Thursday, 26 July 2018

रामचन्द्र सिंहदेव : विरल कोटि के व्यक्ति -1

                                 

डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव एक विरल कोटि के व्यक्ति थे। जब उनके आत्मकथात्मक लेखों का संकलन 'सुनी सबकी करी मन की' प्रकाशित होने जा रहा था तब लेखक परिचय लिखते हुए मैंने उन्हें राजर्षि निरूपित किया था। सिंहदेवजी के विलक्षण व्यक्तित्व को एक शब्द में समेटने के लिए इससे बेहतर और कोई संज्ञा नहीं हो सकती थी। याद आता है कि न्यायमूर्ति गुलाब गुप्ता ने कभी चर्चा चलने पर मुझसे कहा था कि रामचन्द्र तो साधु हैं जब यह बात मैंने सिंहदेव जी को बताई तो उन्होंने निहायत सादगी से जवाब दिया था- गुलाब गलत कहता है। मैं साधु होता तो राजनीति में नहीं आता, हिमालय की किसी गुफा में तपस्या कर रहा होता। मैं समझता हूं कि न तो गुलाब गुप्ता की टिप्पणी गलत थी और न सिंहदेव जी का उत्तर। जिन्होंने दूर या पास से सिंहदेव जी को देखा वे उनके बारे में कोई अन्य राय कायम नहीं कर सकते थे। दूसरी ओर सिंहदेव जी स्वयं के बारे में जानते थे कि वे राजनीति किन शर्तों पर कर रहे थे।
रामचन्द्र सिंहदेव कोरिया रियासत के अंतिम शासक रामानुज शरण सिंहदेव के सबसे छोटे बेटे थे। वे राजकुमार तो थे लेकिन प्रिंस ऑफ वेल्स या युवराज नहीं थे। देश आजाद हुआ तब वे सत्रह साल के भी नहीं थे। लेकिन इतने बड़े तो थे कि अंग्रेजी राज खत्म होने के बाद नवस्वाधीन देश में बदलाव की जो बयार चल रही थी उसे समझ पाते। रायपुर के राजकुमार कॉलेज से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहां उन्हें चन्द्रशेखर, वी.पी. सिंह और अर्जुन सिंह जैसे सहपाठी मिले। सबके सब नेहरू और समाजवाद से प्रभावित थे। यहां सुभाष काश्यप आदि भी उनके सहपाठी थे जिनकी विचारधारा दूसरी दिशा में थी। श्री सिंहदेव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहते हुए छात्र राजनीति में सक्रिय भाग लिया। दक्षिणपंथी छात्र संगठनों से टक्कर भी ली। पढ़ाई खत्म होने के बाद वे कलकत्ता चले गए जहां वे सीपीआई के संपर्क में आए, कुछ वर्षों तक पार्टी के बाकायदा सदस्य भी रहे; लेकिन जल्दी ही उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़कर स्वतंत्र व्यापार करना शुरू किया और उसी में रम गए। 
वे शायद कलकत्ता में ही रहे आते यदि 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें घर लौटने और चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित न किया होता। उस दौर की राजनीति आज से शायद कुछ बेहतर थी, फिर भी मैं कहूंगा रामचन्द्र सिंहदेव तब भी अपनी तरह के अलग राजनेता थे जैसे कि वे अंत तक बने रहे। उन्होंने राजमहल में जन्म लिया, लेकिन राजसी ठाट-बाट कभी नहीं अपनाया। वे चुनावी राजनीति के दांवपेंच बखूबी समझते थे, लेकिन स्वयं चुनाव लड़ने के लिए अनीति का आश्रय नहीं लिया। जिस दिन  लगा कि अपनी शर्तों पर राजनीति करना कठिन हो गया है उस दिन चुनावी राजनीति से सन्यास ले लिया। उन्होंने राजसत्ता को करीब से देखा, महत्वपूर्ण ओहदे संभाले लेकिन सत्ता के अहंकार को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।
मेरे आग्रह पर उन्होंने अपने राजनीतिक संस्मरण लिखना प्रारंभ किया था। उन्होंने सात मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया और हरेक के कार्यकाल के बारे में रोचक संस्मरण लिखे। मैंने उनसे कहा कि आपने हरेक के बारे में अच्छी-अच्छी बातें ही लिखीं हैं, लेकिन यह तो अधूरा सच हुआ, आप अपने पूरे अनुभव क्यों नहीं लिखते। इस पर भी उनका सहज उत्तर था- मैंने जिनके साथ काम किया है उनकी बुराई नहीं लिखूंगा। जो व्यक्ति छह बार विधायक चुना गया हो, मंत्रिमंडल में जिसने महत्वपूर्ण विभाग संभाले हों, उसके पास तो शासन की और अपने नेता की राई रत्ती खबर रहती होगी। लेकिन उन्होंने व्यक्तिगत रागद्वेष से ऊपर उठकर व्यापक लोकहित के बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित रखना बेहतर समझा। जिस मुख्यमंत्री ने उन्हें चुनाव में हराने के लिए पूरी कोशिश की उसकी भी सार्वजनिक आलोचना उन्होंने नहीं की। उनका यही उदात्त स्वभाव था जो उन्हें समकालीन राजनेताओं से अलग कर देता था।
मुझे 1980-81 के आसपास श्री सिंहदेव को कुछ निकट से जानने का अवसर मिला। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण का गठन किया था। सिंहदेव जी राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष होने के नाते प्राधिकरण के पदेन सदस्य थे। मैं एक अशासकीय सदस्य के तौर पर मनोनीत था। प्राधिकरण की पहली ही बैठक में हम दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से विस्तारपूर्वक कुछ प्रस्ताव पेश किए थे। इस बैठक के कुछ दिनों बाद ही सिंहदेव जी रायपुर मेरे घर बिना किसी पूर्व सूचना के आए। उनके साथ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विकास के बारे में चर्चाओं का जो सिलसिला उस दिन प्रारंभ हुआ वह उनके अंतिम समय तक चलता रहा। दो माह पूर्व ही सिंहदेव जी ने छत्तीसगढ़ के विकास के लिए बुद्धिजीवियों व विशेषज्ञों का एक स्वतंत्र फोरम बनाने की बात सोची थी, जिसमें उन्होंने मुझे तो शामिल किया ही था, कुछ और नाम भी प्रस्तावित करने कहा था जिन्हें इस पहल से जोड़ा जा सके। यह प्रयत्न पहली बैठक से आगे नहीं बढ़ पाया।
सिंहदेव जी के साथ मेरी आखिरी भेंट इसी 8 जून को तिल्दा में हुई थी जहां बस्तर और मध्यभारत में शांति स्थापना के लिए एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन विकल्प संगम नामक संस्था ने किया था। इसमें अरविंद नेताम, रामचन्द्र सिंहदेव, चितरंजन बख्शी, शरतचन्द्र बेहार आदि के साथ मैं भी आमंत्रित था। सिंहदेव जी ने इस सभा में अपने जाने-पहचाने तर्क रखे थे कि तथाकथित विकास के नाम पर जो हड़बड़ी हो रही है वह उचित नहीं है। ऐसा करके हम अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य नष्ट कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि धरती के नीचे दबे खनिज भंडार कहीं भागे नहीं जा रहे हैं उनका दोहन युक्तिसंगत ही होना चाहिए। उन्होंने इस बात को भी दोहराया था कि नैसर्गिक संसाधनों पर पहला हक उस क्षेत्र के आदिवासियों का बनता है और जो भी योजनाएं बनें उन्हें ध्यान में रखकर बनें तभी स्थायी शांति का रास्ता खुल सकेगा।
सिंहदेव जी की यह सोच बहुत पहले से रही है। वे जनतंत्र के सच्चे हिमायती थे। उन्होंने सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार से क्या खतरे पैदा हो सकते हैं इसका विश्लेषण 1960 के आसपास कर लिया था। 1984 में मध्यप्रदेश राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने ''सिविलाइजेशन इन हरी'' याने सभ्यता हड़बड़ी में जैसी पुस्तिका लिखी थी व तर्कों एवं आंकड़ों से सिद्ध किया था कि बड़े बांध बनाने का समय गुजर गया है, उनसे नुकसान हो रहा है। जब दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में सरदार सरोवर के मुद्दे पर मेधा पाटकर भोपाल में अनशन पर बैठीं तब मंत्री रहते हुए भी सिंहदेव जी  उनसे मिलकर उन्हें अपना समर्थन देने गए थे। 2001 में रायपुर में गौतम बंदोपाध्याय ने पानी पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। उसमें मेधा जी आई थीं। सिंहदेव जी का मुझे आदेश था कि हम एयरपोर्ट से मेधा जी को पहले उनके घर पर लेकर आएं जबकि वे उस समय प्रदेश के वित्तमंत्री थे।
सिंहदेव जी के साथ मेरी बहुत सी स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। इस कॉलम की सीमा में उनका पूरा वर्णन करना संभव नहीं है। फिलहाल एक रोचक संस्मरण मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। 2007 में जब देश स्वाधीनता के हीरक जयंती मना रहा था तब सिंहदेव जी और मैंने तय किया कि हम प्रदेश के अप्रतिम स्वाधीनता सेनानियों के गांव जाएंगे और ग्रामजनों से खुली बात करेंगे कि वे आज लोकतंत्र को किस तरह से देखते हैं। इस सिलसिले में हम पं. सुंदरलाल शर्मा के गांव चमसूर, बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के गांव कंडेल, ठाकुर प्यारे लाल सिंह के गांव सेमरा देहान व डॉ. खूबचंद बघेल के गांव पथरी गए और वहां ग्रामवासियों के साथ कई घंटे तक बातचीत की। सिंहदेव जी ने उन्हें अपनी ओर से प्रेरित करने का भरसक प्रयास किया कि महापुरुषों से प्रेरणा लेकर वे अपने गांव की किस्मत स्वयं संवार सकते हैं। अस्तु!
देशबंधु में 26 जुलाई 2018 को प्रकाशित 

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