प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले हफ्ते चार अरब देशों की यात्रा करके लौटे हैं। उनके इस प्रवास की कुछ झलकियां मीडिया पर प्रसारित तो हुईं, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि को समझने, उनको व्यापक परिपे्रक्ष्य में देखने और उनके निहितार्थ पर विचार करने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। मुझे लगता है कि देश की जनता को इस यात्रा और इन झलकियों से उभरे गहरे संदेशों की ओर ध्यान देना चाहिए।
प्रधानमंत्री ओमान में एक शिव मंदिर में दर्शन करने गए। मोतीश्वर महादेव नामक यह मंदिर, जैसा कि बताया गया सवा सौ साल से अधिक पुराना है। अर्थात इसके निर्माण अथवा प्राण-प्रतिष्ठा का समय उन्नीसवीं सदी के अंत के आसपास पड़ता है। इस दृष्टि से यह एक विरासत स्थल है। प्रचलित परिभाषा के अनुसार एक सौ वर्ष से अधिक पुराने भवन को धरोहर निधि माना जाता है। मेरे मन में सवाल उठता है कि 1890 के आसपास इस मंदिर की स्थापना कैसे हुई? इसका एक सामान्य उत्तर हो सकता है कि भारत और ओमान के बीच व्यापारिक संबंध थे। दोनों देशों के व्यापारी और वाणिज्य दूत आदि एक-दूसरे के यहां आते-जाते रहे होंगे।
खबरों में कहीं हल्का सा जिक्र भी था कि किन्हीं गुजराती व्यापारियों ने इस मंदिर की स्थापना की थी। इसका नामकरण मोतीश्वर मंदिर भी शायद इसलिए हुआ होगा कि भारत के व्यापारी इस खाड़ी देश से मोती खरीदते होंगे! मैं पाठकों को याद दिलाऊं कि एक समय बसरा के मोती बहुत प्रसिद्ध थे। बसरा इरान में है याने फारस की खाड़ी में और ओमान भी फारस की खाड़ी में है तो वहां शायद मोतियों की मंडी रही होगी! ओमान में भारत के देवता का मंदिर है यह तथ्य जानकर अच्छा लगता है। हम गर्व भी कर सकते हैं कि भारतीय संस्कृति कैसे दूर-दूर तक फैली है। लेकिन हमारे हिन्दुत्ववादी मित्रों को यह तथ्य जानकर कुछ असुविधा होगी कि आज से सवा सौ साल पहले एक मुस्लिम देश ने कैसे एक हिन्दू देवता का मंदिर बनाने की अनुमति दी थी!
प्रधानमंत्री अपने इसी प्रवास में संयुक्त अरब अमीरात भी गए। वहां उन्होंने अबू धाबी की अमीरात में स्वामी नारायण संप्रदाय के मंदिर का भूमिपूजन किया। स्वामी नारायण सम्प्रदाय का गांधीनगर स्थित अक्षरधाम बहुत प्रसिद्ध है। दिल्ली में यमुना तट पर बसा अक्षरधाम भी जन आकर्षण का केन्द्र है। इंग्लैंड सहित कुछ अन्य देशों में भी स्वामी नारायण मंदिर है। इस संप्रदाय के अधिकतर अनुयायी गुजराती हैं तथा सम्पन्न गुजराती ही इन भव्य मंदिरों के निर्माण हेतु भेंट-अर्पण करते हैं। अच्छी बात है। एक और देश में एक हिन्दू मंदिर बनेगा याने हिन्दू धर्म की पताका वहां फहराएगी। लेकिन फिर हमारा ध्यान इस बात पर जाए बिना नहीं रहता कि अबू धाबी इत्यादि देश इस्लाम के अनुयायी हैं। दक्षिण एशिया के लाखों लोग वहां रोजी-रोटी कमा रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर है तो एक मुस्लिम देश। अगर वहां के सुल्तान या अमीर ने हिन्दू मंदिर बनाने की अनुमति दी है तो क्या इससे उनकी उदारता और सहिष्णुता का परिचय नहीं मिलता? क्या अबू धाबी के अमीर का यह कदम इस्लाम के बारे में हमारी जड़तावादी सोच को नहीं तोड़ता? विचार करके देखिए।
हम ओमान की ओर वापिस लौटते हैं। हमारे प्रधानमंत्री एक ओर जहां मंदिर में दर्शनलाभ हेतु गए वहीं उन्होंने सुल्तान कबूस मस्जिद जाकर भी माथा टेका। मैं इसमें कोई बुराई नहीं देखता। ओमान की यह मस्जिद बहुत पुरानी नहीं है। वर्तमान सुल्तान ने अपने नाम पर ही इसे बनवाया है। कहते हैं कि यह एक भव्य और अतिसुंदर मस्जिद है। दूसरे शब्दों में ओमान की सांस्कृतिक परंपराओं व जातीय अस्मिता का यह एक शानदार उदाहरण है। अपने मेजबान की भावनाओं को ध्यान में रखकर प्रधानमंत्री को वहां जाना ही चाहिए था। वे जिस बड़े मिशन पर निकले थे उसमें भी इस प्रसंग से सही संदेश जाता है। यहां हमें फिर ध्यान आता है कि एक वह दिन था जब गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी सद्भावना सम्मेलन या ऐसा कुछ आयोजन कर रहे थे और उसमें उन्होंने किसी मौलवी के द्वारा पहनाई जा रही टोपी पहनने से इंकार कर दिया था। तब यह संदेश देश भर में गया था कि नरेन्द्र मोदी कितने कट्टर हिन्दू हैं। आज वे प्रधानमंत्री हैं तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक-सामाजिक संबंधों को संज्ञान में लेते हुए आचरण कर रहे हैं। क्या ऐसा आचरण सब लोगों को सब समय नहीं करना चाहिए ताकि हमारे देश की हालत कुएं की मेंढक जैसी होने से बच सके?
यह ध्यान दीजिए कि कुछ सप्ताह पूर्व ही प्रधानमंत्री इजराइल के दौरे पर गए थे। उस समय वे फिलिस्तीन नहीं गए। इन दोनों बातों की बहुत आलोचना हुई थी। एक तो प्रधानमंत्री को एक नस्लवादी देश के प्रवास पर जाना ही क्यों चाहिए था जिसे विश्व समुदाय एक घुसपैठिया मानता है और जो पड़ोसी देशों पर लगातार दादागिरी कर रहा है। अगर गए भी तो साथ-साथ फिलिस्तीन क्यों नहीं गए जो विगत सत्तर वर्षों से लगातार इजराइल के आक्रमण और निरंकुशता का शिकार बना हुआ है? इस मुुद्दे पर राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा प्रधानमंत्री की आलोचना करना जायज थी, गो कि उसके कुछ समय पूर्व संयुक्त राष्ट्र महासंघ में भारत ने इजराइल के खिलाफ और फिलिस्तीन के पक्ष में मतदान किया था। बहरहाल प्रधानमंत्री की चार देशों की यात्रा में राजनीतिक दृष्टि से सबसे अहम पड़ाव फिलिस्तीन का ही था।
उन्होंने वहां राष्ट्रपति महमूद अब्बास को आश्वस्त किया कि भारत हमेशा की तरह फिलिस्तीन के साथ खड़ा रहेगा। इस तरह उन्होंने इजराइल और फिलिस्तीन के बीच संबंधों का संतुलन साधने का सफल उपक्रम किया। यह अच्छी बात है, लेकिन किसी हद तक यह तो जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के पदचिह्नों पर चलना ही हुआ। भाजपा तो सब कुछ बदल देने का सपना दिखाकर सत्ता में आई थी। प्रधानमंत्री स्वयं पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी को कोसते रहते हैं, लेकिन कम से कम इस मामले में तो उन्होंने सत्तर साल पहले बनी परंपरा को ही निभाना बेहतर समझा। ऐसा क्यों हुआ?
मेरे द्वारा इन सारे प्रसंगों का उल्लेख करने का मकसद यही है कि देश का जो राजनीतिक वातावरण है उसमें स्थितियों का सही ढंग से आकलन करने की ओर जनता का ध्यान जाए। सामान्य तौर पर होता यह है कि अधिकतर समय हम अपने-अपने कामों में मशगूल, अपनी-अपनी चिंताओं में मुब्तिला रहते हैं। देश का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक वातावरण कैसा है उस पर हमारा ध्यान अक्सर नहीं जाता। भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर सतही चर्चाएं होती हैं। उनमें हम कुछ देर दिलचस्पी लेते हैं और वापिस अपनी खोल में लौट आते हैं। जो सत्ता में बैठे हैं या जो सत्ता में आना चाहते हैं वे कैसे-कैसे प्रपंच रचते हैं इसे हम अपनी बेख्याली में समझ नहीं पाते या फिर भावनाओं में बह जाते हैं। हाल के वर्षों में भारत की जनता जाति, धर्म, भाषा, प्रांत, खानपान इन सबको लेकर कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गई है। छोटी-छोटी बातों पर हम चिंहुक उठते हैं। यह काम भावनाओं को भड़काने वाली शक्तियां करती हैं। ऐसे में हम अपने मानसिक क्षितिज का विस्तार करने के बजाय संकीर्ण मनोवृत्ति का शिकार हो जाते हैं।
प्रधानमंत्री की यात्रा के उपरोक्त सारे प्रसंग बतलाते हैं कि हर चीज काली या सफेद नहीं होती। काले और सफेद के बीच भूरा रंग भी होता है। हिन्दू बनाम गैरहिन्दू, हिन्दू बनाम मुसलमान, हिन्दू बनाम ईसाई, शाकाहारी बनाम मांसाहारी, आदमी बनाम औरत, सवर्ण बनाम दलित-आदिवासी भारत बनाम पश्चिम, यह सोच आत्मघाती हैं। विकास के पथ पर आगे बढ़ने के बजाय पीछे ले जाने वाली सोच है यह। सोशल मीडिया पर गाली-गलौज करने, सड़क पर लोगों को मारने, किसी के घर में घुसकर हत्या करने, इन सब कुकृत्यों में कोई गर्व की बात नहीं है। अपने लिए सुखी जीवन और अपने बच्चों के लिए सुखी भविष्य गढ़ने के लिए सहिष्णुता और समन्वय की आवश्यकता है। स्वयं प्रधानमंत्री को सत्ता में बने रहने के लिए समन्वय करना पड़ रहा है, जैसा कि इस यात्रा से प्रकट हुआ। तो फिर जनता क्यों इनके उकसावे में आए?
देशबंधु में 22 फरवरी 2018 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment