Thursday, 26 July 2018

रामचन्द्र सिंहदेव : विरल कोटि के व्यक्ति-2

                        

भारतीय राजनीति में ऐसे लोग धीरे-धीरे कर कम होते जा रहे हैं जिन्होंने राज के बजाय नीति को न सिर्फ अधिक महत्व दिया हो बल्कि उसे आत्मसात भी कर लिया हो। डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव लुप्त होती उस परंपरा के प्रतिनिधि थे। उनकी पुस्तिका 'सिविलाइजेशन इन हरी' की चर्चा देश-विदेश में बहुत हुई है। मेरे पिछले लेख में उसका जिक्र था। उन्होंने कुछ और लेख लिखे थे जो 'थॉट फॉर फुड' शीर्षक पुस्तिका में संकलित है। इन दोनों प्रकाशनों में उन्होंने पर्यावरण, जलसंरक्षण, खाद्यान्न संकट, कृषि नीति, वनोपज आदि ऐसे बुनियादी मुद्दों पर विचार किया है जो हर व्यक्ति के जीवनयापन से जुड़े हुए हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में जो कुछ पढ़ने-लिखने वाले विधायक और जनप्रतिनिधि हुए हैं उनमें रामचन्द्र सिंहदेव का नाम अग्रणी होगा। वे विधानसभा में तर्कसंगत बातें करते थे।
सदन के बाहर भी उन्होंने कभी निराधार बातें नहीं कीं। कलकत्ता में राजभवन के पास ही पुस्तकों की एक बड़ी पुरानी दूकान थी। वे अक्सर वहां से किताबें खरीदा करते थे। विश्व की जानी-मानी पत्रिका 'द इकॉनामिस्ट' और भारत की अग्रणी वैचारिक पत्रिका ई.पी.डब्ल्यू (इकॉनामिक एंड पोलिटिकल वीकली) के लेखों को वे रुचिपूर्वक पढ़ते थे और समानधर्मा मित्रों के साथ उन पर चर्चा भी करते थे। मुझे यहां अविभाजित मध्यप्रदेश की विधानसभा के अंतिम सत्र में दिया उनका भाषण ध्यान आता है। इसमें उन्होंने मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को यह कहते हुए बधाई दी थी कि अब आपका प्रदेश नक्सलवाद से मुक्त हो जाएगा और हमारे नवगठित प्रदेश को इस समस्या का समाधान खोजना पड़ेगा। तीन सौ बीस सदस्यों वाली विधानसभा में यह बिन्दु और किसी विधायक के ध्यान में नहीं आया। जिस तरह उन्होंने सोवियत संघ के पराभव को कोई पच्चीस साल पहले देख लिया था, वैसे ही यह भी उनकी दूरदृष्टि का प्रमाण था। कहना होगा कि गंभीर अध्ययन मनन से ही उन्होंने यह राजनीतिक दृष्टि हासिल की थी।
वरिष्ठ लेखक कांतिकुमार की पुस्तक 'बैकुण्ठपुर में बचपन' प्रकाशित हुई तो मैंने उसकी प्रति सिंहदेव जी को पढ़ने के लिए दी। चार-पांच दिन बाद वे मेरे दफ्तर आए। बोले- कांतिकुमार से बात करवाओ। मैंने फोन मिला दिया। सिंहदेव जी ने कांतिकुमार जी का ध्यान दो-तीन छोटी-मोटी तथ्यात्मक भूलों की ओर दिलाया। पुस्तक पर बधाई देते हुए उनसे आग्रह किया कि वे उनके पिता और कोरिया रियासत के राजा रामानुजशरण सिंहदेव के बारे में भी लिखें। यहां से दोनों के बीच नियमित संवाद का सिलसिला प्रारंभ हुआ। एक तरफ उन्होंने कोरिया के अपने परिचितों को बैकुण्ठपुर में बचपन पढ़ने के लिए प्रेरित किया तो दूसरी ओर कांतिकुमार ने भी कुमार साहब के आग्रह का आदर करते हुए कोरिया रियासत के अंतिम राजा पर पुस्तक लिखना शुरू किया।
सिंहदेव जी ने कांतिकुमार से फोन पर ही बहुत से संस्मरण साझा किए। पुराने फोटोग्राफ, पत्र और दस्तावेज उपलब्ध कराए और इस तरह कांतिकुमार की एक और पुस्तक 'एक था राजा' प्रकाश में आई। कांतिकुमार की इन दोनों पुस्तकों को साथ-साथ रखकर देखें तो तत्कालीन कोरिया रियासत की एक मुकम्मल तस्वीर हमारे सामने उभरती है। सिंहदेव जी, जिन्हें कुमार साहब के नाम से ही जाना जाता था, का मकसद अपने पिता का विरुद गायन नहीं बल्कि एक सामंत की जनहितैषी और प्रगतिशील रीति-नीति को सामने लाना था ताकि वर्तमान में उससे कुछ प्रेरणा ली जा सके। उन्होंने मुझे भी रियासतकाल की दो पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन के लिए आदेश दिया था जिसके लिए वित्तीय व्यवस्था भी उन्होंने करवा दी थी। एक थी 'कोरिया दरबार मैनुअल' और दूसरी थी 'जस्टिस इज द बेसिस ऑफ गर्वनमेंट'। इनको पढ़ने से पता चलता है कि कोरिया रियासत की ्रशासन नीति क्या थी।
सिंहदेव जी को कोरिया के बाद अगर कोई दूसरी जगह पसंद थी तो वह कोलकाता थी जहां उन्होंने अपनी युवावस्था बिताई और जहां पहुंचकर उन्हें एक बौद्धिक संतुष्टि मिलती थी। वे रायपुर के बारे में मुझसे कहते थे कि बताओ यहां किससे बात करूं! सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है। इस टिप्पणी के बावजूद वे अपने मन को निराश नहीं होने देते थे। बस्तर से उन्हें बहुत लगाव था। साल में एक बार तो वे जाते ही थे। उनके जाने का मतलब होता था वन विभाग के अधिकारियों की परेड। वे उनके साथ बस्तर के विकास पर चर्चा करते, दूरदराज के इलाकों का दौरा करते और फिर सुझाव देते कि आदिवासियों के सुरक्षित सम्मानपूर्वक जीवनयापन के लिए क्या किया जाए। वे चाहते थे कि बस्तर सहित प्रदेश के अन्य इलाकों में लाख का उत्पादन बड़े पैमाने पर हो जिससे विशेषकर आदिवासियों को रोजगार मिले। बस्तर में चाय, कॉफी और काजू की फसल लेने और उसका स्थानीय स्तर पर प्रसंस्करण करने का सुझाव भी वे देते थे। उन्होंने 1984 में बस्तर विकास योजना तैयार की थी। इसमें वे तमाम विचार संकलित हैं जो आज भी उपयोगी और प्रासंगिक हैं। उन्होंने इसी तरहजशपुर जिले में जैतून की बागवानी करने की सलाह सरकार को दी थी। इन सबसे जब वे थक जाते थे तो जो एक स्थान उन्हें प्रिय था वह था- महासमुंद। इस छोटे से नगर में पहुंच कर वे शांति का अनुभव करते थे। मुझे अगर ठीक याद है तो वे नया साल अक्सर महासमुंद में ही मनाते थे। पूर्व विधायक अग्नि चन्द्राकर इस बारे में विस्तार से बता सकते हैं। लेकिन जब तक समाजवादी नेता पुरुषोत्तम लाल कौशिक थे तब तक वे उनके साथ बैठकर घंटों जनोन्मुखी राजनीति पर चर्चाएं करते थे। 
डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव भारतीय सांस्कृतिक निधि  याने इंटैक के प्रारंभ से सदस्य थे और छत्तीसगढ़ में उसकी गतिविधियों में खासी दिलचस्पी लिया करते थे। यह श्रेय उन्हीं को जाता है कि सरगुजा, कोरिया और कवर्धा में इंटैक के जिला अध्याय स्थापित हो सके। जब उन्हें मालूम हुआ कि केन्द्र सरकार ने इंटैक को सौ करोड़ रुपए की एकमुश्त अनुदान निधि दी है तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार से भी हमें पांच करोड़ रुपए का एकमुश्त अनुदान मिल जाए तो प्रदेश की विरासत संपदा के संरक्षण की दिशा में काफी काम किया जा सकेगा। इसके लिए उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री को पत्र लिखा। यद्यपि उस पर कोई फैसला नहीं हो पाया। सिंहदेव जी की पर्यावरण में जो रुचि थी उसे देखकर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने एक बार उन्हें छत्तीसगढ़ के पेड़-पौधों पर संदर्भ ग्रंथ लिखने का आग्रह किया था। सिंहदेव जी किन्हीं कारणों से उनका अनुरोध स्वीकार नहीं कर पाए। लेकिन हां, वे अपने मित्रों, परिचितों के खेतों, बगीचों में जाना पसंद करते थे और उन्हें सलाह देते थे कि खेती को किस तरीके से लाभकारी बनाया जा सकता है।
डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव के मन में अपने गृहनगर बैकुण्ठपुर और कोरिया जिले का विकास सर्वोपरि था। इसके लिए वे बराबर सतर्क रहते थे कि जिले के कलेक्टर पद और अन्य प्रशासनिक पदों पर साफ-सुथरी छवि के अफसर नियुक्त हों। के.के. चक्रवर्ती ने बैकुण्ठपुर से ही अपने कॅरियर की शुरूआत की थी और वे आज भी सिंहदेव जी का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। मैं याद करता हूं कि दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में नीलम शम्मी राव पदस्थ थीं। एक बैठक में वे मिलीं तो उन्होंने मुझसे सबसे पहले यही पूछा कि सिंहदेव साहब कैसे हैं? उन्होंने भावुक होकर बैकुण्ठपुर को याद किया और कहा कि सिंहदेवजी मेरे लिए पिता समान थे। इधर दस-पन्द्रह साल में जो अन्य कलेक्टर आदि वहां रहे उनकी भी भावना शायद यही होगी।
उनका पुण्य स्मरण करते हुए आखिरी बात। वे चुनावी भ्रष्टाचार से बहुत व्यथित थे। एक दिन उन्होंने कहा लोग बहुत चतुर हो गए हैं। चुनाव की रात को अपनी झोपड़ी में ढिबरी जलाकर फटकी खुली रखते हैं कि अभी भी समय है, जिसको जो देना हो आकर दे जाए। बाकी वोट तो वे अपनी मर्जी से ही देते हैं। (समाप्त)

देशबंधु में 27 जुलाई 2018 को प्रकाशित 

रामचन्द्र सिंहदेव : विरल कोटि के व्यक्ति -1

                                 

डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव एक विरल कोटि के व्यक्ति थे। जब उनके आत्मकथात्मक लेखों का संकलन 'सुनी सबकी करी मन की' प्रकाशित होने जा रहा था तब लेखक परिचय लिखते हुए मैंने उन्हें राजर्षि निरूपित किया था। सिंहदेवजी के विलक्षण व्यक्तित्व को एक शब्द में समेटने के लिए इससे बेहतर और कोई संज्ञा नहीं हो सकती थी। याद आता है कि न्यायमूर्ति गुलाब गुप्ता ने कभी चर्चा चलने पर मुझसे कहा था कि रामचन्द्र तो साधु हैं जब यह बात मैंने सिंहदेव जी को बताई तो उन्होंने निहायत सादगी से जवाब दिया था- गुलाब गलत कहता है। मैं साधु होता तो राजनीति में नहीं आता, हिमालय की किसी गुफा में तपस्या कर रहा होता। मैं समझता हूं कि न तो गुलाब गुप्ता की टिप्पणी गलत थी और न सिंहदेव जी का उत्तर। जिन्होंने दूर या पास से सिंहदेव जी को देखा वे उनके बारे में कोई अन्य राय कायम नहीं कर सकते थे। दूसरी ओर सिंहदेव जी स्वयं के बारे में जानते थे कि वे राजनीति किन शर्तों पर कर रहे थे।
रामचन्द्र सिंहदेव कोरिया रियासत के अंतिम शासक रामानुज शरण सिंहदेव के सबसे छोटे बेटे थे। वे राजकुमार तो थे लेकिन प्रिंस ऑफ वेल्स या युवराज नहीं थे। देश आजाद हुआ तब वे सत्रह साल के भी नहीं थे। लेकिन इतने बड़े तो थे कि अंग्रेजी राज खत्म होने के बाद नवस्वाधीन देश में बदलाव की जो बयार चल रही थी उसे समझ पाते। रायपुर के राजकुमार कॉलेज से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहां उन्हें चन्द्रशेखर, वी.पी. सिंह और अर्जुन सिंह जैसे सहपाठी मिले। सबके सब नेहरू और समाजवाद से प्रभावित थे। यहां सुभाष काश्यप आदि भी उनके सहपाठी थे जिनकी विचारधारा दूसरी दिशा में थी। श्री सिंहदेव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहते हुए छात्र राजनीति में सक्रिय भाग लिया। दक्षिणपंथी छात्र संगठनों से टक्कर भी ली। पढ़ाई खत्म होने के बाद वे कलकत्ता चले गए जहां वे सीपीआई के संपर्क में आए, कुछ वर्षों तक पार्टी के बाकायदा सदस्य भी रहे; लेकिन जल्दी ही उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़कर स्वतंत्र व्यापार करना शुरू किया और उसी में रम गए। 
वे शायद कलकत्ता में ही रहे आते यदि 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें घर लौटने और चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित न किया होता। उस दौर की राजनीति आज से शायद कुछ बेहतर थी, फिर भी मैं कहूंगा रामचन्द्र सिंहदेव तब भी अपनी तरह के अलग राजनेता थे जैसे कि वे अंत तक बने रहे। उन्होंने राजमहल में जन्म लिया, लेकिन राजसी ठाट-बाट कभी नहीं अपनाया। वे चुनावी राजनीति के दांवपेंच बखूबी समझते थे, लेकिन स्वयं चुनाव लड़ने के लिए अनीति का आश्रय नहीं लिया। जिस दिन  लगा कि अपनी शर्तों पर राजनीति करना कठिन हो गया है उस दिन चुनावी राजनीति से सन्यास ले लिया। उन्होंने राजसत्ता को करीब से देखा, महत्वपूर्ण ओहदे संभाले लेकिन सत्ता के अहंकार को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।
मेरे आग्रह पर उन्होंने अपने राजनीतिक संस्मरण लिखना प्रारंभ किया था। उन्होंने सात मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया और हरेक के कार्यकाल के बारे में रोचक संस्मरण लिखे। मैंने उनसे कहा कि आपने हरेक के बारे में अच्छी-अच्छी बातें ही लिखीं हैं, लेकिन यह तो अधूरा सच हुआ, आप अपने पूरे अनुभव क्यों नहीं लिखते। इस पर भी उनका सहज उत्तर था- मैंने जिनके साथ काम किया है उनकी बुराई नहीं लिखूंगा। जो व्यक्ति छह बार विधायक चुना गया हो, मंत्रिमंडल में जिसने महत्वपूर्ण विभाग संभाले हों, उसके पास तो शासन की और अपने नेता की राई रत्ती खबर रहती होगी। लेकिन उन्होंने व्यक्तिगत रागद्वेष से ऊपर उठकर व्यापक लोकहित के बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित रखना बेहतर समझा। जिस मुख्यमंत्री ने उन्हें चुनाव में हराने के लिए पूरी कोशिश की उसकी भी सार्वजनिक आलोचना उन्होंने नहीं की। उनका यही उदात्त स्वभाव था जो उन्हें समकालीन राजनेताओं से अलग कर देता था।
मुझे 1980-81 के आसपास श्री सिंहदेव को कुछ निकट से जानने का अवसर मिला। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण का गठन किया था। सिंहदेव जी राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष होने के नाते प्राधिकरण के पदेन सदस्य थे। मैं एक अशासकीय सदस्य के तौर पर मनोनीत था। प्राधिकरण की पहली ही बैठक में हम दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से विस्तारपूर्वक कुछ प्रस्ताव पेश किए थे। इस बैठक के कुछ दिनों बाद ही सिंहदेव जी रायपुर मेरे घर बिना किसी पूर्व सूचना के आए। उनके साथ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विकास के बारे में चर्चाओं का जो सिलसिला उस दिन प्रारंभ हुआ वह उनके अंतिम समय तक चलता रहा। दो माह पूर्व ही सिंहदेव जी ने छत्तीसगढ़ के विकास के लिए बुद्धिजीवियों व विशेषज्ञों का एक स्वतंत्र फोरम बनाने की बात सोची थी, जिसमें उन्होंने मुझे तो शामिल किया ही था, कुछ और नाम भी प्रस्तावित करने कहा था जिन्हें इस पहल से जोड़ा जा सके। यह प्रयत्न पहली बैठक से आगे नहीं बढ़ पाया।
सिंहदेव जी के साथ मेरी आखिरी भेंट इसी 8 जून को तिल्दा में हुई थी जहां बस्तर और मध्यभारत में शांति स्थापना के लिए एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन विकल्प संगम नामक संस्था ने किया था। इसमें अरविंद नेताम, रामचन्द्र सिंहदेव, चितरंजन बख्शी, शरतचन्द्र बेहार आदि के साथ मैं भी आमंत्रित था। सिंहदेव जी ने इस सभा में अपने जाने-पहचाने तर्क रखे थे कि तथाकथित विकास के नाम पर जो हड़बड़ी हो रही है वह उचित नहीं है। ऐसा करके हम अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य नष्ट कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि धरती के नीचे दबे खनिज भंडार कहीं भागे नहीं जा रहे हैं उनका दोहन युक्तिसंगत ही होना चाहिए। उन्होंने इस बात को भी दोहराया था कि नैसर्गिक संसाधनों पर पहला हक उस क्षेत्र के आदिवासियों का बनता है और जो भी योजनाएं बनें उन्हें ध्यान में रखकर बनें तभी स्थायी शांति का रास्ता खुल सकेगा।
सिंहदेव जी की यह सोच बहुत पहले से रही है। वे जनतंत्र के सच्चे हिमायती थे। उन्होंने सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार से क्या खतरे पैदा हो सकते हैं इसका विश्लेषण 1960 के आसपास कर लिया था। 1984 में मध्यप्रदेश राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने ''सिविलाइजेशन इन हरी'' याने सभ्यता हड़बड़ी में जैसी पुस्तिका लिखी थी व तर्कों एवं आंकड़ों से सिद्ध किया था कि बड़े बांध बनाने का समय गुजर गया है, उनसे नुकसान हो रहा है। जब दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में सरदार सरोवर के मुद्दे पर मेधा पाटकर भोपाल में अनशन पर बैठीं तब मंत्री रहते हुए भी सिंहदेव जी  उनसे मिलकर उन्हें अपना समर्थन देने गए थे। 2001 में रायपुर में गौतम बंदोपाध्याय ने पानी पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। उसमें मेधा जी आई थीं। सिंहदेव जी का मुझे आदेश था कि हम एयरपोर्ट से मेधा जी को पहले उनके घर पर लेकर आएं जबकि वे उस समय प्रदेश के वित्तमंत्री थे।
सिंहदेव जी के साथ मेरी बहुत सी स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। इस कॉलम की सीमा में उनका पूरा वर्णन करना संभव नहीं है। फिलहाल एक रोचक संस्मरण मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। 2007 में जब देश स्वाधीनता के हीरक जयंती मना रहा था तब सिंहदेव जी और मैंने तय किया कि हम प्रदेश के अप्रतिम स्वाधीनता सेनानियों के गांव जाएंगे और ग्रामजनों से खुली बात करेंगे कि वे आज लोकतंत्र को किस तरह से देखते हैं। इस सिलसिले में हम पं. सुंदरलाल शर्मा के गांव चमसूर, बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के गांव कंडेल, ठाकुर प्यारे लाल सिंह के गांव सेमरा देहान व डॉ. खूबचंद बघेल के गांव पथरी गए और वहां ग्रामवासियों के साथ कई घंटे तक बातचीत की। सिंहदेव जी ने उन्हें अपनी ओर से प्रेरित करने का भरसक प्रयास किया कि महापुरुषों से प्रेरणा लेकर वे अपने गांव की किस्मत स्वयं संवार सकते हैं। अस्तु!
देशबंधु में 26 जुलाई 2018 को प्रकाशित 

Thursday, 19 July 2018

विधानसभा चुनाव 2018 : 2



लोकसभा के समय पूर्व चुनावों को लेकर राजनीति के पंडितों के अपने-अपने तर्क हैं। कुछ का मानना है कि जल्दी चुनाव करवाना भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकता है। वे याद दिलाते हैं कि अटलबिहारी वाजपेयी ने यही किया था और परिणामस्वरूप उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि वे चुनाव तो आडवानीजी के कारण हुए थे। उन्हें प्रधानमंत्री बनने की जल्दी जो पड़ी थी। आज ऐसी स्थिति नहीं है।  नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने वाला कोई नेता भाजपा में दूर-दूर तक नहीं है। सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह जिनकी 2014 में स्वाभाविक उम्मीदवारी बनती थी, वे कब के किनारे कर दिए गए हैं। वरिष्ठ नेताओं को लेकर बने मार्गदर्शक मंडल की चार साल में एक बार भी बैठक नहीं हुई है। अब तो हाल यह है कि आडवानीजी लाइन में हाथ जोड़े खड़े रहते हैं और मोदीजी उनकी तरफ देखे बिना आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन वाह रे संघ की ट्रेनिंग! गुरु चेले द्वारा किए गए इस अपमान को भी बर्दाश्त कर लेता है।
दूसरा तथ्य है कि भाजपा के अपने एनडीए सहयोगियों के साथ ही संबंध ठीक नहीं चल रहे हैं। इनमें दो राज्य प्रमुख हैं- महाराष्ट्र और बिहार। महाराष्ट्र में शिवसेना की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी थी, लेकिन उसकी वैसी ही अनदेखी कर दी गई जैसी वाजपेयी काल की बहुत सी अन्य बातों की। इसके चलते उद्धव ठाकरे क्षुब्ध हैं और भाजपा को महाराष्ट्र में उन्हें निस्तेज कर देने की युक्ति की अभी भी तलाश है। बिहार में नीतीश कुमार अभी साथ नहीं छोड़ेंगे। वे चार राज्यों में पृथक चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं, लेकिन उसमें कोई दम नहीं है। इसलिए कि इन राज्यों में उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। देखना होगा कि आम चुनाव के समय वे क्या तेवर दिखलाते हैं। आखिरकार वे एक समय प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोए हुए थे। उसकी थोड़ी-बहुत उम्मीद उन्हें शायद अभी भी होगी! याद रखें कि इन दो राज्यों में कुल मिलाकर पच्यासी सीटें दांव पर हैं।
श्री मोदी और उनकी पार्टी के तमाम नेता बार-बार गर्वपूर्वक कहते हैं कि इस समय उनका राज देश के इक्कीस प्रदेशों में है। यह कथन पूरी तरह सच नहीं है। और अगर शत-प्रतिशत सही होता तो उसका एक मतलब यह भी होता कि पार्टी अपनी लोकप्रियता के सर्वाेच्च शिखर पर पहुंच चुकी है। पिछले चार वर्षों के दौरान भाजपा के माध्यम से संघ ने अपने हाथ-पैर चाहे जितने फैलाए हों; और भले ही भाजपा को स्वयं या सहयोगियों के साथ मिलकर इक्कीस राज्यों में सत्तासुख भोगने मिल गया हो, यह बात अकल्पनीय लगती है कि भाजपा इससे आगे बढ़ सकती है। जिन अभूतपूर्व परिस्थितियों में 1984 में राजीव गांधी को दो तिहाई बहुमत मिला था वैसी स्थिति तो शायद ही लौटकर आएगी! पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भाजपा को लाभ होने की उम्मीद जताई जा रही है, लेकिन उत्तरप्रदेश में एक बार फिर नए समीकरण बन सकते हैं जिसके कि संकेत मिल भी रहे हैं। ऐसे में भाजपा को नुकसान होगा। राजस्थान और गुजरात में भी सारी की सारी सीटें उसकी झोली में शायद ही इस बार आकर गिरें!
फिलहाल हमारा ध्यान एक बार फिर आसन्न विधानसभा चुनावों की ओर जाता है। जैसा कि मैंने विगत सप्ताह भी लिखा, मेरी उम्मीद है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव निर्धारित समय पर ही होंगे। इन प्रदेशों में कांग्रेस की स्थिति का एक प्रारंभिक आकलन मैंने किया था, लेकिन चुनावों के समय स्थितियां निरंतर बनती हैं और बिगड़ती हैं। गौरतलब है कि 2013 के विधानसभा चुनाव इन राज्यों में कांग्रेस व भाजपा ने अपने ही बलबूते लड़े थे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण भीतरघात को बताया गया था। जबकि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान स्वयं प्रधानमंत्री होने के दावेदार थे और उसका लाभ किसी हद तक उनको मिला होगा। वहां भी कांग्रेस में एकजुटता नहीं थी और लगभग वैसी ही स्थिति राजस्थान में थी वहां कांग्रेस अशोक गहलोत, सीपी जोशी, सचिन पायलट आदि खेमों में बंटी थी। इस बार स्थितियां कुछ तो बदली हैं।
एक तो हम पाते हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी श्रेष्ठता के दंभ को किसी हद तक छोड़ा है। इसका चुनाव पूर्व प्रमाण गुजरात में देखने मिला और चुनाव बाद का उदाहरण कर्नाटक अभी हाल की बात है। कांग्रेस ने इस बीच दो दलों के साथ अपनी दोस्ती मजबूत की है। एक ओर बिहार में लालू प्रसादजी की पार्टी है जिसके युवा नेता तेजस्वी यादव की राजनैतिक परिपक्वता और सूझबूझ का परिचय लगातार मिल रहा है। दूसरी तरफ शरद यादव हैं जो वरिष्ठ संसदवेत्ता हैं और बराबर कांग्रेस के साथ खड़े हुए हैं। इन दोनों के बीच में गुजरात के हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी हैं।  इनकी एकजुटता देखकर भाजपा के भीतर बेचैनी है जो उसके सर्वोच्च नेताओं के बयानों से प्रकट होने लगी है। कहने का आशय यह कि राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने एक नया रास्ता अख्तियार किया है जिसका कुछ न कुछ लाभ उसे मिला ही है और यह लाभांश कई गुना बढ़ने की गुंजाइश बनी हुई है।
राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी तीसरे दल की उल्लेखनीय उपस्थिति नहीं है। किन्तु मध्यप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी वे दो दल हैं जो खेल बनाने या बिगाड़ने में भूमिका निभा सकते हैं। छत्तीसगढ़ में बहुजन समाज पार्टी की वही स्थिति है। अजीत जोगी अब कांग्रेस में नहीं हैं और वे भी कुछ ऐसी ही भूमिका निभाने के लिए तैयार बैठे हैं। श्री जोगी अठारह वर्ष पूर्व बने नए राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे और यह सवाल रहस्य के घेरे में हैं कि उनके जैसे सक्षम प्रशासक, जनसंवादी राजनेता व प्रखर बुद्धिजीवी होने के बावजूद 2003, 2008 और 2013 में कांग्रेस को उस छत्तीसगढ़ में पराजय का सामना क्यों करना पड़ा जहां परंपरागत तौर से उसका वर्चस्व रहा है? जनसंघ अथवा भाजपा तो पुराने मध्यप्रदेश में मालवा और ग्वालियर रियासत की पार्टी थी।  इसलिए अभी कहना मुश्किल है कि क्या कांग्रेस और जोगी कांग्रेस के बीच चुनाव पूर्व कोई तालमेल बैठ पाएगा।
बहरहाल कांग्रेस यदि केन्द्र में दस साल के बाद; छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में पन्द्रह साल के बाद; व राजस्थान में पांच साल के बात सत्ता में लौटने का स्वप्न देख रही है तो उसे साथ ही साथ एक जनतांत्रिक विपक्ष के उभरने का स्वप्न भी देखना चाहिए। जनतंत्र समाजवादी भी हो सकता है और पूंजीवादी भी। अमेरिका में लगातार पूंजीवादी जनतंत्र ही रहा है। इंग्लैंड का जनतंत्र किसी हद तक समाजवादी, लेकिन उससे परे अधिकतर समय लोक कल्याणकारी रहा है। भारत में 1962 में स्वतंत्र पार्टी का उदय पूंजीवादी जनतंत्र की स्थापना के इरादे से हुआ था, लेकिन देश की जनता उसके लिए तैयार नहीं थी। 1980 के बाद से भारतीय जनतंत्र का झुकाव पूंजीवाद की तरफ बढ़ते गया है। यदि मोदी सरकार ने स्वतंत्र पार्टी का मॉडल अपनाया होता तो उसे शायद व्यापक स्वीकृति मिल गई होती, लेकिन वैसा नहीं होना था।
जब हम जनतांत्रिक विपक्ष की बात कर रहे हैं तो हमारा मानना है कि कांग्रेस को दो कदम और आगे बढ़ना चाहिए। उसे उत्तरप्रदेश में समय आने पर मायावती और अखिलेश दोनों से गठजोड़ करना उचित होगा। अभी आसन्न विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, शरद यादव के समाजवादी दल के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ऐसा गठबंधन कर लेना चाहिए जिसमें चुनाव के बाद सत्ता में भागीदारी भी सुनिश्चित हो। इन तीनों राज्यों में वामदल कमजोर भले ही हों लेकिन उनको साथ लेकर चलना कांग्रेस के लिए हर दृष्टि से लाभदायक होगा। हम मानते हैं कि सीताराम येचुरी के नेतृत्व में माकपा को भी दशकों पुरानी हठधर्मिता छोड़कर जनतंत्र की रक्षा के लिए एक वृहत्तर प्लेटफार्म बनाने के लिए आगे आना चाहिए।

 देशबंधु में 19 जुलाई 2018 को प्रकाशित 

Thursday, 12 July 2018

विधानसभा चुनाव 2018 : 1


                                              
क्या लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे? या सिर्फ चार राज्यों के आसन्न विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव होंगे? क्या एनडीए के घटक दल और स्वयं बीजेपी समय पूर्व चुनाव के लिए तैयार हैं? यदि नहीं तो चार राज्यों की स्थिति क्या बनेगी? क्या इन राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा? क्या इसकी कोई वैधानिक गुंजाइश है? क्या भाजपा शासित तीन राज्यों के मुख्यमंत्री विधानसभा भंग करने की सिफारिश की स्थिति में हैं? ऐसे तमाम सवाल आम जनता और राजनैतिक हल्कों में गूंज रहे हैं। चुनाव आयोग बार-बार कह रहा है कि एक साथ चुनाव करवाने के लिए वह सक्षम है। आयोग का रोल बाद में आएगा, पहले तो इस प्रस्ताव के कानूनी पहलुओं को समझना और उनसे उठी आपत्तियों का निराकरण करने की आवश्यकता होगी। मैंने उत्तरप्रदेश चुनाव के पूर्व लिखा था कि अगर अभी भाजपा शासित राज्यों की सरकारें भंग कर उत्तरप्रदेश के साथ-साथ लोक सभा के भी मध्यावधि चुनाव हो जाएं तो नरेन्द्र मोदी की इच्छा संपूर्ण रूप से न सही, आंशिक रूप से पूरी हो ही जाएगी; लेकिन श्री मोदी उस वक्त जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं थे!
मेरा अनुमान है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह आज भी जोखिम उठाने तैयार नहीं हैं। वे जिस तरह से लगातार राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के दौरे कर रहे हैं उसे देखकर मेरे लिए कोई दूसरा अनुमान लगाना कठिन है। आने वाले दिनों में इनके दौरों की रफ्तार और तेज हो सकती है। विगत चार वर्षों में हर विधानसभा चुनाव के समय हमने यही देखा है। मोदी-शाह की जोड़ी अपनी विजय के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती। यदि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ नहीं होते तो उसके पीछे बड़ा कारण यही होगा। आज चार राज्यों में तूफानी दौरे कर भाजपा नेतृत्व अपनी सामर्थ्य सिद्ध करने की स्थिति में आ सकता है, लेकिन यदि लोकसभा के समय पूर्व चुनाव साथ-साथ हुए तो श्री मोदी और श्री शाह कहां-कहां दौड़ते फिरेंगे? भाजपा शासित इन तीन राज्यों के अलावा उन्हें अन्य प्रदेशों में भी समय देना पड़ेगा और तब इन राज्यों का गणित बिगड़ने का खतरा बना रहेगा। इस आधार पर कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव भी मार्च-अप्रैल 2019 में निर्धारित समय पर ही होंगे।
यदि सारी बातें यथावत रहीं तो राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में क्या होगा? तीन बड़े राज्यों में भाजपा की सरकार है और वहां से जो संकेत मिल रहे हैं उनसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है। मोटे तौर पर यह सुनने मिल रहा है कि वसुंधरा राजे की सरकार खासी अलोकप्रिय हो चुकी है। भाजपा का नया प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत करवाने में राजे को अवश्य सफलता मिली और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की एक न चली।  इसके बावजूद भाजपा इस पश्चिम प्रदेश में हार की कगार पर खड़ी दिखाई दे रही है। सचिन पायलट के रूप में कांग्रेस को बेहतरीन युवा नेता मिला है जिसकी संघर्षशीलता, स्वच्छ छवि और व्यवहारिक राजनीति के साथ-साथ सैद्धांतिक सूझ-बूझ का भी भरपूर परिचय विगत समय में देखने मिला है। अशोक गहलोत को केन्द्रीय महासचिव बनाकर प्रदेश में शक्ति संकलन भी साधा गया है। लेकिन हां, अभी प्रधानमंत्री की ताजा राजस्थान यात्रा के समय कांग्रेस के सोशल मीडिया सेल ने जो पुराना वीडियो ताजा बताकर जारी किया है ऐसी मूर्खता और लापरवाहियों से पार्टी को बचने की जरूरत है।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस को कोई युवा नेता नहीं मिल रहा है इसलिए कमलनाथ को लाया गया है। कुछ वैसे ही जैसे कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब की बागडोर सौंप दी गई।  कैप्टन के सामने प्रतापसिंह बाजवा के अलावा और किसी की चुनौती नहीं थी लेकिन यहां कमलनाथ को बहुत से समीकरण साधना पड़ रहे हैं। वे छिदवाड़ा में अत्यन्त लोकप्रिय हैं और प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी उनके समर्थक हैं। लेकिन हमें लगता है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस को कमलनाथ की चुनावी रणनीति से अधिक शिवराज सरकार की गलतियों के कारण ही सफलता मिल पाएगी। इसमें शक नहीं कि शिवराज सिंह की आत्मुग्धता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर कमलनाथ जमीनी होने के बजाय वणिक वृत्ति के धनी हैं इसलिए  वे आम जनता के बीच कितनी पैठ बना पाएंगे यह देखना होगा। ज्योतिरादित्य सिंधिया की एक युवा नेता की छवि बनाने के अनेक प्रयत्न इस बीच हुए हैं, लेकिन उनमें सचिन पायलट जैसी सहजता नहीं है।  कहने का आशय यह कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस को यदि जीतना है तो उसे बहुत परिश्रम करना पड़ेगा; नेतृत्व को चाटुकारों से दूर रहना होगा; पार्टी के पुराने शुभचिंतकों के साथ संबंध मजबूत करना होंगे और इन सबके अलावा शिवराज सरकार की गलतियों को तथ्यों और तर्कों के साथ जनता के बीच में ले जाना पड़ेगा। यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिए कि हम तो जीत ही रहे हैं।
अब बात आती है छत्तीसगढ़ की। मैं स्वयं चूंकि यहीं रहता हूं और विभिन्न पार्टियों के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं से जब-तब चुनावी चर्चा होती रहती है इस आधार पर मैं कुछ कयास लगा सकता हूं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस बेहद संघर्ष कर रही है। फिर भी तीन राज्यों में कांग्रेस की स्थिति छत्तीसगढ़ में अपेक्षाकृत कमजोर दिखाई देती है। यह सवाल बार-बार उठता है कि राजस्थान में सचिन पायलट, मध्यप्रदेश में कमलनाथ, लेकिन छत्तीसगढ़ में कौन? भूपेश बघेल यद्यपि अपने पूर्ववर्ती अध्यक्षों की तुलना में अधिक सक्रिय साबित हुए हैं तथापि अगले मुख्यमंत्री के तौर पर उनके नाम को स्वीकार करने में कांग्रेसजन ही क्यों हिचकिचाते हैं? यह एक अटपटा सा प्रश्न है। बीच में एक ऐसा प्रसंग भी आया था जब कोई आधा दर्जन नेताओं ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक दी थी। उस समय राहुल गांधी ने उन सबको बुलाकर कठोर शब्दों में चेतावनी दी थी यह बात कांग्रेसी ही कहते घूम रहे थे। कांग्रेस के पक्ष में एक अच्छी बात यह हुई है कि वर्तमान प्रदेश  प्रभारी महासचिव पी.एल. पुनिया अपने पूर्ववर्ती प्रभारियों से कहीं अधिक सक्रिय और सजग हैं। वे प्रदेश कांग्रेस के सभी नेताओं को एक साथ लेकर चल रहे हैं। फिर भी कांग्रेसजनों में चुनाव जीतने के लिए जो सामूहिक उत्तेजना होना चाहिए थी वह अभी तक दिखाई नहीं दी है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि दिग्विजय सिंह यहां के सब नेताओं के नेता हैं। टी.एस. सिंहदेव, रवीन्द्र चौबे, चरणदास महंत, धनेन्द्र साहू, सत्यनारायण शर्मा सब उनके अनुगत हैं। दिग्विजय सिंह केन्द्र में और अपने गृहराज्य याने मध्यप्रदेश में फिलहाल क्या भूमिका निभा रहे हैं, इस बारे में बहुत कुछ नहीं पता किन्तु उनका जादू यहां तारी है इसमें हमें शक नहीं है। कहने को ये सब बड़े-बड़े नेता हैं, लेकिन इनमें से कुछ थक चुके हैं, कुछ के क्रियाकलाप आम जनता की समझ में नहीं आते और कुछ ऐसे हैं जो मतदाताओं का विश्वास खो चुके हैं। इतने सारे नाम लेते समय यह विचार भी उठता है कि प्रदेश से इकलौते लोकसभा सदस्य ताम्रध्वज साहू क्या कर रहे हैं। उन्हें पार्टी ने अपने राष्ट्रीय ओबीसी प्रकोष्ठ का अध्यक्ष बनाया है। संभव है कि वे वहां अधिक व्यस्त हों!
जब निठल्लों के बीच राजनीति पर बात होती है तो एक सुझाव यह दिया जाता है कि टी.एस. सिंहदेव को प्रदेश अध्यक्ष और भूपेश बघेल को नेता प्रतिपक्ष बना दिया जाए। लेकिन अब इसकी गुंजाइश खत्म हो चुकी है क्योंकि इस विधानसभा का आखिरी सत्र भी सम्पन्न हो चुका है। वैसे श्री सिंहदेव और श्री बघेल जोड़ी बनाकर काम करते रहे हैं इसलिए इस सुझाव में कोई दम नहीं था; सिवाय इसके कि टी.एस. सिंहदेव आयु में बड़े होने के बावजूद बराबरी से भागदौड़ करते आ रहे हैं और उनकी विनम्रता उन्हें लोगों से जल्दी जोड़ देती है। जो भी हो, हमारा मत यह है कि प्रदेश कांग्रेस कुल मिलाकर भाजपा के खिलाफ ऊपरी-ऊपरी लड़ाइयां लड़ रही है और इसमें व्यक्तिगत दोषारोपण शालीनता की सीमाएं पार कर चुका है। प्रदेश कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने भाजपा सरकार के साथ भी अपना तालमेल खूब बैठा रखा है। मजे की बात यह है कि छत्तीसगढ़ की आम जनता चौथी बार भाजपा की सरकार नहीं देखना चाहती, लेकिन डॉ. रमनसिंह के ऊपर उसका विश्वास अभी भी बना हुआ है। उनकी इस लोकप्रियता की काट निकालना कांग्रेस के लिए बेहद मुश्किल साबित हो रहा है
 देशबंधु में 12 जुलाई 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 4 July 2018

भाषण और आंकड़ों से परे



यूपीए बनाम एनडीए, कांग्रेस बनाम भाजपा। एक ने दस साल राज किया, दूसरे के चार साल पूरे हो गए हैं।  दोनों के अपने-अपने दावे हैं, दलीलें हैं, आरोप और प्रत्यारोप हैं। कभी सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी के आंकड़े पेश किए जाते हैं, तो कभी मुद्रा स्फीति के और महंगाई दर के; कभी विदेश नीति को लेकर बहसें होती हैं, तो कभी प्रतिरक्षा नीति को लेकर।  इन सबके बीच आम नागरिक मेले की भीड़ में गुम हो गए बच्चे की तरह नजर आता है। इसमें शक नहीं कि सरकार जो भी नीतियां बनाती है, योजनाएं लागू करती है सब पर आम आदमी का लेबल ही चस्पा होता है, लेकिन राजीव गांधी ने 1985 में कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में जो बात कही थी क्या वह आज भी उतनी ही सच  नहीं है? आप बल्कि शायद इस आकलन से सहमत होंगे कि हालात इन बीते वर्षों में एक दृष्टि से सुधरने के बजाय बिगड़े ही हैं।
मेरे इस कथन में विरोधाभास प्रतीत हो सकता है कि यद्यपि पहले के मुकाबले जीवन स्थितियां कुछ बेहतर हुई हैं तथापि  कुल मिलाकर आम आदमी के नजरिए से आज के हालात बदतर हैं। इनकी अभिव्यक्ति हम आए दिन होने वाले प्रदर्शनों, आंदोलनों और संघर्षों में देख रहे हैं। दरअसल, देश में पिछले तीस-पैंतीस वर्षों के दौरान वर्गभेद लगातार बढ़ा है। अमीर और गरीब के बीच की खाई चौड़ी होती गई है। संगठित क्षेत्र ने पूर्वापेक्षा अपनी स्थिति सुदृढ़ की है। उसके बरक्स असंगठित क्षेत्र की संघर्षशीलता कमजोर पड़ी है। ऐसे अनेक परस्पर विपरीत चित्र हमारे सामने आ रहे हैं। इसका दोष किसे दें? वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें तो  लगता है कि अनेक देशों ने अपनी प्रभुसत्ता धनकुबेरों के चरणों में अर्पित कर दी है। एक समय कहा जाने लगा था कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज दुबारा आ गया है। आज की विडंबना है कि विज्ञापन में बताया जाता है कि भारत के किसी उद्योगपति ने लंदन की ईस्ट इंडिया कंपनी को खरीद लिया है; लेकिन दूसरी ओर देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने एक अदृश्य जाल फेंककर चुनने वाली जनता और चुनी हुई सत्ता दोनों को अपने नागपाश में जकड़ लिया है। 
आज अर्थतंत्र से संचालित राजसत्ता किस-किस तरह के खेल-खेल रही है इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन उस सैद्धान्तिक विवेचन में गए बिना हम ऐसे कुछ उपायों की चर्चा अभी कर सकते हैं जिनसे सामान्य नागरिक के जीवन की दुश्वारियां कुछ कम हो सकें। दुश्वारियों के कम होने का सीधा संबंध उसके निजी, पारिवारिक और सामाजिक जीवन से है, उसकी मनोदशा से है। यहां मैं दिल्ली की आप सरकार के तीन उपायों की चर्चा करना चाहूंगा।  मैं आप के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की राजनीति से कतई इत्तफाक नहीं रखता। उस पर मैं अनेक बार लिख चुका हूं, किन्तु उन्होंने अपने कार्यकाल में ऐसे तीन निर्णय लिए जो मेरी दृष्टि में दीर्घगामी परिणाम देने वाले हैं और इसलिए महत्वपूर्ण हैं। 
आप सरकार का पहला निर्णय था दिल्ली पुलिस के एक आरक्षक की ड्यूटी के दौरान मारे जाने पर उसके परिवार को एक करोड़ रुपए की अनुग्रह राशि देने की घोषणा। यह 2014 की बात है जब 'आप' ने पहली बार सत्ता संभाली थी। यह एक बड़ा निर्णय था जिससे विपरीत और खतरनाक परिस्थितियों में काम करने वाले सिपाहियों का मनोबल बढ़ता और उनके परिजनों को भी एक आश्वस्ति का भाव बना रहता। इसका सभी राज्य सरकारों को अनुकरण कर लेना चाहिए था। आखिरकार अपने कर्तव्य के लिए जान गंवाने का खतरा कोई सिपाही क्यों मोल ले अगर उसे अपने पीछे परिवार की परवरिश की चिंता बनी रहे? केजरीवाल सरकार का दूसरा बड़ा निर्णय ऑड-ईवन के प्रयोग का था। इसके विरोध में बहुत हो-हल्ला मचाया गया, लेकिन यह एक तर्कसंगत प्रयोग था और अगर जारी रहता तो दिल्ली के प्रदूषण स्तर में इससे निश्चय ही कमी आती।
तीसरा बड़ा काम दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने का किया है। यदि नागरिक दिलचस्पी लें, सरकार साथ दे और शिक्षकों में उत्साह हो तो कोई भी सरकारी स्कूल ऊंचे से ऊंचे निजी स्कूल का मुकाबला कर सकता है। इस बारे में रायपुर का मेरा अपना अनुभव यही है। अगर हमारे सरकारी स्कूल दुर्दशा को प्राप्त हो रहे हैं, तो उसका प्रमुख कारण है कि शासन का उनकी ओर दुर्लक्ष्य है। यदि पास-पड़ोस के स्कूल में बिना किसी भेदभाव के सब वर्गों के बच्चे एक साथ पढ़ें तो स्कूल अपने आप सुधर जाएगा। आप सरकार ने इस दिशा में सही कदम उठाया है। उसने शालाओं की काया पलट कर दी है। यह नागरिकों की बारी है कि वे अब अपनी जिम्मेदारी उठाने आगे आएं। 
ये उदाहरण मुझे अचानक याद नहीं आए। अभी मैंने कहीं पढ़ा कि बाल्टिक देश एस्तोनिया की सरकार ने सार्वजनिक यातायात को नि:शुल्क याने एकदम फ्री कर दिया है। सोवियत संघ में सार्वजनिक यातायात का भाड़ा बहुत कम होता था, परन्तु यह देश एक कदम आगे निकल गया। जब सिटी बस में नागरिक बिना पैसे दिए सफर कर सकेगा तो उसे गैरेज से कार निकालने की जरूरत भला क्यों पड़ेगी? पैसा भी बचा, पार्किंग के लिए स्थान तलाशने की तवालत बची और पर्यावरण की रक्षा तो इससे होना ही है। अगर अरविंद केजरीवाल इसे लागू कर सकें तो यह एक साहसिक और शायद सफल प्रयोग सिद्ध हो सकता है। लगभग बीस साल पहले चन्द्राबाबू नायडू ने बसों को शहर के बजाय रात को गांव में रोकने का निर्णय लिया था जिससे दूध और सब्जी वाले सुबह के समय पास के शहर तक नि:शुल्क आ सकते थे। यह उत्पादकों के लिए भी अच्छा फैसला था और उपभोक्ताओं के लिए भी। आगे यह प्रयोग जारी रहा या नहीं इसकी जानकारी नहीं है।
स्कूलों की जहां तक बात है छत्तीसगढ़ की रमन सरकार ने पंचायत शिक्षकों का संविलियन कर शिक्षकों का स्थायी कैडर निर्मित करने का फैसला लिया है। कुछ ऐसा ही फैसला मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने भी लिया है। मेरा शुरू से मानना रहा है कि जब तक स्कूलों में पूर्णकालीन और प्रशिक्षित शिक्षक नहीं होंगे तब तक शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीं हो सकता। वर्ल्ड बैंक के इशारे पर स्थायी शिक्षकों का कैडर धीरे-धीरे कर पूरे देश में समाप्त कर दिया गया। इससे शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा मिला। आज अगर वह स्थिति बदलती है तो स्वागत योग्य है। छत्तीसगढ़ सरकार को इस बारे में एक समन्वित दीर्घकालीन नीति बनाकर लागू करना चाहिए। उच्च शिक्षा में भी विसंगतियां व्याप्त हैं। उन पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन इसके साथ-साथ शाला भवन, उपकरण, पुस्तकालय, खेल का मैदान, इन सब पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है। दिल्ली का मॉडल यहां शायद काम आ सकता है!
आप सरकार ने एक और क्षेत्र में आवश्यक हस्तक्षेप किया था यद्यपि उसे अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। मोहल्ला क्लीनिक की अवधारणा अपने आप में अच्छी थी, लेकिन खबरें हैं कि उनका संचालन करने में कठिनाइयां पेश आ रही हैं। इस बारे में भी अन्य राज्य सरकारों को विचार करना चाहिए। मेरे अपने विचार में सरकारी डॉक्टरों की नियुक्ति, तबादले, प्रमोशन इन सबके बारे में एक सुस्पष्ट नीति बनाने की आवश्यकता है। इसमें शक नहीं कि डॉक्टर और मरीज के रिश्ते में विश्वास क्षीण हो चुका है। इसे फिर से कायम कैसे किया जाए, इस पर भी आईएमए जैसी संस्था को समाज के साथ संवाद करने की पहल करने का परामर्श मैं दूंगा। सब अपना-अपना रोना लेकर बैठे रहें और किसी नतीजे पर न पहुंचें तो यह स्थिति वांछनीय नहीं है। 
मैंने फिलहाल मात्र तीन बिन्दु उठाए हैं। अभी और भी बहुत से मुद्दे हैं जिन पर सरकारों को भाषणबाजी व आंकड़ों की जादूगरी से हटकर काम करना होगा। इससे एक तनावपूर्ण, सहज, सामान्य, शांतिपूर्ण और सुरक्षित समाज की रचना में मदद मिल सकेगी।
देशबंधु में 05 जुलाई 2018 को प्रकाशित