मई 1976 का कोई दिन। तारीख याद नहीं। भोपाल बस स्टैण्ड। विदिशा जाने वाली बस में कुछ सवारियां बैठ चुकी थीं। कुछ यात्री मोटर चालू होने के इंतजार में बाहर खड़े थे। बस पर सामान चढ़ रहा था। उसमें तरबूज का एक भारी-भरकम पिटारा भी था। एक व्यक्ति नीचे से तरबूज ऊपर फेंक रहा था और बस की छत पर चढ़ा उसका साथी लपक रहा था। इस बीच एक मजेदार वाकया हुआ। कोई चालीस साल का औसत कद-काठी का व्यक्ति देखते ही देखते छत पर चढ़ गया और उसने नीचे से आ रहे तरबूजों को बड़ी कुशलता से झेलकर ऊपर के पिटारे में रखना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति के नीचे जो साथी थे वे इस खेल को देखकर कुछ हैरान से थे लेकिन अपने साथी के करतब पर प्रशंसा भाव भी उनकी आंखों से झलक रहा था। ये सभी लोग छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों के लेखक मित्र थे जो मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ऐतिहासिक विदिशा अधिवेशन में भाग लेने जा रहे थे। उनके ये बिंदास साथी थे- डॉ. हरिशंकर शुक्ल, दुर्गा महाविद्यालय रायपुर में हिन्दी के प्राध्यापक और इलाहाबाद वि.वि. में तैराकी के स्वर्ण पदक विजेता होने के साथ अनेक खेलों के ब्लेजरधारी।
डॉ. हरिशंकर शुक्ल की ख्याति एक लोकप्रिय और विद्वान अध्यापक की थी, किन्तु उनके खिलाड़ी रूप से साथी लोग अपरिचित ही थे। उनके स्वभाव में एक संकोच सा था जो उन्हें आत्मप्रचार करने से रोकता था। यहां तक कि अपने लिखे उपन्यासों और गीतों की चर्चा भी वे नहीं करते थे। वे एक ऐसे शिक्षक थे जो नए-पुराने नोट्स देखकर नहीं बल्कि दिल से पढ़ाते थे। उन्हें क्लासिक से लेकर आधुनिक कवियों तक की सैकड़ों कविताएं कंठस्थ थीं। निराला की 'राम की शक्ति पूजा' जैसी कठिन और लंबी कविता भी उन्हें कंठस्थ थीं जिसे वे पूरे आरोह-अवरोह के साथ सुनाते थे। कविता हो या कहानी या उपन्यास, व्याख्या करने के लिए उन्हें किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती थी। इसकी प्रमुख वजह शायद यह थी कि वे एक अत्यन्त अध्ययनशील व्यक्ति थे। मैं अगर कहूं कि वे ज्ञानपिपासु थे तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।
डॉ. हरिशंकर शुक्ल को किताबों से बेपनाह मोहब्बत थी। उस समय निजी म.वि. के सीमित वेतन और बाद में सीमित पेंशन से यथासंभव वे पुस्तकें खरीदा करते थे। उन्होंने बहुत सुचारु ढंग से अपनी निजी लाइब्रेरी बना ली थी। हर किताब पर पढ़ने के पहले वे कवर चढ़ाते थे और उन्हें पता होता था कि किस अलमारी में कौन सी किताब कहां रखी है। पुस्तक संचय का यह शौक उन्हें अंतत: बना रहा। मुझे जितना मालूम है परीक्षा कार्य से उन्हें जो भी आय होती थी उसे पूरा का पूरा वे पुस्तक खरीदने में लगा देते थे। वे अन्य पुस्तक-प्रेमी मित्रों से पुस्तकें उधार लेकर भी पढ़ते थे, लेकिन उनकी बड़ी खूबी थी कि पढ़ने के बाद नियमत: उसे लौटा देते थे। उनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर पत्नी उनका पहला प्रेम थीं तो पुस्तकें दूसरा। इसके अलावा वे हिन्दी की तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं भी खरीद कर पढ़ते थे और इस तरह हिन्दी साहित्य की नवीनतम प्रवृत्तियों से खुद को परिचित रखते थे।
मैं जब 1964 में एम.ए. करने के लिए रायपुर लौटा तब कुछ ही दिनों के भीतर जिन लोगों से मेरा परिचय हो गया था उनमें हरि ठाकुर, नरेन्द्र देव वर्मा, प्रभाकर चौबे, जमालुद्दीन आदि के अलावा डॉ. हरिशंकर शुक्ल भी थे। इन सबसे मेरा परिचय दा याने राजनारायण मिश्र ने कराया था। मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. करना चाहता था। डॉ. शुक्ल ने सलाह दी- हिन्दी में तुम्हारे डिस्टिंक्शन मार्क (75 प्रतिशत से ऊपर) हैं तो तुम्हें हिन्दी में एम.ए. करना चाहिए। मैंने पूछा- पढ़ाएगा कौन? उनका उत्तर था- हम पढ़ाएंगे। मैंने प्रत्युत्तर में कहा- तब तो आपको शुक्लाजी कहने के बजाय गुरुजी कहना पड़ेगा। उन्होंने जवाब दिया- हां, ठीक है। हम तुम्हारे गुरुजी हो जाएंगे। मैंने उन्हें कभी सर कहकर संबोधित नहीं किया। वे धीरे-धीरे मेरे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के तमाम साहित्यिक मित्रों के बीच गुरुजी के नाम से ही लोकप्रिय हो गए।
गुरुजी से मित्रता तो 1964 के ग्रीष्मावकाश में साथ-साथ ताश खेलने के साथ हुई थी। लेकिन फिर वे मेरे अध्यापक बन गए। कई मायनों में मार्गदर्शक रहे। हम पारिवारिक मित्र तो क्या, एक-दूसरे के परिवार के सदस्य ही बन गए और प्रदेश की साहित्यिक व सामाजिक गतिविधियों में हम लोगों ने मिलकर बरसों काम किया और देश-प्रदेश की अनेक यात्राओं में हम सहयात्री भी रहे। मैंने हिन्दी साहित्य में एम.ए. तो उनकी प्रेरणा से किया ही, दो अन्य मौकों पर उनका मार्गदर्शन बेहद कीमती साबित हुआ। मैंने एम.ए. करने के बाद पीएचडी करने की ठानी। पंजीयन करवा लिया। कुलपति डॉ. बाबूराम सक्सेना ने साक्षात्कार भी ले लिया, लेकिन गुरुजी ने यह कहकर मुझे रोक दिया कि तुम्हें अखबार के काम में बाबूजी का हाथ बंटाना चाहिए। कुछ समय बाद मन में आई.ए.एस. बनने की लहर उठी। तब भी गुरुजी ने बड़े भाई के अधिकार से मुझे रोक दिया। आज मैं यदि पत्रकारिता में कहीं हूं तो गुरुजी की समयोचित प्रेरणा भी इसका एक कारण है।
1974-75 में जब राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ पुनर्जीवित हुआ तो प्रारंभ में छत्तीसगढ़ में हम चार साथियों ने उसका बीड़ा उठाया था- प्रभाकर चौबे, डॉ. हरिशंकर शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल और ललित सुरजन। आगे चलकर मलय, राजेश्वर सक्सेना और रमाकांत श्रीवास्तव भी साथ में जुड़ गए थे। हमने 4-5-6 मार्च 1978 को चंपारण में प्रलेस का पहला रचना शिविर आयोजित किया था। इसे लेकर हम सबके मन में बहुत उत्साह था। इस अवसर पर हमने चंपारण घोषणापत्र जारी करने के बारे में सोचा और उसका मसौदा तैयार करने का दायित्व डॉ. हरिशंकर शुक्ल को सौंपा गया। उन्होंने घोषणापत्र तैयार किया। उस पर पन्द्रह दिन तक हम चार लोगों ने बैठकर लगातार चर्चा की और 4 मार्च 1978 की सुबह शिविर के प्रारंभ में उसे जारी किया गया।
गुरुजी प्रगतिशील लेखक संघ से तो जुड़े ही रहे। रायपुर में इप्टा के गठन और आगे की गतिविधियों में भी उन्होंने लंबे समय तक दिलचस्पी ली। वे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी रायपुर आने के बाद से ही जुड़े रहे और सम्मेलन के विभिन्न कार्यक्रमों में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। मुझे जहां तक पता है, वे सम्मेलन के एक समय महामंत्री रहे ठाकुर हरिहर बख्श सिंह हरीश के मार्गदर्शन में संचालित, हिन्दी साहित्य मंडल की गोष्ठियों में नियमित भाग लेते थे। बहरहाल, नया राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संरक्षक सदस्य बने और इसके लिए आवश्यक राशि भी उन्होंने अपने मन से दी। यह सम्मेलन और साहित्य से उनके आत्मिक जुड़ाव का ही उदाहरण था।
1985 में जब भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के रायपुर अध्याय की स्थापना हुई, तो वे उसके भी सदस्य बने। इतिहास और पुरातत्व में उनकी बेहद रुचि थी। विगत पचास वर्षों में वे भारत-सोवियत मैत्री संघ (इस्कस) अखिल भारतीय शांति और एकजुटता संघ (एप्सो) में भी सक्रिय रहे। जब तक उनका स्वास्थ्य साथ देता रहा वे इन प्रगतिशील संस्थाओं के कार्यक्रमों में भागीदारी निभाते रहे। गुरुजी के बारे में लिखने के लिए बहुत कुछ है। वे जहां मैदान के खिलाड़ी थे वहीं इंडोर गेम्स में भी उन्हें महारत हासिल थी। शतरंज, ताश, चाइनीज़ चेकर जैसे खेलों में मैंने उन्हें कभी हारते नहीं देखा। उनका व्यक्तित्व निर्मल और पारदर्शी था। संतोष, संतुलन और संयम उनके जीवन के अमूल्य मंत्र जैसे थे। उनका छोटा सा परिवार था, जिसमें हमारी भौजी श्रीमती मनोरमा शुक्ल और दोनों बेटियां पारमिता और संगीता ने सुख-शांतिमय बनाए रखने में अपनी भूमिका अच्छे से निभाई। 13 नवम्बर 2018 को गुरुजी के जाने के बाद छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिवेश में और मेरे अपने जीवन में सूनापन कुछ और बढ़ गया है। लेकिन मुझे विश्वास है कि गुरुजी ने स्वर्गलोक पहुंचकर देवताओं को चाइनीज़ चेकर सिखाना प्रारंभ कर दिया होगा।
देशबंधु में 22 नवंबर 2018 को प्रकाशित
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