लोकसभा के समय पूर्व चुनावों को लेकर राजनीति के पंडितों के अपने-अपने तर्क हैं। कुछ का मानना है कि जल्दी चुनाव करवाना भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकता है। वे याद दिलाते हैं कि अटलबिहारी वाजपेयी ने यही किया था और परिणामस्वरूप उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि वे चुनाव तो आडवानीजी के कारण हुए थे। उन्हें प्रधानमंत्री बनने की जल्दी जो पड़ी थी। आज ऐसी स्थिति नहीं है। नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने वाला कोई नेता भाजपा में दूर-दूर तक नहीं है। सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह जिनकी 2014 में स्वाभाविक उम्मीदवारी बनती थी, वे कब के किनारे कर दिए गए हैं। वरिष्ठ नेताओं को लेकर बने मार्गदर्शक मंडल की चार साल में एक बार भी बैठक नहीं हुई है। अब तो हाल यह है कि आडवानीजी लाइन में हाथ जोड़े खड़े रहते हैं और मोदीजी उनकी तरफ देखे बिना आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन वाह रे संघ की ट्रेनिंग! गुरु चेले द्वारा किए गए इस अपमान को भी बर्दाश्त कर लेता है।
दूसरा तथ्य है कि भाजपा के अपने एनडीए सहयोगियों के साथ ही संबंध ठीक नहीं चल रहे हैं। इनमें दो राज्य प्रमुख हैं- महाराष्ट्र और बिहार। महाराष्ट्र में शिवसेना की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी थी, लेकिन उसकी वैसी ही अनदेखी कर दी गई जैसी वाजपेयी काल की बहुत सी अन्य बातों की। इसके चलते उद्धव ठाकरे क्षुब्ध हैं और भाजपा को महाराष्ट्र में उन्हें निस्तेज कर देने की युक्ति की अभी भी तलाश है। बिहार में नीतीश कुमार अभी साथ नहीं छोड़ेंगे। वे चार राज्यों में पृथक चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं, लेकिन उसमें कोई दम नहीं है। इसलिए कि इन राज्यों में उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। देखना होगा कि आम चुनाव के समय वे क्या तेवर दिखलाते हैं। आखिरकार वे एक समय प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोए हुए थे। उसकी थोड़ी-बहुत उम्मीद उन्हें शायद अभी भी होगी! याद रखें कि इन दो राज्यों में कुल मिलाकर पच्यासी सीटें दांव पर हैं।
श्री मोदी और उनकी पार्टी के तमाम नेता बार-बार गर्वपूर्वक कहते हैं कि इस समय उनका राज देश के इक्कीस प्रदेशों में है। यह कथन पूरी तरह सच नहीं है। और अगर शत-प्रतिशत सही होता तो उसका एक मतलब यह भी होता कि पार्टी अपनी लोकप्रियता के सर्वाेच्च शिखर पर पहुंच चुकी है। पिछले चार वर्षों के दौरान भाजपा के माध्यम से संघ ने अपने हाथ-पैर चाहे जितने फैलाए हों; और भले ही भाजपा को स्वयं या सहयोगियों के साथ मिलकर इक्कीस राज्यों में सत्तासुख भोगने मिल गया हो, यह बात अकल्पनीय लगती है कि भाजपा इससे आगे बढ़ सकती है। जिन अभूतपूर्व परिस्थितियों में 1984 में राजीव गांधी को दो तिहाई बहुमत मिला था वैसी स्थिति तो शायद ही लौटकर आएगी! पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भाजपा को लाभ होने की उम्मीद जताई जा रही है, लेकिन उत्तरप्रदेश में एक बार फिर नए समीकरण बन सकते हैं जिसके कि संकेत मिल भी रहे हैं। ऐसे में भाजपा को नुकसान होगा। राजस्थान और गुजरात में भी सारी की सारी सीटें उसकी झोली में शायद ही इस बार आकर गिरें!
फिलहाल हमारा ध्यान एक बार फिर आसन्न विधानसभा चुनावों की ओर जाता है। जैसा कि मैंने विगत सप्ताह भी लिखा, मेरी उम्मीद है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव निर्धारित समय पर ही होंगे। इन प्रदेशों में कांग्रेस की स्थिति का एक प्रारंभिक आकलन मैंने किया था, लेकिन चुनावों के समय स्थितियां निरंतर बनती हैं और बिगड़ती हैं। गौरतलब है कि 2013 के विधानसभा चुनाव इन राज्यों में कांग्रेस व भाजपा ने अपने ही बलबूते लड़े थे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण भीतरघात को बताया गया था। जबकि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान स्वयं प्रधानमंत्री होने के दावेदार थे और उसका लाभ किसी हद तक उनको मिला होगा। वहां भी कांग्रेस में एकजुटता नहीं थी और लगभग वैसी ही स्थिति राजस्थान में थी वहां कांग्रेस अशोक गहलोत, सीपी जोशी, सचिन पायलट आदि खेमों में बंटी थी। इस बार स्थितियां कुछ तो बदली हैं।
एक तो हम पाते हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी श्रेष्ठता के दंभ को किसी हद तक छोड़ा है। इसका चुनाव पूर्व प्रमाण गुजरात में देखने मिला और चुनाव बाद का उदाहरण कर्नाटक अभी हाल की बात है। कांग्रेस ने इस बीच दो दलों के साथ अपनी दोस्ती मजबूत की है। एक ओर बिहार में लालू प्रसादजी की पार्टी है जिसके युवा नेता तेजस्वी यादव की राजनैतिक परिपक्वता और सूझबूझ का परिचय लगातार मिल रहा है। दूसरी तरफ शरद यादव हैं जो वरिष्ठ संसदवेत्ता हैं और बराबर कांग्रेस के साथ खड़े हुए हैं। इन दोनों के बीच में गुजरात के हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी हैं। इनकी एकजुटता देखकर भाजपा के भीतर बेचैनी है जो उसके सर्वोच्च नेताओं के बयानों से प्रकट होने लगी है। कहने का आशय यह कि राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने एक नया रास्ता अख्तियार किया है जिसका कुछ न कुछ लाभ उसे मिला ही है और यह लाभांश कई गुना बढ़ने की गुंजाइश बनी हुई है।
राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी तीसरे दल की उल्लेखनीय उपस्थिति नहीं है। किन्तु मध्यप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी वे दो दल हैं जो खेल बनाने या बिगाड़ने में भूमिका निभा सकते हैं। छत्तीसगढ़ में बहुजन समाज पार्टी की वही स्थिति है। अजीत जोगी अब कांग्रेस में नहीं हैं और वे भी कुछ ऐसी ही भूमिका निभाने के लिए तैयार बैठे हैं। श्री जोगी अठारह वर्ष पूर्व बने नए राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे और यह सवाल रहस्य के घेरे में हैं कि उनके जैसे सक्षम प्रशासक, जनसंवादी राजनेता व प्रखर बुद्धिजीवी होने के बावजूद 2003, 2008 और 2013 में कांग्रेस को उस छत्तीसगढ़ में पराजय का सामना क्यों करना पड़ा जहां परंपरागत तौर से उसका वर्चस्व रहा है? जनसंघ अथवा भाजपा तो पुराने मध्यप्रदेश में मालवा और ग्वालियर रियासत की पार्टी थी। इसलिए अभी कहना मुश्किल है कि क्या कांग्रेस और जोगी कांग्रेस के बीच चुनाव पूर्व कोई तालमेल बैठ पाएगा।
बहरहाल कांग्रेस यदि केन्द्र में दस साल के बाद; छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में पन्द्रह साल के बाद; व राजस्थान में पांच साल के बात सत्ता में लौटने का स्वप्न देख रही है तो उसे साथ ही साथ एक जनतांत्रिक विपक्ष के उभरने का स्वप्न भी देखना चाहिए। जनतंत्र समाजवादी भी हो सकता है और पूंजीवादी भी। अमेरिका में लगातार पूंजीवादी जनतंत्र ही रहा है। इंग्लैंड का जनतंत्र किसी हद तक समाजवादी, लेकिन उससे परे अधिकतर समय लोक कल्याणकारी रहा है। भारत में 1962 में स्वतंत्र पार्टी का उदय पूंजीवादी जनतंत्र की स्थापना के इरादे से हुआ था, लेकिन देश की जनता उसके लिए तैयार नहीं थी। 1980 के बाद से भारतीय जनतंत्र का झुकाव पूंजीवाद की तरफ बढ़ते गया है। यदि मोदी सरकार ने स्वतंत्र पार्टी का मॉडल अपनाया होता तो उसे शायद व्यापक स्वीकृति मिल गई होती, लेकिन वैसा नहीं होना था।
जब हम जनतांत्रिक विपक्ष की बात कर रहे हैं तो हमारा मानना है कि कांग्रेस को दो कदम और आगे बढ़ना चाहिए। उसे उत्तरप्रदेश में समय आने पर मायावती और अखिलेश दोनों से गठजोड़ करना उचित होगा। अभी आसन्न विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, शरद यादव के समाजवादी दल के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ऐसा गठबंधन कर लेना चाहिए जिसमें चुनाव के बाद सत्ता में भागीदारी भी सुनिश्चित हो। इन तीनों राज्यों में वामदल कमजोर भले ही हों लेकिन उनको साथ लेकर चलना कांग्रेस के लिए हर दृष्टि से लाभदायक होगा। हम मानते हैं कि सीताराम येचुरी के नेतृत्व में माकपा को भी दशकों पुरानी हठधर्मिता छोड़कर जनतंत्र की रक्षा के लिए एक वृहत्तर प्लेटफार्म बनाने के लिए आगे आना चाहिए।
देशबंधु में 19 जुलाई 2018 को प्रकाशित
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