Thursday, 29 November 2018

अपनी सरकार से अपेक्षाएं-2

                       
विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान इस बार इंदौर, ग्वालियर और उज्जैन में बंद पड़ी कपड़ा मिलों का मुद्दा भी मतदाताओं ने उठाया। एक समय बीमार कर दी गईं इन मिलों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया गया था, लेकिन वह अन्तत: असफल सिद्ध हुआ। मालवा अंचल में व्यापक पैमाने पर कपास की खेती होती थी जिससे मिलों को कच्चा माल मिलता था। धीरे-धीरे रासायनिक प्रक्रिया से निर्मित वस्त्रों ने सूती वस्त्रों को चलन से लगभग बाहर कर दिया। छत्तीसगढ़ में राजनांदगांव में बीएनसी मिल्स की बनी मच्छरदानियां भारत प्रसिद्ध थीं।  इसके लिए कपास कवर्धा व आसपास के क्षेत्र से आता था। कवर्धा में कपास साफ करने के लिए जिनिंग फैक्टरी थी, जो न जाने कब बंद हो गई। मैं कुछ दिन पहले चुनावों का जायजा लेने निकला तो बेमेतरा, बेरला, नवागढ़ क्षेत्र में कपास के खेत यहां-वहां दिखे।
कपास की नए सिरे से खेती एक नई संभावना को जन्म देती है। छत्तीसगढ़ में बीएनसी मिल्स तो थी, उसके साथ-साथ छुईखदान से लेकर पेंड्रावन तक हाथकरघे पर बुनकरी भी खूब होती थी, और आज भी किसी सीमा तक चल रही है। पुराने मध्यप्रदेश में नागपुर, जबलपुर, रायपुर हाथकरघा उद्योग के प्रमुख केंद्र थे और सहकारी क्षेत्र में इनका संचालन होता था। मेरा नई सरकारों को सुझाव होगा कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ दोनों में हाथकरघा को प्रोत्साहन दिया जाए। इससे रोजगार के विपुल अवसर उत्पन्न होंगे तथा सहकारी क्षेत्र का भी विकास हो सकेगा। कहना न होगा कि कपास उत्पादक किसानों को भी नकदी फसल के रूप में आय का एक बेहतर स्रोत मिलेगा। इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या हाथकरघा याने हैंडलूम के समानांतर पावरलूम का विकास संभव और व्यवहारिक है। छत्तीसगढ़ का कोसा तो प्रसिद्ध है ही। संबलपुरी वस्त्रों, खासकर साड़ी के नाम से विख्यात कपड़ों की बुनाई का बड़ा काम छत्तीसगढ़ से ही होता है। फिर भी प्रदेश को उसकी पहचान नहीं मिल पाई। इसलिए कि डिजाइन और कलात्मकता में हम अपनी प्रतिभा का पर्याप्त परिचय नहीं दे पाए। ध्यान दिया जाए तो वह भी एक आर्थिक लाभकारी गतिविधि हो सकती है।
रोजगार के अवसर सृजित करने में पर्यटन उद्योग की अहम भूमिका हो सकती है। राजस्थान इस दिशा में अपनी पहचान कायम कर चुका है, लेकिन मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में पर्यटन की जो अपार संभावनाएं हैं उनका शायद दस प्रतिशत भी हासिल नहीं किया जा सका है। सच कहें तो भारत में कहीं भी पर्यटन उद्योग का सही ढंग से विकास नहीं हुआ है। इस बारे में जो भी नीतियां बनती हैं उनका लक्ष्य अभिजात, सुखविलासी वर्ग को संतुष्ट रखना होता है। औसत भारतीय नागरिक भी एक पर्यटक होता है, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। हमारी समझ में अगली सरकार को घरेलू पर्यटन को बढ़ावा देने पर विचार करना चाहिए। आवश्यकता है कि तीर्थयात्री, विद्यार्थी और नौजवान और सीमित आय वाले पर्यटकों को ध्यान में रख सुविधाएं निर्मित की जाएं। पर्यटन स्थलों पर स्थानीय निवासियों के बीच पेईंगगेस्ट जैसी अवधारणा समझाई जाए। स्थानीय होटलों और ढाबों और गाइड आदि को भी समुचित प्रशिक्षण देना उपयोगी होगा।  कुल मिलाकर स्थानीय जनता को यह समझाना होगा कि पर्यटन उद्योग उनके लिए आय बढ़ाने का एक बेहतरीन माध्यम हो सकता है। इस हेतु उन्हें तकनीकी सहायता व वित्तीय सहयोग भी देने पर विचार करना होगा।
इसी सिलसिले में मैं छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्यपाल शेखर दत्त की लगभग तीस बरस पहले की गई बात याद करता हूं। अमरकंटक हो या शिवरीनारायण, मांडू हो या सिरपुर, ऐसे पर्यटन स्थलों पर यदि वृद्धजनों के लिए आवासीय परिसर इस तरह विकसित किए जा सकें कि वहां पर्यटक भी आकर ठहर सकें तो इससे वृद्धजनों का एकाकीपन  दूर होगा, साथ ही पर्यटकों को भी साफ-सुथरा, सुरक्षित व स्थानीय संस्कृति के अनुरूप माहौल मिल सकेगा। उत्तराखंड, मेघालय व कोड़ुगू अंचल में इसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं।
मैं किसी अन्य विषय को उठाने के पूर्व यहां मीडिया पर चर्चा करने की अनुमति पाठकों से चाहूंगा।  यह दुर्भाग्य है कि गलत सरकारी नीतियों के कारण देश में मीडिया की विश्वसनीयता लगातार घटी है। वैसे तो 1990-91 में वैश्वीकरण के पदार्पण के साथ यह गिरावट शुरू हो गई थी, लेकिन इधर जो स्थिति बनी है वह अत्यन्त शोचनीय है। एक तरफ कारपोरेट और पूंजीमुखी मीडिया है, जिसकी सत्ताधारियों के साथ सांठगांठ रहती है। दूसरी तरफ चरण चुंबन करने वाला मीडिया है जिसने अपने पेशे को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन सत्ताधीशों का वरदहस्त इस पर बना रहता है। नई सरकार से हम अपेक्षा करना चाहेंगे कि मीडिया के स्वस्थ विकास की पहल की जाए।  छोटे-छोटे केन्द्रों से प्रकाशित पत्रों के साथ भी न्याय किया जाए।  विज्ञापन नीति एकाधिकार याने मोनोपली प्रेस को बढ़ावा देने वाली न हो।
ऑनलाइन मीडिया का आकलन उसकी विश्वसनीयता के आधार पर हो। याद रखना चाहिए कि मीडिया की भूमिका सरकार और जनता के बीच में पुल बनाने की है।  जो सत्ताधीश आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते वे चाटुकारों से घिर जाते हैं और फिर उन्हें पता भी नहीं चलता कि उनके राज में क्या हो रहा है। हम याद करना चाहेंगे कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले तक हर सरकार बड़े-छोटे का भेद किए बिना अमूमन मीडिया के साथ बराबरी से व्यवहार रखती थी। रिजर्व बैंक की तो घोषित नीति थी कि समाचारपत्रों को लघु उद्योग का दर्जा देकर उसके अनुरूप सुविधाएं दी जाएं।
यह हमारा अनुभव है कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में प्रशासन व्यक्तिकेन्द्रित हो चुका है। एक अंग्रेजी कहावत है- 'यू शो मी द मैन, आई विल शो यू द रूल'। इसका अर्थ है कि सरकार कानून- कायदे से नहीं बल्कि व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से चलती है। इस प्रवृत्ति को पूरी तरह खत्म तो नहीं किया जा सकता, फिर भी चुनी हुई सरकार से यह अपेक्षा जनता करती है कि देश-प्रदेश में कानून का राज हो और किसी व्यक्ति या समूह के बारे में जो फैसला हो वह पूर्वाग्रह से मुक्त हो। इसके लिए आवश्यक होगा कि प्रशासन की सभी शाखाओं में अधिकतम सीमा तक अधिकारों का विकेन्द्रीकरण हो और छोटे से छोटा अधिकारी भी राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर निर्णय लेने में सक्षम हो। कांस्टेबल हो या शिक्षक, पटवारी हो या डॉक्टर, तबादला या पोस्टिंग में मंत्री की क्यों चले? 
यह सर्वविदित है कि किसी प्रदेश की पहचान बनाने में उसके सांस्कृतिक परिदृश्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भोपाल में भारत भवन बना तो मध्यप्रदेश की चर्चा सारी दुनिया में होने लगी। आज दुर्भाग्य से स्थिति ठीक इसके विपरीत है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में सांस्कृतिक आयोजन तो बहुत होते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर फूहड़ और ऊबाऊ तमाशे ही होते हैं। स्थानीय जनता को संतुष्ट करने के लिए बिना सोचे-विचारे उत्सव स्थापित हो जाते हैं, फर्जी संस्थाओं को सरकारी अनुदान मिल जाता है। अधिकारियों और उनके चाटुकारों के परिजन स्वयंभू संस्कृतिकर्मी बन बैठते हैं। दर्जनों पुरस्कार दिए जाते हैं, लेकिन उनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं होती। यह पराभव देखकर जी बहुत दुखता है। हमारी राय में संस्कृति के व्यापार की समीक्षा करना आवश्यक है।
मुख्यमंत्री को यह समझना चाहिए कि रेवड़ियां बांटने से उनकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती। खासकर छत्तीसगढ़ में नई सरकार से मेरी अपेक्षा है कि सबसे पहले वह राजिम कुंभ के नाम पर होने वाले तमाशे को बंद करे। छत्तीसगढ़ पुरातात्विक संपदा का धनी प्रदेश है फिर भी दुखद है कि यहां आज तक पुरातत्व के लिए अलग से विभाग या निदेशालय नहीं बनाया गया है। साहित्य- संस्कृति के नाम पर जो पीठें बनीं उनमें एक के बाद एक अयोग्य लोग बैठाए गए हैं। मध्यप्रदेश की हालत भी अच्छी नहीं कही जा सकती। जबकि दोनों प्रदेशों में संस्कृति के विभिन्न आयामों से जुड़े ऐसे विद्वतजनों की कमी नहीं है जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ख्याति पाई है। इस पहलू पर एक सम्यक सोच विकसित करना आवश्यक है।
अभी मुद्दे और भी हैं। उन पर यथासमय विचार करेंगे।
 देशबंधु में 30 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 28 November 2018

अपनी सरकार से अपेक्षाएं-1

                                       

 इस वक्त क्या यह बेहतर नहीं होगा कि विधानसभा चुनावों में जीत-हार के बारे में अटकलबाजी करने के बजाय बात इस पर की जाए कि हम सरकार बनाने के लिए जिन्हें चुनेंगे उनसे भविष्य के प्रति हमारी क्या अपेक्षाएं हैं? सरकार कांग्रेस की बने या भाजपा की या किसी गठजोड़ की, उसमें लोग तो वही होंगे जिन्हें हमने चुना होगा। मैंने इसी कॉलम में कुछ समय पूर्व 'मेरा चुनावी घोषणापत्र' और 'रोशनी का घोषणापत्र' शीर्षक से दो लेख लिखे थे।  इनमें मैंने  संक्षेप में और अधिकतर संकेतों में आगामी सरकार के विचारार्थ कुछ बिन्दु रखे थे। आज उनमें से कुछ बिन्दुओं पर मैं विस्तारपूर्वक बात करना चाहूंगा। मकसद यही है कि हम एक सजग और सतर्क नागरिक समुच्य के रूप में अपनी भूमिका निभाएं। सिर्फ वोट डाल कर आ जाने से हमारा काम पूरा नहीं होता। हमें स्वयं याद रखना चाहिए और सत्ताधीशों को समय-समय पर स्मरण कराते रहना चाहिए कि हम सिर्फ मतदाता या मूकदर्शक नहीं हैं; और यह भी कि जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए पांच साल तक चुप बैठे रहना ठीक नहीं है।

मेरा पहला प्रस्ताव छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में है और यह इस प्रदेश में दशकों से विद्यमान नक्सल समस्या को लेकर है। मैं चाहूंगा कि अगली सरकार जिस भी पार्टी की हो, वह इस जटिल मुद्दे पर पूरी ईमानदारी और गंभीरता के साथ विचार करे। एक नई पहल के लिए मैं एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की सिफारिश करता हूं जिसमें सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक अध्यक्ष हों तथा सदस्य के रूप में प्रोफेसर दीपक नैय्यर (दिल्ली वि.वि. के पूर्व कुलपति व अर्थशास्त्री), एम.एल. कुमावत (पूर्व महानिदेशक सीमा सुरक्षा बल) व प्रोफेसर नदीम हसनैन (विख्यात समाजशास्त्री) शामिल हों।  ये सभी अपने-अपने क्षेत्र की जानी-मानी हस्तियां हैं व इनकी विवेक बुद्धि व विवेचन क्षमता असंदिग्ध है।
यह समिति छत्तीसगढ़ में नक्सल मोर्चे पर की गई अब तक की तमाम नीतियों व कार्रवाईयों का पुनरीक्षण करे और बस्तर में शांति के लिए अपने सुझाव दे। सलवा जुड़ूम, पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों द्वारा की गई कार्रवाईयां, आदिवासियों की गिरफ्तारियां, पत्रकारों व नागरिक समूहों के साथ टकराव, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, निर्मला बुच कमेटी के समक्ष आए सुझाव जैसे तमाम मुद्दों पर यह समिति विचार करे। मैं इसमें एक प्रस्ताव अपनी ओर से  भी जोड़ना चाहूंगा कि बस्तर में मुख्य सचिव स्तर का एक शक्तिसम्पन्न अधिकारी पदस्थ किया जाए ताकि स्थानीय स्तर पर आवश्यकता पड़ने पर अविलंब निर्णय लिए जा सकें।
अगला बिंदु स्थानीय स्वशासन के बारे में है। इसमें 73वां व 74वां दोनों संविधान संशोधन विधेयक शामिल हैं।  चूंकि ये विधेयक राज्य सरकारों को अपने स्तर पर नियम-उपनियम बनाने की शक्ति देते हैं, इसलिए यहां पुनर्विचार करना वांछित है कि प्रदेशों में जो नियम लागू हैं वे संविधान की भावनाओं के अनुकूल हैं या नहीं। मुझे दो बड़े अंतर्विरोध स्पष्ट दिखाई देते हैं। जब केन्द्र और राज्य में मुखिया का निर्वाचन चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं तो नगरीय निकायों और पंचायतीराज संस्थाओं में सरपंच से लेकर महापौर तक के चुनाव सीधे करने में क्या तुक है? इनके चुनाव भी पंचों और पार्षदों के बीच में से होना चाहिए। दूसरे पंचायती राज संस्थाओं में गैरदलीय पद्धति से चुनाव करवाना भी वांछित नहीं है। अगर गांव-गांव में पंचों के चुनाव दलगत आधार पर हो तो इससे जमीनी स्तर पर पार्टी भी मजबूत होगी और पंचायत के प्रबंध में भी किसी हद तक अनुशासन बना रहेगा। यह भी विवेचना का विषय है कि स्थानीय स्वशासी संस्थाओं को आगे और कैसे मजबूत किया जाए।
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में धान का समर्थन मूल्य पच्चीस सौ रुपया और सोयाबीन का पांच हजार रुपए करने का वचन दिया है। किसानों की कर्जा माफी की बात तो की ही गई है। वह खैर, एक बार की बात है। इससे अधिक महत्वपूर्ण घोषणा समुचित समर्थन मूल्य की है। इस बारे में निरंतर समीक्षा होते रहना चाहिए ताकि किसानों को बिना आंदोलन किए यथासमय युक्तिसंगत कीमत प्राप्त होती रहे। छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय कृषि मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. दिनेश मरोठिया जैसे विशेषज्ञ उपलब्ध हैं। ऐसे विद्वानों की राय से कृषि क्षेत्र के लिए एक दीर्घकालीन नीति बनाई जा सकती है ताकि किसानों को बार-बार ऋणग्रस्तता के दलदल में न फंसना पड़े और न उन्हें क्षणिक लाभ के लिए बीच-बीच में झुनझुने पकड़ाने की जरूरत आन पड़े। गैरकृषक निम्न आय वर्ग को सस्ता अनाज कैसे उपलब्ध हो अर्थात सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सही ढंग से लागू करना  इसी विषय का दूसरा एवं अनिवार्य पहलू है। 
हमारे यहां एक कहावत चली आ रही है-पैडी एण्ड पावर्टी गो टूगेदर अर्थात धान और गरीबी साथ-साथ चलते हैं। यह बात सरासर झूठ है। अन्यथा चावल मिल मालिक कैसे करोड़पति और अरबपति हो जाते हैं? मैं अपने पुराने सुझाव को दोहराऊंगा कि राईस मिल को जॉब वर्क की तरह सिर्फ मिलिंग करना चाहिए जिसका एक रेट तय किया जा सकता है। धान से लेकर चावल तक पर किसान का अधिकार हो। उसमें पंचायत, सहकारी बैंक, ग्रामीण बैंक, सहकारी संस्थाएं, भारतीय खाद्य निगम और वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन नीतिगत मदद करें ताकि किसान को खाद, बीज खरीदने से लेकर चावल बेचने तक किसी तरह की अनावश्यक कठिनाई का सामना न करना पड़े। इसे सुनिश्चित करने में ग्राम पंचायत की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
भारत एक कृषिप्रधान देश होने के अलावा पशुप्रधान देश भी है। गोवंश का पालन और संरक्षण आम भारतीय की भावनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा है, लेकिन यहां भी जनता सब कुछ सरकार पर छोड़ कर अपना पल्ला झाड़ लेती है।  दूसरी ओर गोवंश संरक्षण के नाम पर देश में गौ-गुंडों की एक फौज खड़ी हो गई है। मेरा मानना है कि हरेक ग्राम पंचायत को एक वृहद गौशाला परिसर का निर्माण करना चाहिए जिसमें हर स्तर पर मवेशियों की देखभाल हो। एक तरफ दुग्ध उत्पादन, दूसरी ओर गोबर गैस से बिजली का उत्पादन, दो तरह से लाभकारी आर्थिक गतिविधियां संचालित हो सकती हैं। महात्मा गांधी ने तो मरे हुए जानवरी की खाल और हड्डी के उपयोग को भी स्वीकार किया था। अभी आवारा मवेशियों के कारण जो सड़क दुर्घटनाएं होती हैं वे बहुत चिंताजनक हैं। सुचारु गौशाला परिसर होने से इस पर रोक लगेगी। गोबर गैस का उपयोग होने से बिजली उत्पादन में पर्यावरण को होने वाली क्षति में भी कमी आएगी।
कांग्रेस और भाजपा दोनों शराबबंदी के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुके हैं, लेकिन यह काम सरल नहीं है क्योंकि हर व्यक्ति को कोई न कोई व्यसन होता है। भारत में एक समय अफीम, भांग, गांजा, चरस इन पर कोई रोक नहीं थी। किसी समय हमने अमेरिका की देखा-देखी इन पर रोक लगा दी थी। ये व्यसन न तो महंगे हैं और न ही बहुत ज्यादा नुकसानदायक। अब मैक्सिको, कोलंबिया, बोलीविया इत्यादि देशों के अलावा अमेरिका के भी अनेक राज्यों में भांग और चरस के उपभोग की आंशिक अनुमति दे दी गई है। इस बारे में राज्यों और केन्द्र को मिलकर विचार करना चाहिए कि शराब के विकल्प के रूप में क्या भांग इत्यादि के सीमित उपभोग की अनुमति दी जा सकती है? वृद्धजन, पर्यटन, मीडिया, उद्योग, कुटीर उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर भी सुझाव हैं, वे अगले अंक में। (कल जारी)
देशबंधु में 29 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 21 November 2018

गुरुजी याने डॉ. हरिशंकर शुक्ल

                              
मई 1976 का कोई दिन। तारीख याद नहीं। भोपाल बस स्टैण्ड। विदिशा जाने वाली बस में कुछ सवारियां बैठ चुकी थीं। कुछ यात्री मोटर चालू होने के इंतजार में बाहर खड़े थे। बस पर सामान चढ़ रहा था। उसमें तरबूज का एक भारी-भरकम पिटारा भी था। एक व्यक्ति नीचे से तरबूज ऊपर फेंक रहा था और बस की छत पर चढ़ा उसका साथी लपक रहा था। इस बीच एक मजेदार वाकया हुआ। कोई चालीस साल का औसत कद-काठी का व्यक्ति देखते ही देखते छत पर चढ़ गया और उसने नीचे से आ रहे तरबूजों को बड़ी कुशलता से झेलकर ऊपर के पिटारे में रखना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति के नीचे जो साथी थे वे इस खेल को देखकर कुछ हैरान से थे लेकिन अपने साथी के करतब पर प्रशंसा भाव भी उनकी आंखों से झलक रहा था। ये सभी लोग छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों के लेखक मित्र थे जो मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ऐतिहासिक विदिशा अधिवेशन में भाग लेने जा रहे थे। उनके ये बिंदास साथी थे- डॉ. हरिशंकर शुक्ल, दुर्गा महाविद्यालय रायपुर में हिन्दी के प्राध्यापक और इलाहाबाद वि.वि. में तैराकी के स्वर्ण पदक विजेता होने के साथ अनेक खेलों के ब्लेजरधारी।
डॉ. हरिशंकर शुक्ल की ख्याति एक लोकप्रिय और विद्वान अध्यापक की थी, किन्तु उनके खिलाड़ी रूप से साथी लोग अपरिचित ही थे। उनके स्वभाव में एक संकोच सा था जो उन्हें आत्मप्रचार करने से रोकता था। यहां तक कि अपने लिखे उपन्यासों और गीतों की चर्चा भी वे नहीं करते थे। वे एक ऐसे शिक्षक थे जो नए-पुराने नोट्स देखकर नहीं बल्कि दिल से पढ़ाते थे। उन्हें क्लासिक से लेकर आधुनिक कवियों तक की सैकड़ों कविताएं कंठस्थ थीं। निराला की 'राम की शक्ति पूजा' जैसी कठिन और लंबी कविता भी उन्हें कंठस्थ थीं जिसे वे पूरे आरोह-अवरोह के साथ सुनाते थे। कविता हो या कहानी या उपन्यास, व्याख्या करने के लिए उन्हें किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती थी। इसकी प्रमुख वजह शायद यह थी कि वे एक अत्यन्त अध्ययनशील व्यक्ति थे। मैं अगर कहूं कि वे ज्ञानपिपासु थे तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।
डॉ. हरिशंकर शुक्ल को किताबों से बेपनाह मोहब्बत थी। उस समय निजी म.वि. के सीमित वेतन और बाद में सीमित पेंशन से यथासंभव वे पुस्तकें खरीदा करते थे। उन्होंने बहुत सुचारु ढंग से अपनी निजी लाइब्रेरी बना ली थी।  हर किताब पर पढ़ने के पहले वे कवर चढ़ाते थे और उन्हें पता होता था कि किस अलमारी में कौन सी किताब कहां रखी है। पुस्तक संचय का यह शौक उन्हें अंतत: बना रहा। मुझे जितना मालूम है परीक्षा कार्य से उन्हें जो भी आय होती थी उसे पूरा का पूरा वे पुस्तक खरीदने में लगा देते थे। वे अन्य पुस्तक-प्रेमी मित्रों से पुस्तकें उधार लेकर भी पढ़ते थे, लेकिन उनकी बड़ी खूबी थी कि पढ़ने के बाद नियमत: उसे लौटा देते थे। उनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर पत्नी उनका पहला प्रेम थीं तो पुस्तकें दूसरा। इसके अलावा वे हिन्दी की तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं भी खरीद कर पढ़ते थे और इस तरह हिन्दी साहित्य की नवीनतम प्रवृत्तियों से खुद को परिचित रखते थे।
मैं जब 1964 में एम.ए. करने के लिए रायपुर लौटा तब कुछ ही दिनों के भीतर जिन लोगों से मेरा परिचय हो गया था उनमें हरि ठाकुर, नरेन्द्र देव वर्मा, प्रभाकर चौबे, जमालुद्दीन आदि के अलावा डॉ. हरिशंकर शुक्ल भी थे। इन सबसे मेरा परिचय दा याने राजनारायण मिश्र ने कराया था। मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. करना चाहता था। डॉ. शुक्ल ने सलाह दी- हिन्दी में तुम्हारे डिस्टिंक्शन मार्क (75 प्रतिशत से ऊपर) हैं तो तुम्हें हिन्दी में एम.ए. करना चाहिए। मैंने पूछा- पढ़ाएगा कौन? उनका उत्तर था- हम पढ़ाएंगे। मैंने प्रत्युत्तर में कहा- तब तो आपको शुक्लाजी कहने के बजाय गुरुजी कहना पड़ेगा। उन्होंने जवाब दिया- हां, ठीक है। हम तुम्हारे गुरुजी हो जाएंगे। मैंने उन्हें कभी सर कहकर संबोधित नहीं किया। वे धीरे-धीरे मेरे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के  तमाम साहित्यिक मित्रों के बीच गुरुजी के नाम से ही लोकप्रिय हो गए। 
गुरुजी से मित्रता तो 1964 के ग्रीष्मावकाश में साथ-साथ ताश खेलने के साथ हुई थी। लेकिन फिर वे मेरे अध्यापक बन गए। कई मायनों में मार्गदर्शक रहे। हम पारिवारिक मित्र तो क्या, एक-दूसरे के परिवार के सदस्य ही बन गए और प्रदेश की साहित्यिक व सामाजिक गतिविधियों में हम लोगों ने मिलकर बरसों काम किया और देश-प्रदेश की अनेक यात्राओं में हम सहयात्री भी रहे। मैंने हिन्दी साहित्य में एम.ए. तो उनकी प्रेरणा से किया ही, दो अन्य मौकों पर उनका मार्गदर्शन बेहद कीमती साबित हुआ। मैंने एम.ए. करने के बाद पीएचडी करने की ठानी। पंजीयन करवा लिया। कुलपति डॉ. बाबूराम सक्सेना ने साक्षात्कार भी ले लिया, लेकिन गुरुजी ने यह कहकर मुझे रोक दिया कि तुम्हें अखबार के काम में बाबूजी का हाथ बंटाना चाहिए। कुछ समय बाद मन में आई.ए.एस. बनने की लहर उठी। तब भी गुरुजी ने बड़े भाई के अधिकार से मुझे रोक दिया। आज मैं यदि पत्रकारिता में कहीं हूं तो गुरुजी की समयोचित प्रेरणा भी इसका एक कारण है।
1974-75 में जब राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ पुनर्जीवित हुआ तो प्रारंभ में छत्तीसगढ़ में हम चार साथियों ने उसका बीड़ा उठाया था- प्रभाकर चौबे, डॉ. हरिशंकर शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल और ललित सुरजन। आगे चलकर मलय, राजेश्वर सक्सेना और रमाकांत श्रीवास्तव भी साथ में जुड़ गए थे।  हमने 4-5-6 मार्च 1978 को चंपारण में प्रलेस का पहला रचना शिविर आयोजित किया था। इसे लेकर हम सबके मन में बहुत उत्साह था। इस अवसर पर हमने चंपारण घोषणापत्र जारी करने के बारे में सोचा और उसका मसौदा तैयार करने का दायित्व डॉ. हरिशंकर शुक्ल को सौंपा गया। उन्होंने घोषणापत्र तैयार किया। उस पर पन्द्रह दिन तक हम चार लोगों ने बैठकर लगातार चर्चा की और 4 मार्च 1978 की सुबह शिविर के प्रारंभ में उसे जारी किया गया। 
गुरुजी प्रगतिशील लेखक संघ से तो जुड़े ही रहे। रायपुर में इप्टा के गठन और आगे की गतिविधियों में भी उन्होंने लंबे समय तक दिलचस्पी ली। वे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी रायपुर आने के बाद से ही जुड़े रहे और सम्मेलन के विभिन्न कार्यक्रमों में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। मुझे जहां तक पता है, वे सम्मेलन के एक समय महामंत्री रहे ठाकुर हरिहर बख्श सिंह हरीश के मार्गदर्शन में संचालित, हिन्दी साहित्य मंडल की गोष्ठियों में नियमित भाग लेते थे। बहरहाल, नया राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संरक्षक सदस्य बने और इसके लिए आवश्यक राशि भी उन्होंने अपने मन से दी। यह सम्मेलन और साहित्य से उनके आत्मिक जुड़ाव का ही उदाहरण था। 
1985 में जब भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के रायपुर अध्याय की स्थापना हुई, तो वे उसके भी सदस्य बने। इतिहास और पुरातत्व में उनकी बेहद रुचि थी। विगत पचास वर्षों में वे भारत-सोवियत मैत्री संघ (इस्कस) अखिल भारतीय शांति और एकजुटता संघ (एप्सो) में भी सक्रिय रहे। जब तक उनका स्वास्थ्य साथ देता रहा वे इन प्रगतिशील संस्थाओं के कार्यक्रमों में भागीदारी निभाते रहे। गुरुजी के बारे में लिखने के लिए बहुत कुछ है।  वे जहां मैदान के खिलाड़ी थे वहीं इंडोर गेम्स में भी उन्हें महारत हासिल थी। शतरंज, ताश, चाइनीज़ चेकर जैसे खेलों में मैंने उन्हें कभी हारते नहीं देखा। उनका व्यक्तित्व निर्मल और पारदर्शी था।  संतोष, संतुलन और संयम उनके जीवन के अमूल्य मंत्र जैसे थे। उनका छोटा सा परिवार था, जिसमें हमारी भौजी श्रीमती मनोरमा शुक्ल और दोनों बेटियां पारमिता और संगीता ने सुख-शांतिमय बनाए रखने में अपनी भूमिका अच्छे से निभाई। 13 नवम्बर 2018 को गुरुजी के जाने के बाद छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिवेश में और मेरे अपने जीवन में सूनापन कुछ और बढ़ गया है। लेकिन मुझे विश्वास है कि गुरुजी ने स्वर्गलोक पहुंचकर देवताओं को चाइनीज़ चेकर सिखाना प्रारंभ कर दिया होगा।
 देशबंधु में 22 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 14 November 2018

बदलाव की बयार बनाम इलेक्शन मैनेजमेंट



छत्तीसगढ़ की नब्बे विधानसभा सीटों में से अठारह पर 12 नवंबर को मतदान के साथ विधानसभा चुनावों का पहला चरण सम्पन्न हुआ। बस्तर संभाग के पांच जिलों और राजनांदगांव जिले की इन सीटों के बारे में राजनीतिक पर्यवेक्षकों को  खासी दिलचस्पी थी। इसका एक कारण तो राजनांदगांव क्षेत्र से मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का स्वयं उम्मीदवार होना था जहां उनके मुकाबले में भाजपा छोड़ कांग्रेस में आईं पूर्व सांसद और अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला मैदान में थीं। जहां तक बस्तर की बात है अबूझमाड़ इस विशाल प्रांतर का एक हिस्सा ही है, लेकिन बाकी दुनिया के लिए समूचा बस्तर ही अबूझ और रहस्यमय इलाका है। बस्तर अनेक कारणों से दिलचस्पी का केन्द्र रहा है, लेकिन चुनावी संदर्भ में यह मान्यता बन गई है कि छत्तीसगढ़ में राजनीति की दिशा बस्तर के चुनाव परिणामों से तय होती है। यह कुछ-कुछ वैसी ही बात है जैसे कभी कहा जाता था कि बंगाल की राजनीति भारत की दिशा तय करती है।
बस्तर के बारे में यह मान्यता शायद 2003 के विधानसभा चुनाव परिणामों के चलते बन गई और अभी तक चली आ रही है। यही वजह है कि दिल्ली हो या चेन्नई, कोलकाता हो या मुंबई, जो भी पत्रकार या शोधार्थी छत्तीसगढ़ आता है तो सबसे पहले बस्तर का रुख करता है। इस इलाके में लंबे अरसे से चली आ रही नक्सली गतिविधियों ने भी बस्तर के प्रति एक रूमानियत का भाव सा जगा दिया है। राजनांदगांव जिला चूंकि बस्तर की सरहद को छूता है इसीलिए वहां भी नक्सलियों की उपस्थिति लगातार बनी हुई है। इस मुकाम पर विषयांतर की जोखिम लेकर भी एक ताजा किस्सा पाठकों से साझा करने के लोभ से मैं नहीं बच पा रहा हूं। पिछले दिनों एक नामी-गिरामी चैनल के एक वरिष्ठ पत्रकार ने रिपोर्ट जारी की कि उसने कैसे सीआरपीएफ के साथ घूमकर अपनी जान को खतरे में डालकर नक्सली क्षेत्र की रिपोर्टिंग की। बाद में खुलासा हुआ कि यह एक पूरा नाटक रचा गया था और इसमें वास्तविकता का लेशमात्र भी नहीं था। मैंने जिस रूमानियत की बात की यह उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
बहरहाल पहले चरण का मतदान सम्पन्न हो गया। बस्तर में शायद चौबीस हजार सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे ताकि चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो सके। मतदान दलों को बीहड़ इलाकों में हेलीकाप्टर से भेजा गया। जिन गांवों में नक्सली वारदातों का खतरा था उनके लिए कई किलोमीटर दूर सुरक्षित समझे जाने वाले इलाके पर मतदान केन्द्र बनाए गए और पुलिस की भारी चौकसी के बीच मतदाताओं को वहां तक लाने के प्रबंध किए गए। छत्तीसगढ़ अकेला राज्य है जहां दो चरणों में मतदान हो रहा है उसकी वजह यही है कि बस्तर के संवेदनशील इलाकों की सुरक्षा प्रबंध करना लाजिमी था। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। नक्सलवादी हर आम चुनाव के पहले बदस्तूर मतदान बहिष्कार की अपील करते हैं। उसके जवाब में सरकार जनता को उसके मताधिकार का प्रयोग करने के लिए हरसंभव प्रयत्न करती है।
इस बार के प्रबंध पिछली बार के मुकाबले कहीं ज्यादा सघन थे। उम्मीद की गई थी कि इन प्रबंधों को देखते हुए मतदान प्रतिशत में अच्छी खासी बढ़ोतरी होगी। प्रारंभिक रिपोर्टों में बताया गया कि नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान का कोई फर्क नहीं पड़ा और मतदाताओं ने बढ़-चढ़ कर मतदान में भाग लिया। मतदान के एक-दो दिन पहले छुटपुट हिंसक वारदातें भी हुईं, जो पिछली बार भी हुई थीं। लेकिन 2013 और 2018 की तुलना करें तो ऐसा लगता नहीं है कि इस बार पहले के मुकाबले मतदान के प्रतिशत में कोई अधिक बढ़ोतरी हुई हो; बल्कि पहले कम मतदान की सूचना आई थी और बाद में मिले संशोधित आंकड़े पिछली बार के आसपास ही हैं।
मतदान के एक दिन पहले याने 11 नवंबर की रात को एकाएक खबर फैली कि सत्तारूढ़ पार्टी मतदान में भारी धांधली करवाने जा रही है। यह खबर क्यों और कैसे फैली इसका कोई सिरा पकड़ में नहीं आया। एक जानकारी अवश्य यह मिली कि नक्सली खेमे से ही खबर फैलाई गई थी, जिसे छत्तीसगढ़ तो क्या दिल्ली के भी कुछ पत्रकारों ने लपक लिया। सोशल मीडिया पर खबर फैल गई। कुल मिलाकर इससे कांग्रेस खेमे में एकाएक हड़कंप मच गया। मेरा अनुमान है कि यह अफवाह कांग्रेसियों का मनोबल गिराने के लिए फैलाई गई थी। वरना मेरे सूत्रों का कहना है कि छोटी-मोटी गड़बड़ियां तो चलती रहती हैं, बड़े पैमाने पर कहीं कोई गड़बड़ियां नहीं हुई हैं। चूंकि चुनावों के समय विरोधियों को पस्त करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं तो मानना चाहिए कि यह खबर या अफवाह भी उसी तरह की एक चाल थी। आने वाले दिनों में  ऐसे नजारे और भी देखने मिलेंगे!
खैर! अब सबका ध्यान दूसरे चरण के मतदान और शेष चार प्रदेशों के चुनावों पर लग गया है। इस बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि हार-जीत की भविष्यवाणियों के परे प्रदेश और प्रदेश के बाहर के पत्रकारों ने इस पहले चरण को किस तरह देखा है। मेरी जितने लोगों से बात हुई है उन सभी का लगभग एक स्वर से कहना है कि परिवर्तन की बयार बह रही है। वे इसके कुछ कारण भी गिनाते हैं जो उन्होंने चुनावी दौरों में आम जनता से बातचीत कर समझे हैं। सबका कहना है कि भ्रष्टाचार इस बार एक बहुत बड़ा मुद्दा है। नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचार खत्म करने के चाहे जितने दावे करते रहें, छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है और डॉ. रमन सिंह अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद उस पर रोक नहीं लगा सके हैं।
भ्रष्टाचार के साथ अहंकार भी एक गंभीर मुद्दा बन कर उभरा है। भाजपा के छुटभैया नेताओं ने आम जनता को ही नहीं, सरकारी कर्मचारियों को भी त्रस्त कर रखा है। मंत्रियों का तो कहना ही क्या! एकाध को छोड़कर कोई सीधे मुंह बात नहीं करता। सुनते हैं कि डॉ. रमन सिंह इस बार बहुत से मंत्रियों और विधायकों के टिकट काट देना चाहते थे, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने अलग पैमाने बनाए और उस आधार पर टिकटों का वितरण हुआ। युवाओं के बीच में बेरोजगारी का प्रश्न भारी है। पिछले कुछ समय में अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी है, कितने ही कारखाने बंद हो गए हैं या ले-दे कर चल रहे हैं, व्यापार-व्यवसाय में दीपावली के बाद भी चमक नहीं आई है। ऐसे में नौजवान या तो ताश खेलकर समय काट रहे हैं या स्मार्टफोन से मन बहला रहे हैं। उनका आंतरिक क्षोभ क्या रंग लाएगा यह देखने वाली बात होगी।
एक दिलचस्प बात यह सुनने को मिली कि छत्तीसगढ़ में नरेन्द्र मोदी का कोई जादू नहीं है। उनकी बातों पर जनता ने एतबार करना बंद कर दिया है। वे जनसभाओं में जिस तरह बात करते हैं वह छत्तीसगढ़ की जनता के मिजाज के खिलाफ है। वही हाल अमित शाह का है। चुनाव में अगर भाजपा का कोई चेहरा है तो वह रमन सिंह का है। वे कल तक तो राजनांदगांव में ही फंसे हुए थे। अगले पांच-सात दिनों में वे अपनी पार्टी के लिए जितनी मेहनत संभव है करेंगे ही, लेकिन भाजपा ने स्टार प्रचारकों की जो फौज उतारी है वह नाकाम हो रही है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण व्यापारी वर्ग त्रस्त है। टिकट वितरण में भी व्यापारी समाज से नए चेहरों को सामने न लाने की नाराजगी ही दिखाई दे रही है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो कुछेक ''सै'' प्रत्याशी आराम फरमा रहे हैं; कहीं-कहीं तीसरी ताकत की चुनौती है; कुछ अभी से खुद को मुख्यमंत्री मान बैठे हैं। ऐसे में सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि भाजपा कितनी दक्षतापूर्वक इलेक्शन मैनेजमेंट कर पाती है!
 देशबंधु में 15 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Friday, 9 November 2018

चुनावी हार को जीत में बदलने की तरकीबें

   
                              
इतना तो तय है कि जब भी चुनाव होंगे, किसी एक उम्मीदवार की जीत होगी और बाकी जितने, एक या अधिक, हों, हार का सामना करेंगे। अधिकतर अवसरों पर मतदाता जिसके पक्ष में राय बना लेते हैं, वही प्रत्याशी या दल जीतता है। लेकिन देखने में ऐसा आता है कि जीतते-जीतते कोई प्रत्याशी हार जाता है और मतदाता अविश्वास से सिर हिलाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। लंबे समय से राजनैतिक शब्दावली में ''इलेक्शन मैनेजमेंट'' के नाम की शै चलन में है, यह जीतना-हारना उसी का परिणाम है। इलेक्शन मैनेजमेंट यानी चुनाव प्रबंध के मुख्यत: तीन अंग या सोपान हैं- टिकिट मिलने तक पहला ; चुनाव संपन्न होने तक दूसरा; और मतगणना के समय या उसके भी बाद तक तीसरा चरण। इन सभी चरणों में हारी हुई बाजी को जीत में बदलने के अनेकानेक उदाहरण हमने देखे हैं। हाल के समय में इस प्रबंध कौशल को एक आदर्श अनिवार्यता का दर्जा हासिल हो गया है। इसकी विवेचना करने के पूर्व नब्बे के दशक की एक सत्यकथा को फिर से जान लेते हैं।
तत्कालीन मध्यप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर कांटे की टक्कर थी। एक तरफ एक पार्टी के सचमुच दिग्गज कहे जा सकने वाले नेता थे, उनके सामने एक अपेक्षाकृत युवा किंतु अनुभवी उम्मीदवार था। युवा प्रत्याशी के जीतने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन अंतत: वह लगभग एक हजार वोट से हार गया। निर्वाचन अधिकारी याने जिला कलेक्टर ने मतगणना के दौरान उसके खाते के कोई दस हजार वोट थोड़े-थोड़े कर दस-बारह निर्दलीय प्रत्याशियों के खाते में दर्ज करवा दिए और इस चाल को समझने में प्रत्याशी ने चूक कर दी। पुर्नमतगणना की मांग भी नहीं की।  इस तरह चुनाव अधिकारी के सहयोग से दिग्गज नेता ले-देकर जीत गए। इस पुरस्कारोचित सहयोग भावना का उन्नत स्वरूप अभी देखने मिला, जब एक राज्य में निर्वाचन अधिकारी ने निवर्तमान मुख्यमंत्री का नामांकन पत्र निरस्त कर दिया। आशय यह कि नामांकन दाखिले से लेकर नतीजा आने के बीच कुछ भी हो सकता है। कहावत है न- देयर आर मैनी स्लिप्स, बिटवीन द कप एंड द लिप्स। 
हाथ में चाय का प्याला है, लेकिन ओठों तक पहुंचते-पहुंचते किसी का धक्का लग सकता है, हाथ कांप सकते हैं, चाय छलक सकती है। आवश्यकता सावधान रहने की है। पांच साल पहिले की ही तो बात है। एक प्रमुख दल के प्रत्याशी ने नाम वापिसी के आखिरी क्षण में अपना नाम वापिस लेकर विपक्षी उम्मीदवार को वाक ओवर दे दिया था। ऐसे प्रकरण भी तो हैं जब ऐन मौके पर बी-फार्म किसी और को दे दिया गया हो। इसके आगे बढ़ें तो सुनने मिलता है कि साधन-संपन्न प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वी को अच्छी खासी रकम पहुंचा देते हैं कि तुम घर में मौज करो, इस धन से अपनी जिंदगी संवारो; और जिनका चुनाव में उतरने का मकसद ही धन कमाना होता है, वे खुशी-खुशी ऑफर स्वीकार लेते हैं। कोई-कोई प्रत्याशी तो इसलिए भी जीती बाजी हार जाते हैं कि चुनावी खर्च के लिए पार्टी से जो धनराशि मिलती है, उसका इस्तेमाल करने के बजाय भविष्य की सुरक्षा के लिए एफडीआर में निवेश कर देते हैं। काश कि फलाने ने यह बुद्धिमता (!) न दिखाई होती! 
जाहिर है कि नामांकन के बाद चुनाव प्रचार के दौरान भी ऐसे खेल चलते रहते हैं। जो पैराशूट प्रत्याशी होते हैं, वे तो अपने कार्यकर्ताओं को भी ठीक से नहीं पहचानते। विरोधी खेमे का कौन जासूस आपके दरबार में हाज़िरी लगा रहा है, यहां की खबरें वहां पहुंचा रहा है, इसका भेद जब खुलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वैसे तो आचार संहिता के अनुसार मतदाता को किसी भी तरह का प्रलोभन नहीं दिया जा सकता, किंतु इसका पालन वही करता है, जिसके पास राजनैतिक अनुभव की कमी है। जिन पर आचार संहिता लागू करवाने का दायित्व है, वे भी तो आखिर इंसान हैं, और ऐसे प्रकरणों की कमी नहीं है, जब वे दबाव या प्रलोभन के सामने झुक गए हों। एक तरफ अनुभवी उम्मीदवार खैरातें बांटते घूम रहे होते हैं, तो दूसरी ओर कच्चे उम्मीदवार मतदाताओं तक अपनी पर्चियां भी नहीं पहुंचा पाते। 
और मतदान के दिन क्या होता है? पोलिंग बूथ के भीतर पार्टी का एजेंट यदि परिपक्व न हुआ तो उसे बहकाना बहुत आसान होता है। वह यदि अपने मतदाताओं को नहीं पहचानता तो सामने वाला किसी का वोट किसी के नाम से डलवा देता है। फिर शिकायत करते रहिए फर्जी मतदान की। कुछेक गुणी नेताओं के बारे में तो कहा जाता है कि वे पड़ोसी प्रदेशों से लोगों को बुलाकर पांच-सात हजार फर्जी वोट डलता देते हैं। इनसे भी शायद एक कदम आगे वे चतुर नेता हैं जो मतदान की पूर्व रात्रि पर खैरात बांटने के साथ-साथ कहीं से जुगाड़ कर अमिट स्याही भी लगा देते हैं कि बंदा अगली सुबह वोट डालने ही न जा पाए। एक ही नाम के पांच-दस निर्दलीय उम्मीदवारों को मैदान में उतार भ्रम  पैदा करना भी इस चतुर नीति का ही एक और उदाहरण है। ऐसे तमाम नेतागण हमारे लिए प्रणम्य हैं। आखिरकार, चुनाव जीतने को इन्होंने एक खूबसूरत कला में परिवर्तित जो कर दिया है।
चुनाव के दौरान अपने पक्ष में माहौल तो बनाना ही पड़ता है। यह काम भी अब सीधे-सादे तरीके से कोई नहीं करता। अनेक चतुर सुजान अपने दूतों को विरोधी पक्ष के मतदाताओं के पास पठाते हैं। वे जाकर बताते हैं कि उनकी तो हार हो रही है, भैयाजी या नेताजी बात ही नहीं सुनते, इत्यादि। इससे सामने वाले के गफलत में पड़ जाने की संभावना बन जाती है। जब उनके ही लोग हार मान बैठे हैं तो हमें कुछ करने की क्या जरूरत है? हमें तो जनता खुद ही जिता रही है। बस, इसी खुशफहमी में पत्ता साफ। यह तो एक तरकीब है। इससे बढ़कर महीन तरकीब चुनाव पूर्व सर्वे के इस्तेमाल की है। पहले किसी पार्टी या प्रत्याशी की जीत का अनुमान पेश करो, फिर कुछ दिन बाद उस के हारने का अनुमान घोषित कर दो। प्रत्याशी का और उसके पक्षधर मतदाताओं का मनोबल तोड़ने, उन्हें हतोत्साह करने की यह तरकीब कई बार सफलतापूर्वक आजमाई गई है। राजनैतिक दल इन सर्वे करने वालों और उन्हें प्रकाशित-प्रचारित करने वालों का ऐहसान चुकाने में कोई कमी नहीं रखते।
आप सोच रहे होंगे कि ईवीएम का मुद्दा अभी तक क्यों नहीं उठा। इस बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है, यद्यपि व्यापक जनभावना बन चुकी है कि ईवीएम में धांधली होती है। सवाल यह है कि क्या पुरानी मतदाता पर्ची वाली प्रक्रिया दोषरहित थी? वोटरों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर निर्धारित अवधि में मतदान सुचारु संपन्न करा पाना आज एक असंभव कार्य प्रतीत होता है। फिर मतपेटियों की लूट, मतगणना के दौरान टेबुलेशन चार्ट में हेराफेरी आदि गड़बड़ियां नए सिरे से लौट सकती हैं। इसलिए यही शायद बेहतर होगा कि ईवीएम से ही वोट डाले जाएं और उसमें कोई धांधली न हो पाए, इस ओर उम्मीदवार व उनकी पार्टियां पर्याप्त सतर्कता बरतें।
सभी को इस ओर भी सतर्क रहना चाहिए कि जीती हुई बाजी येन-केन-प्रकारेण हार में तब्दील न हो जाए। जिनके सिर पर सत्ता का नशा चढ़कर नाच रहा है, उनके लिए नैतिक-अनैतिक का फर्क मायने नहीं रखता, किंतु आम मतदाता के  लिए तो चुनाव लोकतंत्र का एक पवित्र पर्व है। इसमें जीत या हार नहीं, बल्कि दोनों ही स्थितियों में लोक कल्याण के लिए काम करने की प्रतिबद्धता ही मायने रखती है। मतदाताओं की खरीद-फरोख्त से लेकर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की नीलामी, दल-बदल, मंत्री पद का झुनझुना- ये सब घृणित कार्य हैं। अगर जनता सतर्कता नहीं बरतेगी तो इस देश में फासीवाद आने से कोई नहीं रोक सकता।
देशबंधु में 10 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Sunday, 4 November 2018

'रोशनी का घोषणापत्र'

                                        

 "समय करीब है
जब हर पौधा पेड़ बनेगा
तब हर मां गहरी नींद सोएगी
और उसके जवान बेटे
खेत पर बने मचानों पर
अकाल के जाल को
मिट्टी-सने हाथों से काटेंगे
भूख की यह खिड़की
अब बार-बार नहीं खुलेगी
छीन ली जाएगी
उस हर तथाकथित आदमी से
सज्जनता की वर्दी
जो हर सच्चे शब्द की गर्दन काट लेता है
नहीं गल सकेगी दाल
अब निकम्मे अर्थशास्त्र की
क्योंकि यहां से वहां तक 
अंधेरे की हर पीठ पर
रोशनी का घोषणा-पत्र
चिपकाया जा चुका है।''
उपरोक्त पंक्तियां नारायणलाल परमार की लंबी कविता 'रोशन हाथों की दस्तक है' से ली गई है जो उनके इसी नाम से प्रकाशित संकलन की पहली कविता है। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इसे 1980 प्रकाशित किया था। अस्तु,
पिछले सप्ताह इस कॉलम में ''मेरा चुनावी घोषणापत्र'' छपा था। मैं उसी को आगे बढ़ाते हुए इस सप्ताह अनेक नए बिन्दुओं को जोड़ना चाहता था। लेकिन जब दीपावली का त्योहार आ गया हो तब यह समयोचित है कि चुनावी घोषणापत्र के बजाय रोशनी के घोषणापत्र पर बात की जाए। वैसे दोनों में बुनियादी तौर पर कोई अंतर नहीं है। आम चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है तथा घोषणापत्र एक तरह से संविधान में निहित शाश्वत मूल्यों, मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के प्रति राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता को ही दोहराते हैं।
संविधान  समतामूलक, न्याय आधारित, मानवीय गरिमा से भरपूर, सुखी, शांतिमय, सुरक्षित भविष्य के प्रति वचनबद्धता को प्रतिबिंबित करता है। हमने जो एक सौ नब्बे साल की गुलामी झेली, अकाल, भुखमरी, गरीबी, फूट डालो और राज करो, अशिक्षा, बीमारी आदि का सामना किया, उस अंधकार से निकलकर खुली हवा और रोशनी में जी सकने की गारंटी का ही तो दूसरा नाम संविधान है। यह अवश्य है कि राजनीतिक ताकतें सर्वशक्तिमान होने के अहंकार में डूबकर इस गारंटी का तिरस्कार जब-तब करती हैं। ऐसे में सत्ताधारियों को याद दिलाने के लिए कवि की वाणी मुखरित होती है कि वह आम जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को भूलने का अपराध न करें। "रोशनी का घोषणापत्र" महज कविता नहीं है। वह सत्ताधीशों को उनके प्रमाद के विरुद्ध एक चेतावनी है।
कवि ने तो अपनी बात कह दी। हमारा दायित्व है कि सही संदर्भों में उसकी परिभाषा करें। मैं यहां से बात शुरू करना चाहूंगा कि दुनिया की आधी आबादी जब तक अंधेरे की कैद में रहेगी तब तक एक रोशन दुनिया की कल्पना साकार नहीं हो सकती। हमारे देश में स्त्री जाति की जो स्थिति है वह किसी से छिपी नहीं है। कहने के लिए कानून तो बहुत बन गए हैं और यही नहीं, कानूनों को कठोर से कठोरतम बनाने की मांग भी हमेशा उठती रहती है; लेकिन जब तक समाज के नज़रिए में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होगा तब तक कानून बेमानी रहे आएंगे। प्रश्न उठता है कि समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिए क्या सचमुच आवश्यक परिवर्तन किए जा रहे हैं; क्या उनमें तकनीकी विकास के चलते आ रहे सामाजिक बदलावों का ध्यान रखा जा रहा है; क्या देश के राजनीतिक दल गौर करेंगे कि घिसी-पिटी युक्तियों से बात नहीं बनेगी।
मैं देखता हूं कि मूल रूप में मातृसत्तात्मक रहे आदिवासी समाजों में भी पितृसत्ता की पकड़ मजबूत हो रही है। यह चिंताजनक है। ध्यान देना होगा कि बचपन से स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के भाव को बढ़ाया जाए, पुरुष वर्चस्व को नकारा जाए, लड़के-लड़की दोनों का लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा इत्यादि में भेद न किया जाए, उन्हें एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाया जाए। हमारी स्कूली किताबें भेदभाव को बढ़ाती हैं। विशेषज्ञ इनका परीक्षण करें और वर्चस्ववाद के बजाय नर-नारी समता का संदेश देने वाले पाठ पुस्तकों में रखें जाएं। सिनेमा और टीवी में आदर्श भारतीय नारी की जो कपोल-कल्पित छवि बना दी गई है उसे तोड़ा जाए। मैं यहां तक कहूंगा कि लड़के के लिए बंदूक और लड़की के लिए गुड़िया जैसे खिलौने की मानसिकता का भी त्याग किया जाए। इस सबके लिए राजनीतिक दलों को पूर्वाग्रह त्यागकर नई सामाजिक नीति बनानी होगी।
हाल के वर्षों में हुई तकनीकी प्रगति के चलते संचार माध्यमों ने स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर विकृतियां फैलाने का काम बड़े स्तर पर किया है। मैंने पहले भी लिखा है कि महान दार्शनिक प्लूटो ने होमर रचित महाकाव्यों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी क्योंकि उसका किशोर मन पर दुष्प्रभाव पड़ता है। आज हम उस सीमा तक नहीं जाएंगे, लेकिन सोशल मीडिया का जो दुरुपयोग हो रहा है वह वीभत्स और भयानक रूप से चिंताजनक है। कल्याणकारी शासन की जवाबदेही बनती है कि वह पोर्नोग्राफी पर रोक लगाए ताकि दुर्बल मन विकृति का शिकार होने से बच सकें। पश्चिम में बहुत कुछ अच्छा है, लेकिन हम उनकी हर चीज आंख मूंदकर  नहीं ले सकते। दूसरी ओर यह भी नहीं है कि हमारी  संस्कृति में सब कुछ अच्छा ही अच्छा है। अपनी सामाजिक संरचना की सड़ांध को दूर तो करना ही होगा।
रोशनी का घोषणापत्र लागू तभी होगा, जब समाज के कमजोर वर्गों के प्रति हमारी सोच सकारात्मक और सक्रिय सहानुभूति की होगी। यहां आंखें चुराने से काम नहीं चलेगा। आश्रम शालाएं, अनुसूचित जाति व जनजाति के छात्रावास, मलिन बस्तियां और अन्य स्थितियां चीख-चीख कर कहती हैं कि आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक- इनके प्रति हमारा रवैया अमानवीय और अन्यायपूर्ण है। कामकाजी, मेहनतकश समाज के प्रति हमारा रवैया तिरस्कारपूर्ण और अपमानजनक होता है। कोऑपरेटिव सोसायटियां मृतप्राय हैं। अब जो कालोनियां बस रही हैं उनमें यह वर्गविभेद तुरंत दिखाई दे जाता है। राजनीतिक शक्तियों का दायित्व बनता है कि वे सामाजिक विभेद को खत्म करने के लिए समुचित नीतियां व कार्यक्रम बनाएं।
यहां पर मीडिया के बारे में भी कुछ कहना आवश्यक लगता है। शासक वर्ग की सोच बन गई है कि मीडिया उसकी जी हुजूरी करता रहे। अगर स्वस्थ, तटस्थ, निष्पक्ष मीडिया नहीं होगा तो सत्ता  की चकाचौंध में खोए शासकों को पता ही नहीं चलेगा कि आम जनता किस अंधेरे में जी रही है। दुर्भाग्य से आजकल नीतिगत आलोचना को भी निजी आलोचना मान लिया जाता है। अधिकतर राजनेता उतना ही जानते हैं जो उन्हें उनके अफसर और चाटुकार बताते हैं। अगर कहा जाए कि सत्तावर्ग में सूरज का सामना करने की ताब नहीं है, तो गलत नहीं होगा।  लेकिन  इसमें अंतत: नुकसान सत्ताधीशों को ही होना है। अगर अभी भी कहीं थोड़ी समझदारी की उम्मीद बची हो तो हम कहेंगे कि मीडिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष रहकर काम करने की गारंटी मिले। सुरक्षा की गारंटी तो उतनी ही चाहिए जितनी आम जनता को उपलब्ध है।
बातें अभी भी पूरी नहीं हुई है, लेकिन उन पर फिर कभी। 
देशबंधु में 05 नवंबर 2018 को प्रकाशित