इतना तो तय है कि जब भी चुनाव होंगे, किसी एक उम्मीदवार की जीत होगी और बाकी जितने, एक या अधिक, हों, हार का सामना करेंगे। अधिकतर अवसरों पर मतदाता जिसके पक्ष में राय बना लेते हैं, वही प्रत्याशी या दल जीतता है। लेकिन देखने में ऐसा आता है कि जीतते-जीतते कोई प्रत्याशी हार जाता है और मतदाता अविश्वास से सिर हिलाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। लंबे समय से राजनैतिक शब्दावली में ''इलेक्शन मैनेजमेंट'' के नाम की शै चलन में है, यह जीतना-हारना उसी का परिणाम है। इलेक्शन मैनेजमेंट यानी चुनाव प्रबंध के मुख्यत: तीन अंग या सोपान हैं- टिकिट मिलने तक पहला ; चुनाव संपन्न होने तक दूसरा; और मतगणना के समय या उसके भी बाद तक तीसरा चरण। इन सभी चरणों में हारी हुई बाजी को जीत में बदलने के अनेकानेक उदाहरण हमने देखे हैं। हाल के समय में इस प्रबंध कौशल को एक आदर्श अनिवार्यता का दर्जा हासिल हो गया है। इसकी विवेचना करने के पूर्व नब्बे के दशक की एक सत्यकथा को फिर से जान लेते हैं।
तत्कालीन मध्यप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर कांटे की टक्कर थी। एक तरफ एक पार्टी के सचमुच दिग्गज कहे जा सकने वाले नेता थे, उनके सामने एक अपेक्षाकृत युवा किंतु अनुभवी उम्मीदवार था। युवा प्रत्याशी के जीतने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन अंतत: वह लगभग एक हजार वोट से हार गया। निर्वाचन अधिकारी याने जिला कलेक्टर ने मतगणना के दौरान उसके खाते के कोई दस हजार वोट थोड़े-थोड़े कर दस-बारह निर्दलीय प्रत्याशियों के खाते में दर्ज करवा दिए और इस चाल को समझने में प्रत्याशी ने चूक कर दी। पुर्नमतगणना की मांग भी नहीं की। इस तरह चुनाव अधिकारी के सहयोग से दिग्गज नेता ले-देकर जीत गए। इस पुरस्कारोचित सहयोग भावना का उन्नत स्वरूप अभी देखने मिला, जब एक राज्य में निर्वाचन अधिकारी ने निवर्तमान मुख्यमंत्री का नामांकन पत्र निरस्त कर दिया। आशय यह कि नामांकन दाखिले से लेकर नतीजा आने के बीच कुछ भी हो सकता है। कहावत है न- देयर आर मैनी स्लिप्स, बिटवीन द कप एंड द लिप्स।
हाथ में चाय का प्याला है, लेकिन ओठों तक पहुंचते-पहुंचते किसी का धक्का लग सकता है, हाथ कांप सकते हैं, चाय छलक सकती है। आवश्यकता सावधान रहने की है। पांच साल पहिले की ही तो बात है। एक प्रमुख दल के प्रत्याशी ने नाम वापिसी के आखिरी क्षण में अपना नाम वापिस लेकर विपक्षी उम्मीदवार को वाक ओवर दे दिया था। ऐसे प्रकरण भी तो हैं जब ऐन मौके पर बी-फार्म किसी और को दे दिया गया हो। इसके आगे बढ़ें तो सुनने मिलता है कि साधन-संपन्न प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वी को अच्छी खासी रकम पहुंचा देते हैं कि तुम घर में मौज करो, इस धन से अपनी जिंदगी संवारो; और जिनका चुनाव में उतरने का मकसद ही धन कमाना होता है, वे खुशी-खुशी ऑफर स्वीकार लेते हैं। कोई-कोई प्रत्याशी तो इसलिए भी जीती बाजी हार जाते हैं कि चुनावी खर्च के लिए पार्टी से जो धनराशि मिलती है, उसका इस्तेमाल करने के बजाय भविष्य की सुरक्षा के लिए एफडीआर में निवेश कर देते हैं। काश कि फलाने ने यह बुद्धिमता (!) न दिखाई होती!
जाहिर है कि नामांकन के बाद चुनाव प्रचार के दौरान भी ऐसे खेल चलते रहते हैं। जो पैराशूट प्रत्याशी होते हैं, वे तो अपने कार्यकर्ताओं को भी ठीक से नहीं पहचानते। विरोधी खेमे का कौन जासूस आपके दरबार में हाज़िरी लगा रहा है, यहां की खबरें वहां पहुंचा रहा है, इसका भेद जब खुलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वैसे तो आचार संहिता के अनुसार मतदाता को किसी भी तरह का प्रलोभन नहीं दिया जा सकता, किंतु इसका पालन वही करता है, जिसके पास राजनैतिक अनुभव की कमी है। जिन पर आचार संहिता लागू करवाने का दायित्व है, वे भी तो आखिर इंसान हैं, और ऐसे प्रकरणों की कमी नहीं है, जब वे दबाव या प्रलोभन के सामने झुक गए हों। एक तरफ अनुभवी उम्मीदवार खैरातें बांटते घूम रहे होते हैं, तो दूसरी ओर कच्चे उम्मीदवार मतदाताओं तक अपनी पर्चियां भी नहीं पहुंचा पाते।
और मतदान के दिन क्या होता है? पोलिंग बूथ के भीतर पार्टी का एजेंट यदि परिपक्व न हुआ तो उसे बहकाना बहुत आसान होता है। वह यदि अपने मतदाताओं को नहीं पहचानता तो सामने वाला किसी का वोट किसी के नाम से डलवा देता है। फिर शिकायत करते रहिए फर्जी मतदान की। कुछेक गुणी नेताओं के बारे में तो कहा जाता है कि वे पड़ोसी प्रदेशों से लोगों को बुलाकर पांच-सात हजार फर्जी वोट डलता देते हैं। इनसे भी शायद एक कदम आगे वे चतुर नेता हैं जो मतदान की पूर्व रात्रि पर खैरात बांटने के साथ-साथ कहीं से जुगाड़ कर अमिट स्याही भी लगा देते हैं कि बंदा अगली सुबह वोट डालने ही न जा पाए। एक ही नाम के पांच-दस निर्दलीय उम्मीदवारों को मैदान में उतार भ्रम पैदा करना भी इस चतुर नीति का ही एक और उदाहरण है। ऐसे तमाम नेतागण हमारे लिए प्रणम्य हैं। आखिरकार, चुनाव जीतने को इन्होंने एक खूबसूरत कला में परिवर्तित जो कर दिया है।
चुनाव के दौरान अपने पक्ष में माहौल तो बनाना ही पड़ता है। यह काम भी अब सीधे-सादे तरीके से कोई नहीं करता। अनेक चतुर सुजान अपने दूतों को विरोधी पक्ष के मतदाताओं के पास पठाते हैं। वे जाकर बताते हैं कि उनकी तो हार हो रही है, भैयाजी या नेताजी बात ही नहीं सुनते, इत्यादि। इससे सामने वाले के गफलत में पड़ जाने की संभावना बन जाती है। जब उनके ही लोग हार मान बैठे हैं तो हमें कुछ करने की क्या जरूरत है? हमें तो जनता खुद ही जिता रही है। बस, इसी खुशफहमी में पत्ता साफ। यह तो एक तरकीब है। इससे बढ़कर महीन तरकीब चुनाव पूर्व सर्वे के इस्तेमाल की है। पहले किसी पार्टी या प्रत्याशी की जीत का अनुमान पेश करो, फिर कुछ दिन बाद उस के हारने का अनुमान घोषित कर दो। प्रत्याशी का और उसके पक्षधर मतदाताओं का मनोबल तोड़ने, उन्हें हतोत्साह करने की यह तरकीब कई बार सफलतापूर्वक आजमाई गई है। राजनैतिक दल इन सर्वे करने वालों और उन्हें प्रकाशित-प्रचारित करने वालों का ऐहसान चुकाने में कोई कमी नहीं रखते।
आप सोच रहे होंगे कि ईवीएम का मुद्दा अभी तक क्यों नहीं उठा। इस बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है, यद्यपि व्यापक जनभावना बन चुकी है कि ईवीएम में धांधली होती है। सवाल यह है कि क्या पुरानी मतदाता पर्ची वाली प्रक्रिया दोषरहित थी? वोटरों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर निर्धारित अवधि में मतदान सुचारु संपन्न करा पाना आज एक असंभव कार्य प्रतीत होता है। फिर मतपेटियों की लूट, मतगणना के दौरान टेबुलेशन चार्ट में हेराफेरी आदि गड़बड़ियां नए सिरे से लौट सकती हैं। इसलिए यही शायद बेहतर होगा कि ईवीएम से ही वोट डाले जाएं और उसमें कोई धांधली न हो पाए, इस ओर उम्मीदवार व उनकी पार्टियां पर्याप्त सतर्कता बरतें।
सभी को इस ओर भी सतर्क रहना चाहिए कि जीती हुई बाजी येन-केन-प्रकारेण हार में तब्दील न हो जाए। जिनके सिर पर सत्ता का नशा चढ़कर नाच रहा है, उनके लिए नैतिक-अनैतिक का फर्क मायने नहीं रखता, किंतु आम मतदाता के लिए तो चुनाव लोकतंत्र का एक पवित्र पर्व है। इसमें जीत या हार नहीं, बल्कि दोनों ही स्थितियों में लोक कल्याण के लिए काम करने की प्रतिबद्धता ही मायने रखती है। मतदाताओं की खरीद-फरोख्त से लेकर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की नीलामी, दल-बदल, मंत्री पद का झुनझुना- ये सब घृणित कार्य हैं। अगर जनता सतर्कता नहीं बरतेगी तो इस देश में फासीवाद आने से कोई नहीं रोक सकता।
देशबंधु में 10 नवंबर 2018 को प्रकाशित
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