Wednesday, 4 July 2018

भाषण और आंकड़ों से परे



यूपीए बनाम एनडीए, कांग्रेस बनाम भाजपा। एक ने दस साल राज किया, दूसरे के चार साल पूरे हो गए हैं।  दोनों के अपने-अपने दावे हैं, दलीलें हैं, आरोप और प्रत्यारोप हैं। कभी सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी के आंकड़े पेश किए जाते हैं, तो कभी मुद्रा स्फीति के और महंगाई दर के; कभी विदेश नीति को लेकर बहसें होती हैं, तो कभी प्रतिरक्षा नीति को लेकर।  इन सबके बीच आम नागरिक मेले की भीड़ में गुम हो गए बच्चे की तरह नजर आता है। इसमें शक नहीं कि सरकार जो भी नीतियां बनाती है, योजनाएं लागू करती है सब पर आम आदमी का लेबल ही चस्पा होता है, लेकिन राजीव गांधी ने 1985 में कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में जो बात कही थी क्या वह आज भी उतनी ही सच  नहीं है? आप बल्कि शायद इस आकलन से सहमत होंगे कि हालात इन बीते वर्षों में एक दृष्टि से सुधरने के बजाय बिगड़े ही हैं।
मेरे इस कथन में विरोधाभास प्रतीत हो सकता है कि यद्यपि पहले के मुकाबले जीवन स्थितियां कुछ बेहतर हुई हैं तथापि  कुल मिलाकर आम आदमी के नजरिए से आज के हालात बदतर हैं। इनकी अभिव्यक्ति हम आए दिन होने वाले प्रदर्शनों, आंदोलनों और संघर्षों में देख रहे हैं। दरअसल, देश में पिछले तीस-पैंतीस वर्षों के दौरान वर्गभेद लगातार बढ़ा है। अमीर और गरीब के बीच की खाई चौड़ी होती गई है। संगठित क्षेत्र ने पूर्वापेक्षा अपनी स्थिति सुदृढ़ की है। उसके बरक्स असंगठित क्षेत्र की संघर्षशीलता कमजोर पड़ी है। ऐसे अनेक परस्पर विपरीत चित्र हमारे सामने आ रहे हैं। इसका दोष किसे दें? वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें तो  लगता है कि अनेक देशों ने अपनी प्रभुसत्ता धनकुबेरों के चरणों में अर्पित कर दी है। एक समय कहा जाने लगा था कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज दुबारा आ गया है। आज की विडंबना है कि विज्ञापन में बताया जाता है कि भारत के किसी उद्योगपति ने लंदन की ईस्ट इंडिया कंपनी को खरीद लिया है; लेकिन दूसरी ओर देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने एक अदृश्य जाल फेंककर चुनने वाली जनता और चुनी हुई सत्ता दोनों को अपने नागपाश में जकड़ लिया है। 
आज अर्थतंत्र से संचालित राजसत्ता किस-किस तरह के खेल-खेल रही है इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन उस सैद्धान्तिक विवेचन में गए बिना हम ऐसे कुछ उपायों की चर्चा अभी कर सकते हैं जिनसे सामान्य नागरिक के जीवन की दुश्वारियां कुछ कम हो सकें। दुश्वारियों के कम होने का सीधा संबंध उसके निजी, पारिवारिक और सामाजिक जीवन से है, उसकी मनोदशा से है। यहां मैं दिल्ली की आप सरकार के तीन उपायों की चर्चा करना चाहूंगा।  मैं आप के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की राजनीति से कतई इत्तफाक नहीं रखता। उस पर मैं अनेक बार लिख चुका हूं, किन्तु उन्होंने अपने कार्यकाल में ऐसे तीन निर्णय लिए जो मेरी दृष्टि में दीर्घगामी परिणाम देने वाले हैं और इसलिए महत्वपूर्ण हैं। 
आप सरकार का पहला निर्णय था दिल्ली पुलिस के एक आरक्षक की ड्यूटी के दौरान मारे जाने पर उसके परिवार को एक करोड़ रुपए की अनुग्रह राशि देने की घोषणा। यह 2014 की बात है जब 'आप' ने पहली बार सत्ता संभाली थी। यह एक बड़ा निर्णय था जिससे विपरीत और खतरनाक परिस्थितियों में काम करने वाले सिपाहियों का मनोबल बढ़ता और उनके परिजनों को भी एक आश्वस्ति का भाव बना रहता। इसका सभी राज्य सरकारों को अनुकरण कर लेना चाहिए था। आखिरकार अपने कर्तव्य के लिए जान गंवाने का खतरा कोई सिपाही क्यों मोल ले अगर उसे अपने पीछे परिवार की परवरिश की चिंता बनी रहे? केजरीवाल सरकार का दूसरा बड़ा निर्णय ऑड-ईवन के प्रयोग का था। इसके विरोध में बहुत हो-हल्ला मचाया गया, लेकिन यह एक तर्कसंगत प्रयोग था और अगर जारी रहता तो दिल्ली के प्रदूषण स्तर में इससे निश्चय ही कमी आती।
तीसरा बड़ा काम दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने का किया है। यदि नागरिक दिलचस्पी लें, सरकार साथ दे और शिक्षकों में उत्साह हो तो कोई भी सरकारी स्कूल ऊंचे से ऊंचे निजी स्कूल का मुकाबला कर सकता है। इस बारे में रायपुर का मेरा अपना अनुभव यही है। अगर हमारे सरकारी स्कूल दुर्दशा को प्राप्त हो रहे हैं, तो उसका प्रमुख कारण है कि शासन का उनकी ओर दुर्लक्ष्य है। यदि पास-पड़ोस के स्कूल में बिना किसी भेदभाव के सब वर्गों के बच्चे एक साथ पढ़ें तो स्कूल अपने आप सुधर जाएगा। आप सरकार ने इस दिशा में सही कदम उठाया है। उसने शालाओं की काया पलट कर दी है। यह नागरिकों की बारी है कि वे अब अपनी जिम्मेदारी उठाने आगे आएं। 
ये उदाहरण मुझे अचानक याद नहीं आए। अभी मैंने कहीं पढ़ा कि बाल्टिक देश एस्तोनिया की सरकार ने सार्वजनिक यातायात को नि:शुल्क याने एकदम फ्री कर दिया है। सोवियत संघ में सार्वजनिक यातायात का भाड़ा बहुत कम होता था, परन्तु यह देश एक कदम आगे निकल गया। जब सिटी बस में नागरिक बिना पैसे दिए सफर कर सकेगा तो उसे गैरेज से कार निकालने की जरूरत भला क्यों पड़ेगी? पैसा भी बचा, पार्किंग के लिए स्थान तलाशने की तवालत बची और पर्यावरण की रक्षा तो इससे होना ही है। अगर अरविंद केजरीवाल इसे लागू कर सकें तो यह एक साहसिक और शायद सफल प्रयोग सिद्ध हो सकता है। लगभग बीस साल पहले चन्द्राबाबू नायडू ने बसों को शहर के बजाय रात को गांव में रोकने का निर्णय लिया था जिससे दूध और सब्जी वाले सुबह के समय पास के शहर तक नि:शुल्क आ सकते थे। यह उत्पादकों के लिए भी अच्छा फैसला था और उपभोक्ताओं के लिए भी। आगे यह प्रयोग जारी रहा या नहीं इसकी जानकारी नहीं है।
स्कूलों की जहां तक बात है छत्तीसगढ़ की रमन सरकार ने पंचायत शिक्षकों का संविलियन कर शिक्षकों का स्थायी कैडर निर्मित करने का फैसला लिया है। कुछ ऐसा ही फैसला मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने भी लिया है। मेरा शुरू से मानना रहा है कि जब तक स्कूलों में पूर्णकालीन और प्रशिक्षित शिक्षक नहीं होंगे तब तक शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीं हो सकता। वर्ल्ड बैंक के इशारे पर स्थायी शिक्षकों का कैडर धीरे-धीरे कर पूरे देश में समाप्त कर दिया गया। इससे शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा मिला। आज अगर वह स्थिति बदलती है तो स्वागत योग्य है। छत्तीसगढ़ सरकार को इस बारे में एक समन्वित दीर्घकालीन नीति बनाकर लागू करना चाहिए। उच्च शिक्षा में भी विसंगतियां व्याप्त हैं। उन पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन इसके साथ-साथ शाला भवन, उपकरण, पुस्तकालय, खेल का मैदान, इन सब पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है। दिल्ली का मॉडल यहां शायद काम आ सकता है!
आप सरकार ने एक और क्षेत्र में आवश्यक हस्तक्षेप किया था यद्यपि उसे अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। मोहल्ला क्लीनिक की अवधारणा अपने आप में अच्छी थी, लेकिन खबरें हैं कि उनका संचालन करने में कठिनाइयां पेश आ रही हैं। इस बारे में भी अन्य राज्य सरकारों को विचार करना चाहिए। मेरे अपने विचार में सरकारी डॉक्टरों की नियुक्ति, तबादले, प्रमोशन इन सबके बारे में एक सुस्पष्ट नीति बनाने की आवश्यकता है। इसमें शक नहीं कि डॉक्टर और मरीज के रिश्ते में विश्वास क्षीण हो चुका है। इसे फिर से कायम कैसे किया जाए, इस पर भी आईएमए जैसी संस्था को समाज के साथ संवाद करने की पहल करने का परामर्श मैं दूंगा। सब अपना-अपना रोना लेकर बैठे रहें और किसी नतीजे पर न पहुंचें तो यह स्थिति वांछनीय नहीं है। 
मैंने फिलहाल मात्र तीन बिन्दु उठाए हैं। अभी और भी बहुत से मुद्दे हैं जिन पर सरकारों को भाषणबाजी व आंकड़ों की जादूगरी से हटकर काम करना होगा। इससे एक तनावपूर्ण, सहज, सामान्य, शांतिपूर्ण और सुरक्षित समाज की रचना में मदद मिल सकेगी।
देशबंधु में 05 जुलाई 2018 को प्रकाशित 

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