Thursday 26 July 2018

रामचन्द्र सिंहदेव : विरल कोटि के व्यक्ति-2

                        

भारतीय राजनीति में ऐसे लोग धीरे-धीरे कर कम होते जा रहे हैं जिन्होंने राज के बजाय नीति को न सिर्फ अधिक महत्व दिया हो बल्कि उसे आत्मसात भी कर लिया हो। डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव लुप्त होती उस परंपरा के प्रतिनिधि थे। उनकी पुस्तिका 'सिविलाइजेशन इन हरी' की चर्चा देश-विदेश में बहुत हुई है। मेरे पिछले लेख में उसका जिक्र था। उन्होंने कुछ और लेख लिखे थे जो 'थॉट फॉर फुड' शीर्षक पुस्तिका में संकलित है। इन दोनों प्रकाशनों में उन्होंने पर्यावरण, जलसंरक्षण, खाद्यान्न संकट, कृषि नीति, वनोपज आदि ऐसे बुनियादी मुद्दों पर विचार किया है जो हर व्यक्ति के जीवनयापन से जुड़े हुए हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में जो कुछ पढ़ने-लिखने वाले विधायक और जनप्रतिनिधि हुए हैं उनमें रामचन्द्र सिंहदेव का नाम अग्रणी होगा। वे विधानसभा में तर्कसंगत बातें करते थे।
सदन के बाहर भी उन्होंने कभी निराधार बातें नहीं कीं। कलकत्ता में राजभवन के पास ही पुस्तकों की एक बड़ी पुरानी दूकान थी। वे अक्सर वहां से किताबें खरीदा करते थे। विश्व की जानी-मानी पत्रिका 'द इकॉनामिस्ट' और भारत की अग्रणी वैचारिक पत्रिका ई.पी.डब्ल्यू (इकॉनामिक एंड पोलिटिकल वीकली) के लेखों को वे रुचिपूर्वक पढ़ते थे और समानधर्मा मित्रों के साथ उन पर चर्चा भी करते थे। मुझे यहां अविभाजित मध्यप्रदेश की विधानसभा के अंतिम सत्र में दिया उनका भाषण ध्यान आता है। इसमें उन्होंने मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को यह कहते हुए बधाई दी थी कि अब आपका प्रदेश नक्सलवाद से मुक्त हो जाएगा और हमारे नवगठित प्रदेश को इस समस्या का समाधान खोजना पड़ेगा। तीन सौ बीस सदस्यों वाली विधानसभा में यह बिन्दु और किसी विधायक के ध्यान में नहीं आया। जिस तरह उन्होंने सोवियत संघ के पराभव को कोई पच्चीस साल पहले देख लिया था, वैसे ही यह भी उनकी दूरदृष्टि का प्रमाण था। कहना होगा कि गंभीर अध्ययन मनन से ही उन्होंने यह राजनीतिक दृष्टि हासिल की थी।
वरिष्ठ लेखक कांतिकुमार की पुस्तक 'बैकुण्ठपुर में बचपन' प्रकाशित हुई तो मैंने उसकी प्रति सिंहदेव जी को पढ़ने के लिए दी। चार-पांच दिन बाद वे मेरे दफ्तर आए। बोले- कांतिकुमार से बात करवाओ। मैंने फोन मिला दिया। सिंहदेव जी ने कांतिकुमार जी का ध्यान दो-तीन छोटी-मोटी तथ्यात्मक भूलों की ओर दिलाया। पुस्तक पर बधाई देते हुए उनसे आग्रह किया कि वे उनके पिता और कोरिया रियासत के राजा रामानुजशरण सिंहदेव के बारे में भी लिखें। यहां से दोनों के बीच नियमित संवाद का सिलसिला प्रारंभ हुआ। एक तरफ उन्होंने कोरिया के अपने परिचितों को बैकुण्ठपुर में बचपन पढ़ने के लिए प्रेरित किया तो दूसरी ओर कांतिकुमार ने भी कुमार साहब के आग्रह का आदर करते हुए कोरिया रियासत के अंतिम राजा पर पुस्तक लिखना शुरू किया।
सिंहदेव जी ने कांतिकुमार से फोन पर ही बहुत से संस्मरण साझा किए। पुराने फोटोग्राफ, पत्र और दस्तावेज उपलब्ध कराए और इस तरह कांतिकुमार की एक और पुस्तक 'एक था राजा' प्रकाश में आई। कांतिकुमार की इन दोनों पुस्तकों को साथ-साथ रखकर देखें तो तत्कालीन कोरिया रियासत की एक मुकम्मल तस्वीर हमारे सामने उभरती है। सिंहदेव जी, जिन्हें कुमार साहब के नाम से ही जाना जाता था, का मकसद अपने पिता का विरुद गायन नहीं बल्कि एक सामंत की जनहितैषी और प्रगतिशील रीति-नीति को सामने लाना था ताकि वर्तमान में उससे कुछ प्रेरणा ली जा सके। उन्होंने मुझे भी रियासतकाल की दो पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन के लिए आदेश दिया था जिसके लिए वित्तीय व्यवस्था भी उन्होंने करवा दी थी। एक थी 'कोरिया दरबार मैनुअल' और दूसरी थी 'जस्टिस इज द बेसिस ऑफ गर्वनमेंट'। इनको पढ़ने से पता चलता है कि कोरिया रियासत की ्रशासन नीति क्या थी।
सिंहदेव जी को कोरिया के बाद अगर कोई दूसरी जगह पसंद थी तो वह कोलकाता थी जहां उन्होंने अपनी युवावस्था बिताई और जहां पहुंचकर उन्हें एक बौद्धिक संतुष्टि मिलती थी। वे रायपुर के बारे में मुझसे कहते थे कि बताओ यहां किससे बात करूं! सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है। इस टिप्पणी के बावजूद वे अपने मन को निराश नहीं होने देते थे। बस्तर से उन्हें बहुत लगाव था। साल में एक बार तो वे जाते ही थे। उनके जाने का मतलब होता था वन विभाग के अधिकारियों की परेड। वे उनके साथ बस्तर के विकास पर चर्चा करते, दूरदराज के इलाकों का दौरा करते और फिर सुझाव देते कि आदिवासियों के सुरक्षित सम्मानपूर्वक जीवनयापन के लिए क्या किया जाए। वे चाहते थे कि बस्तर सहित प्रदेश के अन्य इलाकों में लाख का उत्पादन बड़े पैमाने पर हो जिससे विशेषकर आदिवासियों को रोजगार मिले। बस्तर में चाय, कॉफी और काजू की फसल लेने और उसका स्थानीय स्तर पर प्रसंस्करण करने का सुझाव भी वे देते थे। उन्होंने 1984 में बस्तर विकास योजना तैयार की थी। इसमें वे तमाम विचार संकलित हैं जो आज भी उपयोगी और प्रासंगिक हैं। उन्होंने इसी तरहजशपुर जिले में जैतून की बागवानी करने की सलाह सरकार को दी थी। इन सबसे जब वे थक जाते थे तो जो एक स्थान उन्हें प्रिय था वह था- महासमुंद। इस छोटे से नगर में पहुंच कर वे शांति का अनुभव करते थे। मुझे अगर ठीक याद है तो वे नया साल अक्सर महासमुंद में ही मनाते थे। पूर्व विधायक अग्नि चन्द्राकर इस बारे में विस्तार से बता सकते हैं। लेकिन जब तक समाजवादी नेता पुरुषोत्तम लाल कौशिक थे तब तक वे उनके साथ बैठकर घंटों जनोन्मुखी राजनीति पर चर्चाएं करते थे। 
डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव भारतीय सांस्कृतिक निधि  याने इंटैक के प्रारंभ से सदस्य थे और छत्तीसगढ़ में उसकी गतिविधियों में खासी दिलचस्पी लिया करते थे। यह श्रेय उन्हीं को जाता है कि सरगुजा, कोरिया और कवर्धा में इंटैक के जिला अध्याय स्थापित हो सके। जब उन्हें मालूम हुआ कि केन्द्र सरकार ने इंटैक को सौ करोड़ रुपए की एकमुश्त अनुदान निधि दी है तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार से भी हमें पांच करोड़ रुपए का एकमुश्त अनुदान मिल जाए तो प्रदेश की विरासत संपदा के संरक्षण की दिशा में काफी काम किया जा सकेगा। इसके लिए उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री को पत्र लिखा। यद्यपि उस पर कोई फैसला नहीं हो पाया। सिंहदेव जी की पर्यावरण में जो रुचि थी उसे देखकर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने एक बार उन्हें छत्तीसगढ़ के पेड़-पौधों पर संदर्भ ग्रंथ लिखने का आग्रह किया था। सिंहदेव जी किन्हीं कारणों से उनका अनुरोध स्वीकार नहीं कर पाए। लेकिन हां, वे अपने मित्रों, परिचितों के खेतों, बगीचों में जाना पसंद करते थे और उन्हें सलाह देते थे कि खेती को किस तरीके से लाभकारी बनाया जा सकता है।
डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव के मन में अपने गृहनगर बैकुण्ठपुर और कोरिया जिले का विकास सर्वोपरि था। इसके लिए वे बराबर सतर्क रहते थे कि जिले के कलेक्टर पद और अन्य प्रशासनिक पदों पर साफ-सुथरी छवि के अफसर नियुक्त हों। के.के. चक्रवर्ती ने बैकुण्ठपुर से ही अपने कॅरियर की शुरूआत की थी और वे आज भी सिंहदेव जी का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। मैं याद करता हूं कि दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में नीलम शम्मी राव पदस्थ थीं। एक बैठक में वे मिलीं तो उन्होंने मुझसे सबसे पहले यही पूछा कि सिंहदेव साहब कैसे हैं? उन्होंने भावुक होकर बैकुण्ठपुर को याद किया और कहा कि सिंहदेवजी मेरे लिए पिता समान थे। इधर दस-पन्द्रह साल में जो अन्य कलेक्टर आदि वहां रहे उनकी भी भावना शायद यही होगी।
उनका पुण्य स्मरण करते हुए आखिरी बात। वे चुनावी भ्रष्टाचार से बहुत व्यथित थे। एक दिन उन्होंने कहा लोग बहुत चतुर हो गए हैं। चुनाव की रात को अपनी झोपड़ी में ढिबरी जलाकर फटकी खुली रखते हैं कि अभी भी समय है, जिसको जो देना हो आकर दे जाए। बाकी वोट तो वे अपनी मर्जी से ही देते हैं। (समाप्त)

देशबंधु में 27 जुलाई 2018 को प्रकाशित 

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