Thursday 30 August 2018

राजनीति में नौकरशाह

                                             
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस संभवत: पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (उसे तब आईसीएस कहा जाता था) से इस्तीफा देकर राजनीति की राह पकड़ ली थी। यह 1920-21 की बात है। नेताजी की आयु उस समय मात्र चौबीस वर्ष थी। मुझे जितना याद है नेताजी का अनुकरण करने वाले दूसरे व्यक्ति हरि विष्णु कामथ थे। 1938-39 में वे जबलपुर में पदस्थ थे। जबलपुर के पास त्रिपुरी में कांग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन उन्हीं दिनों हुआ था। वे तभी नेताजी से प्रभावित हुए और आनन-फानन में आईसीएस से त्यागपत्र दे दिया। कामथ साहब सुभाष बाबू द्वारा स्थापित फारवर्ड ब्लाक के पहले महामंत्री थे। वे संविधान सभा के सदस्य भी रहे और जबलपुर से लगी होशंगाबाद सीट से लोकसभा के लिए  चार बार चुने गए। उनके अलावा मुझे आर.के. पाटिल का भी ध्यान आता है, वे भी गांधी जी से प्रभावित होकर आईसीएस छोड़कर राजनीति में आए। श्री पाटिल एक समय रायपुर के कलेक्टर थे और आगे चलकर पं. रविशंकर शुक्ल ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। रायपुर में स्टेशन चौक पर नेताजी की जो प्रतिमा स्थापित है उसका अनावरण उन्होंने मंत्री के रूप में किया था।
छत्तीसगढ़ की राजधानी याने रायपुर के कलेक्टर ओ.पी. चौधरी के भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा देकर राजनीति में प्रवेश करने की खबर हाल में पढ़ी तो ये सारे प्रसंग अनायास स्मृतिपटल पर उभर आए। श्री चौधरी स्वयं भी संभवत: इनसे वाकिफ होंगे! जाने-अनजाने वे उस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं जिसकी बुनियाद लगभग सौ साल पहले रखी गई थी। तब और अब के समय में बहुत बड़ा फर्क है। वह स्वाधीनता की लड़ाई का दौर था। सुभाष बाबू, कामथ साहब, पाटिल जी, ये सब गांधी मार्ग के अनुयायी थे। इन्हें गांधीजी ने नौकरी छोड़ने के लिए नहीं कहा था, लेकिन उनके मन में देश की आजादी का सपना पल रहा था; और ये सुख-सुविधा छोड़कर कांटों भरी राह पर चलने के लिए कृतसंकल्प सेनानी थे। इस परंपरा को जिन लोगों ने आगे बढ़ाया उन्हें मुझे सबसे पहले सी.डी. देशमुख का नाम ध्यान आता है। यह संयोग है कि श्री देशमुख ने भी आईसीएस में अपनी सेवा रायपुर से ही प्रारंभ की थी। यहां वे  शायद प्रशिक्षु अधिकारी के रूप में पदस्थ थे। श्री देशमुख तीस साल की सेवा के पश्चात 1948 में सेवानिवृत्त हुए।  
आर्थिक मामलों में उनकी प्रतिभा का लोहा अंग्रेज सरकार ने भी माना। वे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर बनने वाले पहले भारतीय थे। आजाद देश ने भी उनकी सेवाओं का लाभ लेने में संकोच नहीं किया। पंडित नेहरू ने 1950 में उन्हें अपनी कैबिनेट में वित्त मंत्री के रूप में शामिल किया। यहां स्पष्ट कर देना उचित होगा कि उन्होंने नौकरी से इस्तीफा तो नहीं दिया था, लेकिन वे उन प्रारंभिक व्यक्तियों में से थे जिन्होंने सरकारी सेवा के बाद सक्रिय राजनीति में लंबे समय तक हिस्सेदारी की। उनकी श्रेणी में सुशीलचन्द्र वर्मा को रखा जा सकता है जो 1960 के आसपास रायपुर के कलेक्टर थे, आगे चलकर भारत सरकार के सचिव और मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव बने और फिर भोपाल से चार बार लोकसभा के लिए चुने गए। 
1947 के पहले आजादी की लड़ाई थी, तो 1947 के बाद देश के नवनिर्माण का स्वप्न था। सी.डी. देशमुख, सुशीलचन्द्र वर्मा, यशवंत सिन्हा, राजमोहन गांधी जैसे कितने ही अधिकारी हैं जिन्होंने नेहरू युग में और फिर इंदिरा युग में स्वावलंबी, सक्षम, शक्तिशाली देश बनाने के लिए अपनी सेवाएं पहले नौकरशाह के रूप में और फिर राजनेता के रूप में दीं। यहां भारतीय विदेश सेवा से राजनीति में आए कुछ नाम भी लिए जा सकते हैं- जैसे के.आर. नारायणन, मणिशंकर अय्यर, हामिद अंसारी, मीरा कुमार इत्यादि। इनके समानांतर और इनकी तुलना में संख्या में बहुत अधिक वे अधिकारी भी थे जिन्होंने सरकार में रहकर सत्यनिष्ठा से काम किया और सेवानिवृत्त होकर अन्य कोई इच्छा, आकांक्षा रखे बिना पार्श्व में चले गए।
ओ.पी. चौधरी के सामने इन दोनों तरह के दृष्टांतों के अलावा रायपुर जिलाधीश कार्यालय का इतिहास भी था। हमने दो नाम तो पहले ही लिए हैं। आर. के. पाटिल और सुशीलचन्द्र वर्मा के अलावा अजीत जोगी और नजाब जंग का ध्यान आ जाना स्वाभाविक है। अजीत जोगी का उदाहरण आज की चर्चा के संदर्भ में अधिक मौजूं है। श्री जोगी और श्री चौधरी दोनों ग्रामीण परिवेश से आते हैं। श्री जोगी ने मई 1986 में मात्र चालीस वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। वे प्रदेश के सबसे प्रमुख जिला इंदौर के कलेक्टर थे और कुछ ही दिनों में आयुक्त या सचिव बनने वाले थे; किन्तु उन्होंने त्यागपत्र तब दिया जब शायद उनके राज्यसभा में जाने की बात पक्की हो चुकी थी। ओ.पी. चौधरी ने सैंतीस वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी छोड़ी है। उनका राजनीतिक भविष्य ऊपरी तौर पर अनिश्चित लगता है, लेकिन उन्होंने कुछ गुणा-भाग तो लगाया ही होगा! जिस तरह श्री जोगी उन दिनों अर्जुन सिंह  के विश्वस्त अधिकारी थे उसी तरह श्री चौधरी भी डॉ. रमन सिंह के विश्वासभाजन हैं।
ओ.पी. चौधरी ने अपना त्यागपत्र स्वीकृत हो जाने के बाद ट्विटर पर लिखा है कि वे अपनी माटी की सेवा करना चाहते हैं। उनके मनोगत का स्वागत है।  इन सारे रोचक किस्सों के बीच कुछेक बुनियादी पहलुओं पर ध्यान जाता है। मेरा मानना है कि आप जहां भी जिस भी स्थिति में हों, हर जगह देश और समाज की सेवा के अवसर होते हैं। राजनीति सेवा का न तो एकमात्र माध्यम है और न सर्वोपरि। सरकारी सेवा हो या जीवन का कोई अन्य क्षेत्र, सब में अपनी-अपनी तरह से समाज का ऋण चुकाने के मौके मिलते हैं। स्वाधीनता संग्राम के दिनों की बात कुछ और थी। उस समय के उदाहरण आज लागू नहीं हो सकते। नेहरू युग में देश की राजनीति का जो आदर्शवादी स्वरूप था वह धीरे-धीरे कर विकृत होते गया है, इसलिए आज के दिन राजनीति के माध्यम से सेवा करने का स्वप्न संजोना साहस का काम है। 
यहां समझ लेना उचित होगा कि सेवा से हमारा अभिप्राय मशीनी ढंग से काम करने से नहीं, बल्कि समाज में बेहतरी के लिए बदलाव लाने के प्रयत्नों से है। इस दृष्टि से विचार करें तो आईएएस अथवा अन्य किसी शासकीय सेवा छोड़कर राजनीति में आने मात्र से परिवर्तन की कोई निकट या दूर संभावना नजर नहीं आती। आज देश की राजनीति यथास्थिति की पोषक है, फिर सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो। बंकर राय, अरूणा राय, हर्षमंदर जैसे अधिकारियों ने आईएएस छोड़ी तो राजनीति में आने के बजाय उन्होंने गैरसरकारी क्षेत्र में काम करना पसंद किया। उन्हें जो कुछ भी सफलता मिली उसी में मिली। डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, एन.सी. सक्सेना, एस.आर. शंकरन और शरतचन्द्र बेहार जैसे व्यक्ति जो आईएएस में लंबे समय तक रहे और ऊंचे पदों पर काम किया, वे भी गैरसरकारी और गैरराजनीतिक मंचों पर काम करके ही यथास्थिति में बदलाव के एजेंडा को सार्वजनिक विमर्श में ला पाए। इस पृष्ठभूमि में ओ.पी. चौधरी कितना कुछ सफल हो पाएंगे। यह देखने की उत्सुकता बनी रहेगी।
भारत में सरकारी नौकरी की बात चलने पर एक सच्चाई की ओर बरबस ध्यान जाता है। हमारे यहां सरकारी नौकरी के साथ जीवनयापन की सुरक्षा का मुद्दा जुड़ा हुआ है। एक बार सरकारी नौकरी मिल जाए तो जीवन भर की आश्वस्ति हो जाती है। यह स्थिति आज से नहीं, न जाने कब से बनी हुई है। प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दरोगा' को याद कीजिए। सरकारी नौकरी मिल गई याने गंगा नहा लिए। इस लिहाज से सोचें तो ओ.पी. चौधरी ने नि:संदेह अपने भावी जीवन को दांव पर लगा दिया है। यदि वे कल को राजनीति में सफल न हो पाए तो उन जैसे प्रतिभाशाली युवक के लिए कार्पोरेट क्षेत्र में काम करने के अवसर होंगे। फिर भी आईएएस का जो रौब-रुआब है वह प्राइवेट सेक्टर में कहां? 
आखिरी बात। नौकरशाह सामान्य तौर पर परदे के पीछे रहकर काम करते हैं। उनका आम जनता के साथ संवाद तो होता है, लेकिन उनके और जनता के बीच एक संकोच, एक आड़ हमेशा बनी रहती है। चुनावी राजनीति में आने के बाद एक नौकरशाह को स्वयं अपने आपको पूरी तरह से बदलना होता है।  क्या ओ.पी. चौधरी मसूरी अकादमी से हासिल श्रेष्ठता का दंभ भूलकर आम जनता के साथ तादात्म्य बैठा पाएंगे? अगर वे ऐसा कर सके तो इस युवा नौकरशाह का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा।
 देशबंधु में 30 अगस्त 2018 को प्रकाशित 

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