विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान इस बार इंदौर, ग्वालियर और उज्जैन में बंद पड़ी कपड़ा मिलों का मुद्दा भी मतदाताओं ने उठाया। एक समय बीमार कर दी गईं इन मिलों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया गया था, लेकिन वह अन्तत: असफल सिद्ध हुआ। मालवा अंचल में व्यापक पैमाने पर कपास की खेती होती थी जिससे मिलों को कच्चा माल मिलता था। धीरे-धीरे रासायनिक प्रक्रिया से निर्मित वस्त्रों ने सूती वस्त्रों को चलन से लगभग बाहर कर दिया। छत्तीसगढ़ में राजनांदगांव में बीएनसी मिल्स की बनी मच्छरदानियां भारत प्रसिद्ध थीं। इसके लिए कपास कवर्धा व आसपास के क्षेत्र से आता था। कवर्धा में कपास साफ करने के लिए जिनिंग फैक्टरी थी, जो न जाने कब बंद हो गई। मैं कुछ दिन पहले चुनावों का जायजा लेने निकला तो बेमेतरा, बेरला, नवागढ़ क्षेत्र में कपास के खेत यहां-वहां दिखे।
कपास की नए सिरे से खेती एक नई संभावना को जन्म देती है। छत्तीसगढ़ में बीएनसी मिल्स तो थी, उसके साथ-साथ छुईखदान से लेकर पेंड्रावन तक हाथकरघे पर बुनकरी भी खूब होती थी, और आज भी किसी सीमा तक चल रही है। पुराने मध्यप्रदेश में नागपुर, जबलपुर, रायपुर हाथकरघा उद्योग के प्रमुख केंद्र थे और सहकारी क्षेत्र में इनका संचालन होता था। मेरा नई सरकारों को सुझाव होगा कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ दोनों में हाथकरघा को प्रोत्साहन दिया जाए। इससे रोजगार के विपुल अवसर उत्पन्न होंगे तथा सहकारी क्षेत्र का भी विकास हो सकेगा। कहना न होगा कि कपास उत्पादक किसानों को भी नकदी फसल के रूप में आय का एक बेहतर स्रोत मिलेगा। इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या हाथकरघा याने हैंडलूम के समानांतर पावरलूम का विकास संभव और व्यवहारिक है। छत्तीसगढ़ का कोसा तो प्रसिद्ध है ही। संबलपुरी वस्त्रों, खासकर साड़ी के नाम से विख्यात कपड़ों की बुनाई का बड़ा काम छत्तीसगढ़ से ही होता है। फिर भी प्रदेश को उसकी पहचान नहीं मिल पाई। इसलिए कि डिजाइन और कलात्मकता में हम अपनी प्रतिभा का पर्याप्त परिचय नहीं दे पाए। ध्यान दिया जाए तो वह भी एक आर्थिक लाभकारी गतिविधि हो सकती है।
रोजगार के अवसर सृजित करने में पर्यटन उद्योग की अहम भूमिका हो सकती है। राजस्थान इस दिशा में अपनी पहचान कायम कर चुका है, लेकिन मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में पर्यटन की जो अपार संभावनाएं हैं उनका शायद दस प्रतिशत भी हासिल नहीं किया जा सका है। सच कहें तो भारत में कहीं भी पर्यटन उद्योग का सही ढंग से विकास नहीं हुआ है। इस बारे में जो भी नीतियां बनती हैं उनका लक्ष्य अभिजात, सुखविलासी वर्ग को संतुष्ट रखना होता है। औसत भारतीय नागरिक भी एक पर्यटक होता है, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। हमारी समझ में अगली सरकार को घरेलू पर्यटन को बढ़ावा देने पर विचार करना चाहिए। आवश्यकता है कि तीर्थयात्री, विद्यार्थी और नौजवान और सीमित आय वाले पर्यटकों को ध्यान में रख सुविधाएं निर्मित की जाएं। पर्यटन स्थलों पर स्थानीय निवासियों के बीच पेईंगगेस्ट जैसी अवधारणा समझाई जाए। स्थानीय होटलों और ढाबों और गाइड आदि को भी समुचित प्रशिक्षण देना उपयोगी होगा। कुल मिलाकर स्थानीय जनता को यह समझाना होगा कि पर्यटन उद्योग उनके लिए आय बढ़ाने का एक बेहतरीन माध्यम हो सकता है। इस हेतु उन्हें तकनीकी सहायता व वित्तीय सहयोग भी देने पर विचार करना होगा।
इसी सिलसिले में मैं छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्यपाल शेखर दत्त की लगभग तीस बरस पहले की गई बात याद करता हूं। अमरकंटक हो या शिवरीनारायण, मांडू हो या सिरपुर, ऐसे पर्यटन स्थलों पर यदि वृद्धजनों के लिए आवासीय परिसर इस तरह विकसित किए जा सकें कि वहां पर्यटक भी आकर ठहर सकें तो इससे वृद्धजनों का एकाकीपन दूर होगा, साथ ही पर्यटकों को भी साफ-सुथरा, सुरक्षित व स्थानीय संस्कृति के अनुरूप माहौल मिल सकेगा। उत्तराखंड, मेघालय व कोड़ुगू अंचल में इसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं।
मैं किसी अन्य विषय को उठाने के पूर्व यहां मीडिया पर चर्चा करने की अनुमति पाठकों से चाहूंगा। यह दुर्भाग्य है कि गलत सरकारी नीतियों के कारण देश में मीडिया की विश्वसनीयता लगातार घटी है। वैसे तो 1990-91 में वैश्वीकरण के पदार्पण के साथ यह गिरावट शुरू हो गई थी, लेकिन इधर जो स्थिति बनी है वह अत्यन्त शोचनीय है। एक तरफ कारपोरेट और पूंजीमुखी मीडिया है, जिसकी सत्ताधारियों के साथ सांठगांठ रहती है। दूसरी तरफ चरण चुंबन करने वाला मीडिया है जिसने अपने पेशे को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन सत्ताधीशों का वरदहस्त इस पर बना रहता है। नई सरकार से हम अपेक्षा करना चाहेंगे कि मीडिया के स्वस्थ विकास की पहल की जाए। छोटे-छोटे केन्द्रों से प्रकाशित पत्रों के साथ भी न्याय किया जाए। विज्ञापन नीति एकाधिकार याने मोनोपली प्रेस को बढ़ावा देने वाली न हो।
ऑनलाइन मीडिया का आकलन उसकी विश्वसनीयता के आधार पर हो। याद रखना चाहिए कि मीडिया की भूमिका सरकार और जनता के बीच में पुल बनाने की है। जो सत्ताधीश आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते वे चाटुकारों से घिर जाते हैं और फिर उन्हें पता भी नहीं चलता कि उनके राज में क्या हो रहा है। हम याद करना चाहेंगे कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले तक हर सरकार बड़े-छोटे का भेद किए बिना अमूमन मीडिया के साथ बराबरी से व्यवहार रखती थी। रिजर्व बैंक की तो घोषित नीति थी कि समाचारपत्रों को लघु उद्योग का दर्जा देकर उसके अनुरूप सुविधाएं दी जाएं।
यह हमारा अनुभव है कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में प्रशासन व्यक्तिकेन्द्रित हो चुका है। एक अंग्रेजी कहावत है- 'यू शो मी द मैन, आई विल शो यू द रूल'। इसका अर्थ है कि सरकार कानून- कायदे से नहीं बल्कि व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से चलती है। इस प्रवृत्ति को पूरी तरह खत्म तो नहीं किया जा सकता, फिर भी चुनी हुई सरकार से यह अपेक्षा जनता करती है कि देश-प्रदेश में कानून का राज हो और किसी व्यक्ति या समूह के बारे में जो फैसला हो वह पूर्वाग्रह से मुक्त हो। इसके लिए आवश्यक होगा कि प्रशासन की सभी शाखाओं में अधिकतम सीमा तक अधिकारों का विकेन्द्रीकरण हो और छोटे से छोटा अधिकारी भी राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर निर्णय लेने में सक्षम हो। कांस्टेबल हो या शिक्षक, पटवारी हो या डॉक्टर, तबादला या पोस्टिंग में मंत्री की क्यों चले?
यह सर्वविदित है कि किसी प्रदेश की पहचान बनाने में उसके सांस्कृतिक परिदृश्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भोपाल में भारत भवन बना तो मध्यप्रदेश की चर्चा सारी दुनिया में होने लगी। आज दुर्भाग्य से स्थिति ठीक इसके विपरीत है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में सांस्कृतिक आयोजन तो बहुत होते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर फूहड़ और ऊबाऊ तमाशे ही होते हैं। स्थानीय जनता को संतुष्ट करने के लिए बिना सोचे-विचारे उत्सव स्थापित हो जाते हैं, फर्जी संस्थाओं को सरकारी अनुदान मिल जाता है। अधिकारियों और उनके चाटुकारों के परिजन स्वयंभू संस्कृतिकर्मी बन बैठते हैं। दर्जनों पुरस्कार दिए जाते हैं, लेकिन उनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं होती। यह पराभव देखकर जी बहुत दुखता है। हमारी राय में संस्कृति के व्यापार की समीक्षा करना आवश्यक है।
मुख्यमंत्री को यह समझना चाहिए कि रेवड़ियां बांटने से उनकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती। खासकर छत्तीसगढ़ में नई सरकार से मेरी अपेक्षा है कि सबसे पहले वह राजिम कुंभ के नाम पर होने वाले तमाशे को बंद करे। छत्तीसगढ़ पुरातात्विक संपदा का धनी प्रदेश है फिर भी दुखद है कि यहां आज तक पुरातत्व के लिए अलग से विभाग या निदेशालय नहीं बनाया गया है। साहित्य- संस्कृति के नाम पर जो पीठें बनीं उनमें एक के बाद एक अयोग्य लोग बैठाए गए हैं। मध्यप्रदेश की हालत भी अच्छी नहीं कही जा सकती। जबकि दोनों प्रदेशों में संस्कृति के विभिन्न आयामों से जुड़े ऐसे विद्वतजनों की कमी नहीं है जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ख्याति पाई है। इस पहलू पर एक सम्यक सोच विकसित करना आवश्यक है।
अभी मुद्दे और भी हैं। उन पर यथासमय विचार करेंगे।
देशबंधु में 30 नवंबर 2018 को प्रकाशित