे नहीं मालूम कि इस काम को कितनी प्राथमिकता दी गई है। दक्षिण चीन सागर में चीन अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगा है जिससे वियतनाम भयभीत है। भारत वियतनाम के साथ है और यह बात भारत-चीन के बीच विवाद का एक बिन्दु भी है।
इन सारी स्थितियों को ध्यान में रखकर कहना होगा कि आसियान देशों के साथ दोस्ती मजबूत करने का इरादा तो बिल्कुल ठीक है, लेकिन इसके लिए उत्सवधर्मिता से आगे बढ़कर काम करना होगा। मैं विश्वास करना चाहूंगा कि प्रधानमंत्री मोदी का ध्यान इस ओर है। मेरी समझ में सबसे पहली आवश्यकता एक ऐसे वातावरण निर्माण की है जिसमें दक्षिण पूर्व एशिया में भारत और चीन प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में न दिखें। म्यांमार हो या फिलीपींस, चीन के साथ उसके रिश्ते अलग चलते रहें और हमारे संबंध एक स्वतंत्र धरातल पर मजबूत हों। यदि चीन इन देशों में कहीं पूंजी निवेश करता है तो वह करे।
भारत को वे विषय ढूंढना चाहिए जहां दीर्घकालीन परस्पर सहयोग की गुंजाइश हो। एक उदाहरण कंबोडिया के विश्वप्रसिद्ध अंकारेवाट मंदिर का है। इसके जीर्णोद्धार में कई दशक पूर्व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण याने एएसआई ने सहायता की थी और आज भी वह कार्य चल रहा है।  इस तरह सांस्कृतिक सहयोग के और भी अवसर इन देशों में अवश्य होंगे। इनमें अनेक देशों से भगवान बुद्ध से जुड़े स्थानों की यात्रा के लिए बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री और पर्यटक भारत आते हैं। इसे कैसे और सुचारू, सुरक्षित, संतोषजनक बनाया जाए यह देखना होगा।
राजनीतिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि इन सभी देशों में जनतांत्रिक इच्छा प्रबल है। सैन्य शासन या राजतंत्र के बावजूद यह भावना कायम है। एक समय हमने आन सांग सू ची को निरंतर अपना समर्थन दिया था। आज भी इन देशों में जनतंत्रवादी ताकतों को हम किस तरह समर्थन दे सकते हैं यह विचारणीय होगा। इन देशों में जो सांस्कृतिक विविधता है वह काफी हद तक भारत की तरह है। इसका संज्ञान लेना लाभकर हो सकता है।
देशबंधु में 08 फरवरी 2018 को प्रकाशित 

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